Books - नवरात्रि पर्व और गायत्री की विशेष तप- साधना
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Language: HINDI
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गायत्री अनुष्ठान और कन्या पूजन
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स्नेह शुचिता, सरलता और पवित्र दृष्टि
के कारण भारतीय संस्कृति में वैसे ही कुमारी कन्याओं की अपार
महिमा गाई गई है। गायत्री उपासक के लिए तो वह साक्षात् गायत्री
रूप ही मानी गई है। इसलिए जहाँ अन्यान्य अनुष्ठान और उपसनाओं में ब्रह्मभोजों को जोड़ा गया है वहाँ गायत्री अनुष्ठानों की पूर्ति कुमारी कन्याओं के भोज से हुई मानी जाती है। यज्ञादि
अवसरों पर जलयात्रा और मंगल कलश स्थापना में कुमारी कन्याओं को
प्राथमिकता दी गई है इससे इन अनुष्ठानों की, पवित्रता चरितार्थ
होती है। शास्त्रों में इस अभिमत की पग- पग पर प्रशंसा की गई है।
जो कुमारी की अन्न, वस्त्र, जल अर्पण करता है उसका वह अन्न मेरू के समान और जल समुद्र के सदृश अक्षुण्य और अनन्त होता है ‘‘ योगिनी तन्त्र ’’ के कथनानुसार ‘‘कुमारी पूजा का फल अवर्णनीय है, इसलिए सभी जाति की बालिकाओं का पूजन करना चाहिए। कुमारी पूजन में जातिभेद का विचार करना उचित नहीं। ’’ काली- तन्त्र में कहा गया है कि ‘‘ सभी बड़े- बड़े पर्वों पर अधिकतर पुण्य मुहूर्त में और महानवमी की तिथि को कुमारी पूजन करना चाहिए। सम्पूर्ण कर्मों का फल प्राप्त करने के लिए कुमारी पूजन अवश्य करें।’’ ‘बहन्नीलतन्त्र’ के अनुसार- ‘‘पूजित हुई कुमारियाँ विघ्न, भय और अत्यन्त उत्कृष्ट शत्रु को भी नष्ट कर डालती हैं।’’ ‘‘रूद्रयामल में लिखा है कि- कुमारी साक्षात् योगिनी और श्रेष्ठ देवता है। विधियुक्त कुमारी को अवश्य भोजन कराना चाहिए। कुमारी को पाद्य, अर्घ्य कुंकुम और शुभ चन्दन आदि अर्पण करके भक्तिभाव से उसकी पूजा करें। ’’
-कुब्जिका तन्त्र
‘‘ यजमान को चाहिए कि दस कन्याओं का पूजन करे। उनमें भी दो वर्ष से लेकर दस वर्ष की अवस्था की कुमारियों का ही पूजन करना चाहिए। दो वर्ष की आयु वाली ‘कुमारी’, तीन वर्ष की त्रिमूर्ति चार वर्ष की ‘कल्याणी’, पाँच वर्ष की ‘रोहिणी’, छः वर्ष की ‘कालिका’, सात वर्ष की ‘चण्डिका’, आठ वर्ष की ‘शाम्भवी’, नौ वर्ष की दुर्गा और दस वर्ष की ‘सुभद्रा’ कही गई हैं। इनका मन्त्रों द्वारा पूजन करना चाहिए एक वर्ष वाली कन्या को पूजा से प्रसन्नता नहीं होगी, अतः उसका ग्रहण नहीं है और ग्यारह वर्ष से ऊपर वाली कन्याओं का पूजा में ग्रहण वर्जित है।’’
‘एक वर्ष की आयु वाली बालिका ‘कुमारी’ कहलाती है, दो वर्ष वाली ‘सरस्वती’, तीन वर्ष वाली ‘त्रिधामूर्ति’, चार वर्ष वाली ‘कालिका’, पांच वर्ष की होने पर ‘सुभगा’, छः वर्ष की ‘उमा’, सात वर्ष की ‘मालिनी’, आठ वर्ष की ‘कुब्जा’, नौ वर्ष की ‘काल- सन्दर्भा’, दसवें वर्ष में ‘अपराजिता’, ग्यारहवें वर्ष में ‘रूद्राणी’, बारहवें वर्ष में ‘भैरवी’, तेरहवें वर्ष में ‘महालक्ष्मी’, चौदहवें वर्ष पूर्ण होने पर ‘पीठ- नायिका’, पन्द्रहवें वर्ष में ‘क्षेत्रज्ञा’, और सोलहवें वर्ष में ‘अम्बिका’, मानी जाती है। इस प्रकार जब तक ऋतु का उद्गम न हो, तभी तक क्रमशः संग्रह करके प्रतिपदा आदि से लेकर पूर्णिमा तक वृद्धि- भेद से कुमारी पूजन करना चाहिए।
-रूद्रयामल- उत्तराखण्ड
‘आठ वर्ष की बालिका गौरी, नौ वर्ष की रोहिणी और दस वर्ष की कन्या कहलाती है इसके बाद वही महामाया और रजस्वला भी कही गई है। बारहवें वर्ष से लेकर बीसवें तक वह ‘सुकुमारी’ कही गई है। ।। ’
-विश्वसार तन्त्र
कुमारी कन्याओं तक ही दिव्य भाव सीमित नहीं माना गया है। वरन् उसका क्षेत्र अत्यन्त विशाल है। प्रत्येक नारी में देवत्व की मान्यता रखना और उसके प्रति पवित्रतम श्रद्धा रखना एवं वैसा ही व्यवहार करना उचित है जैसा कि देवी- देवताओं के साथ किया जात है। नारी मात्र को भगवती गायत्री की प्रतिमायें मानकर जब साधक के हृदय को पवित्रता का अभ्यास हो जाय तो समझना चाहिए कि उसके लिए परमसिद्धि की अवस्था अब समीप है। प्रारम्भ तो कुमारी पूजन से ही किया जाता है।
देवी रूप कुमारिकायें
नारी में सहज पवित्रता है, फिर कन्या को तो साक्षात् देव प्रतिमा ही माना गया है। धर्म कृत्यों में उन्हें ब्राह्मण के समान ही पूजा योग्य बताया गया है। यज्ञादि कर्मों में कन्या भोजन का भी ब्राह्मण भोजन के समान ही माहात्म्य है। गायत्री, सरस्वती, दुर्गा, लक्ष्मी के अनुष्ठानों में तो प्रधान तथा कन्याभोज के साथ ही पूर्णाहुति की जाती है। अन्य अवसरों पर भी उनकी पूजा प्रतिष्ठा का विधान- कुमारी पूजन का माहात्म्य शास्त्रों में निम्न प्रकार बताया गया है-
न तथा तुष्यते शक्रः होमदान जपेन तु ।।
कुमारी भोजने नात्र तथा देवी प्रसीदति ॥
अत्र नवरात्रे प्रक्षाल्य पादौ सर्वासां कुमारीणां ।।
च वासव सुलिप्ते भूतले रम्ये तत्रसा आस स्थिताः ।।
पूजयेद् गंध पुष्पैश्च स्रम्भिश्चापि मनोरमैः ।।
पूजयित्वा विधानेन भोजनं तासु दापयेत् ।।
-देवी भागवत
भगवती इतनी और किसी पूजा उपासना से प्रसन्न नहीं होती जितनी कि कुमारी पूजन से। नवरात्रि में तो विशेषतया कुमारी पूजन करना चाहिए। गन्ध, पुष्प, चन्दन, आसन आदि उपकरणों से उनकी विधिवत् पूजा करनी चाहिए और कन्या भोजन कराना चाहिए।
कुमारी भोजन से पूर्व यजमान की शारीरिक मानसिक शुचिता पर बहुत अधिक बल दिया है-
सुविताने शुभे स्थाने पंकजो परिपीठके ।।
उपवेश्य कुमारी हाँ सर्वांग न्यायोत्समचरेत् ॥
-वृहर्ज्जोतिष्यर्णाद, धर्मस्कन्द ८/३/१२८
यजमान अपने अंगों का न्यास आदि करके पूजा पाठ पर आसन बिछाये और उस पर कुमारी पूजन करे।
कुमारी कन्यायें केवल उच्चवर्णों की ही पूज्य मानी गई हों सो बात नहीं, उनमें देवी की सत्ता साकार होने के कारण किसी भी वर्ण की कन्या उतनी ही पूज्य है-
तस्माच्च पूजयेद्वालां सर्व जाति समुद्भवाम् ।।
जाति भेदो न कर्त्तव्यः कुमारी पूजने शिवे ॥
-तन्त्र विज्ञान
सभी जाति की कुमारियों का पूजन करना चाहिए, क्योंकि कुमारी की पूजा में जाति- भेद निषेध है।
देवी बुद्धया महाभक्त्या तस्मातां परिपूजयेजत।
सर्व विद्या स्वरूप हि कुमारी नात्र संशयः ॥
-योगिनी तन्त्र
भक्ति भाव से और देवी में बुद्धि करके कुमारियों की पूजा करें। वे सर्व विद्या रूपिणी हैं, इसमें संशय नहीं है।
आज तो सच्चे ब्रह्मविदों को ढूँढ़ पाना तो दूर की बात है उसकी पहचान करना भी कठिन हो गया है। अध्यात्म ज्ञान के नाम पर जहाँ- तहाँ अधकचरे धूर्त और ठग ही मिलते हैं। अतएव जहाँ भी ब्रह्मभोज आवश्यक हो वहाँ कन्याओं का भोजन सर्वथा निरापद है उससे भोज का प्रयोजन पूर्ण हो जाता है-
कुमारी पूज्यते यत्र स देषः क्षिति पावनः ।।
महपुण्य तमो भूयात्समन्तात्क्रोश पंचक्रम् ॥
-तन्त्र विज्ञान
जहाँ कन्या की पूजा होती है, वह स्थान पृथ्वी में पवित्र है। पाँच कोश तक उसमें अपवित्रता नहीं रहती ।।
यों समूची नारी जाति में ही कोमलता, पवित्रता और संवेदनशीलता के तत्व पुरूषों की अपेक्षा अधिक मात्रा में पाये जाते हैं पर कुमारी कन्याएँ विशेष कर किशोरियों में वह तत्व सर्वाधिक मात्रा में विद्यमान रहता है। भगवती गायत्री की उपासना से अन्तःकरण में इन्हीं तत्वों की अवधारण पुष्टि और विकास किया जाता है। इस तरह कन्याओं की पूजा- अर्चा भगवती गायत्री की ही आराधना का एक रूप माना गया है और उसे अनिवार्य कर दिया गया है। भले ही उनकी संख्या पांच सात या ग्यारह हो, पर व्यक्तिगत या सामूहिक नवरात्रि अनुष्ठानों के अवसरों पर पूर्णाहुति के तदनन्तर कन्याओं को भोजन अवश्य कराया जाये। वह भोजन नमक वाला न होकर सदैव मीठा ही कराया जाना चाहिए। देव पूजन में नमक कहीं भी प्रयुक्त नहीं होता है और कुमारी पूजन, देव पूजन के समकक्ष माना गया है। अतएव उसमें भी केवल मिष्ठान का ही प्रयोग हो नमक का नहीं।
जो कुमारी की अन्न, वस्त्र, जल अर्पण करता है उसका वह अन्न मेरू के समान और जल समुद्र के सदृश अक्षुण्य और अनन्त होता है ‘‘ योगिनी तन्त्र ’’ के कथनानुसार ‘‘कुमारी पूजा का फल अवर्णनीय है, इसलिए सभी जाति की बालिकाओं का पूजन करना चाहिए। कुमारी पूजन में जातिभेद का विचार करना उचित नहीं। ’’ काली- तन्त्र में कहा गया है कि ‘‘ सभी बड़े- बड़े पर्वों पर अधिकतर पुण्य मुहूर्त में और महानवमी की तिथि को कुमारी पूजन करना चाहिए। सम्पूर्ण कर्मों का फल प्राप्त करने के लिए कुमारी पूजन अवश्य करें।’’ ‘बहन्नीलतन्त्र’ के अनुसार- ‘‘पूजित हुई कुमारियाँ विघ्न, भय और अत्यन्त उत्कृष्ट शत्रु को भी नष्ट कर डालती हैं।’’ ‘‘रूद्रयामल में लिखा है कि- कुमारी साक्षात् योगिनी और श्रेष्ठ देवता है। विधियुक्त कुमारी को अवश्य भोजन कराना चाहिए। कुमारी को पाद्य, अर्घ्य कुंकुम और शुभ चन्दन आदि अर्पण करके भक्तिभाव से उसकी पूजा करें। ’’
-कुब्जिका तन्त्र
‘‘ यजमान को चाहिए कि दस कन्याओं का पूजन करे। उनमें भी दो वर्ष से लेकर दस वर्ष की अवस्था की कुमारियों का ही पूजन करना चाहिए। दो वर्ष की आयु वाली ‘कुमारी’, तीन वर्ष की त्रिमूर्ति चार वर्ष की ‘कल्याणी’, पाँच वर्ष की ‘रोहिणी’, छः वर्ष की ‘कालिका’, सात वर्ष की ‘चण्डिका’, आठ वर्ष की ‘शाम्भवी’, नौ वर्ष की दुर्गा और दस वर्ष की ‘सुभद्रा’ कही गई हैं। इनका मन्त्रों द्वारा पूजन करना चाहिए एक वर्ष वाली कन्या को पूजा से प्रसन्नता नहीं होगी, अतः उसका ग्रहण नहीं है और ग्यारह वर्ष से ऊपर वाली कन्याओं का पूजा में ग्रहण वर्जित है।’’
‘एक वर्ष की आयु वाली बालिका ‘कुमारी’ कहलाती है, दो वर्ष वाली ‘सरस्वती’, तीन वर्ष वाली ‘त्रिधामूर्ति’, चार वर्ष वाली ‘कालिका’, पांच वर्ष की होने पर ‘सुभगा’, छः वर्ष की ‘उमा’, सात वर्ष की ‘मालिनी’, आठ वर्ष की ‘कुब्जा’, नौ वर्ष की ‘काल- सन्दर्भा’, दसवें वर्ष में ‘अपराजिता’, ग्यारहवें वर्ष में ‘रूद्राणी’, बारहवें वर्ष में ‘भैरवी’, तेरहवें वर्ष में ‘महालक्ष्मी’, चौदहवें वर्ष पूर्ण होने पर ‘पीठ- नायिका’, पन्द्रहवें वर्ष में ‘क्षेत्रज्ञा’, और सोलहवें वर्ष में ‘अम्बिका’, मानी जाती है। इस प्रकार जब तक ऋतु का उद्गम न हो, तभी तक क्रमशः संग्रह करके प्रतिपदा आदि से लेकर पूर्णिमा तक वृद्धि- भेद से कुमारी पूजन करना चाहिए।
-रूद्रयामल- उत्तराखण्ड
‘आठ वर्ष की बालिका गौरी, नौ वर्ष की रोहिणी और दस वर्ष की कन्या कहलाती है इसके बाद वही महामाया और रजस्वला भी कही गई है। बारहवें वर्ष से लेकर बीसवें तक वह ‘सुकुमारी’ कही गई है। ।। ’
-विश्वसार तन्त्र
कुमारी कन्याओं तक ही दिव्य भाव सीमित नहीं माना गया है। वरन् उसका क्षेत्र अत्यन्त विशाल है। प्रत्येक नारी में देवत्व की मान्यता रखना और उसके प्रति पवित्रतम श्रद्धा रखना एवं वैसा ही व्यवहार करना उचित है जैसा कि देवी- देवताओं के साथ किया जात है। नारी मात्र को भगवती गायत्री की प्रतिमायें मानकर जब साधक के हृदय को पवित्रता का अभ्यास हो जाय तो समझना चाहिए कि उसके लिए परमसिद्धि की अवस्था अब समीप है। प्रारम्भ तो कुमारी पूजन से ही किया जाता है।
देवी रूप कुमारिकायें
नारी में सहज पवित्रता है, फिर कन्या को तो साक्षात् देव प्रतिमा ही माना गया है। धर्म कृत्यों में उन्हें ब्राह्मण के समान ही पूजा योग्य बताया गया है। यज्ञादि कर्मों में कन्या भोजन का भी ब्राह्मण भोजन के समान ही माहात्म्य है। गायत्री, सरस्वती, दुर्गा, लक्ष्मी के अनुष्ठानों में तो प्रधान तथा कन्याभोज के साथ ही पूर्णाहुति की जाती है। अन्य अवसरों पर भी उनकी पूजा प्रतिष्ठा का विधान- कुमारी पूजन का माहात्म्य शास्त्रों में निम्न प्रकार बताया गया है-
न तथा तुष्यते शक्रः होमदान जपेन तु ।।
कुमारी भोजने नात्र तथा देवी प्रसीदति ॥
अत्र नवरात्रे प्रक्षाल्य पादौ सर्वासां कुमारीणां ।।
च वासव सुलिप्ते भूतले रम्ये तत्रसा आस स्थिताः ।।
पूजयेद् गंध पुष्पैश्च स्रम्भिश्चापि मनोरमैः ।।
पूजयित्वा विधानेन भोजनं तासु दापयेत् ।।
-देवी भागवत
भगवती इतनी और किसी पूजा उपासना से प्रसन्न नहीं होती जितनी कि कुमारी पूजन से। नवरात्रि में तो विशेषतया कुमारी पूजन करना चाहिए। गन्ध, पुष्प, चन्दन, आसन आदि उपकरणों से उनकी विधिवत् पूजा करनी चाहिए और कन्या भोजन कराना चाहिए।
कुमारी भोजन से पूर्व यजमान की शारीरिक मानसिक शुचिता पर बहुत अधिक बल दिया है-
सुविताने शुभे स्थाने पंकजो परिपीठके ।।
उपवेश्य कुमारी हाँ सर्वांग न्यायोत्समचरेत् ॥
-वृहर्ज्जोतिष्यर्णाद, धर्मस्कन्द ८/३/१२८
यजमान अपने अंगों का न्यास आदि करके पूजा पाठ पर आसन बिछाये और उस पर कुमारी पूजन करे।
कुमारी कन्यायें केवल उच्चवर्णों की ही पूज्य मानी गई हों सो बात नहीं, उनमें देवी की सत्ता साकार होने के कारण किसी भी वर्ण की कन्या उतनी ही पूज्य है-
तस्माच्च पूजयेद्वालां सर्व जाति समुद्भवाम् ।।
जाति भेदो न कर्त्तव्यः कुमारी पूजने शिवे ॥
-तन्त्र विज्ञान
सभी जाति की कुमारियों का पूजन करना चाहिए, क्योंकि कुमारी की पूजा में जाति- भेद निषेध है।
देवी बुद्धया महाभक्त्या तस्मातां परिपूजयेजत।
सर्व विद्या स्वरूप हि कुमारी नात्र संशयः ॥
-योगिनी तन्त्र
भक्ति भाव से और देवी में बुद्धि करके कुमारियों की पूजा करें। वे सर्व विद्या रूपिणी हैं, इसमें संशय नहीं है।
आज तो सच्चे ब्रह्मविदों को ढूँढ़ पाना तो दूर की बात है उसकी पहचान करना भी कठिन हो गया है। अध्यात्म ज्ञान के नाम पर जहाँ- तहाँ अधकचरे धूर्त और ठग ही मिलते हैं। अतएव जहाँ भी ब्रह्मभोज आवश्यक हो वहाँ कन्याओं का भोजन सर्वथा निरापद है उससे भोज का प्रयोजन पूर्ण हो जाता है-
कुमारी पूज्यते यत्र स देषः क्षिति पावनः ।।
महपुण्य तमो भूयात्समन्तात्क्रोश पंचक्रम् ॥
-तन्त्र विज्ञान
जहाँ कन्या की पूजा होती है, वह स्थान पृथ्वी में पवित्र है। पाँच कोश तक उसमें अपवित्रता नहीं रहती ।।
यों समूची नारी जाति में ही कोमलता, पवित्रता और संवेदनशीलता के तत्व पुरूषों की अपेक्षा अधिक मात्रा में पाये जाते हैं पर कुमारी कन्याएँ विशेष कर किशोरियों में वह तत्व सर्वाधिक मात्रा में विद्यमान रहता है। भगवती गायत्री की उपासना से अन्तःकरण में इन्हीं तत्वों की अवधारण पुष्टि और विकास किया जाता है। इस तरह कन्याओं की पूजा- अर्चा भगवती गायत्री की ही आराधना का एक रूप माना गया है और उसे अनिवार्य कर दिया गया है। भले ही उनकी संख्या पांच सात या ग्यारह हो, पर व्यक्तिगत या सामूहिक नवरात्रि अनुष्ठानों के अवसरों पर पूर्णाहुति के तदनन्तर कन्याओं को भोजन अवश्य कराया जाये। वह भोजन नमक वाला न होकर सदैव मीठा ही कराया जाना चाहिए। देव पूजन में नमक कहीं भी प्रयुक्त नहीं होता है और कुमारी पूजन, देव पूजन के समकक्ष माना गया है। अतएव उसमें भी केवल मिष्ठान का ही प्रयोग हो नमक का नहीं।