Books - लोक-मानस का परिष्कृत मार्गदर्शन
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लोकमानस का परिष्कृत मार्गदर्शन
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मनुष्य की काय संरचना ओर मस्तिष्कीय बुद्धि विचारणा का इतना बड़ा अनुदान हर किसी को मिला है कि वह अपना और सम्बद्ध परिकर का काम भली प्रकार चला सके। इस क्षमता से रहित कोई भी नहीं है, इतने पर भी व्यामोह का कुछ ऐसा कुचक्र चलता रहता है कि उपलब्धियों की न तो उपस्थिति का अनुभव होता है और न उससे किस प्रकार का क्या काम लिया जाना चाहिए? इसका निर्धारण बन पड़ता है।
ऐसी दशा में असमर्थता अनुभव करने वालों को समर्थों का मार्गदर्शन एवं सहयोग प्राप्त करना होता है। उसके अभाव में विद्यमान क्षमतायें प्रसुप्त अवस्था में पड़ी रहती हैं और उनके द्वारा जिस प्रयोजन की पूर्ति की जा सकती थी वह नहीं हो पाती।
कपड़े कोई भी धो सकता है, पर अनभ्यास या आलस्य की स्थिति में धोबी का आश्रय लेना पड़ता है। पेट भरने योग्य भोजन बना लेने की आदत दो-चार दिन में डाली जा सकती है, पर देखा यह गया है कि आवश्यक वस्तुयें घर में होते हुए भी रसोई बनाने का सरंजाम नहीं जुट पाता और भूखे रहने या बाजार से खाने की कठिनाई सामने आ खड़ी होती है। अनेक अपने हाथ से हजामत बनाते हैं, पर कितनों ही का काम नाई का सहयोग लिए बिना चलता ही नहीं। अभ्यास से संगीत-संभाषण जैसे कौशल सहज ही सीखे जा सकते हैं, पर अपने से इस संदर्भ में कुछ करते-धरते न बन पड़ने पर किसी दूसरे को बकौल प्रतिनिधि या माध्यम के खड़ा करना पड़ता है। इसे आलस्य-अनभ्यास भी कहा जा सकता है और अनुकूल सुविधा हस्तगत न होने का कुयोग भी।
इस हेय स्थिति में से निकलने का सभी को प्रयत्न करना पड़ता है और किया जाना चाहिए। इस अवलम्बन का नाम है—मार्ग-दर्शन, उसे प्राप्त करने में किसी को अपनी छुटाई या अवमानना अनुभव नहीं करनी चाहिए वरन् इस तलाश में रहना चाहिए कि जो अब तक उपलब्ध नहीं है वह आगे उपलब्ध हो। तालाबों में निज का पानी कहां होता है? वे बादलों से ही उधार लेकर अपना भण्डार भरते हैं। जलवायु जैसे प्रकृति अनुदानों को हम कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करते हैं, न इसमें अपनी हेठी मानते हैं और न अभावग्रस्तता।
छोटे बच्चे अभिभावकों का सहयोग लेकर ही अपनी भ्रूण स्थिति को पार करते स्तनपान का लाभ लेते, आच्छादनों और सेवाओं का लाभ उठाते हैं। इतना बन पड़ने पर ही वे घुटनों के बल चलने या खड़ा होने की स्थिति में आते हैं। भाषा बोध भी उन्हें परिवार के सदस्यों का अनुकरण करते-करते ही हस्तगत होता है। जिन बालकों का पालन पशु समुदाय के बीच हुआ है उन अपवादों में मनुष्य बालक भी पशु स्तर का आचरण करते और शब्द बोलते देखे गये हैं—यह है समर्थ मनुष्य की असमर्थता। मौलिक रूप से वह सृष्टा की दी हुई अनेकानेक विशेषताओं से सम्पन्न है, किन्तु इसे प्रकृति का व्यंग्य ही कहना चाहिए कि वह अपनी महत्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने पैरों खड़ा नहीं हो पाता, उसे दूसरों के सहयोग, मार्गदर्शन या आश्रय की आवश्यकता पड़ती है चाहे वह कितना ही न्यून क्यों न हो।
बच्चे बाल-कक्षाओं से लेकर स्नातक स्तर तक का, उससे भी आगे विशेष विषयों का ज्ञान प्राप्त करते हैं किन्तु यह सब अनायास ही नहीं हो जाता, इसके लिए स्कूली वातावरण, अध्यापकों का, पुस्तकों का सहारा लेना पड़ता है। यों हृदयंगम शिक्षार्थी स्वयं ही करता है, पर इसके लिए विशेषताओं का, विशेष परिस्थितियों का आश्रय लेना अनिवार्य स्तर पर आवश्यक हो जाता है। बिना सहायता के किसी ने उच्चस्तरीय ज्ञान स्वयं अर्जित किया हो, उसके उदाहरण कहीं कदाचित ही दीख पड़ते हैं। आत्मज्ञान-तत्वदर्शन की उपलब्धि के लिए आरम्भ में प्रत्यक्ष गुरु की और बाद में—‘अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं विश्व चराचरम्’ रूपी समष्टि चेतना के सम्मुख अपने को समर्पित करना पड़ता है, इसके बिना मनुष्य दिग्भ्रान्त और अनगढ़ ही बना रहता है।
मानवी सत्ता की महत्ता इसी दृष्टि से है कि उसे उपयुक्त माध्यमों से मोड़ा मरोड़ा, सुधारा-संभाला जा सकता है। चतुर माली अपने उद्यान को रंग-बिरंगे फूलों, सुमधुर फलों और नयनाभिराम शोभा सम्पदा से भरपूर बना देता है। इसमें पेड़-पौधों की अपनी विशेषता का जितना महत्व है उससे कहीं अधिक माली की कलाकारिता का है। यदि वह खाद-पानी, निराई-गुड़ाई, छंटाई-रखवाली की समग्र प्रक्रिया में चूक करे तो समझना चाहिए कि झाड़-झंखाड़ों का झुरमुट ही खड़ा हो जायेगा। प्रकृतितः पौधे झाड़-झंखाड़ों का रूप ही धारण करते हैं। यह कुशल कलाकार की साधना ही है जो तुच्छ वस्तुओं को कुछ से कुछ बनाकर रख देती है।
कपड़ों के टुकड़े से दर्जी बढ़िया पोशाक सीकर देता है। धातुओं के टूटे-फूटे टुकड़ों को स्वर्णकार आकर्षक आभूषणों में बदल देता है। कागज और कूंची के सहारे चित्रकार बहुमूल्य तस्वीरें बनाते हैं और मूर्तिकार के छैनी-हथौड़े पत्थर के टुकड़े को देव प्रतिमा के रूप में पूजे जाने योग्य बना देते हैं। वाद्य यन्त्रों में लगी सामग्री कौड़ी के मोल की होती है, पर वे जब कारीगर की तत्परता के साथ जुड़ते हैं तो वादन का ऐसा सुयोग बिठाते हैं कि गायक के स्वर में चार चांद लगने लगें। कला की, कला-कौशल की जितनी महिमा गाई, बताई और समझी-समझाई जाय उतनी ही कम है। आत्म-चेतना और उसकी विलक्षण गरिमा का हमें बोध होना चाहिए कि अनगढ़ को सुगढ़ बनाने वाले तन्त्र की भी अपनी महत्ता और आवश्यकता है। इसके बिना न हाथी पर सवारी गांठी जा सकती है और न शेर से सरकस वाले करतब कौतूहल दिखाने का आधार खड़ा होता है। संसार की अगणित महती विभूतियों में एक यह भी है कि सामान्य को असामान्य बना देने वाले कलाकार के साथ गुंथ जाने का उसे सुयोग मिल जाय।
बहुमत की अपनी उपयोगिता है, पर वह वोटों की गिनती तथा जुलूस, प्रदर्शन, मेले-ठेले की भीड़-भाड़ तक ही सीमित है। साधारणतया मनुष्य को बन्दर की औलाद कहकर जीवविज्ञानियों द्वारा सम्बोधित किया जाता है। प्रकृति की उपज में वह भी एक पशु वर्ग का प्राणी है और उदरपूर्णा, आत्मरक्षा, वंशवृद्धि जैसी मोटी जानकारियों से अवगत है।
जनसंख्या की वृद्धि यों जंगलों को बसाने और श्रमिकों को बटोरने में काम भी आ सकती है, पर इन दिनों जिस प्रकार जनसंख्या विस्फोट हो रहा है उस पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि यह भी महायुद्ध या महामारी स्तर की विपत्ति है। उत्पादन बरसाती मेंढकों और मक्खी-मच्छरों को भी मात दे रहा है। खाद्य, शिक्षा, चिकित्सा, बेरोजगारी, आपाधापी, मूढ़ मान्यता, यातायात स्तर की दृश्य और अदृश्य समस्यायें निरन्तर बढ़ती चली जा रही हैं, वे व्यक्ति परक, पदार्थ परक और घटना परक तीनों स्तर की हैं। उनका समुच्चय भयावह से भयावह तर और तम होता चला जाता है। कारण कि न तो वर्तमान पीढ़ी का बहुसंख्यक भाग ऐसा है जो अपनी समस्याओं का समाधान कर सके और न इस स्तर का है कि अपने द्वारा उत्पादित कोरे कागजों पर कुछ सुन्दर-सी लकीरें बना सके। स्पष्ट है कि जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ समस्याओं की विद्रूपता अगले दिनों और भी अधिक बढ़ती जायेगी। संग्रहीत सुसंस्कारों का अभाव पूराकर वर्तमान में सत्प्रवृत्तियों-सत्प्रयोजनों को बढ़ाने की दिशा में प्रयत्नशील होने का पौरुष दिखा सकें, यह कार्य हर परिवार में निजी रूप से होना चाहिए था पर उनकी स्थिति और स्तर को देखते हुए वैसी आशा करना व्यर्थ है फलतः नया मार्ग ही खोजना पड़ेगा और प्राचीनतम परम्परा को पुनर्जीवित करना होगा। उन दिनों गृहस्थ, ब्राह्मणों और विरक्त परिव्राजकों का बहुत बड़ा समुदाय लोक शिक्षण की महती जिम्मेदारी को वहन करता था। अपने निजी स्वार्थ, निजी पराक्रम को इसी लक्ष्य से पूरी तरह नियोजित किये रहता था कि जन स्तर के किसी भी पक्ष में गिरावट न आने पाये। किसी क्षेत्र का, किसी भी परिस्थिति का व्यक्ति भौतिक या आत्मिक दृष्टि से गई-गुजरी परिस्थितियों में न रहने पाये। इसके लिए वे लोगों को अपने यहां बुलाने-जमा करने की आशा नहीं करते थे वरन् बादलों की तरह जाकर हर खेत पर बरसते और तालाब को पानी से लबालब भरते थे। यही थी एक मात्र वह रहस्य भरी परम्परा जिसने इस देश के नागरिकों को तैंतीस कोटि देवता स्तर का बनाया था और इस भारत भूमि को ‘‘स्वर्गादपि गरीयसी’’ होने का सम्मान संसार भर की जनता से दिलाया था।
आज की स्थिति में उस सतयुगी परम्परा को पुनर्जीवित करने का और कोई उपाय नहीं। यद्यपि यह है अति कठिन, क्योंकि प्राचीनकाल में इस परमार्थ प्रयोजन में असंख्यों व्यक्ति लगे मिलते थे और उन्हें देखकर एक दूसरे को प्रेरणा मिलती थी। समस्याओं को भी आपस में मिल-बैठकर समझते और सुलझाते थे, पर अब तो ऐसा कहीं भी कुछ भी दीख नहीं पड़ता। हर व्यक्ति स्वार्थ साधन में लगा है और पतन तथा कलह के बीज बो रहा है। ऐसी दशा में अन्तःप्रेरणा के आधार पर युग समस्या को समझते हुए लोकमानस के परिष्कार का कार्य कौन हाथ में ले? अकेले के बलबूते कोई व्यापक कार्यक्रम कैसे बने? और जब निराशा, असफलता और उपहास का वातावरण चारों ओर दीखे तो किस बलबूते अपने पैरों को लम्बे समय तक टिकाये रह सके? यह भावनात्मक कठिनाई ऐसी है जो विचारशीलों और साधन-सम्पन्नों को भी कुछ करने-धरने नहीं देती। फिर उनका तो कहना ही क्या जिन्हें शिक्षा की कमी, सहयोग का अभाव तथा आर्थिक तंगी जैसे अनेकों अवसाद घेरे खड़े रहते हैं।
लोकमानस इन दिनों महाभारत के चक्रव्यूह की तरह फंसा पड़ा है। इसे बिना उबारे काम चलता नहीं और उपेक्षा बरतने पर रही बची आशा पर भी तुषारापात होता है। मार्गदर्शन आज की महती आवश्यकता है, पर उसकी पूर्ति के लिए उपयुक्त मार्ग दिखाने वाला अग्रगामी भी तो चाहिए?
ऐसी दशा में असमर्थता अनुभव करने वालों को समर्थों का मार्गदर्शन एवं सहयोग प्राप्त करना होता है। उसके अभाव में विद्यमान क्षमतायें प्रसुप्त अवस्था में पड़ी रहती हैं और उनके द्वारा जिस प्रयोजन की पूर्ति की जा सकती थी वह नहीं हो पाती।
कपड़े कोई भी धो सकता है, पर अनभ्यास या आलस्य की स्थिति में धोबी का आश्रय लेना पड़ता है। पेट भरने योग्य भोजन बना लेने की आदत दो-चार दिन में डाली जा सकती है, पर देखा यह गया है कि आवश्यक वस्तुयें घर में होते हुए भी रसोई बनाने का सरंजाम नहीं जुट पाता और भूखे रहने या बाजार से खाने की कठिनाई सामने आ खड़ी होती है। अनेक अपने हाथ से हजामत बनाते हैं, पर कितनों ही का काम नाई का सहयोग लिए बिना चलता ही नहीं। अभ्यास से संगीत-संभाषण जैसे कौशल सहज ही सीखे जा सकते हैं, पर अपने से इस संदर्भ में कुछ करते-धरते न बन पड़ने पर किसी दूसरे को बकौल प्रतिनिधि या माध्यम के खड़ा करना पड़ता है। इसे आलस्य-अनभ्यास भी कहा जा सकता है और अनुकूल सुविधा हस्तगत न होने का कुयोग भी।
इस हेय स्थिति में से निकलने का सभी को प्रयत्न करना पड़ता है और किया जाना चाहिए। इस अवलम्बन का नाम है—मार्ग-दर्शन, उसे प्राप्त करने में किसी को अपनी छुटाई या अवमानना अनुभव नहीं करनी चाहिए वरन् इस तलाश में रहना चाहिए कि जो अब तक उपलब्ध नहीं है वह आगे उपलब्ध हो। तालाबों में निज का पानी कहां होता है? वे बादलों से ही उधार लेकर अपना भण्डार भरते हैं। जलवायु जैसे प्रकृति अनुदानों को हम कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करते हैं, न इसमें अपनी हेठी मानते हैं और न अभावग्रस्तता।
छोटे बच्चे अभिभावकों का सहयोग लेकर ही अपनी भ्रूण स्थिति को पार करते स्तनपान का लाभ लेते, आच्छादनों और सेवाओं का लाभ उठाते हैं। इतना बन पड़ने पर ही वे घुटनों के बल चलने या खड़ा होने की स्थिति में आते हैं। भाषा बोध भी उन्हें परिवार के सदस्यों का अनुकरण करते-करते ही हस्तगत होता है। जिन बालकों का पालन पशु समुदाय के बीच हुआ है उन अपवादों में मनुष्य बालक भी पशु स्तर का आचरण करते और शब्द बोलते देखे गये हैं—यह है समर्थ मनुष्य की असमर्थता। मौलिक रूप से वह सृष्टा की दी हुई अनेकानेक विशेषताओं से सम्पन्न है, किन्तु इसे प्रकृति का व्यंग्य ही कहना चाहिए कि वह अपनी महत्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने पैरों खड़ा नहीं हो पाता, उसे दूसरों के सहयोग, मार्गदर्शन या आश्रय की आवश्यकता पड़ती है चाहे वह कितना ही न्यून क्यों न हो।
बच्चे बाल-कक्षाओं से लेकर स्नातक स्तर तक का, उससे भी आगे विशेष विषयों का ज्ञान प्राप्त करते हैं किन्तु यह सब अनायास ही नहीं हो जाता, इसके लिए स्कूली वातावरण, अध्यापकों का, पुस्तकों का सहारा लेना पड़ता है। यों हृदयंगम शिक्षार्थी स्वयं ही करता है, पर इसके लिए विशेषताओं का, विशेष परिस्थितियों का आश्रय लेना अनिवार्य स्तर पर आवश्यक हो जाता है। बिना सहायता के किसी ने उच्चस्तरीय ज्ञान स्वयं अर्जित किया हो, उसके उदाहरण कहीं कदाचित ही दीख पड़ते हैं। आत्मज्ञान-तत्वदर्शन की उपलब्धि के लिए आरम्भ में प्रत्यक्ष गुरु की और बाद में—‘अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं विश्व चराचरम्’ रूपी समष्टि चेतना के सम्मुख अपने को समर्पित करना पड़ता है, इसके बिना मनुष्य दिग्भ्रान्त और अनगढ़ ही बना रहता है।
मानवी सत्ता की महत्ता इसी दृष्टि से है कि उसे उपयुक्त माध्यमों से मोड़ा मरोड़ा, सुधारा-संभाला जा सकता है। चतुर माली अपने उद्यान को रंग-बिरंगे फूलों, सुमधुर फलों और नयनाभिराम शोभा सम्पदा से भरपूर बना देता है। इसमें पेड़-पौधों की अपनी विशेषता का जितना महत्व है उससे कहीं अधिक माली की कलाकारिता का है। यदि वह खाद-पानी, निराई-गुड़ाई, छंटाई-रखवाली की समग्र प्रक्रिया में चूक करे तो समझना चाहिए कि झाड़-झंखाड़ों का झुरमुट ही खड़ा हो जायेगा। प्रकृतितः पौधे झाड़-झंखाड़ों का रूप ही धारण करते हैं। यह कुशल कलाकार की साधना ही है जो तुच्छ वस्तुओं को कुछ से कुछ बनाकर रख देती है।
कपड़ों के टुकड़े से दर्जी बढ़िया पोशाक सीकर देता है। धातुओं के टूटे-फूटे टुकड़ों को स्वर्णकार आकर्षक आभूषणों में बदल देता है। कागज और कूंची के सहारे चित्रकार बहुमूल्य तस्वीरें बनाते हैं और मूर्तिकार के छैनी-हथौड़े पत्थर के टुकड़े को देव प्रतिमा के रूप में पूजे जाने योग्य बना देते हैं। वाद्य यन्त्रों में लगी सामग्री कौड़ी के मोल की होती है, पर वे जब कारीगर की तत्परता के साथ जुड़ते हैं तो वादन का ऐसा सुयोग बिठाते हैं कि गायक के स्वर में चार चांद लगने लगें। कला की, कला-कौशल की जितनी महिमा गाई, बताई और समझी-समझाई जाय उतनी ही कम है। आत्म-चेतना और उसकी विलक्षण गरिमा का हमें बोध होना चाहिए कि अनगढ़ को सुगढ़ बनाने वाले तन्त्र की भी अपनी महत्ता और आवश्यकता है। इसके बिना न हाथी पर सवारी गांठी जा सकती है और न शेर से सरकस वाले करतब कौतूहल दिखाने का आधार खड़ा होता है। संसार की अगणित महती विभूतियों में एक यह भी है कि सामान्य को असामान्य बना देने वाले कलाकार के साथ गुंथ जाने का उसे सुयोग मिल जाय।
बहुमत की अपनी उपयोगिता है, पर वह वोटों की गिनती तथा जुलूस, प्रदर्शन, मेले-ठेले की भीड़-भाड़ तक ही सीमित है। साधारणतया मनुष्य को बन्दर की औलाद कहकर जीवविज्ञानियों द्वारा सम्बोधित किया जाता है। प्रकृति की उपज में वह भी एक पशु वर्ग का प्राणी है और उदरपूर्णा, आत्मरक्षा, वंशवृद्धि जैसी मोटी जानकारियों से अवगत है।
जनसंख्या की वृद्धि यों जंगलों को बसाने और श्रमिकों को बटोरने में काम भी आ सकती है, पर इन दिनों जिस प्रकार जनसंख्या विस्फोट हो रहा है उस पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि यह भी महायुद्ध या महामारी स्तर की विपत्ति है। उत्पादन बरसाती मेंढकों और मक्खी-मच्छरों को भी मात दे रहा है। खाद्य, शिक्षा, चिकित्सा, बेरोजगारी, आपाधापी, मूढ़ मान्यता, यातायात स्तर की दृश्य और अदृश्य समस्यायें निरन्तर बढ़ती चली जा रही हैं, वे व्यक्ति परक, पदार्थ परक और घटना परक तीनों स्तर की हैं। उनका समुच्चय भयावह से भयावह तर और तम होता चला जाता है। कारण कि न तो वर्तमान पीढ़ी का बहुसंख्यक भाग ऐसा है जो अपनी समस्याओं का समाधान कर सके और न इस स्तर का है कि अपने द्वारा उत्पादित कोरे कागजों पर कुछ सुन्दर-सी लकीरें बना सके। स्पष्ट है कि जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ समस्याओं की विद्रूपता अगले दिनों और भी अधिक बढ़ती जायेगी। संग्रहीत सुसंस्कारों का अभाव पूराकर वर्तमान में सत्प्रवृत्तियों-सत्प्रयोजनों को बढ़ाने की दिशा में प्रयत्नशील होने का पौरुष दिखा सकें, यह कार्य हर परिवार में निजी रूप से होना चाहिए था पर उनकी स्थिति और स्तर को देखते हुए वैसी आशा करना व्यर्थ है फलतः नया मार्ग ही खोजना पड़ेगा और प्राचीनतम परम्परा को पुनर्जीवित करना होगा। उन दिनों गृहस्थ, ब्राह्मणों और विरक्त परिव्राजकों का बहुत बड़ा समुदाय लोक शिक्षण की महती जिम्मेदारी को वहन करता था। अपने निजी स्वार्थ, निजी पराक्रम को इसी लक्ष्य से पूरी तरह नियोजित किये रहता था कि जन स्तर के किसी भी पक्ष में गिरावट न आने पाये। किसी क्षेत्र का, किसी भी परिस्थिति का व्यक्ति भौतिक या आत्मिक दृष्टि से गई-गुजरी परिस्थितियों में न रहने पाये। इसके लिए वे लोगों को अपने यहां बुलाने-जमा करने की आशा नहीं करते थे वरन् बादलों की तरह जाकर हर खेत पर बरसते और तालाब को पानी से लबालब भरते थे। यही थी एक मात्र वह रहस्य भरी परम्परा जिसने इस देश के नागरिकों को तैंतीस कोटि देवता स्तर का बनाया था और इस भारत भूमि को ‘‘स्वर्गादपि गरीयसी’’ होने का सम्मान संसार भर की जनता से दिलाया था।
आज की स्थिति में उस सतयुगी परम्परा को पुनर्जीवित करने का और कोई उपाय नहीं। यद्यपि यह है अति कठिन, क्योंकि प्राचीनकाल में इस परमार्थ प्रयोजन में असंख्यों व्यक्ति लगे मिलते थे और उन्हें देखकर एक दूसरे को प्रेरणा मिलती थी। समस्याओं को भी आपस में मिल-बैठकर समझते और सुलझाते थे, पर अब तो ऐसा कहीं भी कुछ भी दीख नहीं पड़ता। हर व्यक्ति स्वार्थ साधन में लगा है और पतन तथा कलह के बीज बो रहा है। ऐसी दशा में अन्तःप्रेरणा के आधार पर युग समस्या को समझते हुए लोकमानस के परिष्कार का कार्य कौन हाथ में ले? अकेले के बलबूते कोई व्यापक कार्यक्रम कैसे बने? और जब निराशा, असफलता और उपहास का वातावरण चारों ओर दीखे तो किस बलबूते अपने पैरों को लम्बे समय तक टिकाये रह सके? यह भावनात्मक कठिनाई ऐसी है जो विचारशीलों और साधन-सम्पन्नों को भी कुछ करने-धरने नहीं देती। फिर उनका तो कहना ही क्या जिन्हें शिक्षा की कमी, सहयोग का अभाव तथा आर्थिक तंगी जैसे अनेकों अवसाद घेरे खड़े रहते हैं।
लोकमानस इन दिनों महाभारत के चक्रव्यूह की तरह फंसा पड़ा है। इसे बिना उबारे काम चलता नहीं और उपेक्षा बरतने पर रही बची आशा पर भी तुषारापात होता है। मार्गदर्शन आज की महती आवश्यकता है, पर उसकी पूर्ति के लिए उपयुक्त मार्ग दिखाने वाला अग्रगामी भी तो चाहिए?