Books - मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कंप्युटर
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Language: HINDI
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मस्तिष्क एक जादुई पिटारा
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देखने, नापने और तोलने में छोटा-सा लगने वाला मस्तिष्क, जादुई, क्षमताओं और गतिविधियों से भरा-पूरा है। उसमें प्रायः एक अरब स्नायु कोष हैं। इनमें प्रत्येक की अपनी दुनिया, अपनी विशेषता और अपनी संभावनाएं हैं। वे प्रायः अपना अभ्यस्त काम निपटाने भर में दक्ष होते हैं। उनकी अधिकांश क्षमता प्रसुप्त स्थिति में पड़ी रहती है। काम न मिलने पर हर चीज निरर्थक रहती है। इसी प्रकार इन कोषों से दैनिक जीवन की आवश्यकताएं पूरा कर सकने के लिए आवश्यक थोड़ा-सा काम कर लिया जाता है तो उतना ही करने में वे दक्ष रहते हैं। यदि अवसर मिला होता, उन्हें उभारा और प्रशिक्षित किया गया होता, तो वे अब की अपेक्षा लाखों गुनी क्षमता प्रदर्शित कर सके होते अलादीन के चिराग की कहारी कल्पित हो सकती है, पर अपना मस्तिष्क सचमुच जादुई चिराग सिद्ध होता है।
यह मस्तिष्क मात्र रासायनिक पदार्थों से बना हुआ मांस पिंड भर नहीं है। बाहर से मस्तिष्क का आकार चाहे जो दिखाई दे उसकी विलक्षण विशेषताएं आंतरिक भाग में विद्यमान रहती हैं। मस्तिष्क के आंतरिक हिस्से में, भीतरी भाग में चारों और दो काले रंग की पट्टियां लिपटी हुई हैं, इन्हें टेंयोरल कोरटेक्स कहते हैं। इनका क्षेत्रफल लगभग 25 वर्ग इंच और मोटाई एक इंच का दसवां भाग है। इकनाथनस कनपटियों से ठीक नीचे है। स्मृति का संयम और नियमन इन्हीं से होता है।
मस्तिष्क के शल्य चिकित्सक डा. बिल्डर पेन फील्ड ने इन पट्टियों की शेष खोज की है और वे मुद्दतों पुरानी ऐसी स्मृतियों को जागृत करने में सफल हुए हैं जिन्हें सामान्य या उपेक्षणीय कहा जा सकता है महत्वपूर्ण प्रभाव डालने वाली घटनाएं तो प्रायः याद रहती हैं, पर जो दैनिक जीवन में ऐसे ही आंखों के सामने से गुजरती रहती हैं, उनका कोई महत्व नहीं माना जाता वे विस्मृत के गर्त में जा पड़ती हैं। पुरानी हो जाने पर उन्हें याद कर सकना सम्भव नहीं होता फिर भी वे पूर्णतया विस्मृत नहीं कहीं जा सकतीं। वे ‘टेम्पाकल कोरटेक्स’ पट्टियों के पुराने परत स्पर्श करने से जागृत हो सकती हैं। डा. विल्डर ने कितने ही व्यक्तियों के मस्तिष्क के मर्मस्थलों का विद्युत धारा से स्पर्श करके निरर्थक घटनाक्रमों को स्मरण कराने में सफलता प्राप्त की है।
स्मरण शक्ति की विलक्षणता को ही लें, वह कई व्यक्तियों में इतनी अधिक मात्रा में विकसित पाई जाती है कि आश्चर्य चकित रह जाना पड़ता है। लिथुयानिया का रैवी एलिजा दो हजार पुस्तकें कंठाग्र रखने के लिए प्रसिद्ध था। कितनी ही बार उलट-पुलटकर उसकी परीक्षा की गई और वह सदा खरा उतरा। फ्रांस का राजनेता लिआन गैम्वाटा को विक्टर ह्यूगो की रचनाएं बहुत पसन्द थीं। उनमें से उसने हजारों संदर्भ के पृष्ठ याद कर रक्खे थे और उन्हें आवश्यकतानुसार धड़ल्ले के साथ घन्टों दुहराता रहता था। इसमें एक शब्द भी आगे पीछे नहीं होता था। पृष्ठ संख्या तक वह सही-सही बताता चलता था।
ग्रीक विद्वान रिचार्ड पोरसन को भी पढ़ी हुई पुस्तकें महीनों याद रहती थीं। जो उसने आज पढ़ा है उसे एक महीने तक कभी भी पूछा जा सकता था और वे उसे ऐसे सुनाते थे मानो अभी-अभी रट कर आये हों। शतरंज का जादूगर नाम से प्रख्यात अमेरिकी नागरिक हैरी नेलसन पिल्सवरी एक साथ बीस शतरंज खिलाड़ियों की चाल को स्मरण रखकर उनका मार्ग दर्शन करता था। यह सब काम पूरी मुस्तेदी और फुर्ती से चलता था बीसों खिलाड़ी उसका मार्ग दर्शन पाते और खेल की तेजी बनाये रखते थे। प्रसा जर्मनी का लाइब्रेरियन मैथूरिन वेसिरे दूसरों के कहे शब्दों की हू बहू पुनरावृत्ति कर देता था। जिन भाषाओं का उसे ज्ञान नहीं था उनमें वार्तालाप करने वालों की बिना चूक नकल उतार देने की उसे अद्भुत शक्ति थी। एक बार बारह भाषा-भाषी लोगों ने अपनी बोली में साथियों से वार्तालाप किये। मथुरिन क्रमशः बारहों के वार्तालाप को यथावत् दुहरा कर सुना दिया। वरमान्ष का आठ वर्षीय बालक जेरा कोलवर्न गणित के अति कठिन प्रश्न को बिना कागज-कलम का सहारा लिए मौखिक रूप में हल कर देता था। लन्दन के गणितज्ञों के सम्मुख उसने अपनी अद्भुत प्रतिभा का प्रदर्शन करके सबको चकित कर दिया था। हम्वर्ग निवासी जान मार्टिन डेस भी अति कठिन गणित प्रश्नों को मौखिक रूप से हल करने में प्रसिद्ध था। उन दिनों उसके दिमाग की गणित क्षमता इतनी बढ़ी-चढ़ी थी कि आज के गणित कम्प्यूटर भी उससे प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते थे। मानवी-मस्तिष्क में जो अद्भुत शक्तियां भरी पड़ी हैं, उनमें से वह केवल कुछ की ही थोड़ी-सी ही मात्रा का प्रयोग कर पाता है। सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक शिक्षण द्वारा मनुष्य की जानकारी तथा क्रिया-कुशलता बढ़ती है। उस आधार पर वह अनुभव एवं अभ्यास को बढ़ाकर तरह-तरह की भौतिक सफलताएं प्राप्त करता है। सामान्य-जीवन की प्रगति इस प्रशिक्षण-जन्य मस्तिष्कीय-विकास पर ही निर्भर रहती है। यह सारा क्रियाकलाप समग्र मानसिक-क्षमता का एक बहुत छोटा अंश है। इस परिधि से बाहर इतनी अधिक सामर्थ्य बच जाती है, जिसका कभी स्पर्श तक नहीं हो पाता और अछूती क्षमताओं को प्रसुप्त अवस्था में पड़ी रहने की दुखद स्थिति में ही जीवन का अन्त हो जाता है।
मस्तिष्कीय-चमत्कारों में एक स्मरण-शक्ति का विकास भी है। यदि उस संस्थान को समुन्नत बना लिया जाय तो सामान्यतया जितना मानसिक श्रम किया जा सकता है, उससे कई गुना कर सकना सम्भव हो सकता है।
संयुक्त-राष्ट्र संघ में एक ऐसे भाषा-अनुवादक थे, जो एक ही समय में चार भाषाओं का अनुवाद अपने मस्तिष्क में जमा लेते थे और चार स्टेनोग्राफ़र बिठाकर उन्हें नोट कराते चले जाते थे।
दार्शनिक जेरमी वेन्थम जब चार वर्ष के थे, तभी लैटिन और ग्रीक भाषाएं ठीक तरह बोलने लगे थे। जर्मनी गणितज्ञ जाचारियस ने एक बार 200 अंकों वाली लम्बी संख्या का गुणा मन ही मन करके लोगों को अचम्भे में डाल दिया था। अमेरिका के एक गैरिज-कर्मचारी को सैकड़ों मोटरों के नम्बर जबानी याद थे और वह उनकी शक्ल देखते ही पुरानी मरम्मत की बात भली प्रकार याद कर लेता था।
डार्ट माउथ कालेज अमेरिका में एक प्रयोग किया गया कि क्या छात्रों की पुस्तक पढ़ने की गति तीव्र की जा सकती है? मनो वैज्ञानिक व्यायामों और प्रयोगों के सहारे हर मिनट 230 शब्दों की औसत से पढ़ने वाले छात्रों की गति कुछ ही समय में बढ़कर 500 प्रति मिनट तक पहुंच गई।
छोटी आयु भी प्रति में बाधा नहीं डाल सकती है। शर्त एक ही है कि उसे मनोयोग पूर्वक अपने कार्य में तत्पर रहने की लगन हो। डान फ्रांसिस्को कोलम्बिया विश्वविद्यालय में जब प्राकृतिक इतिहास का प्रोफेसर नियुक्त हुआ, तब उसकी आयु, मात्र 16 वर्ष की थी।
आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने एक चार वर्षीय बालिका बेबेक थाम्पसन को गणित अध्ययन के लिए अतिरिक्त प्रबन्ध किया है। यह बालिका इतनी छोटी आयु में ही अंकगणित, त्रिकोण-मिति और प्रारम्भिक भौतिक-शास्त्र में असाधारण गति रखती है। इस उम्र के बालक ने जिसने प्रारम्भिक पढ़ाई क्रमबद्ध रीति से नहीं पढ़ी, आगे कैसे पढ़ाया जाय? इसका निर्धारण करने के लिए शिक्षा-शास्त्रियों का एक विशेष पैनल काम कर रहा है। मद्रास संगीत एकादमी नयास की ओर से रवि किरण नामक ढाई वर्ष के बालक को इसकी अद्भुत संगीत प्रतिभा के उपलक्ष में 52) रु. प्रति मास तीनों वर्षों तक अतिरिक्त छात्र-वृत्ति देने की घोषणा की है। यह बालक न केवल कई वाद्य-यन्त्रों का ठीक तरह बजाना जानता है, वरन् दूसरों द्वारा गलत बजाये जाने पर उस गलती को बताता भी है।
उदाहरण यह बताते हैं कि हमारे मस्तिष्क में सारे संसार का ज्ञान आत्मसात कर लेने वाले विलक्षण तत्व विद्यमान हैं। लार्ड मैकाले 19वीं सदी के विख्यात ब्रिटिश इतिहास लेखक थे। उसने इंग्लैंड का इतिहास आठ जिल्दों में लिखा था। उसके लिए उन्होंने दूसरी पुस्तकें उठाकर भी नहीं देखीं। हजारों घटनाओं की तिथियां और घटनाएं सम्बन्धित व्यक्तियों के नाम उन्हें जबानी याद थे। यही नहीं, स्थानों के परिचय—दूसरे विषय और अब तक जितने भी व्यक्ति उनके जीवन सम्पर्क में आ चुके थे, उन सबके नाम उन्हें कण्ठस्थ थे। लोग उन्हें चलता फिरता पुस्तकालय या विश्व कोष कहते थे।
पोर्सन ग्रीक भाषा का अद्वितीय पंडित था, उसने ग्रीक भाषा की सभी पुस्तकें और शेक्सपियर के नाटक मुख जबानी याद कर लिये थे। ब्रिटिश संग्रहालय के सहायक अधीक्षक रिचर्ड गार्नेट बारह वर्ष तक एक संग्रहालय के मुद्रित पुस्तक विभाग के अध्यक्ष थे, इस संग्रहालय में पुस्तकों की हजारों अलमारियां और उनमें करोड़ों की संख्या में पुस्तकें थीं। श्री गार्नेट अपनी कुर्सी पर बैठे-बैठे न केवल पुस्तक का ठिकाना बता देते थे, वरन् पुस्तक की भीतरी जानकारी भी देते थे।
जर्मनी के कार्लविट नामक बालक ने स्वल्पायु में आश्चर्यजनक बौद्धिक प्रति करने वाले बालकों में अपना कीर्तिमान स्थापित किया है। वह 9 वर्ष की आयु में माध्यमिक परीक्षा उत्तीर्ण करे लिफ्जिग विश्वविद्यालय में प्रविष्ट हुआ और 14 वर्ष की आयु तक पहुंचने पर उसने न केवल स्नातकोत्तर परीक्षा पास की वरन् विशेष अनुमति लेकर साथ ही पी.एच.डी. की डिग्री भी प्राप्त कर ली। 16 वर्ष की आयु में उसने उससे भी ऊंची एल.एल.डी. की उपाधि अर्जित की और उन्हीं दिनों वह बर्लिन विश्वविद्यालय में प्रोफेसर नियुक्त किया गया।
इस घटना पर टिप्पणी करते हुए ‘‘न्यूरोन फिजियोलॉजी इन्ट्राडक्शन’’ के लेखक डा. जी.सी. एकिल्स ने लिखा है कि यह अनुभव यह बताते हैं कि मनुष्य को बालक के रूप में उपलब्ध ज्ञान जन्मान्तरों के संस्कार के अतिरिक्त क्या हो सकता है? अतएव हमारे जीवन का सर्वोपरि ज्ञान होना चाहिए।
वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर आ गये हैं कि मस्तिष्क में ऐसे तत्व भी हैं जो 20 अरब पृष्ठों से भी अधिक ज्ञान भण्डार सुरक्षित रख सकने में समर्थ हैं। एक व्यक्ति एक दिन में लगभग 50 लाख चित्र देखता है उनकी बनावट रूप रंग ध्वनि सुगन्ध व मनोभावों का भी आकलन करता है। अभिव्यक्त न कर सकने पर भी अनुभूत ज्ञान के रूप में उसमें से विशाल भण्डार मस्तिष्क में बना रहता है इस दृष्टि से मस्तिष्क किसी जादुई पिटारे से कम नहीं। यदि उसे वस्तुतः जागृत किया जा सके तो मनुष्य त्रिकालज्ञ ही हो सकता है भारतीय तत्वदर्शन की यह मान्यता कपोल कल्पित नहीं इन तथ्यों के प्रकाश में वैज्ञानिक सत्य ही प्रतीत होता है।
परिष्कृत मस्तिष्क की क्षमता
न्यूयार्क (अमरीका) शहर के सभी संभ्रान्त, व्यक्ति, बुद्धिजीवी और नगर की आबादी के हर क्षेत्र के नगर-पार्षद उपस्थित हैं। हाल खचाखच भरा है। तभी एक व्यक्ति सामने स्टेज (मंच) पर आता है। एक व्यक्ति ने प्रश्न किया—60 को 60 में गुणा करने पर गुणन फल क्या आयेगा तथा गुणा करते समय 47वें अंक का गुणा करने पर जो पंक्ति आयेगी उसे बांई ओर से गिनने पर 39वां अंक कौन-सा होगा। प्रश्न सुनते ही वह व्यक्ति जो प्रदर्शन के लिये आमन्त्रित किये गये थे वह निर्विकार रूप से कुर्सी पर बैठ गये। बिना किसी खड़िया कागज पट्टी अथवा पेन्सिल के प्रश्न मस्तिष्क का मस्तिष्क में ही हल करने लगे।
ध्यानस्थ व्यक्ति एक भारतीय थे। उनके अद्भुत मस्तिष्कीय करतबों से प्रभावित होने के कारण उन्हें अमरीका बुलाया गया। नाम था श्री सुरेशचन्द्र दत्त, बगाल के ढाका जिले के रहने वाले। सुरेशचन्द्र दत्त ने कुल 45 मिनट में इतना लम्बा गुणा हल करके बता दिया, 47वीं पंक्ति का 39 वां अक्षर भी। इससे पहले यही प्रश्न न्यूयार्क यूनिवर्सिटी के एक पी.एच.डी. प्रोफेसर ने भी हल किया था प्रोफेसर साहब ने मौखिक न करके विधिवत कापी-पेन्सिल से गुणा किया था। प्रतिदिन 2 घन्टा लगाने के बाद पूरा प्रश्न वे 8 दिन में हल कर पाये थे। दोनों गुणन फल मिलाकर देखे गये तो दोनों में अन्तर। निश्चित था कि उनमें से आया श्री सुरेशचन्द्र दत्त अथवा प्रोफेसर साहब किसी एक का हल गलत था। जांच के लिये दूसरे गणितज्ञ बैठाये गये। उनका जो गुणन-फल आया वह श्री सुरेशचंद्र दत्त के गुणनफल जितना ही था एक भी अंक गलत नहीं था जबकि अमेरिकी प्रोफेसर साहब का हल 19 स्थानों पर गलत था। श्री सुरेशचन्द्र दत्त से ऐसे कई प्रश्न पूछे गये जिनके उन्होंने सर्व शुद्ध हल करके बता दिये। किस शताब्दी की किस तारीख को कौन-सा दिन था—ऐसे प्रश्न पूछे गये जिनका उत्तर 1 सैकेण्ड में ही श्री सुरेशचन्द्र दत्त ने दिया—एक भी उत्तर गलत नहीं निकला। अमेरिका के वैज्ञानिक और बुद्धिवादी लोग इस अद्भुत क्षमता पर आश्चर्य चकित थे। दूसरे दिन अखबारों में सुरेशचन्द्र दत्त की प्रशंसा—मशीन का प्रतिद्वन्द्वी (राइवल आफ मशीन, दिमागी जादूगर (मेन्टल विजर्ड) मनुष्य की शक्ल में हिसाब की मशीन (ह्यूमन रेडी रेकनर) तथा विद्युत गति से भी तीव्र गति से गणित के प्रश्न हल करने वाला (लाइटनिंग कैलकुलेटर) आदि विशेषण देकर की गई। नवम्बर 1926 में ‘‘इंडियन रिव्यू’’ में श्री सुरेशचन्द्र दत्त की इस विलक्षण प्रतिभा की जानकारी विस्तार से दी गई और इस अद्भुत मस्तिष्कीय क्षमता पर आश्चर्य प्रकट किया गया।
मनुष्य की जन्म-जात विशेषताओं का कारण? वैज्ञानिकों से पूछा जाता है तो उत्तर मिलता है वंशानुक्रम गुणों के कारण ऐसा होता है।
श्री सुरेशचन्द्र दत्त के परिवार में उनकी ही तरह कोई विलक्षण बौद्धिक क्षमता वाला व्यक्ति समीपवर्ती तो पाया नहीं गया सम्भव है वह आदि पूर्वजों ऋषियों का अनुवांशिक गुण रहा हो उस स्थिति में भी वह गुण और कहीं अनादि समय से ही आया होगा जो एक अनादि चेतन तत्व की पुष्टि करता है। श्री दत्त में इस सुप्त गुण का पता जब वे 8 वर्ष के थे तब चला। एक बार एक स्कूल इंस्पेक्टर मुआयने के लिये आये। उन्होंने कुछ मौखिक प्रश्न पूछे श्री सुरेशचन्द्र ने उन्हें सेकेण्डों में बता दिये इंस्पेक्टर क्रमशः उलझे गुणक देता चला गया और श्री दत्त उनके सही उत्तर। तब कहीं उन्हें स्वयं भी अपनी इस अद्भुत क्षमता का पता चला। पीछे तो वे 100 संख्या तक के गुणनफल और किसी भी बड़ी संख्या के वर्गमूल (स्क्वैयर रूट) तथा घन मूल (क्यूब रूट) भी एक सेकेण्ड में बता देते थे।
ऐसी क्षमताओं वाले एक नहीं इतिहास में सैकड़ों ही व्यक्ति हुए हैं। इतिहास प्रसिद्ध घटना है—एक बार एडिनबरा का बेजामिन नामक सात वर्षीय लड़का अपने पिता के साथ कहीं जा रहा था। बातचीत के दौरान उसने अपने पिता से पूछा पिताजी मैं किस दिन, किस समय, पैदा हुआ था पिता ने समय बताया ही था कि दो सेकेन्ड पीछे बैंजामिन ने कहा—तब तो मुझे जन्म के लिये इतने सेकेंड हो गये। पिता ने आश्चर्यचकित होकर हिसाब लगाकर देखा तो उसमें 172800 सेकेंड का अन्तर मिला। किन्तु बैंजामिन ने तभी हंसते हुये कहा पिताजी आपने सन् 1820 और 1824 के दो लीप-इयर के दिन छोड़ दिये हैं। पिता भौंचक्का रह गया बालक की विलक्षण बुद्धि पर दुबारा उतना घटाकर देखा गया तो बच्चे का उत्तर शत प्रतिशत सच निकला। यह घटना मायर की पुस्तक ह्यूमन पर्सनेलिटी में दी गई है और प्रश्न किया गया है कि आखिर मनुष्य अपने इस ज्ञानस्वरूप की वास्तविक शोध कब करेगा? मापर्स ने लिखा है जब तक मनोविज्ञान की सही व्याख्यायें नहीं होती विज्ञान की शोधें अधूरी और मनुष्य-जीवन के उतने लाभ की नहीं होगी जितनी की उपेक्षा की जाती है।
मस्तिष्क एक परिष्कृत देव भूमि
अपनी उंगलियों से नापने पर 96 अंगुल से इस मनुष्य शरीर का वैसे तो प्रत्येक अवयव गणितीय आधार पर बना और अनुशासित है पर जितना महत्वपूर्ण यन्त्र इसका मस्तिष्क है संसार का कोई भी यन्त्र न तो इतना जटिल, रहस्यपूर्ण है और न समर्थ यों साधारणतया देखने में उसके मुख्य कार्य—1. ज्ञानात्मक, 2. क्रियात्मक और 3. संयोजनात्मक हैं पर जब मस्तिष्क के रहस्यों की सूक्ष्मतम जानकारी प्राप्त करते हैं तो पता चलता है कि इन तीनों क्रियाओं को मस्तिष्क में इतना अधिक विकसित किया जा सकता है कि (1) संसार के किसी एक स्थान में बैठे-बैठे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के किसी भी स्थान की चींटी से भी छोटी वस्तु का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। (2) कहीं भी बैठे हुए किसी को कोई सन्देश भेजा सकते हैं, कोई भार वाली वस्तु को उठाकर ला सकते हैं, किसी को मूर्छित कर सकते हैं, मार भी सकते हैं। (3) संसार में जो कुछ भी है, उस पर स्वामित्व और वशीकरण भी कर सकते हैं। अष्ट सिद्धियां और नव-निद्धियां वस्तुतः मस्तिष्क के ही चमत्कार हैं, जिन्हें मानसिक एकाग्रता और ध्यान द्वारा भारतीय योगियों ने प्राप्त किया था।
ईसामसीह अपने शिष्यों के साथ यात्रा पर जा रहे थे। मार्ग में वे थक गये, एक स्थान पर उन्होंने अपने एक शिष्य से कहा—‘‘तुम जाओ सामने जो गांव दिखाई देता है, उसके अमुक स्थान पर एक गधा चरता मिलेगा तुम उसे सवारी के लिए ले आना।’’ शिष्य गया और उसे ले आया। लोग आश्चर्यचकित थे कि ईसामसीह की इस दिव्य दृष्टि का रहस्य क्या है? पर यह रहस्य प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क में विद्यमान है, बशर्ते कि हम भी उस जागृत कर पायें।
जिन शक्तियों और सामर्थ्यों का ज्ञान हमारे भारतीय ऋषियों ने आज से करोड़ों वर्ष पूर्व बिना किसी यन्त्र के प्राप्त किया था, आज विज्ञान और शरीर रचना शास्त्र (बायोलॉजी) द्वारा उसे प्रमाणित किया जाना यह बताता है कि हमारी योग-साधनायें, जप और ध्यान की प्रणालियां समय का अपव्यय नहीं वरन् विश्व के यथार्थ को जानने की एक व्यवस्थित और वैज्ञानिक प्रणाली है।
मस्तिष्क नियंत्रण प्रयोगों द्वारा डा. जोजे डेलगाडो ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि मस्तिष्क के दस अरब न्यूरॉन्स के विस्तृत अध्ययन और नियंत्रण से न केवल प्राण-धारी को भूख-प्यास, काम-वासना आदि पर नियन्त्रण प्राप्त किया जा सकता है वरन् किसी के मन की बात जान लेना, अज्ञात रूप से कोई बिना तार के तार की तरह संदेश और प्रेरणायें भेज कर कोई भी कार्य करा लेना भी सम्भव है। न्यूरोन मस्तिष्क से शरीर और शरीर से मस्तिष्क में सन्देश लाने, ले जाने वाले बहुत सूक्ष्म कोषों (सेल्स) को कहते हैं, इनमें से बहुत पतले श्वेत धागे से निकले होते हैं, इन धागों से ही इन कोषों का परस्पर सम्बन्ध और मस्तिष्क में जाल-सा बिठा हुआ है। यह कोष जहां शरीर के अंगों से सम्बन्ध रखते हैं, वहां उन्हें ऊर्ध्वमुखी बना लेने से प्रत्येक कोषाणु सृष्टि के दस अरब नक्षत्रों के प्रतिनिधि का काम कर सकते हैं, इस प्रकार मस्तिष्क को ग्रह-नक्षत्रों का एक जगमगाता हुआ यंत्र कह सकते हैं।
डा. डेलगाडो ने अपने कथन को प्रमाणित करने के लिये कई सार्वजनिक प्रयोग करके भी दिखाये। अली नामक एक बन्दर को केला खाने के लिए दिया गया। जब वह केला खा रहा था, तब डा. डेलगाडो ने ‘इलेक्ट्रोएसीफैलोग्राफ’ के द्वारा बन्दर के मस्तिष्क को सन्देश दिया कि केला खाने की अपेक्षा भूखा रहना चाहिये तो बन्दर ने भूखा होते हुये भी केला फेंक दिया। ‘इलेक्ट्रो-एसीफैलोग्राफ’ एक ऐसा यन्त्र है, जिसमें विभिन्न क्रियाओं के समय मस्तिष्क में उठने वाली भाव-तरंगों को अंकित कर लिया गया है। किसी भी प्रकार की भाव तरंग को विद्युत शक्ति द्वारा तीव्र कर देते हैं। तो मस्तिष्क के शेष सब भाव दब जाते हैं और वह एक ही भाव तीव्र हो उठने से मस्तिष्क केवल वहीं काम करने लगता है।
डा. डेलगाडो ने इस बात को एक अत्यन्त खतरनाक प्रयोग द्वारा भी सिद्ध करके दिखाया। एक दिन उन्होंने इस प्रयोग की सार्वजनिक घोषणा कर दी। हजारों लोग एकत्रित हुए। सिर पर इलेक्ट्राड जड़े हुए दो खूंखार सांड़ लाये गये। इलेक्ट्राड एक प्रकार का एरियल है, जो रेडियो ट्रान्समीटर द्वारा छोड़ी गई तरंगों को पकड़ लेता है। जब दोनों सांड़ मैदान में आये तो उस समय की भयंकरता देखते ही बनती थी, लगता था दोनों सांड़ डेलगाडो का कचूमर निकाल देंगे पर वे जैसे ही डेलगाडो के पास पहुंचे उन्होंने अपने यन्त्र से सन्देश भेजा कि युद्ध करने की अपेक्षा शान्त रहना अच्छा है तो बस फुंसकारते हुये दोनों सांड़ ऐसे प्रेम से खड़े हो गये, जैसे दो बकरियां खड़ी हों। उन्होंने कई ऐसे प्रयोग करके रोगियों को भी अच्छा किया।
सामान्य व्यक्ति के मस्तिष्क में 20 वाट विद्युत शक्ति सदैव संचालित होती रहती है पर यदि किसी प्रविधि (प्रोसेस) से प्रत्येक न्यूरोन को सजग किया जा सके तो दस अरब न्यूरोन, दस अरब डायनेमो का काम कर सकते हैं। उस गर्मी, उस प्रकाश, उस विद्युत क्षमता का पाठक अनुमान लगायें कितनी अधिक हो सकती होगी।
विज्ञान की यह जानकारियां बहुत ही सीमित हैं। मस्तिष्क सम्बन्धी भारतीय ऋषियों की शोधें इससे कहीं अधिक विकसित और आधुनिक हैं। हमारे यहां मस्तिष्क को देवभूमि कहा गया है और बताया है कि मस्तिष्क में जो सहस्र दल कमल हैं, वहां इन्द्र और सविता विद्यमान हैं। सिर के पीछे के हिस्से में रुद्र और पूषन देवता बताए हैं। इनके कार्यों का विवरण देते हुए शास्त्रकार ने इन्द्र और सविता को चेतन शक्ति कहा है और रुद्र एवं पूषन को अचेतन। दरअसल वृहत् मस्तिष्क (सेरेब्रम) ही वह स्थान है, जहां शरीर के सब भागों से हजारों नस-नाड़ियां आकर मिली हैं। यही स्थान शरीर पर नियन्त्रण रखता है, जबकि पिछला मस्तिष्क स्मृति-शक्ति का केन्द्र है। अचेतन कार्यों के लिये यहीं से एक प्रकार के विद्युत्प्रवाह आते रहते हैं।
जब तक मस्तिष्क का यह चेतन भाग क्रियाशील रहता है। जन्म के समय भी शरीर रचना का विकास यहीं से होता है और इसके क्षतिग्रस्त होने पर ही सम्पूर्ण मृत्यु होती है। शारीरिक मृत्यु (क्लिनिकल डेथ) हो जाने पर भी जब तक यह भाग जीवित रहता है, तब तक व्यक्तित्व मुर्दा नहीं होता। इसके अनेक उदाहरण भी पाये गए हैं।
सन् 1896 में कलकत्ता में फ्रैंक लेसली नामक एक अंग्रेज का हृदयगति रुक जाने से निधन हो गया। उसके परिवार में औरों की भी हृदयगति रुकने से मृत्यु हुई थी, इसलिए उसकी मृत्यु निश्चित मानकर उसे ताबूत में बन्द कर कब्रिस्तान में गाढ़ दिया गया। उसके परिवार वाले उसे उटकमंड के सेट जान चर्च के कब्रिस्तान में उसे गाढ़ना चाहते थे। किन्तु इसके लिये आवश्यक आज्ञा 6 माह बाद मिली।
मृत्यु के पूर्व डाक्टरों ने सारी परीक्षा ठीक-ठीक कर ली थी, कब्र और ताबूत के अन्दर कोई कीड़ा भी न जा सकता था, फिर यह स्थिति कैसे हुई। निःसन्देह उसकी अन्तिम चेतना जब मस्तिष्क के अदृश्य भाग में थी, तभी उसे दफना दिया गया पर जब चेतना लौटी होगी तो उस समय शरीर सांस लेने की स्थिति में न था। भय और क्रोध में ही उसने निकलने का प्रयत्न किया होगा, तभी कपड़े फटे होंगे और अन्त में रक्त-वमन के साथ उसकी मृत्यु हुई होगी।
एडिनबरा में लड़कियों के होस्टल में एक बार एक लड़की बीमार पड़ी। डाक्टरी उपचार के बावजूद उसके शरीर के जीवन के सब लक्षण लुप्त हो गये। नाड़ी चलना बन्द हो गई, श्वांस की गति रुक गई। डाक्टरों ने लड़की को मृत घोषित कर दिया और उसकी अन्त्येष्टि की आज्ञा दें दी गई।
किन्तु सुप्रसिद्ध डाक्टरों की घोषणा के बाद भी होस्टल संरक्षिका (वार्डन) ने लड़की की अन्त्येष्टि क्रिया करने से इनकार कर दिया। उसने कहा—‘‘इसके शरीर से जब तक दुर्गन्ध नहीं आती मैं इसे मृतक नहीं मानती, भले ही डॉक्टर कुछ कहें।’’ दस दिन तक लड़की उसे अवस्था में पड़ी रही। शरीर में सड़ने या दुर्गन्ध के कोई लक्षण नहीं थे। डॉक्टर इस घटना से स्वयं भी आश्चर्य चकित थे। आश्चर्य उस समय और बढ़ गया, जब तेरहवें दिन लड़की जीवित हो गई और कुछ ही दिन में स्वस्थ भी हो गई। सन्त हरिदास ने सिख राजा रणजीतसिंह के आग्रह पर अंग्रेज जनरल वेन्टुरा को 10 दिन और 40 दिन की योग समाधि जमीन में जीवित गड़कर दिखाई थी। जब वे मिट्टी से निकले थे, तब उनका चोटी के पास वाला स्थान अग्नि की तरह गर्म था।
यह स्थान सप्तधार सोम ‘रोदसी’ कहलाता है। रोदसी का अर्थ होता है दो खन्डों वाला—दोनों खन्ड इन्द्र और सविता, मध्य भाग को अन्तरिक्ष और अनुपमस्तिष्क की पृथ्वी कहा है। इनमें क्रमशः अग्नि स्वर्गद्वार, अत्रि, द्रोणकलश और अश्विनी आदि सात प्रमुख शक्तियां काम करती हैं। इन सात शक्तियों को षैरासेल्सस ने भी अपोलो और डैविड दो भागों में विभक्त किया है। और स्वीकार किया है कि यह सात पुष्प मस्तिष्क की सूक्ष्म आध्यात्मिक भावनाओं से सम्बन्ध रखते हैं। इन सात भागों को शरीर रचना शास्त्र अब सात शून्य स्थानों (वेन्ट्रिकिल्स) के रूप में जानने लगा है। पहला, दूसरा और चौथा खाली स्थान मस्तिष्क के दायें और बायें। तीसरा उसके नीचे पीनियल और पिचुट्री ग्रन्थि से जुड़ा होता है। पांचवां तीसरे के नीचे सेरीबेलम के स्थान पर है, छठवां मस्तिष्क से निकलता है एवं नीचे रीढ़ में होता हुआ सैक्रोकोक्सिजियल गैग्लियन अर्थात् रीढ़ के निचले भाग में पहुंचता है। सातवां खोपड़ी के दायें भाग में बादल की तरह छाया रहता है।
वरुण देवता को तीनों लोकों में व्याप्त बताया गया—
यस्य श्वेता विचक्षणा विस्रो भूमीरधिक्षितः थिरुत्तराणि पप्रतुः वरुणस्य ध्रुवं सदः । स सप्तानाभिरज्यति ।।
अर्थात्—वरुण देव की रहस्यमयी इस धारणा किये हुये शिरायें तीनों लोकों में व्याप्त हैं, तीनों उत्तर दिशा के स्नायु-केन्द्रों से बंधी है, यहां वरुणदेव का मूल निवास है और यहीं से निकले हुए सात स्नायु केन्द्र सारे शरीर और मानसिक चेतना का नियंत्रण करते हैं। शरीर रचना शास्त्रियों ने भी इसे सेरीबो स्पाइनल फ्लूइड के नाम से स्वीकार किया है और यह माना है कि इसमें 99 प्रतिशत जल ही होता है, एक प्रतिशत विभिन्न लवण होते हैं।
विज्ञान और अध्यात्म की यह तुलनात्मक जानकारियां यद्यपि अपूर्ण हैं पर वे एक ऐसे दर्शन के द्वार अवश्य खोलती हैं, जिनमें वैज्ञानिक भी यह स्वीकार कर सकते हैं कि मनुष्य मस्तिष्क से नितान्त शरीर ही नहीं वरन् एक विचार विज्ञान भी है और उस दिशा में शोध के लिये अभी विज्ञान का सारा क्षेत्र अधूरा पड़ा है। लोग चाहे तो उसे आध्यात्मिक और योगिक क्रियाओं द्वारा खोजकर एक महत्तम शक्ति के स्वामी होने का सौभाग्य प्राप्त कर सकते हैं। देवताओं के नाम से विख्यात इन खाली स्थानों (केन्द्रिकिल्स) में शक्ति के अज्ञात स्रोत छुपे हुये हैं।
यह मस्तिष्क मात्र रासायनिक पदार्थों से बना हुआ मांस पिंड भर नहीं है। बाहर से मस्तिष्क का आकार चाहे जो दिखाई दे उसकी विलक्षण विशेषताएं आंतरिक भाग में विद्यमान रहती हैं। मस्तिष्क के आंतरिक हिस्से में, भीतरी भाग में चारों और दो काले रंग की पट्टियां लिपटी हुई हैं, इन्हें टेंयोरल कोरटेक्स कहते हैं। इनका क्षेत्रफल लगभग 25 वर्ग इंच और मोटाई एक इंच का दसवां भाग है। इकनाथनस कनपटियों से ठीक नीचे है। स्मृति का संयम और नियमन इन्हीं से होता है।
मस्तिष्क के शल्य चिकित्सक डा. बिल्डर पेन फील्ड ने इन पट्टियों की शेष खोज की है और वे मुद्दतों पुरानी ऐसी स्मृतियों को जागृत करने में सफल हुए हैं जिन्हें सामान्य या उपेक्षणीय कहा जा सकता है महत्वपूर्ण प्रभाव डालने वाली घटनाएं तो प्रायः याद रहती हैं, पर जो दैनिक जीवन में ऐसे ही आंखों के सामने से गुजरती रहती हैं, उनका कोई महत्व नहीं माना जाता वे विस्मृत के गर्त में जा पड़ती हैं। पुरानी हो जाने पर उन्हें याद कर सकना सम्भव नहीं होता फिर भी वे पूर्णतया विस्मृत नहीं कहीं जा सकतीं। वे ‘टेम्पाकल कोरटेक्स’ पट्टियों के पुराने परत स्पर्श करने से जागृत हो सकती हैं। डा. विल्डर ने कितने ही व्यक्तियों के मस्तिष्क के मर्मस्थलों का विद्युत धारा से स्पर्श करके निरर्थक घटनाक्रमों को स्मरण कराने में सफलता प्राप्त की है।
स्मरण शक्ति की विलक्षणता को ही लें, वह कई व्यक्तियों में इतनी अधिक मात्रा में विकसित पाई जाती है कि आश्चर्य चकित रह जाना पड़ता है। लिथुयानिया का रैवी एलिजा दो हजार पुस्तकें कंठाग्र रखने के लिए प्रसिद्ध था। कितनी ही बार उलट-पुलटकर उसकी परीक्षा की गई और वह सदा खरा उतरा। फ्रांस का राजनेता लिआन गैम्वाटा को विक्टर ह्यूगो की रचनाएं बहुत पसन्द थीं। उनमें से उसने हजारों संदर्भ के पृष्ठ याद कर रक्खे थे और उन्हें आवश्यकतानुसार धड़ल्ले के साथ घन्टों दुहराता रहता था। इसमें एक शब्द भी आगे पीछे नहीं होता था। पृष्ठ संख्या तक वह सही-सही बताता चलता था।
ग्रीक विद्वान रिचार्ड पोरसन को भी पढ़ी हुई पुस्तकें महीनों याद रहती थीं। जो उसने आज पढ़ा है उसे एक महीने तक कभी भी पूछा जा सकता था और वे उसे ऐसे सुनाते थे मानो अभी-अभी रट कर आये हों। शतरंज का जादूगर नाम से प्रख्यात अमेरिकी नागरिक हैरी नेलसन पिल्सवरी एक साथ बीस शतरंज खिलाड़ियों की चाल को स्मरण रखकर उनका मार्ग दर्शन करता था। यह सब काम पूरी मुस्तेदी और फुर्ती से चलता था बीसों खिलाड़ी उसका मार्ग दर्शन पाते और खेल की तेजी बनाये रखते थे। प्रसा जर्मनी का लाइब्रेरियन मैथूरिन वेसिरे दूसरों के कहे शब्दों की हू बहू पुनरावृत्ति कर देता था। जिन भाषाओं का उसे ज्ञान नहीं था उनमें वार्तालाप करने वालों की बिना चूक नकल उतार देने की उसे अद्भुत शक्ति थी। एक बार बारह भाषा-भाषी लोगों ने अपनी बोली में साथियों से वार्तालाप किये। मथुरिन क्रमशः बारहों के वार्तालाप को यथावत् दुहरा कर सुना दिया। वरमान्ष का आठ वर्षीय बालक जेरा कोलवर्न गणित के अति कठिन प्रश्न को बिना कागज-कलम का सहारा लिए मौखिक रूप में हल कर देता था। लन्दन के गणितज्ञों के सम्मुख उसने अपनी अद्भुत प्रतिभा का प्रदर्शन करके सबको चकित कर दिया था। हम्वर्ग निवासी जान मार्टिन डेस भी अति कठिन गणित प्रश्नों को मौखिक रूप से हल करने में प्रसिद्ध था। उन दिनों उसके दिमाग की गणित क्षमता इतनी बढ़ी-चढ़ी थी कि आज के गणित कम्प्यूटर भी उससे प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते थे। मानवी-मस्तिष्क में जो अद्भुत शक्तियां भरी पड़ी हैं, उनमें से वह केवल कुछ की ही थोड़ी-सी ही मात्रा का प्रयोग कर पाता है। सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक शिक्षण द्वारा मनुष्य की जानकारी तथा क्रिया-कुशलता बढ़ती है। उस आधार पर वह अनुभव एवं अभ्यास को बढ़ाकर तरह-तरह की भौतिक सफलताएं प्राप्त करता है। सामान्य-जीवन की प्रगति इस प्रशिक्षण-जन्य मस्तिष्कीय-विकास पर ही निर्भर रहती है। यह सारा क्रियाकलाप समग्र मानसिक-क्षमता का एक बहुत छोटा अंश है। इस परिधि से बाहर इतनी अधिक सामर्थ्य बच जाती है, जिसका कभी स्पर्श तक नहीं हो पाता और अछूती क्षमताओं को प्रसुप्त अवस्था में पड़ी रहने की दुखद स्थिति में ही जीवन का अन्त हो जाता है।
मस्तिष्कीय-चमत्कारों में एक स्मरण-शक्ति का विकास भी है। यदि उस संस्थान को समुन्नत बना लिया जाय तो सामान्यतया जितना मानसिक श्रम किया जा सकता है, उससे कई गुना कर सकना सम्भव हो सकता है।
संयुक्त-राष्ट्र संघ में एक ऐसे भाषा-अनुवादक थे, जो एक ही समय में चार भाषाओं का अनुवाद अपने मस्तिष्क में जमा लेते थे और चार स्टेनोग्राफ़र बिठाकर उन्हें नोट कराते चले जाते थे।
दार्शनिक जेरमी वेन्थम जब चार वर्ष के थे, तभी लैटिन और ग्रीक भाषाएं ठीक तरह बोलने लगे थे। जर्मनी गणितज्ञ जाचारियस ने एक बार 200 अंकों वाली लम्बी संख्या का गुणा मन ही मन करके लोगों को अचम्भे में डाल दिया था। अमेरिका के एक गैरिज-कर्मचारी को सैकड़ों मोटरों के नम्बर जबानी याद थे और वह उनकी शक्ल देखते ही पुरानी मरम्मत की बात भली प्रकार याद कर लेता था।
डार्ट माउथ कालेज अमेरिका में एक प्रयोग किया गया कि क्या छात्रों की पुस्तक पढ़ने की गति तीव्र की जा सकती है? मनो वैज्ञानिक व्यायामों और प्रयोगों के सहारे हर मिनट 230 शब्दों की औसत से पढ़ने वाले छात्रों की गति कुछ ही समय में बढ़कर 500 प्रति मिनट तक पहुंच गई।
छोटी आयु भी प्रति में बाधा नहीं डाल सकती है। शर्त एक ही है कि उसे मनोयोग पूर्वक अपने कार्य में तत्पर रहने की लगन हो। डान फ्रांसिस्को कोलम्बिया विश्वविद्यालय में जब प्राकृतिक इतिहास का प्रोफेसर नियुक्त हुआ, तब उसकी आयु, मात्र 16 वर्ष की थी।
आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने एक चार वर्षीय बालिका बेबेक थाम्पसन को गणित अध्ययन के लिए अतिरिक्त प्रबन्ध किया है। यह बालिका इतनी छोटी आयु में ही अंकगणित, त्रिकोण-मिति और प्रारम्भिक भौतिक-शास्त्र में असाधारण गति रखती है। इस उम्र के बालक ने जिसने प्रारम्भिक पढ़ाई क्रमबद्ध रीति से नहीं पढ़ी, आगे कैसे पढ़ाया जाय? इसका निर्धारण करने के लिए शिक्षा-शास्त्रियों का एक विशेष पैनल काम कर रहा है। मद्रास संगीत एकादमी नयास की ओर से रवि किरण नामक ढाई वर्ष के बालक को इसकी अद्भुत संगीत प्रतिभा के उपलक्ष में 52) रु. प्रति मास तीनों वर्षों तक अतिरिक्त छात्र-वृत्ति देने की घोषणा की है। यह बालक न केवल कई वाद्य-यन्त्रों का ठीक तरह बजाना जानता है, वरन् दूसरों द्वारा गलत बजाये जाने पर उस गलती को बताता भी है।
उदाहरण यह बताते हैं कि हमारे मस्तिष्क में सारे संसार का ज्ञान आत्मसात कर लेने वाले विलक्षण तत्व विद्यमान हैं। लार्ड मैकाले 19वीं सदी के विख्यात ब्रिटिश इतिहास लेखक थे। उसने इंग्लैंड का इतिहास आठ जिल्दों में लिखा था। उसके लिए उन्होंने दूसरी पुस्तकें उठाकर भी नहीं देखीं। हजारों घटनाओं की तिथियां और घटनाएं सम्बन्धित व्यक्तियों के नाम उन्हें जबानी याद थे। यही नहीं, स्थानों के परिचय—दूसरे विषय और अब तक जितने भी व्यक्ति उनके जीवन सम्पर्क में आ चुके थे, उन सबके नाम उन्हें कण्ठस्थ थे। लोग उन्हें चलता फिरता पुस्तकालय या विश्व कोष कहते थे।
पोर्सन ग्रीक भाषा का अद्वितीय पंडित था, उसने ग्रीक भाषा की सभी पुस्तकें और शेक्सपियर के नाटक मुख जबानी याद कर लिये थे। ब्रिटिश संग्रहालय के सहायक अधीक्षक रिचर्ड गार्नेट बारह वर्ष तक एक संग्रहालय के मुद्रित पुस्तक विभाग के अध्यक्ष थे, इस संग्रहालय में पुस्तकों की हजारों अलमारियां और उनमें करोड़ों की संख्या में पुस्तकें थीं। श्री गार्नेट अपनी कुर्सी पर बैठे-बैठे न केवल पुस्तक का ठिकाना बता देते थे, वरन् पुस्तक की भीतरी जानकारी भी देते थे।
जर्मनी के कार्लविट नामक बालक ने स्वल्पायु में आश्चर्यजनक बौद्धिक प्रति करने वाले बालकों में अपना कीर्तिमान स्थापित किया है। वह 9 वर्ष की आयु में माध्यमिक परीक्षा उत्तीर्ण करे लिफ्जिग विश्वविद्यालय में प्रविष्ट हुआ और 14 वर्ष की आयु तक पहुंचने पर उसने न केवल स्नातकोत्तर परीक्षा पास की वरन् विशेष अनुमति लेकर साथ ही पी.एच.डी. की डिग्री भी प्राप्त कर ली। 16 वर्ष की आयु में उसने उससे भी ऊंची एल.एल.डी. की उपाधि अर्जित की और उन्हीं दिनों वह बर्लिन विश्वविद्यालय में प्रोफेसर नियुक्त किया गया।
इस घटना पर टिप्पणी करते हुए ‘‘न्यूरोन फिजियोलॉजी इन्ट्राडक्शन’’ के लेखक डा. जी.सी. एकिल्स ने लिखा है कि यह अनुभव यह बताते हैं कि मनुष्य को बालक के रूप में उपलब्ध ज्ञान जन्मान्तरों के संस्कार के अतिरिक्त क्या हो सकता है? अतएव हमारे जीवन का सर्वोपरि ज्ञान होना चाहिए।
वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर आ गये हैं कि मस्तिष्क में ऐसे तत्व भी हैं जो 20 अरब पृष्ठों से भी अधिक ज्ञान भण्डार सुरक्षित रख सकने में समर्थ हैं। एक व्यक्ति एक दिन में लगभग 50 लाख चित्र देखता है उनकी बनावट रूप रंग ध्वनि सुगन्ध व मनोभावों का भी आकलन करता है। अभिव्यक्त न कर सकने पर भी अनुभूत ज्ञान के रूप में उसमें से विशाल भण्डार मस्तिष्क में बना रहता है इस दृष्टि से मस्तिष्क किसी जादुई पिटारे से कम नहीं। यदि उसे वस्तुतः जागृत किया जा सके तो मनुष्य त्रिकालज्ञ ही हो सकता है भारतीय तत्वदर्शन की यह मान्यता कपोल कल्पित नहीं इन तथ्यों के प्रकाश में वैज्ञानिक सत्य ही प्रतीत होता है।
परिष्कृत मस्तिष्क की क्षमता
न्यूयार्क (अमरीका) शहर के सभी संभ्रान्त, व्यक्ति, बुद्धिजीवी और नगर की आबादी के हर क्षेत्र के नगर-पार्षद उपस्थित हैं। हाल खचाखच भरा है। तभी एक व्यक्ति सामने स्टेज (मंच) पर आता है। एक व्यक्ति ने प्रश्न किया—60 को 60 में गुणा करने पर गुणन फल क्या आयेगा तथा गुणा करते समय 47वें अंक का गुणा करने पर जो पंक्ति आयेगी उसे बांई ओर से गिनने पर 39वां अंक कौन-सा होगा। प्रश्न सुनते ही वह व्यक्ति जो प्रदर्शन के लिये आमन्त्रित किये गये थे वह निर्विकार रूप से कुर्सी पर बैठ गये। बिना किसी खड़िया कागज पट्टी अथवा पेन्सिल के प्रश्न मस्तिष्क का मस्तिष्क में ही हल करने लगे।
ध्यानस्थ व्यक्ति एक भारतीय थे। उनके अद्भुत मस्तिष्कीय करतबों से प्रभावित होने के कारण उन्हें अमरीका बुलाया गया। नाम था श्री सुरेशचन्द्र दत्त, बगाल के ढाका जिले के रहने वाले। सुरेशचन्द्र दत्त ने कुल 45 मिनट में इतना लम्बा गुणा हल करके बता दिया, 47वीं पंक्ति का 39 वां अक्षर भी। इससे पहले यही प्रश्न न्यूयार्क यूनिवर्सिटी के एक पी.एच.डी. प्रोफेसर ने भी हल किया था प्रोफेसर साहब ने मौखिक न करके विधिवत कापी-पेन्सिल से गुणा किया था। प्रतिदिन 2 घन्टा लगाने के बाद पूरा प्रश्न वे 8 दिन में हल कर पाये थे। दोनों गुणन फल मिलाकर देखे गये तो दोनों में अन्तर। निश्चित था कि उनमें से आया श्री सुरेशचन्द्र दत्त अथवा प्रोफेसर साहब किसी एक का हल गलत था। जांच के लिये दूसरे गणितज्ञ बैठाये गये। उनका जो गुणन-फल आया वह श्री सुरेशचंद्र दत्त के गुणनफल जितना ही था एक भी अंक गलत नहीं था जबकि अमेरिकी प्रोफेसर साहब का हल 19 स्थानों पर गलत था। श्री सुरेशचन्द्र दत्त से ऐसे कई प्रश्न पूछे गये जिनके उन्होंने सर्व शुद्ध हल करके बता दिये। किस शताब्दी की किस तारीख को कौन-सा दिन था—ऐसे प्रश्न पूछे गये जिनका उत्तर 1 सैकेण्ड में ही श्री सुरेशचन्द्र दत्त ने दिया—एक भी उत्तर गलत नहीं निकला। अमेरिका के वैज्ञानिक और बुद्धिवादी लोग इस अद्भुत क्षमता पर आश्चर्य चकित थे। दूसरे दिन अखबारों में सुरेशचन्द्र दत्त की प्रशंसा—मशीन का प्रतिद्वन्द्वी (राइवल आफ मशीन, दिमागी जादूगर (मेन्टल विजर्ड) मनुष्य की शक्ल में हिसाब की मशीन (ह्यूमन रेडी रेकनर) तथा विद्युत गति से भी तीव्र गति से गणित के प्रश्न हल करने वाला (लाइटनिंग कैलकुलेटर) आदि विशेषण देकर की गई। नवम्बर 1926 में ‘‘इंडियन रिव्यू’’ में श्री सुरेशचन्द्र दत्त की इस विलक्षण प्रतिभा की जानकारी विस्तार से दी गई और इस अद्भुत मस्तिष्कीय क्षमता पर आश्चर्य प्रकट किया गया।
मनुष्य की जन्म-जात विशेषताओं का कारण? वैज्ञानिकों से पूछा जाता है तो उत्तर मिलता है वंशानुक्रम गुणों के कारण ऐसा होता है।
श्री सुरेशचन्द्र दत्त के परिवार में उनकी ही तरह कोई विलक्षण बौद्धिक क्षमता वाला व्यक्ति समीपवर्ती तो पाया नहीं गया सम्भव है वह आदि पूर्वजों ऋषियों का अनुवांशिक गुण रहा हो उस स्थिति में भी वह गुण और कहीं अनादि समय से ही आया होगा जो एक अनादि चेतन तत्व की पुष्टि करता है। श्री दत्त में इस सुप्त गुण का पता जब वे 8 वर्ष के थे तब चला। एक बार एक स्कूल इंस्पेक्टर मुआयने के लिये आये। उन्होंने कुछ मौखिक प्रश्न पूछे श्री सुरेशचन्द्र ने उन्हें सेकेण्डों में बता दिये इंस्पेक्टर क्रमशः उलझे गुणक देता चला गया और श्री दत्त उनके सही उत्तर। तब कहीं उन्हें स्वयं भी अपनी इस अद्भुत क्षमता का पता चला। पीछे तो वे 100 संख्या तक के गुणनफल और किसी भी बड़ी संख्या के वर्गमूल (स्क्वैयर रूट) तथा घन मूल (क्यूब रूट) भी एक सेकेण्ड में बता देते थे।
ऐसी क्षमताओं वाले एक नहीं इतिहास में सैकड़ों ही व्यक्ति हुए हैं। इतिहास प्रसिद्ध घटना है—एक बार एडिनबरा का बेजामिन नामक सात वर्षीय लड़का अपने पिता के साथ कहीं जा रहा था। बातचीत के दौरान उसने अपने पिता से पूछा पिताजी मैं किस दिन, किस समय, पैदा हुआ था पिता ने समय बताया ही था कि दो सेकेन्ड पीछे बैंजामिन ने कहा—तब तो मुझे जन्म के लिये इतने सेकेंड हो गये। पिता ने आश्चर्यचकित होकर हिसाब लगाकर देखा तो उसमें 172800 सेकेंड का अन्तर मिला। किन्तु बैंजामिन ने तभी हंसते हुये कहा पिताजी आपने सन् 1820 और 1824 के दो लीप-इयर के दिन छोड़ दिये हैं। पिता भौंचक्का रह गया बालक की विलक्षण बुद्धि पर दुबारा उतना घटाकर देखा गया तो बच्चे का उत्तर शत प्रतिशत सच निकला। यह घटना मायर की पुस्तक ह्यूमन पर्सनेलिटी में दी गई है और प्रश्न किया गया है कि आखिर मनुष्य अपने इस ज्ञानस्वरूप की वास्तविक शोध कब करेगा? मापर्स ने लिखा है जब तक मनोविज्ञान की सही व्याख्यायें नहीं होती विज्ञान की शोधें अधूरी और मनुष्य-जीवन के उतने लाभ की नहीं होगी जितनी की उपेक्षा की जाती है।
मस्तिष्क एक परिष्कृत देव भूमि
अपनी उंगलियों से नापने पर 96 अंगुल से इस मनुष्य शरीर का वैसे तो प्रत्येक अवयव गणितीय आधार पर बना और अनुशासित है पर जितना महत्वपूर्ण यन्त्र इसका मस्तिष्क है संसार का कोई भी यन्त्र न तो इतना जटिल, रहस्यपूर्ण है और न समर्थ यों साधारणतया देखने में उसके मुख्य कार्य—1. ज्ञानात्मक, 2. क्रियात्मक और 3. संयोजनात्मक हैं पर जब मस्तिष्क के रहस्यों की सूक्ष्मतम जानकारी प्राप्त करते हैं तो पता चलता है कि इन तीनों क्रियाओं को मस्तिष्क में इतना अधिक विकसित किया जा सकता है कि (1) संसार के किसी एक स्थान में बैठे-बैठे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के किसी भी स्थान की चींटी से भी छोटी वस्तु का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। (2) कहीं भी बैठे हुए किसी को कोई सन्देश भेजा सकते हैं, कोई भार वाली वस्तु को उठाकर ला सकते हैं, किसी को मूर्छित कर सकते हैं, मार भी सकते हैं। (3) संसार में जो कुछ भी है, उस पर स्वामित्व और वशीकरण भी कर सकते हैं। अष्ट सिद्धियां और नव-निद्धियां वस्तुतः मस्तिष्क के ही चमत्कार हैं, जिन्हें मानसिक एकाग्रता और ध्यान द्वारा भारतीय योगियों ने प्राप्त किया था।
ईसामसीह अपने शिष्यों के साथ यात्रा पर जा रहे थे। मार्ग में वे थक गये, एक स्थान पर उन्होंने अपने एक शिष्य से कहा—‘‘तुम जाओ सामने जो गांव दिखाई देता है, उसके अमुक स्थान पर एक गधा चरता मिलेगा तुम उसे सवारी के लिए ले आना।’’ शिष्य गया और उसे ले आया। लोग आश्चर्यचकित थे कि ईसामसीह की इस दिव्य दृष्टि का रहस्य क्या है? पर यह रहस्य प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क में विद्यमान है, बशर्ते कि हम भी उस जागृत कर पायें।
जिन शक्तियों और सामर्थ्यों का ज्ञान हमारे भारतीय ऋषियों ने आज से करोड़ों वर्ष पूर्व बिना किसी यन्त्र के प्राप्त किया था, आज विज्ञान और शरीर रचना शास्त्र (बायोलॉजी) द्वारा उसे प्रमाणित किया जाना यह बताता है कि हमारी योग-साधनायें, जप और ध्यान की प्रणालियां समय का अपव्यय नहीं वरन् विश्व के यथार्थ को जानने की एक व्यवस्थित और वैज्ञानिक प्रणाली है।
मस्तिष्क नियंत्रण प्रयोगों द्वारा डा. जोजे डेलगाडो ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि मस्तिष्क के दस अरब न्यूरॉन्स के विस्तृत अध्ययन और नियंत्रण से न केवल प्राण-धारी को भूख-प्यास, काम-वासना आदि पर नियन्त्रण प्राप्त किया जा सकता है वरन् किसी के मन की बात जान लेना, अज्ञात रूप से कोई बिना तार के तार की तरह संदेश और प्रेरणायें भेज कर कोई भी कार्य करा लेना भी सम्भव है। न्यूरोन मस्तिष्क से शरीर और शरीर से मस्तिष्क में सन्देश लाने, ले जाने वाले बहुत सूक्ष्म कोषों (सेल्स) को कहते हैं, इनमें से बहुत पतले श्वेत धागे से निकले होते हैं, इन धागों से ही इन कोषों का परस्पर सम्बन्ध और मस्तिष्क में जाल-सा बिठा हुआ है। यह कोष जहां शरीर के अंगों से सम्बन्ध रखते हैं, वहां उन्हें ऊर्ध्वमुखी बना लेने से प्रत्येक कोषाणु सृष्टि के दस अरब नक्षत्रों के प्रतिनिधि का काम कर सकते हैं, इस प्रकार मस्तिष्क को ग्रह-नक्षत्रों का एक जगमगाता हुआ यंत्र कह सकते हैं।
डा. डेलगाडो ने अपने कथन को प्रमाणित करने के लिये कई सार्वजनिक प्रयोग करके भी दिखाये। अली नामक एक बन्दर को केला खाने के लिए दिया गया। जब वह केला खा रहा था, तब डा. डेलगाडो ने ‘इलेक्ट्रोएसीफैलोग्राफ’ के द्वारा बन्दर के मस्तिष्क को सन्देश दिया कि केला खाने की अपेक्षा भूखा रहना चाहिये तो बन्दर ने भूखा होते हुये भी केला फेंक दिया। ‘इलेक्ट्रो-एसीफैलोग्राफ’ एक ऐसा यन्त्र है, जिसमें विभिन्न क्रियाओं के समय मस्तिष्क में उठने वाली भाव-तरंगों को अंकित कर लिया गया है। किसी भी प्रकार की भाव तरंग को विद्युत शक्ति द्वारा तीव्र कर देते हैं। तो मस्तिष्क के शेष सब भाव दब जाते हैं और वह एक ही भाव तीव्र हो उठने से मस्तिष्क केवल वहीं काम करने लगता है।
डा. डेलगाडो ने इस बात को एक अत्यन्त खतरनाक प्रयोग द्वारा भी सिद्ध करके दिखाया। एक दिन उन्होंने इस प्रयोग की सार्वजनिक घोषणा कर दी। हजारों लोग एकत्रित हुए। सिर पर इलेक्ट्राड जड़े हुए दो खूंखार सांड़ लाये गये। इलेक्ट्राड एक प्रकार का एरियल है, जो रेडियो ट्रान्समीटर द्वारा छोड़ी गई तरंगों को पकड़ लेता है। जब दोनों सांड़ मैदान में आये तो उस समय की भयंकरता देखते ही बनती थी, लगता था दोनों सांड़ डेलगाडो का कचूमर निकाल देंगे पर वे जैसे ही डेलगाडो के पास पहुंचे उन्होंने अपने यन्त्र से सन्देश भेजा कि युद्ध करने की अपेक्षा शान्त रहना अच्छा है तो बस फुंसकारते हुये दोनों सांड़ ऐसे प्रेम से खड़े हो गये, जैसे दो बकरियां खड़ी हों। उन्होंने कई ऐसे प्रयोग करके रोगियों को भी अच्छा किया।
सामान्य व्यक्ति के मस्तिष्क में 20 वाट विद्युत शक्ति सदैव संचालित होती रहती है पर यदि किसी प्रविधि (प्रोसेस) से प्रत्येक न्यूरोन को सजग किया जा सके तो दस अरब न्यूरोन, दस अरब डायनेमो का काम कर सकते हैं। उस गर्मी, उस प्रकाश, उस विद्युत क्षमता का पाठक अनुमान लगायें कितनी अधिक हो सकती होगी।
विज्ञान की यह जानकारियां बहुत ही सीमित हैं। मस्तिष्क सम्बन्धी भारतीय ऋषियों की शोधें इससे कहीं अधिक विकसित और आधुनिक हैं। हमारे यहां मस्तिष्क को देवभूमि कहा गया है और बताया है कि मस्तिष्क में जो सहस्र दल कमल हैं, वहां इन्द्र और सविता विद्यमान हैं। सिर के पीछे के हिस्से में रुद्र और पूषन देवता बताए हैं। इनके कार्यों का विवरण देते हुए शास्त्रकार ने इन्द्र और सविता को चेतन शक्ति कहा है और रुद्र एवं पूषन को अचेतन। दरअसल वृहत् मस्तिष्क (सेरेब्रम) ही वह स्थान है, जहां शरीर के सब भागों से हजारों नस-नाड़ियां आकर मिली हैं। यही स्थान शरीर पर नियन्त्रण रखता है, जबकि पिछला मस्तिष्क स्मृति-शक्ति का केन्द्र है। अचेतन कार्यों के लिये यहीं से एक प्रकार के विद्युत्प्रवाह आते रहते हैं।
जब तक मस्तिष्क का यह चेतन भाग क्रियाशील रहता है। जन्म के समय भी शरीर रचना का विकास यहीं से होता है और इसके क्षतिग्रस्त होने पर ही सम्पूर्ण मृत्यु होती है। शारीरिक मृत्यु (क्लिनिकल डेथ) हो जाने पर भी जब तक यह भाग जीवित रहता है, तब तक व्यक्तित्व मुर्दा नहीं होता। इसके अनेक उदाहरण भी पाये गए हैं।
सन् 1896 में कलकत्ता में फ्रैंक लेसली नामक एक अंग्रेज का हृदयगति रुक जाने से निधन हो गया। उसके परिवार में औरों की भी हृदयगति रुकने से मृत्यु हुई थी, इसलिए उसकी मृत्यु निश्चित मानकर उसे ताबूत में बन्द कर कब्रिस्तान में गाढ़ दिया गया। उसके परिवार वाले उसे उटकमंड के सेट जान चर्च के कब्रिस्तान में उसे गाढ़ना चाहते थे। किन्तु इसके लिये आवश्यक आज्ञा 6 माह बाद मिली।
मृत्यु के पूर्व डाक्टरों ने सारी परीक्षा ठीक-ठीक कर ली थी, कब्र और ताबूत के अन्दर कोई कीड़ा भी न जा सकता था, फिर यह स्थिति कैसे हुई। निःसन्देह उसकी अन्तिम चेतना जब मस्तिष्क के अदृश्य भाग में थी, तभी उसे दफना दिया गया पर जब चेतना लौटी होगी तो उस समय शरीर सांस लेने की स्थिति में न था। भय और क्रोध में ही उसने निकलने का प्रयत्न किया होगा, तभी कपड़े फटे होंगे और अन्त में रक्त-वमन के साथ उसकी मृत्यु हुई होगी।
एडिनबरा में लड़कियों के होस्टल में एक बार एक लड़की बीमार पड़ी। डाक्टरी उपचार के बावजूद उसके शरीर के जीवन के सब लक्षण लुप्त हो गये। नाड़ी चलना बन्द हो गई, श्वांस की गति रुक गई। डाक्टरों ने लड़की को मृत घोषित कर दिया और उसकी अन्त्येष्टि की आज्ञा दें दी गई।
किन्तु सुप्रसिद्ध डाक्टरों की घोषणा के बाद भी होस्टल संरक्षिका (वार्डन) ने लड़की की अन्त्येष्टि क्रिया करने से इनकार कर दिया। उसने कहा—‘‘इसके शरीर से जब तक दुर्गन्ध नहीं आती मैं इसे मृतक नहीं मानती, भले ही डॉक्टर कुछ कहें।’’ दस दिन तक लड़की उसे अवस्था में पड़ी रही। शरीर में सड़ने या दुर्गन्ध के कोई लक्षण नहीं थे। डॉक्टर इस घटना से स्वयं भी आश्चर्य चकित थे। आश्चर्य उस समय और बढ़ गया, जब तेरहवें दिन लड़की जीवित हो गई और कुछ ही दिन में स्वस्थ भी हो गई। सन्त हरिदास ने सिख राजा रणजीतसिंह के आग्रह पर अंग्रेज जनरल वेन्टुरा को 10 दिन और 40 दिन की योग समाधि जमीन में जीवित गड़कर दिखाई थी। जब वे मिट्टी से निकले थे, तब उनका चोटी के पास वाला स्थान अग्नि की तरह गर्म था।
यह स्थान सप्तधार सोम ‘रोदसी’ कहलाता है। रोदसी का अर्थ होता है दो खन्डों वाला—दोनों खन्ड इन्द्र और सविता, मध्य भाग को अन्तरिक्ष और अनुपमस्तिष्क की पृथ्वी कहा है। इनमें क्रमशः अग्नि स्वर्गद्वार, अत्रि, द्रोणकलश और अश्विनी आदि सात प्रमुख शक्तियां काम करती हैं। इन सात शक्तियों को षैरासेल्सस ने भी अपोलो और डैविड दो भागों में विभक्त किया है। और स्वीकार किया है कि यह सात पुष्प मस्तिष्क की सूक्ष्म आध्यात्मिक भावनाओं से सम्बन्ध रखते हैं। इन सात भागों को शरीर रचना शास्त्र अब सात शून्य स्थानों (वेन्ट्रिकिल्स) के रूप में जानने लगा है। पहला, दूसरा और चौथा खाली स्थान मस्तिष्क के दायें और बायें। तीसरा उसके नीचे पीनियल और पिचुट्री ग्रन्थि से जुड़ा होता है। पांचवां तीसरे के नीचे सेरीबेलम के स्थान पर है, छठवां मस्तिष्क से निकलता है एवं नीचे रीढ़ में होता हुआ सैक्रोकोक्सिजियल गैग्लियन अर्थात् रीढ़ के निचले भाग में पहुंचता है। सातवां खोपड़ी के दायें भाग में बादल की तरह छाया रहता है।
वरुण देवता को तीनों लोकों में व्याप्त बताया गया—
यस्य श्वेता विचक्षणा विस्रो भूमीरधिक्षितः थिरुत्तराणि पप्रतुः वरुणस्य ध्रुवं सदः । स सप्तानाभिरज्यति ।।
अर्थात्—वरुण देव की रहस्यमयी इस धारणा किये हुये शिरायें तीनों लोकों में व्याप्त हैं, तीनों उत्तर दिशा के स्नायु-केन्द्रों से बंधी है, यहां वरुणदेव का मूल निवास है और यहीं से निकले हुए सात स्नायु केन्द्र सारे शरीर और मानसिक चेतना का नियंत्रण करते हैं। शरीर रचना शास्त्रियों ने भी इसे सेरीबो स्पाइनल फ्लूइड के नाम से स्वीकार किया है और यह माना है कि इसमें 99 प्रतिशत जल ही होता है, एक प्रतिशत विभिन्न लवण होते हैं।
विज्ञान और अध्यात्म की यह तुलनात्मक जानकारियां यद्यपि अपूर्ण हैं पर वे एक ऐसे दर्शन के द्वार अवश्य खोलती हैं, जिनमें वैज्ञानिक भी यह स्वीकार कर सकते हैं कि मनुष्य मस्तिष्क से नितान्त शरीर ही नहीं वरन् एक विचार विज्ञान भी है और उस दिशा में शोध के लिये अभी विज्ञान का सारा क्षेत्र अधूरा पड़ा है। लोग चाहे तो उसे आध्यात्मिक और योगिक क्रियाओं द्वारा खोजकर एक महत्तम शक्ति के स्वामी होने का सौभाग्य प्राप्त कर सकते हैं। देवताओं के नाम से विख्यात इन खाली स्थानों (केन्द्रिकिल्स) में शक्ति के अज्ञात स्रोत छुपे हुये हैं।