Books - महिला जागृति
Language: HINDI
कुटुम्ब संस्था का सन्तुलन
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फिर उसको गृह- व्यवस्था का उतना अनुभव और ज्ञान भी नहीं होता है। वह तो स्वयं भी नारी पर ही अवलम्बित रहता है। चाय- पानी से लेकर भोजन तक और कपड़ों से लेकर बिस्तर तक सबके लिए नारी पर आश्रित रहता है। इतर स्वभाव के तो अपवाद ही मिलते हैं। परिवार संस्था की ठीक- ठीक व्यवस्था अविकसित, असंस्कृत नारी से नहीं हो सकती। वह तो उलटे उसे बिगाड़ कर रख देगी। सारा घर अस्त- व्यस्त, ईर्ष्या- द्वेष, कलह और विरोध के वातावरण का निर्माण कर घर को नरक बना देगी। चौबीस घण्टे लड़ाई- झगड़, क्रोध- आक्रोश सारे परिवार में आग जैसी झुलसन पैदा होती रहेगी। ऐसे वातावरण में अच्छे नागरिकों का निर्माण नहीं हो सकता। उल्टे समाज की स्पष्ट हानि होती है। आज हर परिवार में शारीरिक और मानसिक रोगियों का जमघट है, क्योंकि परिवार की संचालिका आहार- व्यवहार के नियमों से अपरिचित है। यदि उसे सुयोग्य बनाया जाय तो वह कम खर्चे में परिवार को अधिक पौष्टिक और पोषक तत्वों से परिपूर्ण भोजन जुटा सकती है मितव्यता और सादगी का महत्त्व बेचारी पिछड़ी और दबी नारी में कैसे आ सकता है? सुधार के सृजनात्मक ढंग मानसिक दृष्टि से कुण्ठित नारी में कैसे उदय हो सकते हैं।
चलते हुए ढर्रे की राह मोड़कर श्रेष्ठ जीवन जीने का संकल्प बल उदित करना, रूढ़ि और परम्परा के कीचड़ में फँसी नारी के बूते के बाहर की बात है। समय- पालन, प्राप्त का सदुपयोग, सबका सहकार और सहयोग आत्मियता के माध्यम से प्रप्त कर, उसका उपयोग करना सुशिक्षित और सुयोग्य नारी की ही विशेषताएँ हो सकती हैं। स्वच्छता, शालीनता, सुव्यवस्था, क्रियाशीलता एवं प्रसन्नता का वातावरण सँजोकर घर को स्वर्ग बनाये रखने का सूत्र पराश्रित, दुर्बल बनाकर रखी गई नारी नहीं जान सकती। धौर्य, आत्म- संयम, संवेदनशीलता, आत्मीयता और परस्पर प्रेम के विकास के बिना पारिवारिक संतुलन नहीं बन पाता। सुसंस्कृत नारी, खानदानी लड़की स्वयं अपने अन्दर और परिवार के सदस्यों में इन गुणों का विकास कर सकती है। अविकसित और कुसंस्कारी नारी स्वयं तो परेशान रहती है, परिवार में कुहराम मचाये रहती है, न स्वयं चैन से रहती है न घर में चैन से रहने देती है। घर में नरक हो जाता है। यह हमें अक्सर ही देखने को मिलता है। समझदार नारी परिवार को टूटने से बचा लेती है। राम कथा में वनवास प्रसंग में कौशिल्या और सुमित्रा जैसी सुगृहिणियाँ डूबती बाजी को उबार लेती हैं।
माता कौशिल्या धैर्यपूर्वक कर्त्तव्य का निर्धारण करती हैं और अपनी पीड़ा को पीकर राम के सहर्ष वन जाने की आज्ञा दे देती हैं। माता सुमित्रा भी स्वार्थ की जगह पारिवारिक सद्भाव को प्राथमिकता देती हुई, लक्ष्मण को राम के सहकार, सहयोग और सेवा की शिक्षा देती हुई वन भेज देती हैं। फलस्वरूप पारिवारिक सद्भाव और कर्तव्य परायणता के वातावरण में विपत्ति प्रभावहीन हो गई। समय के प्रभाव से परिवार में उतार- चढाव तो आना स्वाभाविक है। परिवार की संचालिका, गृह- लक्ष्मी उन्हें निरस्त करके परिवार में स्वर्गीय वातावरण को बनाये रख सकती हैं। परिवार संस्था को समुन्नत बनाने के लिए नारी को वर्तमान स्थिति से उभारा और समुन्नत बनाया जाना आवश्यक है।