Books - कैसे करें कायाकल्प?
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कैसे करें कायाकल्प?
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(कल्पसत्र के दौरान १९८२ में दिया गया उद्बोधन)
गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! मनुष्य को दो दुःख है। एक दुःख का नाम ‘नरक’ है और दूसरे का नाम ‘बंधन’। इन दोनों चीजों से आदमी निकल जाए, तो सारे संसार में सुख- ही है। बंधन क्या है? बंधन वह है, जिसमें हम और आप जकड़ जाते हैं। कल्पना कीजिए उस पक्षी की, जो पिंजड़े में बंद किया हुआ है। जो कुछ आता या मिलता है, खा लेता है। दाना तो खा लेता है, लेकिन बंधन में जकड़ा हुआ होने की वजह से कुछ कर नहीं पाता। बंधन की वजह से न कहीं खुली हवा ले पाता है, न कहीं बादलों को देख पाता है। कुछ नहीं देख पाता, केवल छोटे- से पिंजड़े में दिन गुजारता रहता है।
बंधन से बँधा हुआ व्यक्ति कैसा होता है? जेलखाने के कैदी के बारे में आप जानते हैं न, वह चारों ओर से जकड़ा हुआ होता है। हाथ जिसके बँधे हुए हैं, पैर जिसके बँधे हुए हैं। गले में जिसके रस्सा पड़ा हुआ है। आजकल तो इतना नहीं होता है, लेकिन पुराने जमाने में जेलखाने में जो आदमी रखे जाते थे, उनके हाथों में हथकड़ियाँ हर समय पड़ी रहती थीं। वे कुछ कर नहीं सकते थे। पैरों में बेड़ियाँ पड़ी रहती हैं। गले में रस्सा पड़ा रहता था। बेचारा कुछ कर नहीं सकता था। जैसे घोड़े को अगाड़ी व पिछाड़ी लगाम लगा देते हैं, उसी तरह से कैदी को रहना पड़ता था। जो लोग उस जमाने में रहते थे, आप उनके दुःख की कल्पना कर सकते हैं कि तब मन को कितना मसोसना पड़ता होगा।
मित्रो, हमारी योग्यता, प्रतिभा, भगवान् का दिया हुआ संसार और हमारी क्षमता- इन सबका हम कुछ भी उपयोग नहीं कर पाते हैं। सब कुछ गड़बड़ा जाता है। तब क्या करना चाहिए? हमारे शास्त्रों में आदमी के लिए सबसे बड़ा पुरुषार्थ एक ही बताया गया है। वह क्या बताया गया है? वह है- बंधनों से मुक्ति’। बंधनों से अगर मुक्ति मिल जाए, तो आदमी कितना सुखी हो सकता है! मुक्ति का अर्थ लोग कुछ और तरह से समझते हैं। सायुज्य मुक्ति, सारूप्य मुक्ति, की कल्पना इस तरीके से लोगों ने अपने में बिठा रखी है कि भगवान् नाम का कोई व्यक्ति है। उसका एक बड़ा- सा कोई बैकुंठ नाम का गाँव है। इस गाँव में फालतू फंड के आदमी बैठे रहते हैं। भगवान् के समीप बस बैठे रहते हैं, न कुछ करते हैं और न करने देते हैं। बस उनके पास में सान्निध्य मुक्ति, सालोक्य मुक्ति के लोभ में रहते हैं। खाने- पीने की सब चीजें भरी पड़ी हैं। बस उसी में लगे रहते हैं। ये सालोक्य मुक्ति है, सारूप्य मुक्ति है। इसका रूप कैसा है? इसका रूप भगवान् जैसा है। भगवान् का रूप बहुत सुंदर है। हमारा भी रूप बहुत सुंदर हो गया है। खाने- पीने की सारी व्यवस्था सालोक्य में है। हम भी उसी में शामिल हो गए। सामीप्य में चौबीस घंटे बैठे रहे। क्या सुगंध आ रही है, पंखे झल रहे हैं, भगवान् जी के समीप। इस तरह की कल्पना मुक्ति के संबंध में लोगों ने कर रखी हैं। वास्तव में यह कल्पना बच्चों जैसी है। इससे क्या लाभ हो सकता है?
मुक्ति का माहात्म्य हर एक आध्यात्मिक शास्त्र ने सिखाया है और यह बताया है, सुनाया है कि जो आदमी मुक्ति के अधिकारी हो जाते हैं, वे जीवन में सफलता प्राप्त कर लेते हैं। जीवन- मुक्त और भगवान् की प्राप्ति समान अर्थों में ली गई है। जीवनमुक्त किसे कहते हैं? जीवन मुक्त उसे कहते हैं जिसका जीवन बंधनों से छूट गया, जो पिंजरे में से निकल गया, जो जेलखाने से छूट गया। जो बच्चा माँ के पेट में छोटे- से दायरे में बैठा रहता है, वह न हिल सकता है, न डुल सकता है, न बोल सकता है, न बात कर सकता है, न साँस ले सकता है। उसमें से जब डिलिवरी हो जाती है, जन्म हो जाता है, तब वह मुक्त हो जाता है। आप सांसारिक मुक्ति का अर्थ समझ गए होंगे न? अच्छा, अब उसकी बात सोचिए कि मोह से मुक्ति क्या है? बंधनों से मुक्ति क्या है?
बंधनों से मुक्ति यह है कि जिस तरीके से हमारी विचारणाएँ, भावनाएँ हैं और हमारी क्रियाशीलताएँ हैं, जिन बंधनों से जकड़ गई हैं, उन बंधनों को हम तोड़ डालें, छोड़ दें, तो हम जीवनमुक्त हो जाते हैं। असल में यही जीवनमुक्ति है। लोगों का जो ये ख्याल है कि स्वर्ग में जा करके मुक्ति मिलती है, व्यक्ति स्वर्ग में कहीं बैठा रहता है या भगवान् जी के मालगोदाम में कहीं जमा हो जाता है। बेटे! न कहीं भगवान् जी का मालगोदाम है और न कहीं आदमी बैठे रहते हैं। मुक्ति केवल जीवन में ही होती है। जीवनमुक्त आदमी होते हैं, जिनको ऋषि कहते हैं, तत्त्वदर्शी कहते हैं, जिनको मनीषी कहते हैं। मुक्ति केवल मानव जीवन में ही संभव है।
तो क्या करना चाहिए? यही तो मैं आपसे निवेदन कर रहा हूँ कि क्या करना चाहिए। आपको तीन बंधनों से छुटकारा पा लेना चाहिए। आप यहाँ शान्तिकुञ्ज में आए हुए हैं, कल्प साधना कर रहे हैं, उपासना कर रहे हैं, तो आपको क्या करना चाहिए? आपको तीन बंधनों से मुक्ति प्राप्त करनी चाहिए। आप कोशिश कीजिए कि तीनों बंधन तोड़ दें। अगर आप चाहें तो इन तीन बंधनों को तोड़ सकते हैं। मकड़ी जाला स्वयं बनाती है और उसमें स्वयं फँस जाती है और फँसने के बाद में जब उसका मन आता है कि जाला हमारे लिए नुकसानदायक है और जाले में हमको नहीं रहना चाहिए, तो वह क्या करती है कि सारे- के जालों को अपने मुँह में समेट लेती है और निगल जाती है तथा भाग खड़ी होती है।
मित्रो! यह हमारा बंधन भी, जो चारों ओर से हमको जकड़े हुए है, असल में किसी और बाहरी शक्ति की देन नहीं है। किसी बाहरी शक्ति में इतनी गुंजाइश और दम नहीं है कि वह आदमी को जकड़ सके। भगवान् के बेटों को भला कौन जकड़ सकता है? बंधनों में जकड़ने के लिए उसका अपना ही अज्ञान, अपनी ही बेवकूफी, अपने ही कुसंस्कार हैं। जिसने आपको जकड़ लिया है। वे कौन- कौन से बंधन हैं? उनमें से एक का नाम है- लोभ एक का नाम है- मोह और एक का नाम है- अहंकार ये तीन हमारे शत्रु हैं। गीता के तीसरे अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है-
काम एष क्रोध एष रजोगुण समुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम !! (गीता ३/३७ )
ये तीनों ही सबसे बड़े बंधन और बैरी हैं। अपने इन तीनों बैरियों से- रावण कुंभकरण और मेघनाद से अगर आप निपट लें, तो मजा आ जाएगा। अगर आप कंस, जरासंध आदि से निपट लें, तो मजा आ जाएगा। ये तीन आपके दुश्मन हैं। उन्होंने आपकी जिंदगी को कैसा भयानक बना दिया है? कैसा पिछड़ा बना दिया है? कितना अस्त- व्यस्त बना दिया है? अगर ये आपके जीवन को अस्त- व्यस्त न बनाएँ, तो आप अपने आप को देख सकते हैं कि आपके जीवन में कितना कायाकल्प हो सकता है और आप वर्तमान परिस्थितियों की तुलना में थोड़े दिनों में कहाँ- से पहुँच सकते हैं। आप इन दुश्मनों से आगाह हो जाइए और इन्हें तोड़ने के लिए कोशिश कीजिए।
लोभ क्या है और इसे किस तरीके से तोड़ा जाए? लोभ कहते हैं- अनावश्यक संग्रह को। लोभ यही है कि आदमी को गुजारे के लिए मुट्ठी भर चीजों की जरूरत है। मुट्ठी भर चीज चाहिए उसे। मुट्ठी भर से गुजारा हो जाता है। आदमी का पेट कितना छोटा होता है? भैंसे का पेट कितना बड़ा है? गधे का पेट कितना बड़ा है? घोड़े का पेट कितना बड़ा है? परंतु आदमी का पेट कितना छोटा है। जरा सा है। उसके लिए थोड़ा- सा चार मुट्ठी अनाज काफी होना चाहिए। लेकिन आदमी के लोभ को देखा है न आपने, वह कितना लालची, कितना संग्रही, कितना विलासी होता है। कितना जमा कर ले, चौबीसों घंटे जमा करने के लिए मरता, खपता और छटपटाता रहता है।
संसार में बहुत से नशे हैं, जिनकी लोगों को हविश हो जाती है। शराबियों को नशे की हवस हो जाती है और वह बार- बार शराब माँगता है। इसी तरीके से लालच एक शराब है। आदमी की जरूरत क्या है और कितनी है? कुछ भी नहीं। व्यर्थ में अपने अहंकार को बढ़ाने के लिए, अपनी औलाद को और अपने घरवालों को तबाह और बरबाद करने के लिए, पीछे कलह उत्पन्न करने के लिए और दुर्व्यसन पैदा करने के लिए केवल धन संग्रह करता रहता है। जिंदगी का सारे- का हिस्सा इसी में खर्च हो जाता है। आपको इस लालच में खर्च को छोड़ना पड़ेगा। आपको इस लोभ को छोड़ना पड़ेगा।
इसके लिए आपको क्या करना पड़ेगा? आप क्या करेंगे? आपको सादा जीवन और उच्च विचार के सिद्धांतों को स्वीकार करना पड़ेगा। ऊँचे विचार सिर्फ उस आदमी के पास आ सकते हैं, जो सादा जीवन जिए। सादा जीवन का मतलब ठाटबाट से नहीं है, वरन् इसका मतलब लोभ और लालच से है। आप लोभ और लालच अपने मन से निकाल दें और निर्वाह की बात सोचें, तो आप थोड़े- से घंटे मेहनत करने के बाद में अपना पेट बड़े मजे में भर सकते हैं। रही कुटुम्बियों की बात, तो कुटुंबियों की बात भी वैसी ही है, जिसको ‘मोह’ कहते हैं। लोभ का बढ़ा हुआ दायरा, जो कुटुंब तक फैल जाता है, उसका नाम ‘मोह’ है और जो अपने आप तक सीमित रहता है, धन तक सीमित रहता है, उसका नाम ‘लोभ’ है और जो कुटुंबियों तक फैल जाता है, उसका नाम मोह है।
कुटुंबियों के प्रति आपकी जिम्मेदारियाँ तो हैं, ये तो मैं नहीं कहता कि आपकी जिम्मेदारी नहीं है। जिम्मेदारी तो आपकी सबके प्रति है। आपकी जिम्मेदारी आपके शरीर के प्रति भी है, मस्तिष्क के प्रति भी है। जीवन के प्रति भी आपकी जिम्मेदारी है। भगवान् के प्रति भी आपकी जिम्मेदारी है। आपकी बहुत जिम्मेदारियाँ हैं। इन सभी जिम्मेदारियों को आप सहयोग से निभाइए। उसमें आपका कुटुंब भी शामिल है। कुटुंबियों के शामिल होने का मतलब यह नहीं है कि कौन कैसा है? उन सबका लालच आप पूरा करते हैं क्या? कुटुंबियों का लालच आप मत पूरा कीजिए। कुटुंबियों की अनावश्यक आवश्यकताओं को और अनावश्यक माँगों को आप मानने से इनकार कर दीजिए। तो आप क्या करेंगे? अगर वे माँगते हैं, तो भी नहीं और नहीं माँगते हैं, तो भी नहीं। जिस चीज की जरूरत है उसे दीजिए।
आपके कुटुंबियों को किसकी जरूरत है? आपके कुटुंबियों को तीन चीजों की जरूरत है। पहली जरूरत है शिक्षा। आपके कुटुंबियों को शिक्षित होना चाहिए। स्कूली शिक्षा की बात तो मैं नहीं कहता, पर मैं यह कहता हूँ कि स्कूली शिक्षा अगर आपके पास में न भी हो, तो भी जिसको शालीनता कहते हैं, सभ्यता कहते हैं, सज्जनता कहते हैं, वह तो होनी ही चाहिए। शिक्षा का मतलब सभ्यता, शालीनता और सज्जनता से है। आप अपने घरवालों को बनाइए। उनका व्यवहार ऐसा बनाइए, उनके सोचने का तरीका ऐसा बनाइए, जानकार बनाइए, शिक्षित बनाइए। अगर ये बना देते हैं, तब हम समझते हैं कि आपने अपने घरवालों को आजीविका से भी ज्यादा, जीवन बनाने से भी ज्यादा, रेशम के कपड़े बनाने से भी ज्यादा, सोने- चाँदी के जवाहरात बनाने से भी ज्यादा आपने उनकी मदद की। इसलिए आपको मोह की अपेक्षा शिक्षा में खर्च करना चाहिए।
मित्रो! शिक्षा के साथ- साथ में क्या करें? अपने हर कुटुंबी को स्वावलंबी बनाइए। किसी को परावलम्बी मत बनने दीजिए। आप अपनी पत्नी को स्वावलंबी बनाइए, गुड़िया मत बनाइए। उसको आप यह मत कहिए कि आपको पानी नहीं भरना है, खेती नहीं करनी है। आप खाना मत बनाइए। कपड़े आपके नौकरानी धोएगी। बस, आप पंखे के नीचे बैठे रहा करिए। ऐसा मत कीजिए। आप उसे स्वावलंबी होने दीजिए।
भगवान् न करे कभी ऐसा खराब दिन आ जाए जब आप न हों। भगवान् न करे कि ऐसा दिन आ जाए कि आपकी संपत्ति चली जाए। फिर आप क्या करेंगे? आपने तो अपनी स्त्री को घूँघट में रख करके अपाहिज बना दिया। उसे मेहनत नहीं करने दी, परिश्रम नहीं करने दिया। उपार्जन के लिए योग्य बनाया नहीं, क्षमता बढ़ाई नहीं। आज हर आदमी के अंदर उपार्जन की क्षमता उत्पन्न होनी चाहिए। आप अपने कुटुंबियों में से हर एक में उपार्जन की क्षमता उत्पन्न होने दीजिए, बढ़ने दीजिए। बच्चे जरा बड़े हो गए हैं, तो उनको हाथ बँटाने दीजिए, ताकि जो वे घर का अनाज खाते हैं, उस संस्था का जरा सहयोग तो करें। उन्हें कुट्टी कूटना सिखाइए, पानी भरना सिखाइए, शाक- वाटिका लगाना सिखाइए, कपड़े धोना सिखाइए, ताकि वे अपने घर की आर्थिक स्थिति में कुछ मदद कर सकें। आप उन्हें स्वावलंबी बनाइए, परिश्रमशील बनाइए।
साथियो! अगर आपने अपने घर- गृहस्थी वालों को स्वावलंबी नहीं बनाया है, तो यह आपका मोह है। अगर आप अपने घरवालों की अनावश्यक इच्छाओं को पूरा करने के लिए जेवर खरीदने से लेकर सिनेमा दिखाने तक अर्थात् वे चीजें जो उनके जीवन को विकसित करने के लिए आवश्यक नहीं हैं, केवल उनके मनोरंजन के लिए, उनकी हविश और जो बुरी आदतें हैं, उनको पूरा करने के लिए जो वे माँगते हैं, आप उसको पूरा कर देते हैं, तो वह आपका ‘मोह’ हो जाता है। इसके स्थान पर आप उन्हें संस्कारवान् बनाइए, सभ्य बनाइए, शिक्षित बनाइए, स्वावलंबी बनाइए, अगर आप ये तीनों काम करने के लिए जितनी मेहनत करते हैं, हम समझते हैं कि आप अपने कुटुंबियों के लिए कर्तव्यपालन कर रहे हैं।
अगर आप कुटुंबियों की हविश, कुटुंबियों की इच्छा और कुटुंबियों का दबाव इसलिए पूरा करते हैं कि कुटुंबी आपसे प्रसन्न रहेंगे और प्रसन्न रह करके बच्चे आपकी आज्ञा मानेंगे और औरत आपकी कामवासना की पूर्ति के लिए मदद करेगी, इसलिए आपको उन्हें प्रसन्न करना चाहिए, तो आप गलती करते हैं। आप किसी को मत प्रसन्न कीजिए। प्रसन्न करना है, तो अपनी आत्मा को प्रसन्न कीजिए, अपने परमात्मा को प्रसन्न कीजिए। इसके अलावा इस संसार में आप जितना ही लोगों को प्रसन्न करने की कोशिश करेंगे, उतना ही आप हैरान होंगे और उतने ही आप खाली हाथ रह जाएँगे। इसलिए लोभ और मोह के दो बंधनों से लालच मत कीजिए। समय पर अगर आप अपने दिमाग को खाली कर दें कि हमको गुजारे भर के लिए कमाना है, तो आपका दिमाग, आपकी स्कीम, आपकी योजनाएँ, आपका परिश्रम और पुरुषार्थ सब बच जाएगा। फिर उस बची हुई शक्ति को- क्षमता को आप उन कामों में लगा सकेंगे, जिससे आपकी आत्मा की उन्नति होती है और समाज के प्रति अपना कर्तव्यपालन होता है और भगवान् के आदर्शों का निर्वाह होता है। उससे कम में काम बनेगा नहीं।
आपका लालच चाहे पूरा हो या न होता हो, यह तो मैं नहीं कहता कि आप संपन्न हो गए हैं कि नहीं हो गए हैं, पर आप लालची मुझे जरूर मालूम पड़ते हैं। ऐसी स्थिति में आप संपन्न कैसे हो जाएँगे? अक्ल तो है नहीं, योग्यता तो है नहीं, विद्या तो है नहीं, पुरुषार्थ है नहीं, परिश्रम है नहीं, चांस है नहीं, पूँजी है नहीं, तो कैसे धनवान् हो जाएँगे? आप तो गरीब- के रहने वाले थे और गरीब ही रहने वाले हैं। क्योंकि आदमी को संपन्न बनाने के लिए तो अनेक साधन चाहिए। आपके पास तो कुछ भी साधन नहीं हैं, फिर संपन्न कैसे बनेंगे? परंतु अगर आपने लालच छोड़ दिया होता, तो आप इतने ही साधनों में कम- से समय में गुजारा कर सकते थे। लालच अभी जितना आपका समय खा जाता है, शक्ति खा जाता है, बुद्धि खा जाता है, उस सबको आपने बचा लिया होता। बचाने के बाद में वह काम कर लिया होता, जो असंख्य लोगों ने किया है, पारिवारिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए भी।
कबीर की भी शादी हो गई थी। जवाहरलाल नेहरू की भी शादी हो गई थी। गाँधी जी की भी शादी हो गई थी। शंकर भगवान् की भी शादी हो गई थी। रामचंद्र की भी शादी हो गई थी। हमारी भी शादी हो गई है। शादी होना और पेट भरना इतना बड़ा काम नहीं है कि जिसके लिए यह कहा जा सके कि हमारी सारी शक्ति और सारी बुद्धि, सारा परिश्रम और सारा पुरुषार्थ इसी में खर्च हो जाता है। वस्तुतः ये लोभ और मोह के व्यामोह के दो बंधन हैं, जो न आपकी अक्ल को चलने देते हैं, न परिश्रम को चलने देते हैं। आपका सारा परिश्रम लोभ के लिए विसर्जित हो गया, आपकी अक्ल और आपकी भावना मोह के लिए विसर्जित हो गई। लोभ के लिए आपका शारीरिक श्रम विसर्जित हो गया, मोह के लिए भावनाएँ एवं मानसिक क्षमता विसर्जित हो गई, तो फिर क्या रह गया आपके पास? तोड़िए न इन बंधनों को। आप यहाँ रह करके इस कल्प साधना में अपने आपको बदल दीजिए और लोभ एवं मोह के बंधनों से अपने आपको पीछे हटाइए।
मित्रो! मैं यह थोड़े ही कहता हूँ कि आपको पेट भरने के लिए गुजारा नहीं करना चाहिए। गुजारा करना एक बात है और लालच के लिए मरते- खपते रहना दूसरी बात है। आपको अपना कुटुंब सीमित रखना चाहिए, फिर आप क्यों बढ़ाते चले जाते हैं? किसने कहा था आपको रोज बच्चे पैदा करने के लिए? आप बिना बच्चों के जिंदा नहीं रह सकते क्या? कम बच्चों से आपका गुजारा नहीं हो सकता? आपके जो कम बच्चे हैं, उनको आप क्या पर्याप्त नहीं मान सकते? हमारा कहना मानिए अब बच्चे मत बढ़ाइए। जो बच्चे हैं, अगर उनकी क्वालिटी बढ़ाना चाहते हैं, तो आपको संख्या घटानी चाहिए। इससे आगे तो किसी भी हालत में आगे मत बढ़ाइए। तब आपका मोह कम हो जाएगा। फिर आप एक माली के तरीके से अपने गृहस्थ का पालन कर रहे होंगे। तब आप एक सदाचारी और संयमी के तरीके से अपना गुजारा कर रहे होंगे। इन दोनों तरीकों से आप गुजारा कर लेंगे, तो मजा आ जाएगा।
इनके अतिरिक्त आपको तीसरा एक और काम करना चाहिए। अहंकार को हटाना चाहिए। आप अपने अहंकार को भी हटाइए। आदमी अपना आत्मविज्ञापन करने के लिए, बड़ा आदमी बनने के लिए न जाने कितना ढंग और ढोंग बनाता रहता है। लिबास, फैशन, ठाटबाट ये सब अहंकार के लिए करता है। अहंकार के लिए- सब जगह से मेरी पदवी बढ़नी चाहिए, मेरे पास बढ़िया जेवर होना चाहिए, मुझको नेता बनना चाहिए, मुझे मंच मिलना चाहिए। अपने अहंकार की पूर्ति और बड़प्पन के लिए वह जाने क्या- क्या स्वाँग रचाता रहता है। अपने अतिरिक्त किसी और की उन्नति उसे सुहाती नहीं। ‘मैं’ और ‘मेरा’ बस यही उसके दो लक्ष्य बन जाते हैं। मित्रो! यह अहंकार बड़ा हानिकारक है। यह आपको ले डूबेगा।
गुरुजी! आप क्या कह रहे हैं? बेटे! मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि आपकी महत्त्वाकाँक्षाएँ नहीं बढ़नी चाहिए। आपकी महत्त्वाकाँक्षाएँ जरूर बढ़नी चाहिए परंतु अहंकार के नाम पर, लोगों के सामने अपनी चकाचौंध पैदा करने के नाम पर, लोगों के सामने बड़ा आदमी बनने के नाम पर अगर आप अपने अहंकार का पोषण कर रहे होंगे, तो गलती कर रहे हैं। इस अहंकार की दिशा मोड़ दीजिए। फिर किसमें लगाएँ? आप इस अहंकार को महानता की दिशा में लगाएँ कि हम महान् बनेंगे। आप महान् बनिए। यह विचार कीजिए कि दूसरों की तुलना में हमारे गुण, कर्म, स्वभाव अच्छे बनेंगे। आप ये विचार कीजिए न। क्या विचार करें? आप ये विचार कीजिए कि हमको महान् बनना है। दूसरों के सामने आपको अपनी निशानियाँ छोड़ जानी हैं, ताकि वे आपके बारे में सोचते रहें, विचार करते रहें कि देखो यह आदमी कितना शानदार था, कितना मनस्वी था, कितना धैर्यवान् था, कितना साहसी था। आप इसको बड़प्पन पर न्यौछावर कर सकते हैं।
संसार में जितने भी महान् आदमी हुए हैं, उन्होंने अपनी जिंदगी श्रेष्ठ कामों में लगा दी। वे लोगों के सामने उदाहरण छोड़कर चले गए। यही उनकी विरासत है। आप तो विरासत में क्या छोड़कर जाएँगे? बेटे के लिए मकान बनाकर जाएँगे। बेटे के लिए मकान जरूरी नहीं है। फिर क्या जरूरी है? आप बेटे के लिए यह विरासत छोड़कर जाइए, ताकि लोग यह कह सकें, कि यह किसका बच्चा है। उससे आपका सम्मान बढ़ेगा। न केवल अपने बच्चों के लिए, वरन् सारे समाज के लिए विरासत छोड़कर जाइए कि जिससे लोग यह कह सकें कि हमारे पूर्व पुरुष ऐसे थे, हमारे गाँव का निवासी ऐसा था। अमुक सज्जन ऐसा था। लोक- सम्मान अर्जित कीजिए न। आत्मसम्मान अर्जित कीजिए न। भगवान् का अनुग्रह अर्जित कीजिए न। आपको इसमें क्या दिक्कत पड़ती है? इसमें तो कोई दिक्कत नहीं पड़नी चाहिए।
ये ही तीन बंधन हैं, जिन्होंने आपकी तीन चीजों को खत्म कर दिया है। पहला- आत्मसंतोष जो आप पा सकते थे, उससे आप वंचित रह गए और उसे अब आप पा नहीं सकेंगे। क्यों? क्योंकि लोभ तो आपको कहाँ पाने देगा? लोभ तो आपको उचित और अनुचित काम करने के लिए लगाए रहेगा। लोभ आपको मेहनत करने के लिए लगाए रहेगा, कर्ज लेने के लिए लगाए रहेगा। लोभ आपको रिश्वत लेने के लिए मजबूर करता रहेगा। लोभ आपको बेईमानी करने के लिए मजबूर करता रहेगा। फिर आप किस तरीके से आत्मसंतोष पाएँगे? आत्म आपकी निरंतर जलती ही रहेगी, क्योंकि आपका लालच इतना बड़ा दुश्मन है, जिसको आप छोड़ नहीं पाएँगे, तो उसके बदले में आपको आत्मसंतोष गँवाना- ही है।
एक दूसरी और चीज है- लोक लोकसम्मान आप नहीं पा सकेंगे? क्यों? क्योंकि आपकी सारी शक्ति, सारा प्यार इन थोड़े- से आदमियों में केंद्रित हो गया है। आप अपनी औरत को ही सब कुछ समझ बैठे हैं। आप अपने बच्चों को ही सब कुछ समझ बैठे हैं। कहीं कोई समाज में भी रहता है क्या? कहीं कोई संस्कृति भी है क्या? कहीं कोई दीन- दुखियारे भी रहते हैं क्या? समाज के प्रति भी कुछ कर्तव्य और फर्ज है क्या? नहीं साहब! जो हमने कमाया था, चार बेटों में बराबर बाँट दिया। और पड़ोसियों को? और मोहल्ले वालों को? और लोगों को? और उन लोगों को, जिनके अहसान आपके ऊपर लदे हुए हैं। उनके लिए- जिन अध्यापक ने आपको पढ़ाया था और जो बेचारा आजकल भिखारी की तरह गुजारा कर रहा है। उसके प्रति भी कुछ फर्ज है आपका कि नहीं है? नहीं, साहब मैंने तो चार बेटों में बराबर बाँट दिया। ऐसा मत कीजिए। चार बेटों में बराबर मत बाँटिए। बच्चों को स्वावलंबी बनने दीजिए और जो कुछ भी आपकी संपत्ति है, उससे समाज को लाभ उठाने दीजिए। संस्कृति को लाभ उठाने दीजिए।
भाइयो! बहनो! अपने अहंकार का परिपोषण आप उस मायने में कीजिए कि हमको महापुरुष बनना है और हम महामानव बनते हैं। अपनी चाल- ढाल और चाल- चलन ऐसा शानदार बनाते हैं कि जिससे भगवान् का अनुग्रह भी हमको प्राप्त हो सके। अगर आप महानता की दिशा में नहीं जाएँगे, बड़प्पन की दिशा में जाएँगे, तो आपको लोभ, मोह और अहंकार इन तीन को पकड़ना पड़ेगा। इनके सहारे आपको नरक में गिरना पड़ेगा और बंधन में गिरना पड़ेगा। कदाचित् अगर आप एक कदम आगे बढ़ा दें और महानता की ओर चल पड़ें तब? तब आपको दूसरा काम करना पड़ेगा। तब फिर आपको औसत भारतीय की तरीके से सीमित में निर्वाह करना पड़ेगा। आपके सारे भाई जिस तरह का गुजारा करते हैं, आप क्यों नहीं कर सकते? क्या सारे बच्चों को अपना क्यों नहीं बना सकते। कितने बच्चे हैं, जो विद्या के अभाव में बैठे रहते हैं। आप अपने बच्चों को कीमती कपड़ा पहनाएँ और अमुक चीज छोड़कर मरें और पड़ोसियों के बच्चों के लिए आप किताब तक खरीद कर नहीं दे सकते? ईश्वरचंद्र विद्यासागर के तरीके से आप क्या ऐसे नहीं कर सकते कि अपने घर का पचास रुपए से गुजारा कर लें और बची हुई चार सौ पचास रुपए की नौकरी को पड़ोस के विद्यार्थियों के लिए खर्च कर दें। ऐसा आप नहीं कर पाएँगे क्या?
मित्रो! लोभ, मोह को आप छोड़ दीजिए। आप अहंकार की, बड़प्पन की, अमीरी की और दूसरों की आँखों में चकाचौंध पैदा करने की हवस को छोड़ दीजिए। इसके स्थान पर आप दूसरी हवस पैदा कीजिए कि हम महान् बनेंगे। दूसरों के सामने उदाहरण पेश करेंगे।
अपनी जिंदगी का नमूना पेश करेंगे और लोगों को अपने रास्ते पर चलने के लिए, पीछे चलने के लिए हम नया रास्ता बनाकर जाएँगे। ये महानता के रास्ते हैं। अगर आप महानता के रास्ते पर चल पड़ें, तो आपके जीवन की मुक्ति हो गई। जीवनमुक्त जैसे इसी जिंदगी में आनंद उठाते हैं। मजा उड़ाते हैं और सारे विश्व में पंख लगाकर स्वच्छंद उड़ते चले जाते हैं, जैसे कि पखेरू सारे विश्व में उड़ता हुआ चला जाता है। वह कैसा सुंदर दृश्य देखता है? कैसी सुहावनी छवि का लाभ उठाता है, आप भी ठीक वैसी छवि का लाभ उठा सकते हैं, अगर आप जीवनमुक्त होने की दिशा में कोशिश करें तब। यह आपकी मुट्ठी में है और आप चाहें तो इसे खरीद भी सकते हैं। आप जरा हिम्मत तो कीजिए। लोभ, मोह और अहंकार का तिरस्कार कीजिए, फिर देखिए आपकी मुक्ति आपके चरणों में आती है कि नहीं। मुझे उम्मीद है कि आप यहाँ इस कल्प सत्र में आए हैं और जीवनमुक्त होकर जाएँगे। आज की बात समाप्त।
ॐ शान्तिः
गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! मनुष्य को दो दुःख है। एक दुःख का नाम ‘नरक’ है और दूसरे का नाम ‘बंधन’। इन दोनों चीजों से आदमी निकल जाए, तो सारे संसार में सुख- ही है। बंधन क्या है? बंधन वह है, जिसमें हम और आप जकड़ जाते हैं। कल्पना कीजिए उस पक्षी की, जो पिंजड़े में बंद किया हुआ है। जो कुछ आता या मिलता है, खा लेता है। दाना तो खा लेता है, लेकिन बंधन में जकड़ा हुआ होने की वजह से कुछ कर नहीं पाता। बंधन की वजह से न कहीं खुली हवा ले पाता है, न कहीं बादलों को देख पाता है। कुछ नहीं देख पाता, केवल छोटे- से पिंजड़े में दिन गुजारता रहता है।
बंधन से बँधा हुआ व्यक्ति कैसा होता है? जेलखाने के कैदी के बारे में आप जानते हैं न, वह चारों ओर से जकड़ा हुआ होता है। हाथ जिसके बँधे हुए हैं, पैर जिसके बँधे हुए हैं। गले में जिसके रस्सा पड़ा हुआ है। आजकल तो इतना नहीं होता है, लेकिन पुराने जमाने में जेलखाने में जो आदमी रखे जाते थे, उनके हाथों में हथकड़ियाँ हर समय पड़ी रहती थीं। वे कुछ कर नहीं सकते थे। पैरों में बेड़ियाँ पड़ी रहती हैं। गले में रस्सा पड़ा रहता था। बेचारा कुछ कर नहीं सकता था। जैसे घोड़े को अगाड़ी व पिछाड़ी लगाम लगा देते हैं, उसी तरह से कैदी को रहना पड़ता था। जो लोग उस जमाने में रहते थे, आप उनके दुःख की कल्पना कर सकते हैं कि तब मन को कितना मसोसना पड़ता होगा।
मित्रो, हमारी योग्यता, प्रतिभा, भगवान् का दिया हुआ संसार और हमारी क्षमता- इन सबका हम कुछ भी उपयोग नहीं कर पाते हैं। सब कुछ गड़बड़ा जाता है। तब क्या करना चाहिए? हमारे शास्त्रों में आदमी के लिए सबसे बड़ा पुरुषार्थ एक ही बताया गया है। वह क्या बताया गया है? वह है- बंधनों से मुक्ति’। बंधनों से अगर मुक्ति मिल जाए, तो आदमी कितना सुखी हो सकता है! मुक्ति का अर्थ लोग कुछ और तरह से समझते हैं। सायुज्य मुक्ति, सारूप्य मुक्ति, की कल्पना इस तरीके से लोगों ने अपने में बिठा रखी है कि भगवान् नाम का कोई व्यक्ति है। उसका एक बड़ा- सा कोई बैकुंठ नाम का गाँव है। इस गाँव में फालतू फंड के आदमी बैठे रहते हैं। भगवान् के समीप बस बैठे रहते हैं, न कुछ करते हैं और न करने देते हैं। बस उनके पास में सान्निध्य मुक्ति, सालोक्य मुक्ति के लोभ में रहते हैं। खाने- पीने की सब चीजें भरी पड़ी हैं। बस उसी में लगे रहते हैं। ये सालोक्य मुक्ति है, सारूप्य मुक्ति है। इसका रूप कैसा है? इसका रूप भगवान् जैसा है। भगवान् का रूप बहुत सुंदर है। हमारा भी रूप बहुत सुंदर हो गया है। खाने- पीने की सारी व्यवस्था सालोक्य में है। हम भी उसी में शामिल हो गए। सामीप्य में चौबीस घंटे बैठे रहे। क्या सुगंध आ रही है, पंखे झल रहे हैं, भगवान् जी के समीप। इस तरह की कल्पना मुक्ति के संबंध में लोगों ने कर रखी हैं। वास्तव में यह कल्पना बच्चों जैसी है। इससे क्या लाभ हो सकता है?
मुक्ति का माहात्म्य हर एक आध्यात्मिक शास्त्र ने सिखाया है और यह बताया है, सुनाया है कि जो आदमी मुक्ति के अधिकारी हो जाते हैं, वे जीवन में सफलता प्राप्त कर लेते हैं। जीवन- मुक्त और भगवान् की प्राप्ति समान अर्थों में ली गई है। जीवनमुक्त किसे कहते हैं? जीवन मुक्त उसे कहते हैं जिसका जीवन बंधनों से छूट गया, जो पिंजरे में से निकल गया, जो जेलखाने से छूट गया। जो बच्चा माँ के पेट में छोटे- से दायरे में बैठा रहता है, वह न हिल सकता है, न डुल सकता है, न बोल सकता है, न बात कर सकता है, न साँस ले सकता है। उसमें से जब डिलिवरी हो जाती है, जन्म हो जाता है, तब वह मुक्त हो जाता है। आप सांसारिक मुक्ति का अर्थ समझ गए होंगे न? अच्छा, अब उसकी बात सोचिए कि मोह से मुक्ति क्या है? बंधनों से मुक्ति क्या है?
बंधनों से मुक्ति यह है कि जिस तरीके से हमारी विचारणाएँ, भावनाएँ हैं और हमारी क्रियाशीलताएँ हैं, जिन बंधनों से जकड़ गई हैं, उन बंधनों को हम तोड़ डालें, छोड़ दें, तो हम जीवनमुक्त हो जाते हैं। असल में यही जीवनमुक्ति है। लोगों का जो ये ख्याल है कि स्वर्ग में जा करके मुक्ति मिलती है, व्यक्ति स्वर्ग में कहीं बैठा रहता है या भगवान् जी के मालगोदाम में कहीं जमा हो जाता है। बेटे! न कहीं भगवान् जी का मालगोदाम है और न कहीं आदमी बैठे रहते हैं। मुक्ति केवल जीवन में ही होती है। जीवनमुक्त आदमी होते हैं, जिनको ऋषि कहते हैं, तत्त्वदर्शी कहते हैं, जिनको मनीषी कहते हैं। मुक्ति केवल मानव जीवन में ही संभव है।
तो क्या करना चाहिए? यही तो मैं आपसे निवेदन कर रहा हूँ कि क्या करना चाहिए। आपको तीन बंधनों से छुटकारा पा लेना चाहिए। आप यहाँ शान्तिकुञ्ज में आए हुए हैं, कल्प साधना कर रहे हैं, उपासना कर रहे हैं, तो आपको क्या करना चाहिए? आपको तीन बंधनों से मुक्ति प्राप्त करनी चाहिए। आप कोशिश कीजिए कि तीनों बंधन तोड़ दें। अगर आप चाहें तो इन तीन बंधनों को तोड़ सकते हैं। मकड़ी जाला स्वयं बनाती है और उसमें स्वयं फँस जाती है और फँसने के बाद में जब उसका मन आता है कि जाला हमारे लिए नुकसानदायक है और जाले में हमको नहीं रहना चाहिए, तो वह क्या करती है कि सारे- के जालों को अपने मुँह में समेट लेती है और निगल जाती है तथा भाग खड़ी होती है।
मित्रो! यह हमारा बंधन भी, जो चारों ओर से हमको जकड़े हुए है, असल में किसी और बाहरी शक्ति की देन नहीं है। किसी बाहरी शक्ति में इतनी गुंजाइश और दम नहीं है कि वह आदमी को जकड़ सके। भगवान् के बेटों को भला कौन जकड़ सकता है? बंधनों में जकड़ने के लिए उसका अपना ही अज्ञान, अपनी ही बेवकूफी, अपने ही कुसंस्कार हैं। जिसने आपको जकड़ लिया है। वे कौन- कौन से बंधन हैं? उनमें से एक का नाम है- लोभ एक का नाम है- मोह और एक का नाम है- अहंकार ये तीन हमारे शत्रु हैं। गीता के तीसरे अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है-
काम एष क्रोध एष रजोगुण समुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम !! (गीता ३/३७ )
ये तीनों ही सबसे बड़े बंधन और बैरी हैं। अपने इन तीनों बैरियों से- रावण कुंभकरण और मेघनाद से अगर आप निपट लें, तो मजा आ जाएगा। अगर आप कंस, जरासंध आदि से निपट लें, तो मजा आ जाएगा। ये तीन आपके दुश्मन हैं। उन्होंने आपकी जिंदगी को कैसा भयानक बना दिया है? कैसा पिछड़ा बना दिया है? कितना अस्त- व्यस्त बना दिया है? अगर ये आपके जीवन को अस्त- व्यस्त न बनाएँ, तो आप अपने आप को देख सकते हैं कि आपके जीवन में कितना कायाकल्प हो सकता है और आप वर्तमान परिस्थितियों की तुलना में थोड़े दिनों में कहाँ- से पहुँच सकते हैं। आप इन दुश्मनों से आगाह हो जाइए और इन्हें तोड़ने के लिए कोशिश कीजिए।
लोभ क्या है और इसे किस तरीके से तोड़ा जाए? लोभ कहते हैं- अनावश्यक संग्रह को। लोभ यही है कि आदमी को गुजारे के लिए मुट्ठी भर चीजों की जरूरत है। मुट्ठी भर चीज चाहिए उसे। मुट्ठी भर से गुजारा हो जाता है। आदमी का पेट कितना छोटा होता है? भैंसे का पेट कितना बड़ा है? गधे का पेट कितना बड़ा है? घोड़े का पेट कितना बड़ा है? परंतु आदमी का पेट कितना छोटा है। जरा सा है। उसके लिए थोड़ा- सा चार मुट्ठी अनाज काफी होना चाहिए। लेकिन आदमी के लोभ को देखा है न आपने, वह कितना लालची, कितना संग्रही, कितना विलासी होता है। कितना जमा कर ले, चौबीसों घंटे जमा करने के लिए मरता, खपता और छटपटाता रहता है।
संसार में बहुत से नशे हैं, जिनकी लोगों को हविश हो जाती है। शराबियों को नशे की हवस हो जाती है और वह बार- बार शराब माँगता है। इसी तरीके से लालच एक शराब है। आदमी की जरूरत क्या है और कितनी है? कुछ भी नहीं। व्यर्थ में अपने अहंकार को बढ़ाने के लिए, अपनी औलाद को और अपने घरवालों को तबाह और बरबाद करने के लिए, पीछे कलह उत्पन्न करने के लिए और दुर्व्यसन पैदा करने के लिए केवल धन संग्रह करता रहता है। जिंदगी का सारे- का हिस्सा इसी में खर्च हो जाता है। आपको इस लालच में खर्च को छोड़ना पड़ेगा। आपको इस लोभ को छोड़ना पड़ेगा।
इसके लिए आपको क्या करना पड़ेगा? आप क्या करेंगे? आपको सादा जीवन और उच्च विचार के सिद्धांतों को स्वीकार करना पड़ेगा। ऊँचे विचार सिर्फ उस आदमी के पास आ सकते हैं, जो सादा जीवन जिए। सादा जीवन का मतलब ठाटबाट से नहीं है, वरन् इसका मतलब लोभ और लालच से है। आप लोभ और लालच अपने मन से निकाल दें और निर्वाह की बात सोचें, तो आप थोड़े- से घंटे मेहनत करने के बाद में अपना पेट बड़े मजे में भर सकते हैं। रही कुटुम्बियों की बात, तो कुटुंबियों की बात भी वैसी ही है, जिसको ‘मोह’ कहते हैं। लोभ का बढ़ा हुआ दायरा, जो कुटुंब तक फैल जाता है, उसका नाम ‘मोह’ है और जो अपने आप तक सीमित रहता है, धन तक सीमित रहता है, उसका नाम ‘लोभ’ है और जो कुटुंबियों तक फैल जाता है, उसका नाम मोह है।
कुटुंबियों के प्रति आपकी जिम्मेदारियाँ तो हैं, ये तो मैं नहीं कहता कि आपकी जिम्मेदारी नहीं है। जिम्मेदारी तो आपकी सबके प्रति है। आपकी जिम्मेदारी आपके शरीर के प्रति भी है, मस्तिष्क के प्रति भी है। जीवन के प्रति भी आपकी जिम्मेदारी है। भगवान् के प्रति भी आपकी जिम्मेदारी है। आपकी बहुत जिम्मेदारियाँ हैं। इन सभी जिम्मेदारियों को आप सहयोग से निभाइए। उसमें आपका कुटुंब भी शामिल है। कुटुंबियों के शामिल होने का मतलब यह नहीं है कि कौन कैसा है? उन सबका लालच आप पूरा करते हैं क्या? कुटुंबियों का लालच आप मत पूरा कीजिए। कुटुंबियों की अनावश्यक आवश्यकताओं को और अनावश्यक माँगों को आप मानने से इनकार कर दीजिए। तो आप क्या करेंगे? अगर वे माँगते हैं, तो भी नहीं और नहीं माँगते हैं, तो भी नहीं। जिस चीज की जरूरत है उसे दीजिए।
आपके कुटुंबियों को किसकी जरूरत है? आपके कुटुंबियों को तीन चीजों की जरूरत है। पहली जरूरत है शिक्षा। आपके कुटुंबियों को शिक्षित होना चाहिए। स्कूली शिक्षा की बात तो मैं नहीं कहता, पर मैं यह कहता हूँ कि स्कूली शिक्षा अगर आपके पास में न भी हो, तो भी जिसको शालीनता कहते हैं, सभ्यता कहते हैं, सज्जनता कहते हैं, वह तो होनी ही चाहिए। शिक्षा का मतलब सभ्यता, शालीनता और सज्जनता से है। आप अपने घरवालों को बनाइए। उनका व्यवहार ऐसा बनाइए, उनके सोचने का तरीका ऐसा बनाइए, जानकार बनाइए, शिक्षित बनाइए। अगर ये बना देते हैं, तब हम समझते हैं कि आपने अपने घरवालों को आजीविका से भी ज्यादा, जीवन बनाने से भी ज्यादा, रेशम के कपड़े बनाने से भी ज्यादा, सोने- चाँदी के जवाहरात बनाने से भी ज्यादा आपने उनकी मदद की। इसलिए आपको मोह की अपेक्षा शिक्षा में खर्च करना चाहिए।
मित्रो! शिक्षा के साथ- साथ में क्या करें? अपने हर कुटुंबी को स्वावलंबी बनाइए। किसी को परावलम्बी मत बनने दीजिए। आप अपनी पत्नी को स्वावलंबी बनाइए, गुड़िया मत बनाइए। उसको आप यह मत कहिए कि आपको पानी नहीं भरना है, खेती नहीं करनी है। आप खाना मत बनाइए। कपड़े आपके नौकरानी धोएगी। बस, आप पंखे के नीचे बैठे रहा करिए। ऐसा मत कीजिए। आप उसे स्वावलंबी होने दीजिए।
भगवान् न करे कभी ऐसा खराब दिन आ जाए जब आप न हों। भगवान् न करे कि ऐसा दिन आ जाए कि आपकी संपत्ति चली जाए। फिर आप क्या करेंगे? आपने तो अपनी स्त्री को घूँघट में रख करके अपाहिज बना दिया। उसे मेहनत नहीं करने दी, परिश्रम नहीं करने दिया। उपार्जन के लिए योग्य बनाया नहीं, क्षमता बढ़ाई नहीं। आज हर आदमी के अंदर उपार्जन की क्षमता उत्पन्न होनी चाहिए। आप अपने कुटुंबियों में से हर एक में उपार्जन की क्षमता उत्पन्न होने दीजिए, बढ़ने दीजिए। बच्चे जरा बड़े हो गए हैं, तो उनको हाथ बँटाने दीजिए, ताकि जो वे घर का अनाज खाते हैं, उस संस्था का जरा सहयोग तो करें। उन्हें कुट्टी कूटना सिखाइए, पानी भरना सिखाइए, शाक- वाटिका लगाना सिखाइए, कपड़े धोना सिखाइए, ताकि वे अपने घर की आर्थिक स्थिति में कुछ मदद कर सकें। आप उन्हें स्वावलंबी बनाइए, परिश्रमशील बनाइए।
साथियो! अगर आपने अपने घर- गृहस्थी वालों को स्वावलंबी नहीं बनाया है, तो यह आपका मोह है। अगर आप अपने घरवालों की अनावश्यक इच्छाओं को पूरा करने के लिए जेवर खरीदने से लेकर सिनेमा दिखाने तक अर्थात् वे चीजें जो उनके जीवन को विकसित करने के लिए आवश्यक नहीं हैं, केवल उनके मनोरंजन के लिए, उनकी हविश और जो बुरी आदतें हैं, उनको पूरा करने के लिए जो वे माँगते हैं, आप उसको पूरा कर देते हैं, तो वह आपका ‘मोह’ हो जाता है। इसके स्थान पर आप उन्हें संस्कारवान् बनाइए, सभ्य बनाइए, शिक्षित बनाइए, स्वावलंबी बनाइए, अगर आप ये तीनों काम करने के लिए जितनी मेहनत करते हैं, हम समझते हैं कि आप अपने कुटुंबियों के लिए कर्तव्यपालन कर रहे हैं।
अगर आप कुटुंबियों की हविश, कुटुंबियों की इच्छा और कुटुंबियों का दबाव इसलिए पूरा करते हैं कि कुटुंबी आपसे प्रसन्न रहेंगे और प्रसन्न रह करके बच्चे आपकी आज्ञा मानेंगे और औरत आपकी कामवासना की पूर्ति के लिए मदद करेगी, इसलिए आपको उन्हें प्रसन्न करना चाहिए, तो आप गलती करते हैं। आप किसी को मत प्रसन्न कीजिए। प्रसन्न करना है, तो अपनी आत्मा को प्रसन्न कीजिए, अपने परमात्मा को प्रसन्न कीजिए। इसके अलावा इस संसार में आप जितना ही लोगों को प्रसन्न करने की कोशिश करेंगे, उतना ही आप हैरान होंगे और उतने ही आप खाली हाथ रह जाएँगे। इसलिए लोभ और मोह के दो बंधनों से लालच मत कीजिए। समय पर अगर आप अपने दिमाग को खाली कर दें कि हमको गुजारे भर के लिए कमाना है, तो आपका दिमाग, आपकी स्कीम, आपकी योजनाएँ, आपका परिश्रम और पुरुषार्थ सब बच जाएगा। फिर उस बची हुई शक्ति को- क्षमता को आप उन कामों में लगा सकेंगे, जिससे आपकी आत्मा की उन्नति होती है और समाज के प्रति अपना कर्तव्यपालन होता है और भगवान् के आदर्शों का निर्वाह होता है। उससे कम में काम बनेगा नहीं।
आपका लालच चाहे पूरा हो या न होता हो, यह तो मैं नहीं कहता कि आप संपन्न हो गए हैं कि नहीं हो गए हैं, पर आप लालची मुझे जरूर मालूम पड़ते हैं। ऐसी स्थिति में आप संपन्न कैसे हो जाएँगे? अक्ल तो है नहीं, योग्यता तो है नहीं, विद्या तो है नहीं, पुरुषार्थ है नहीं, परिश्रम है नहीं, चांस है नहीं, पूँजी है नहीं, तो कैसे धनवान् हो जाएँगे? आप तो गरीब- के रहने वाले थे और गरीब ही रहने वाले हैं। क्योंकि आदमी को संपन्न बनाने के लिए तो अनेक साधन चाहिए। आपके पास तो कुछ भी साधन नहीं हैं, फिर संपन्न कैसे बनेंगे? परंतु अगर आपने लालच छोड़ दिया होता, तो आप इतने ही साधनों में कम- से समय में गुजारा कर सकते थे। लालच अभी जितना आपका समय खा जाता है, शक्ति खा जाता है, बुद्धि खा जाता है, उस सबको आपने बचा लिया होता। बचाने के बाद में वह काम कर लिया होता, जो असंख्य लोगों ने किया है, पारिवारिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह करते हुए भी।
कबीर की भी शादी हो गई थी। जवाहरलाल नेहरू की भी शादी हो गई थी। गाँधी जी की भी शादी हो गई थी। शंकर भगवान् की भी शादी हो गई थी। रामचंद्र की भी शादी हो गई थी। हमारी भी शादी हो गई है। शादी होना और पेट भरना इतना बड़ा काम नहीं है कि जिसके लिए यह कहा जा सके कि हमारी सारी शक्ति और सारी बुद्धि, सारा परिश्रम और सारा पुरुषार्थ इसी में खर्च हो जाता है। वस्तुतः ये लोभ और मोह के व्यामोह के दो बंधन हैं, जो न आपकी अक्ल को चलने देते हैं, न परिश्रम को चलने देते हैं। आपका सारा परिश्रम लोभ के लिए विसर्जित हो गया, आपकी अक्ल और आपकी भावना मोह के लिए विसर्जित हो गई। लोभ के लिए आपका शारीरिक श्रम विसर्जित हो गया, मोह के लिए भावनाएँ एवं मानसिक क्षमता विसर्जित हो गई, तो फिर क्या रह गया आपके पास? तोड़िए न इन बंधनों को। आप यहाँ रह करके इस कल्प साधना में अपने आपको बदल दीजिए और लोभ एवं मोह के बंधनों से अपने आपको पीछे हटाइए।
मित्रो! मैं यह थोड़े ही कहता हूँ कि आपको पेट भरने के लिए गुजारा नहीं करना चाहिए। गुजारा करना एक बात है और लालच के लिए मरते- खपते रहना दूसरी बात है। आपको अपना कुटुंब सीमित रखना चाहिए, फिर आप क्यों बढ़ाते चले जाते हैं? किसने कहा था आपको रोज बच्चे पैदा करने के लिए? आप बिना बच्चों के जिंदा नहीं रह सकते क्या? कम बच्चों से आपका गुजारा नहीं हो सकता? आपके जो कम बच्चे हैं, उनको आप क्या पर्याप्त नहीं मान सकते? हमारा कहना मानिए अब बच्चे मत बढ़ाइए। जो बच्चे हैं, अगर उनकी क्वालिटी बढ़ाना चाहते हैं, तो आपको संख्या घटानी चाहिए। इससे आगे तो किसी भी हालत में आगे मत बढ़ाइए। तब आपका मोह कम हो जाएगा। फिर आप एक माली के तरीके से अपने गृहस्थ का पालन कर रहे होंगे। तब आप एक सदाचारी और संयमी के तरीके से अपना गुजारा कर रहे होंगे। इन दोनों तरीकों से आप गुजारा कर लेंगे, तो मजा आ जाएगा।
इनके अतिरिक्त आपको तीसरा एक और काम करना चाहिए। अहंकार को हटाना चाहिए। आप अपने अहंकार को भी हटाइए। आदमी अपना आत्मविज्ञापन करने के लिए, बड़ा आदमी बनने के लिए न जाने कितना ढंग और ढोंग बनाता रहता है। लिबास, फैशन, ठाटबाट ये सब अहंकार के लिए करता है। अहंकार के लिए- सब जगह से मेरी पदवी बढ़नी चाहिए, मेरे पास बढ़िया जेवर होना चाहिए, मुझको नेता बनना चाहिए, मुझे मंच मिलना चाहिए। अपने अहंकार की पूर्ति और बड़प्पन के लिए वह जाने क्या- क्या स्वाँग रचाता रहता है। अपने अतिरिक्त किसी और की उन्नति उसे सुहाती नहीं। ‘मैं’ और ‘मेरा’ बस यही उसके दो लक्ष्य बन जाते हैं। मित्रो! यह अहंकार बड़ा हानिकारक है। यह आपको ले डूबेगा।
गुरुजी! आप क्या कह रहे हैं? बेटे! मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि आपकी महत्त्वाकाँक्षाएँ नहीं बढ़नी चाहिए। आपकी महत्त्वाकाँक्षाएँ जरूर बढ़नी चाहिए परंतु अहंकार के नाम पर, लोगों के सामने अपनी चकाचौंध पैदा करने के नाम पर, लोगों के सामने बड़ा आदमी बनने के नाम पर अगर आप अपने अहंकार का पोषण कर रहे होंगे, तो गलती कर रहे हैं। इस अहंकार की दिशा मोड़ दीजिए। फिर किसमें लगाएँ? आप इस अहंकार को महानता की दिशा में लगाएँ कि हम महान् बनेंगे। आप महान् बनिए। यह विचार कीजिए कि दूसरों की तुलना में हमारे गुण, कर्म, स्वभाव अच्छे बनेंगे। आप ये विचार कीजिए न। क्या विचार करें? आप ये विचार कीजिए कि हमको महान् बनना है। दूसरों के सामने आपको अपनी निशानियाँ छोड़ जानी हैं, ताकि वे आपके बारे में सोचते रहें, विचार करते रहें कि देखो यह आदमी कितना शानदार था, कितना मनस्वी था, कितना धैर्यवान् था, कितना साहसी था। आप इसको बड़प्पन पर न्यौछावर कर सकते हैं।
संसार में जितने भी महान् आदमी हुए हैं, उन्होंने अपनी जिंदगी श्रेष्ठ कामों में लगा दी। वे लोगों के सामने उदाहरण छोड़कर चले गए। यही उनकी विरासत है। आप तो विरासत में क्या छोड़कर जाएँगे? बेटे के लिए मकान बनाकर जाएँगे। बेटे के लिए मकान जरूरी नहीं है। फिर क्या जरूरी है? आप बेटे के लिए यह विरासत छोड़कर जाइए, ताकि लोग यह कह सकें, कि यह किसका बच्चा है। उससे आपका सम्मान बढ़ेगा। न केवल अपने बच्चों के लिए, वरन् सारे समाज के लिए विरासत छोड़कर जाइए कि जिससे लोग यह कह सकें कि हमारे पूर्व पुरुष ऐसे थे, हमारे गाँव का निवासी ऐसा था। अमुक सज्जन ऐसा था। लोक- सम्मान अर्जित कीजिए न। आत्मसम्मान अर्जित कीजिए न। भगवान् का अनुग्रह अर्जित कीजिए न। आपको इसमें क्या दिक्कत पड़ती है? इसमें तो कोई दिक्कत नहीं पड़नी चाहिए।
ये ही तीन बंधन हैं, जिन्होंने आपकी तीन चीजों को खत्म कर दिया है। पहला- आत्मसंतोष जो आप पा सकते थे, उससे आप वंचित रह गए और उसे अब आप पा नहीं सकेंगे। क्यों? क्योंकि लोभ तो आपको कहाँ पाने देगा? लोभ तो आपको उचित और अनुचित काम करने के लिए लगाए रहेगा। लोभ आपको मेहनत करने के लिए लगाए रहेगा, कर्ज लेने के लिए लगाए रहेगा। लोभ आपको रिश्वत लेने के लिए मजबूर करता रहेगा। लोभ आपको बेईमानी करने के लिए मजबूर करता रहेगा। फिर आप किस तरीके से आत्मसंतोष पाएँगे? आत्म आपकी निरंतर जलती ही रहेगी, क्योंकि आपका लालच इतना बड़ा दुश्मन है, जिसको आप छोड़ नहीं पाएँगे, तो उसके बदले में आपको आत्मसंतोष गँवाना- ही है।
एक दूसरी और चीज है- लोक लोकसम्मान आप नहीं पा सकेंगे? क्यों? क्योंकि आपकी सारी शक्ति, सारा प्यार इन थोड़े- से आदमियों में केंद्रित हो गया है। आप अपनी औरत को ही सब कुछ समझ बैठे हैं। आप अपने बच्चों को ही सब कुछ समझ बैठे हैं। कहीं कोई समाज में भी रहता है क्या? कहीं कोई संस्कृति भी है क्या? कहीं कोई दीन- दुखियारे भी रहते हैं क्या? समाज के प्रति भी कुछ कर्तव्य और फर्ज है क्या? नहीं साहब! जो हमने कमाया था, चार बेटों में बराबर बाँट दिया। और पड़ोसियों को? और मोहल्ले वालों को? और लोगों को? और उन लोगों को, जिनके अहसान आपके ऊपर लदे हुए हैं। उनके लिए- जिन अध्यापक ने आपको पढ़ाया था और जो बेचारा आजकल भिखारी की तरह गुजारा कर रहा है। उसके प्रति भी कुछ फर्ज है आपका कि नहीं है? नहीं, साहब मैंने तो चार बेटों में बराबर बाँट दिया। ऐसा मत कीजिए। चार बेटों में बराबर मत बाँटिए। बच्चों को स्वावलंबी बनने दीजिए और जो कुछ भी आपकी संपत्ति है, उससे समाज को लाभ उठाने दीजिए। संस्कृति को लाभ उठाने दीजिए।
भाइयो! बहनो! अपने अहंकार का परिपोषण आप उस मायने में कीजिए कि हमको महापुरुष बनना है और हम महामानव बनते हैं। अपनी चाल- ढाल और चाल- चलन ऐसा शानदार बनाते हैं कि जिससे भगवान् का अनुग्रह भी हमको प्राप्त हो सके। अगर आप महानता की दिशा में नहीं जाएँगे, बड़प्पन की दिशा में जाएँगे, तो आपको लोभ, मोह और अहंकार इन तीन को पकड़ना पड़ेगा। इनके सहारे आपको नरक में गिरना पड़ेगा और बंधन में गिरना पड़ेगा। कदाचित् अगर आप एक कदम आगे बढ़ा दें और महानता की ओर चल पड़ें तब? तब आपको दूसरा काम करना पड़ेगा। तब फिर आपको औसत भारतीय की तरीके से सीमित में निर्वाह करना पड़ेगा। आपके सारे भाई जिस तरह का गुजारा करते हैं, आप क्यों नहीं कर सकते? क्या सारे बच्चों को अपना क्यों नहीं बना सकते। कितने बच्चे हैं, जो विद्या के अभाव में बैठे रहते हैं। आप अपने बच्चों को कीमती कपड़ा पहनाएँ और अमुक चीज छोड़कर मरें और पड़ोसियों के बच्चों के लिए आप किताब तक खरीद कर नहीं दे सकते? ईश्वरचंद्र विद्यासागर के तरीके से आप क्या ऐसे नहीं कर सकते कि अपने घर का पचास रुपए से गुजारा कर लें और बची हुई चार सौ पचास रुपए की नौकरी को पड़ोस के विद्यार्थियों के लिए खर्च कर दें। ऐसा आप नहीं कर पाएँगे क्या?
मित्रो! लोभ, मोह को आप छोड़ दीजिए। आप अहंकार की, बड़प्पन की, अमीरी की और दूसरों की आँखों में चकाचौंध पैदा करने की हवस को छोड़ दीजिए। इसके स्थान पर आप दूसरी हवस पैदा कीजिए कि हम महान् बनेंगे। दूसरों के सामने उदाहरण पेश करेंगे।
अपनी जिंदगी का नमूना पेश करेंगे और लोगों को अपने रास्ते पर चलने के लिए, पीछे चलने के लिए हम नया रास्ता बनाकर जाएँगे। ये महानता के रास्ते हैं। अगर आप महानता के रास्ते पर चल पड़ें, तो आपके जीवन की मुक्ति हो गई। जीवनमुक्त जैसे इसी जिंदगी में आनंद उठाते हैं। मजा उड़ाते हैं और सारे विश्व में पंख लगाकर स्वच्छंद उड़ते चले जाते हैं, जैसे कि पखेरू सारे विश्व में उड़ता हुआ चला जाता है। वह कैसा सुंदर दृश्य देखता है? कैसी सुहावनी छवि का लाभ उठाता है, आप भी ठीक वैसी छवि का लाभ उठा सकते हैं, अगर आप जीवनमुक्त होने की दिशा में कोशिश करें तब। यह आपकी मुट्ठी में है और आप चाहें तो इसे खरीद भी सकते हैं। आप जरा हिम्मत तो कीजिए। लोभ, मोह और अहंकार का तिरस्कार कीजिए, फिर देखिए आपकी मुक्ति आपके चरणों में आती है कि नहीं। मुझे उम्मीद है कि आप यहाँ इस कल्प सत्र में आए हैं और जीवनमुक्त होकर जाएँगे। आज की बात समाप्त।
ॐ शान्तिः