Books - सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र
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Language: HINDI
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समय का सदुपयोग करना सीखें
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जीवन क्या है? इसका उत्तर एक शब्द में अपेक्षित हो तो कहा जाना चाहिए—‘समय’। समय और जीवन एक ही तथ्य के दो नाम हैं। कोई कितने दिन जिया? इसका उत्तर वर्षों की काल गणना के रूप में ही दिया जा सकता है। समय की सम्पदा ही जीवन की निधि है। उसका किसने किस स्तर का उपयोग किया, इसी पर्यवेक्षण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि किसका जीवन कितना सार्थक अथवा निरर्थक व्यतीत हुआ।
शरीर अपने लिए ढेरों समय खर्च करा लेता है। आठ-दस घण्टे सोने सुस्ताने में निकल जाते हैं। नित्य कर्म और भोजन आदि में चार घण्टे से कम नहीं बीतते। इस प्रकार बाहर घण्टे नित्य तो उस शरीर का छकड़ा घसीटने में ही लग जाते हैं जिसके भीतर हम रहते और कुछ कर सकने के योग्य होते हैं। इस प्रकार जिन्दगी का आधा भाग तो शरीर अपने ढांचे में खड़ा रहने योग्य बनने की स्थिति बनाये रहने में ही खर्च हो लेता है।
अब आजीविका का प्रश्न आता है। औसत आदमी के गुजारे की साधन सामग्री कमाने के लिए आठ घण्टे कृषि, व्यवसाय, शिल्प, मजदूरी आदि में लगा रहना पड़ता है। इसके साथ ही पारिवारिक उत्तरदायित्व भी जुड़ते हैं। परिजनों की प्रगति और व्यवस्था भी अपने आप में एक बड़ा काम है जिसमें प्रकारान्तर से ढेरों समय लगता है। यह कार्य भी ऐसे हैं जिनकी अपेक्षा नहीं हो सकती। इस प्रकार आठ घण्टे आजीविका और चार घण्टे परिवार के साथ बिताने में लगने से यह किश्त भी बारह घण्टे की हो जाती है। बारह घण्टे नित्य कर्म, शयन और बारह घण्टे उपार्जन परिवार के लिए लगा देने पर पूरे चौबीस घण्टे इसी तरह खर्च हो जाते हैं जिसे शरीर यात्रा ही कहा जा सके। औसत आदमी इस भ्रमण चक्र में निरत रहकर दिन गुजार देता है।
समय जितना कीमती और फिर न मिलने वाला तत्व है उतना उसका महत्व प्रायः हम लोग नहीं समझते। हममें से बहुत से लोग अपने समय का सदुपयोग बहुत ही कम करते हैं। आज का काम कल पर टालते और उस बचे हुए समय को व्यर्थ की बातों में नष्ट करते रहते हैं। जबकि समय ही ऐसा पदार्थ है जो एक निश्चित मात्रा में मनुष्य को मिलता है, लेकिन उसका उतना ही अपव्यय भी होता है। संसार में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं जिसकी प्राप्ति मनुष्य के लिए असंभव हो। प्रयत्न और पुरुषार्थ से सभी कुछ पाया जा सकता है, लेकिन समय ही एक ऐसी चीज है जिसे एक बार खोने के बाद कहीं नहीं पाया जा सकता। एक बार हाथ से निकला हुआ वक्त फिर कभी हाथ नहीं आता। कहावत है—‘‘बीता हुआ समय और कहे हुए शब्द वापिस नहीं बुलाये जा सकते।’’ काल को महाकाल कहा गया है। वह परमात्मा से भी महान है। भक्ति साधना द्वारा परमात्मा का साक्षत्कार कई बार किया जा सकता है किन्तु गुजरा हुआ वक्त पुनः नहीं मिलता।
समय ही जीवन है, क्योंकि उससे ही जीवन बनता है। उसका सदुपयोग करना जीवन का उपयोग करना और दुरुपयोग करना जीवन को नष्ट करना है। वक्त किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता। वह प्रति क्षण, मिनट, घण्टे, दिन, महीने, वर्षों के रूप में निरन्तर अज्ञात दिशा की ओर जाकर विलीन होता रहता है। उसकी अजस्र धारा निरन्तर प्रवाहित होती रहती है और फिर शून्य में विलीन हो जाती है। फ्रेंकलिन ने कहा है—‘समय को बर्बाद मत करो क्योंकि समय से ही जीवन बना है।’ इसकी महत्ता का प्रतिपादन करते हुए मनीषी जैक्सन ने कहा है—‘सांसारिक खजानों में सबसे मूल्यवान खजाना समय का है।’ उसका सदुपयोग करके दुर्बल सबल बन सकता है, निर्धन धनवान और मूर्ख विद्वान बन सकता है। वह ईश्वर प्रदत्त एक ऐसी सुनिश्चित एवं अमूल्य निधि है जिसमें एक क्षण भी वृद्धि कर सकना किसी के लिए भी असम्भव है। वह किसी का दास नहीं वरन् अपनी गति से आगे बढ़ता रहता है और कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखता। समय का मूल्यांकन करते हुए आक्सफोर्ड की प्रसिद्ध घड़ी ‘आल्सीसोल्ज’ के डायल पर महत्वपूर्ण पंक्तियां अंकित हैं। उस पर लिखा हुआ है—‘हमें जो घण्टे सौंपे गये हैं, वे नष्ट हो जाते हैं। काल अनन्त है। मनुष्य के हिस्से में काल का केवल एक छोटा सा अंश ही आया है। जीवन की भांति ही बीते हुए समय को भी वापिस कभी नहीं बुलाया जा सकता।’ निःसंदेह वक्त और सागर की लहरें किसी की प्रतीक्षा नहीं करतीं। हमारा कर्तव्य है कि हम समय का पूरा-पूरा सदुपयोग करें।
वस्तुतः हर कार्य को निर्धारित वक्त पर करना ही समय का सदुपयोग है। जीवन में प्रगति करने का यही राजमार्ग है, पर हममें से कितने ही यह जानते हुए भी समय को बर्बाद करते रहते हैं और किसी काम को आगे के लिए टाल देते हैं। ‘आज नहीं कल करेंगे।’ इस कल के बहाने हमारा बहुत-सा वक्त नष्ट हो जाता है। बड़ी योजनायें कार्य रूप में परिणित होने की प्रतीक्षा में धरी रह जाती हैं।
सचमुच जो व्यक्ति काम से बचने, जी चुराने के कारण अब के काम को तब के लिए टालकर अपने बहुमूल्य क्षणों को आलस्य-प्रमाद, विलास-विनोद में व्यर्थ नष्ट करते रहते हैं। निश्चय ही समय उन्हें अनेकों सफलताओं से वंचित कर देता है। फसल की सामयिक आवश्यकताओं को तत्काल पूरा न कर आगे के लिए टालने वाले किसान की फसल चौपट होना स्वाभाविक है। जो विद्यार्थी वर्ष के अन्त तक अपनी तैयारी का प्रश्न टालते रहते हैं, सोचते हैं—‘‘अभी तो काफी समय पड़ा है फिर पढ़ लेंगे’’ वे परीक्षा काल के नजदीक आते ही बड़े भारी क्रम को देखकर घबरा जाते हैं और कुछ भी नहीं कर पाते। फलतः उनकी सफलता की आशा दुराशा मात्र बनकर रह जाती है। कुछ भाग-दौड़ करके सफल भी हो जांय तो भी वे दूसरों से निम्न श्रेणी में ही रहते हैं। अपने वायदे सौदे, लेन-देन आदि को आगे के लिए टालते रहने वाले व्यापारी का काम-धन्धा चौपट हो जाय तो इसमें कोई संदेह नहीं। यही बात वेतन भोगी कर्मचारियों पर भी लागू होती है। टालमटोल की आदत के कारण उन्हें प्रस्तुत कार्य से सम्बन्धित व्यक्तियों एवं अपने बड़े अफसरों का कोपभाजन तो बनना ही पड़ता है, साथ ही विश्वसनीयता भी जाती रहती है।
कई लोगों में अच्छी प्रतिभा, बुद्धि होती है, शक्ति-सामर्थ्य भी होती है। उन्हें जीवन में उचित अवसर भी मिलते हैं किन्तु टालमटोल की अपने बुरी आदत के कारण वे अपनी इन विशेषताओं से कोई लाभ नहीं उठा पाते और दीन-हीन अवस्था में ही पड़े रहते हैं। साहित्यकार, कलाकार आदि का गया हुआ समय जिसमें वे नव रचना, नव सृजन करके जीविकोपार्जन कर सकते थे, वह लौटकर फिर कभी नहीं आता। निश्चय ही किसी काम को आगे के लिए टालते रहना दुष्परिणाम ही प्रस्तुत करता है। इस ‘कल’ से बचने के लिए सन्त कबीर ने चेतावनी देते हुए कहा है—‘‘काल करै सो आज कर, आज करै सो अब। पल में परलै होयगी, बहुरि करेगा कब।’’ अर्थात् कल पर अपने काम को न टाल। जिन्हें आज करना हो वे अभी ही पूरा कर लें। स्मरण रखा जाना चाहिए कि प्रत्येक काम का अपना अवसर होता है और अवसर वही है जब वह काम अपने सामने पड़ा है। अवसर निकल जाने पर काम का महत्व ही समाप्त हो जाता है तथा बोझ भी बढ़ता जाता है। मनीषी कहते हैं—‘‘बहुत से लोगों ने अपना काम कल पर छोड़ा है और वे संसार में पीछे रह गये, अन्य लोगों द्वारा प्रतिद्वन्दिता में हरा दिये गये।’’ नेपोलियन ने आस्ट्रिया को इसलिए हरा दिया कि वहां के सैनिकों ने उसका सामना करने में कुछ ही मिनटों की देर कर दी थी। लेकिन वहीं नेपोलियन वाटरलू के युद्ध में पराजित हुआ और बन्दी बना लिया गया क्योंकि उसका एक सेनापति ग्रुशी पांच मिनट विलम्ब से आया। इसी अवसर का सदुपयोग करके अंग्रेजों ने उसे कैद कर लिया। समय की उपेक्षा करने पर देखते-देखते विजय का पासा पराजय में पलट जाता है। लाभ हानि में बदल जाता है।
समय की चूक पश्चात्ताप की हूक बन जाती है। जीवन में प्रगति की इच्छा रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने किसी भी कर्तव्य को भूलकर भी कल पर न डालें जो आज किया जाना चाहिए। आज के काम के लिए आज का ही दिन निश्चित है और कल के काम के लिए कल का दिन निर्धारित है। आज का काम कल पर डाल देने से कल का भार दो गुना हो जायगा, जो निश्चित ही कल के समय में पूरा नहीं हो सकता। इस प्रकार आज का काम कल पर और कल का काम परसों पर ठेला हुआ काम इतना बढ़ जायगा कि वह फिर किसी भी प्रकार पूरा नहीं किया जा सकता। इतना ही नहीं जो काम हमें आज करने हैं, वह कल भी उतने ही महत्व के रहेंगे, यह नहीं कहा जा सकता। परिस्थितियां क्षण-क्षण बदलती रहती हैं और पिछड़े कार्यों का कोई महत्व नहीं रह जाता।
कार्य की उपयोगिता और महत्ता की दृष्टि से कुछ काम पहले किये जा सकते हैं एवं कम महत्व के कामों को बाद में भी किया जा सकता है। किन्तु काम को आगे के लिए टालना, जी चुराना, बचना बुरी आदत है। वस्तुतः आलस्य और अकर्मण्यता का संशोधित रूप काम को टालना है, जिससे सफलता और प्रगति के आकांक्षी प्रत्येक व्यक्ति को बचना ही चाहिए।
काम को टालिये नहीं :
कोई व्यक्ति यह कहकर ऋण चुकाने से इन्कार नहीं कर सकता कि साहब रुपये तो मेरी जेब में हैं परन्तु देने को जी नहीं चाहता। दुनिया ऐसे आदमी को क्या कहेगी? पास में पैसा होते हुए भी केवल यह बहाना करना कि देने की इच्छा नहीं है। यह बेवकूफी और मक्कारी दोनों का ही मिश्रण कहा जायगा। परन्तु जब हम कष्टसाध्य कर्तव्यों और कठिन कार्यों को न करने या बाद में करने को ठानते हैं तो हमारी स्थिति उस बुद्धिहीन व्यक्ति की तरह होती है।
आज का काम कल पर न टालना एक प्रशंसनीय सद्गुण है उसी प्रकार श्रम साध्य कार्य को सबसे पहले करने का निश्चय सफलता का स्वर्णिम सूत्र है। ऐसे आगत कर्तव्यों से छुटकारा नहीं पाया जा सकता। देर-सवेर उन कार्यों का पूरा करना ही पड़ता है फिर क्या जरूरी है कि हम दूसरे कामों में लगे रहकर कठिन कार्यों का बोझ अपने मन मस्तिष्क पर बनाये रखें।
सूक्ष्म दृष्टि से देखना चाहिए कि कहीं हममें कठिन कार्यों को टालने, श्रम साध्य कर्तव्यों से बचने की आदत तो नहीं पड़ गयी है। आत्म-निरीक्षण के द्वारा ऐसी स्थिति का पता चले तो दृढ़ निश्चय करना चाहिए कि जिन कार्यों को हम सबसे पीछे डालते रहे हैं उन्हें ही सबसे पहले कर लें। परीक्षा में कठिन प्रश्नों को सर्वप्रथम हल करके आसान सवालों का उत्तर उनके बाद करने की पद्धति सफलता प्राप्त करने का आसान उपाय है।
यदि यह आदत डाल ली जाय तो जो काम सबसे कठिन दिखाई पड़ते हैं वे बहुत आसान लगने लगते हैं। वास्तव में कोई भी कार्य असाध्य व कठिन नहीं है। उन्हें हम ही कठिन बनाते हैं, अपनी टालने की वृत्ति से। इस वृत्ति के कारण आसान और सहज साध्य कार्य भी धीरे-धीरे कठिन लगने लग जाते हैं।
कम कठिनाई का कार्य पहले करने की आदत मनुष्य को प्रकृति का दास बना लेती है। जबकि वह अपने स्वभाव का, आदतों का दास नहीं स्वामी है। बहुत से व्यक्ति जो अपने जीवन में कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर पाते हैं, इसी आदत के दास होते हैं। ऐसी प्रकृति के हारे हुए व्यक्ति फिर कठिन कार्यों से ही नहीं, थोड़ी-सी कठिन परिस्थितियों में भी घबरा उठते हैं।
वे सरल कार्य पहले चुन-चुन कर लेते हैं। उनका सारा श्रम और कार्यक्षमता इन सरल कामों में लग जाती है। जब थक जाते हैं तब कार्य दीर्घ सूत्रता के शिकार हो जाते हैं। फिर करेंगे की भावना समस्या बन जाती है और काम का बोझ हमेशा खटकने लगता है।
सुबह जब हम अपनी दिनचर्या आरम्भ करते हैं तो कठिन और श्रम साध्य कार्यों को सबसे पहले कर लेना एक अच्छी और प्रगतिदायी आदत है। इसकी अपेक्षा अनावश्यक कामों को पहले करने का स्वभाव थकाने वाला बन जाता है। और कठिन कार्य पड़े रह जाते हैं। यदि हम इस आलस्य की वृत्ति पर विजय नहीं प्राप्त कर सके तो निश्चित है कि हम औसत स्तर से रत्ती भर भी ऊंचा नहीं उठ सकेंगे और सफलता हमसे कोसों दूर रहेगी। हम जिन परिस्थितियों में हैं, प्रगतिशील व्यक्ति उनसे गई-गुजरी स्थिति में भी हमसे आगे बढ़ जाता है और फिर हम कुछ कर सकते हैं तो केवल ईर्ष्या।
कुछ बनने के लिए दृढ़ संकल्प के साथ अपने कार्यों में लगना चाहिए। यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि कठिन कार्यों में ही हमारी सामर्थ्य तथा योग्यता का विकास सम्भव है।
कार्य सभी समान होते हैं। करने से सब पूरे हो जाते हैं। यह हमारे मन का आलस्य ही कठिन और सरल का वर्गीकरण करता है। अपने भीतर छिपे बैठे इस घर के भेदी की बात मान ली तो फिर हमें सभी काम कठिन लगने लगेंगे। अतः पुरुषार्थी व्यक्तियों की दृष्टि में काम केवल काम होता है। कठिन सरल के वर्गीकरण के चक्कर में न पड़ते हुए वे उसे पूरा करने में जुट पड़ते हैं।
समय का मूल्य पैसे से भी अधिक :
अमीर साहूकारों की दिनचर्या पर ध्यान दें तो मालूम पड़ेगा कि समय काटने के लिए उनने भी एक टाइम टेबिल बना रखा है। थोड़ा-बहुत ही आगा-पीछा होता है कि कोई यार-दोस्त आ धमके तब, नहीं तो सबेरे से उठकर हाथ-मुंह धोने, हजामत बनाने, चाय पीने, अखबार पढ़ने, भोजन करके विश्राम के लिये चले जाने, उठने पर चाय पीने, ताश खेलने, रात का टी.वी. देखने, दस बजे भोजन करने और सवेरे आठ बजे तक का बना-बनाया कार्यक्रम रहता है। यार-दोस्तों के आ धमकने पर जो काम अकेले करते थे वह कइयों द्वारा मिल-जुलकर होने लगता है। कभी-कभी इसमें सैर-सपाटा भी शामिल हो जाता है। पूछने पर वे भी अपने को व्यस्त बताते हैं।
स्त्रियों में ढेरों ऐसी होती हैं जिनके जिम्मे दोनों समय की रसोई होती है—दो-तीन आदमियों की। इसको भी वे लापरवाही से इस तरह करती हैं कि सारा दिन उसी में घूम जाता है। कहने को वे भी यही कहती हैं कि दिनभर लगे रहते हैं, फुरसत ही नहीं मिलती।
समय काटने के लिए कोई भी इससे मिलता-जुलता कार्यक्रम बना सकता है। शरीर यात्रा अपने आप में एक काम है। बाजार जाकर घर की चीजें खरीदना भी ढेरों समय ले जाता है। ऐसी दशा में किसी महत्वपूर्ण काम के लिए समय निकालना मुश्किल है।
जिनने विशेष अध्ययन, कलाकारिता, शोध जैसे महत्वपूर्ण कार्य किये हैं उन्हें अपने फैले हुए समय को सिकोड़ना पड़ा है।
संसार में महापुरुषों को किसी महत्वपूर्ण प्रगति के लिए समय का केन्द्रीकरण और विचारों का केन्द्रीकरण करना पड़ता है। शरीर यात्रा के काम तो ऐसे ही चलते-फिरते हो जाते हैं। उन्हें भी तत्परतापूर्वक किया जाय तो दो घण्टे में रसोई आदि के नित्य कर्म पूरे हो जाते हैं। रात को जल्दी सोया जाय और सवेरे जल्दी उठा जाय तो वह सवेरे का बचा हुआ समय ऐसा सुविधाजनक होता है कि उसमें बौद्धिक काम दिन भर जितना निपट जाता है।
सबसे ज्यादा समय की बर्बादी यारवाशी करती है। ठलुआ देखते रहते हैं कि हमारे जैसा बेकार समय वाला आदमी कौन है? जब मन में आया तभी चल पड़ते हैं और इधर-उधर की बेकार बातें आरम्भ कर देते हैं। टालने पर टलते नहीं। बीच-बीच में चाय जलपान, ताश, शतरंज आदि के मन बहलाव मिलते रहें तब तो कहना ही क्या? बड़े आदमी रिटायर होने पर आमतौर से बेकार हो जाते हैं और समझते हैं कि सब लोग भी हमारे जैसे बेकार होंगे। एक-दो बार सम्मानपूर्वक आदर सत्कार मिल जाय तो समझते हैं कि हमारे आगमन का अहसान माना गया। फिर वे जल्दी-जल्दी आने का सिल-सिला आरम्भ कर देते हैं। यह सिलसिला जिन घरों में भी चल पड़ेगा समझना चाहिए कि अपने साथ-साथ घर वालों की बर्बादी भी आरम्भ हुई। स्वागत-सत्कार भी अब कम महंगा नहीं है। एक के लिए बनाने पर घर के सभी सदस्यों के लिए बनाना पड़ता है। स्त्रियों के लिये तो बर्तन मांजने-धोने समेत उतना ही काम बढ़ जाता है जितना कि एक समय की रसोई बनाने का।
जिन्हें अपने समय का मूल्य विदित हो, जो उसे बचाना और किसी महत्वपूर्ण कार्य में लगाना चाहते हों, उन्हें ठाली रहने की तरह यारवाशी का चस्का लगाने से भी बचना चाहिए। दुर्व्यसनों में एक यह भी है कि ठाली लोगों के साथ दोस्ती बढ़ाई जाय और उनके साथ गपशप का सिलसिला चलाया जाय।
महत्वपूर्ण व्यक्ति-जिन्हें जीवन में महत्वपूर्ण काम करने हैं वे समय के साथ कड़ाई बरतते हैं। उसे तनिक भी बर्बाद नहीं होने देते। मनोरंजन के लिए मन करे तो स्त्री बच्चों के साथ ज्ञानवर्धक एवं उपयोगी चर्चा की आदत डालनी चाहिए इससे वे प्रसन्न भी रहते हैं और कुछ अच्छा बनने का उत्साह भी प्राप्त करते हैं।
प्रगति की महत्वपूर्ण कुंजी : नियमितता
जीवन के बहु आयामी विकास के लिए जो सद्गुण आवश्यक हैं, उनमें नियमितता प्रधान ही नहीं अनिवार्य भी है। समय और कार्य की योजनाबद्ध रूप से संयत दिनचर्या बनाने और उस पर आरूढ़ रहने का नाम ही ‘नियमितता’ है। इस तरह व्यवस्थित कार्यक्रम बनाकर चलने से शरीर और मन को उसमें संलग्न रहने की उमंग रहती है तथा प्रवीणता भी बढ़ती है। फलतः सूझबूझ के साथ निश्चित किया गया कार्य सरलता और सफलतापूर्वक भली प्रकार सम्पन्न होता चला जाता है।
संसार में विविध क्षेत्रों में जिन महामानवों ने प्रगति की, सफलता पाई उनके जीवन-पटल की गहनता-गम्भीरतापूर्वक अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि उनके जीवन का केन्द्रीय आधार नियमितता ही रही है।
राष्ट्रभाषा के कुशल शिल्पी, तत्कालीन सरस्वती के सम्पादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसकी महत्ता बताते हुए एक स्थान पर लिखा है कि जो लोग अवनति, असफलता का हर समय रोना रोया करते हैं, निश्चित ही उनने साफल्य प्रदायिनी विद्या ‘नियमितता’ की आराधना नहीं की। उन्होंने अपने निज के विकास का श्रेय भी इसी को दिया है। रेलवे की नौकरी, अन्यान्य गृह-कार्य, सामाजिक कार्य करते हुए उनने जिस विशाल ज्ञान राशि का संचय किया तथा परवर्ती काल में साहित्यिक क्षेत्र में जो असामान्य प्रगति की, उसका आधार यही है। हरिभाऊ उपाध्याय ने अपने एक संस्मरण परक लेख में आचार्य द्विवेदी जी की नियमबद्धता की चर्चा करते हुए लिखा है कि आचार्य जी के हर कार्य का नियत समय था। उसमें भूल-चूक होने की कोई गुंजाइश नहीं थी। इसका पालन वह इतनी दृढ़ता से करते थे कि उनके सहयोगी, मिलने वाले उनके कार्य विशेष को देखकर अपनी घड़ी मिला लेते। क्योंकि उन सभी को विश्वास रहता था कि द्विवेदी जी के प्रत्येक कार्य का सुनिश्चित समय है, उसमें हेर-फेर का कोई स्थान नहीं।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का व्यक्तित्व भी इस गुण से पूरी तरह ओत-प्रोत था। उनके समय और कार्य की सुनियोजित पद्धति सुनियोजित क्रम अनुकरणीय था। जिस समय उन्होंने गीता का शब्दकोश तैयार किया जो गीता-माता नामक ग्रन्थ में संग्रहीत है, तो सहयोगियों ने जिज्ञासावश प्रश्न किया कि वह इतने व्यस्त जीवन में यह समय साध्य, चिन्तनपरक कार्य कैसे कर सके। बापू का जवाब था—मेरा जीवन व्यस्त तो है पर अस्त-व्यस्त नहीं। मैं इस कार्य में नियमित 20 मिनट का समय नियोजित करता था। उसी नियमबद्धता, सुनियोजित कार्य-पद्धति का प्रतिफल है कि यह कार्य सफलतापूर्वक कम समय में सम्पन्न हो सका।
निश्चित ही जिन लोगों का जीवनक्रम अस्त-व्यस्त और अनियमित रहता है, वे न तो अपने जीवन का सही उपयोग कर पाते हैं और न ही समुचित विकास। ऐसे व्यक्ति प्रायः असफल ही देखे जाते हैं। मानवी प्रगति में इस गुण का अभाव एक बड़ी बाधा है। अनियमित व्यक्ति हवा में उड़ते रहने वाले पत्तों की तरह कभी इधर-उधर कुदकते-फुदकते रहते हैं। निश्चित दिशा-धारा नियोजित क्रम के अभाव में उनका परिश्रम और समय बेतरह बरबाद होता रहता है। धीमी चाल से चलने वाले स्वल्प क्षमताशील प्राणी कछुए ने सतत् प्रयत्न व नियमबद्धता को अपनाकर बाजी जीती थी। जब कि बेतरतीब इधर-उधर भटकने वाला खरगोश अधिक क्षमतावान होते हुए भी पराजित और अपमानित हुआ। सामर्थ्य प्रतिभा का जितना महत्व है, उससे अधिक महत्वपूर्ण और आवश्यक यह है कि जो कुछ उपलब्ध है उसी को योजनाबद्ध रूप से नियमित व्यवस्था क्रम अपनाकर सदुद्देश्य के लिए प्रयुक्त किया जाय। जो ऐसा कर पाते हैं, वे ही क्रम-विकास के सुप्रशस्त राजपथ पर चलते हुए उन्नति के शिखर पर आरूढ़ होते हैं। सुविख्यात गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजम् न तो उच्च शिक्षित थे, न ही उनके पास साधन सुविधाओं की विपुलता थी। पर्याप्त समय भी उनके पास नहीं था। मद्रास पोर्ट ट्रस्ट के कार्यालय में साधारण से क्लर्क के पद पर नौकरी करते हुए घर-परिवार, माता-पिता की देख-भाल आदि नाना विधि कार्यों को करते हुए अपने अध्ययन हेतु थोड़ा समय दे पाते थे, पर यह समय नियमित था। इस नियमबद्धता और निरन्तरता को आधार बनाकर ही वह गणित विषय में अनेकानेक शोध कर सकने में सक्षम हो सके। प्रो. जी.एच. हार्डी तो उनके इस कार्य को देखकर आश्चर्यचकित रह गये कि यह व्यक्ति इतना व्यस्त जीवनयापन करते हुए शोध-अन्वेषण का समय साध्य कार्य कैसे कर पाता है। जिज्ञासा करने पर रामानुजम् ने बताया कि नियमितता ही मेरे शोध प्रयास में सफलता की रीढ़-रज्जु है। कालान्तर में उन्हें रायल सोसायटी का सभासद बनाया गया। जो इस क्षेत्र में अद्वितीय सम्मान है।
निःसंदेह जिन्होंने जीवन चर्या को सुनियोजित किया है वे एक सीढ़ी से दूसरी सीढ़ी पर चढ़ते हुए वहां जा पहुंचे जहां उनके अन्यान्य साथियों के साथ तुलना करने पर प्रतीत होता है कि कदाचित किसी देव-दानव ने ही ऐसा विलक्षण चमत्कार प्रस्तुत किया है, पर वास्तविकता यह है कि उन्होंने नियमितता अपनाई। अपने समय, श्रम एवं चिन्तन को एक दिशा विशेष में संकल्पपूर्वक सुनियोजित किया।
भारत के अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त नाभिकीय भौतिक विज्ञानी डा. मेघनाद साहा ने अपने जीवन क्रम का सुनियोजन इसी ढंग से किया। ढाका से 75 किलोमीटर दूर सियोराताली गांव में एक दुकानदार के घर जन्मे बालक साहा अपने पिता की आठ सन्तानों में से एक थे। घर की आर्थिक समस्या के कारण उन्हें पिता का सहयोग करना पड़ता था। घर के अन्यान्य कार्यों को करते हुए अध्ययन की नियमितता में उन्होंने कोई कमी नहीं की। अध्ययन की व्यस्तता के साथ-साथ उन्होंने देश सेवा का भी समय निर्वाह किया। आर.एस. एण्डरसन ने अपनी पुस्तक ‘‘बिल्डिंग आफ साइन्टिफिक इन्स्टीट्यूशन्स इन इण्डिया’’ में उनके बारे में लिखते हुए बताया कि डा. साहा का प्रत्येक कार्य योजनाबद्ध रीति से सुनियोजित क्रम से होता है। किसी भी कार्य को हाथ में लेकर वे उसे नियमित रूप से करते और भली प्रकार सम्पन्न करते हैं। इसी के कारण उन्होंने अपने जीवन में विविध सफलतायें पायीं और उस समय के मूर्धन्य भौतिक विदों आइन्स्टीन, सोमरफील्ड, मैक्स फ्लेक आदि के द्वारा सम्मानित हुए। उन्हें रायल सोसायटी का सभासद भी मनोनीत किया गया।
नियमितता ही वह महामंत्र है, जिसको अपनाकर कोई भी अपने जीवन को समग्र रूप से विकसित करने, प्रगति-समृद्धि के उच्च शिखर पर आरूढ़ होने का सुयोग-सौभाग्य प्राप्त कर सकता है। यह गुण दीखने में भले ही छोटा लगे, पर प्रभाव और परिणाम की दृष्टि से इसका महत्व सर्वाधिक है। इसे अपनाने और व्यावहारिक जीवन में क्रियान्वित करने में ही सही माने में जीवन की सार्थकता है।
शरीर अपने लिए ढेरों समय खर्च करा लेता है। आठ-दस घण्टे सोने सुस्ताने में निकल जाते हैं। नित्य कर्म और भोजन आदि में चार घण्टे से कम नहीं बीतते। इस प्रकार बाहर घण्टे नित्य तो उस शरीर का छकड़ा घसीटने में ही लग जाते हैं जिसके भीतर हम रहते और कुछ कर सकने के योग्य होते हैं। इस प्रकार जिन्दगी का आधा भाग तो शरीर अपने ढांचे में खड़ा रहने योग्य बनने की स्थिति बनाये रहने में ही खर्च हो लेता है।
अब आजीविका का प्रश्न आता है। औसत आदमी के गुजारे की साधन सामग्री कमाने के लिए आठ घण्टे कृषि, व्यवसाय, शिल्प, मजदूरी आदि में लगा रहना पड़ता है। इसके साथ ही पारिवारिक उत्तरदायित्व भी जुड़ते हैं। परिजनों की प्रगति और व्यवस्था भी अपने आप में एक बड़ा काम है जिसमें प्रकारान्तर से ढेरों समय लगता है। यह कार्य भी ऐसे हैं जिनकी अपेक्षा नहीं हो सकती। इस प्रकार आठ घण्टे आजीविका और चार घण्टे परिवार के साथ बिताने में लगने से यह किश्त भी बारह घण्टे की हो जाती है। बारह घण्टे नित्य कर्म, शयन और बारह घण्टे उपार्जन परिवार के लिए लगा देने पर पूरे चौबीस घण्टे इसी तरह खर्च हो जाते हैं जिसे शरीर यात्रा ही कहा जा सके। औसत आदमी इस भ्रमण चक्र में निरत रहकर दिन गुजार देता है।
समय जितना कीमती और फिर न मिलने वाला तत्व है उतना उसका महत्व प्रायः हम लोग नहीं समझते। हममें से बहुत से लोग अपने समय का सदुपयोग बहुत ही कम करते हैं। आज का काम कल पर टालते और उस बचे हुए समय को व्यर्थ की बातों में नष्ट करते रहते हैं। जबकि समय ही ऐसा पदार्थ है जो एक निश्चित मात्रा में मनुष्य को मिलता है, लेकिन उसका उतना ही अपव्यय भी होता है। संसार में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं जिसकी प्राप्ति मनुष्य के लिए असंभव हो। प्रयत्न और पुरुषार्थ से सभी कुछ पाया जा सकता है, लेकिन समय ही एक ऐसी चीज है जिसे एक बार खोने के बाद कहीं नहीं पाया जा सकता। एक बार हाथ से निकला हुआ वक्त फिर कभी हाथ नहीं आता। कहावत है—‘‘बीता हुआ समय और कहे हुए शब्द वापिस नहीं बुलाये जा सकते।’’ काल को महाकाल कहा गया है। वह परमात्मा से भी महान है। भक्ति साधना द्वारा परमात्मा का साक्षत्कार कई बार किया जा सकता है किन्तु गुजरा हुआ वक्त पुनः नहीं मिलता।
समय ही जीवन है, क्योंकि उससे ही जीवन बनता है। उसका सदुपयोग करना जीवन का उपयोग करना और दुरुपयोग करना जीवन को नष्ट करना है। वक्त किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता। वह प्रति क्षण, मिनट, घण्टे, दिन, महीने, वर्षों के रूप में निरन्तर अज्ञात दिशा की ओर जाकर विलीन होता रहता है। उसकी अजस्र धारा निरन्तर प्रवाहित होती रहती है और फिर शून्य में विलीन हो जाती है। फ्रेंकलिन ने कहा है—‘समय को बर्बाद मत करो क्योंकि समय से ही जीवन बना है।’ इसकी महत्ता का प्रतिपादन करते हुए मनीषी जैक्सन ने कहा है—‘सांसारिक खजानों में सबसे मूल्यवान खजाना समय का है।’ उसका सदुपयोग करके दुर्बल सबल बन सकता है, निर्धन धनवान और मूर्ख विद्वान बन सकता है। वह ईश्वर प्रदत्त एक ऐसी सुनिश्चित एवं अमूल्य निधि है जिसमें एक क्षण भी वृद्धि कर सकना किसी के लिए भी असम्भव है। वह किसी का दास नहीं वरन् अपनी गति से आगे बढ़ता रहता है और कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखता। समय का मूल्यांकन करते हुए आक्सफोर्ड की प्रसिद्ध घड़ी ‘आल्सीसोल्ज’ के डायल पर महत्वपूर्ण पंक्तियां अंकित हैं। उस पर लिखा हुआ है—‘हमें जो घण्टे सौंपे गये हैं, वे नष्ट हो जाते हैं। काल अनन्त है। मनुष्य के हिस्से में काल का केवल एक छोटा सा अंश ही आया है। जीवन की भांति ही बीते हुए समय को भी वापिस कभी नहीं बुलाया जा सकता।’ निःसंदेह वक्त और सागर की लहरें किसी की प्रतीक्षा नहीं करतीं। हमारा कर्तव्य है कि हम समय का पूरा-पूरा सदुपयोग करें।
वस्तुतः हर कार्य को निर्धारित वक्त पर करना ही समय का सदुपयोग है। जीवन में प्रगति करने का यही राजमार्ग है, पर हममें से कितने ही यह जानते हुए भी समय को बर्बाद करते रहते हैं और किसी काम को आगे के लिए टाल देते हैं। ‘आज नहीं कल करेंगे।’ इस कल के बहाने हमारा बहुत-सा वक्त नष्ट हो जाता है। बड़ी योजनायें कार्य रूप में परिणित होने की प्रतीक्षा में धरी रह जाती हैं।
सचमुच जो व्यक्ति काम से बचने, जी चुराने के कारण अब के काम को तब के लिए टालकर अपने बहुमूल्य क्षणों को आलस्य-प्रमाद, विलास-विनोद में व्यर्थ नष्ट करते रहते हैं। निश्चय ही समय उन्हें अनेकों सफलताओं से वंचित कर देता है। फसल की सामयिक आवश्यकताओं को तत्काल पूरा न कर आगे के लिए टालने वाले किसान की फसल चौपट होना स्वाभाविक है। जो विद्यार्थी वर्ष के अन्त तक अपनी तैयारी का प्रश्न टालते रहते हैं, सोचते हैं—‘‘अभी तो काफी समय पड़ा है फिर पढ़ लेंगे’’ वे परीक्षा काल के नजदीक आते ही बड़े भारी क्रम को देखकर घबरा जाते हैं और कुछ भी नहीं कर पाते। फलतः उनकी सफलता की आशा दुराशा मात्र बनकर रह जाती है। कुछ भाग-दौड़ करके सफल भी हो जांय तो भी वे दूसरों से निम्न श्रेणी में ही रहते हैं। अपने वायदे सौदे, लेन-देन आदि को आगे के लिए टालते रहने वाले व्यापारी का काम-धन्धा चौपट हो जाय तो इसमें कोई संदेह नहीं। यही बात वेतन भोगी कर्मचारियों पर भी लागू होती है। टालमटोल की आदत के कारण उन्हें प्रस्तुत कार्य से सम्बन्धित व्यक्तियों एवं अपने बड़े अफसरों का कोपभाजन तो बनना ही पड़ता है, साथ ही विश्वसनीयता भी जाती रहती है।
कई लोगों में अच्छी प्रतिभा, बुद्धि होती है, शक्ति-सामर्थ्य भी होती है। उन्हें जीवन में उचित अवसर भी मिलते हैं किन्तु टालमटोल की अपने बुरी आदत के कारण वे अपनी इन विशेषताओं से कोई लाभ नहीं उठा पाते और दीन-हीन अवस्था में ही पड़े रहते हैं। साहित्यकार, कलाकार आदि का गया हुआ समय जिसमें वे नव रचना, नव सृजन करके जीविकोपार्जन कर सकते थे, वह लौटकर फिर कभी नहीं आता। निश्चय ही किसी काम को आगे के लिए टालते रहना दुष्परिणाम ही प्रस्तुत करता है। इस ‘कल’ से बचने के लिए सन्त कबीर ने चेतावनी देते हुए कहा है—‘‘काल करै सो आज कर, आज करै सो अब। पल में परलै होयगी, बहुरि करेगा कब।’’ अर्थात् कल पर अपने काम को न टाल। जिन्हें आज करना हो वे अभी ही पूरा कर लें। स्मरण रखा जाना चाहिए कि प्रत्येक काम का अपना अवसर होता है और अवसर वही है जब वह काम अपने सामने पड़ा है। अवसर निकल जाने पर काम का महत्व ही समाप्त हो जाता है तथा बोझ भी बढ़ता जाता है। मनीषी कहते हैं—‘‘बहुत से लोगों ने अपना काम कल पर छोड़ा है और वे संसार में पीछे रह गये, अन्य लोगों द्वारा प्रतिद्वन्दिता में हरा दिये गये।’’ नेपोलियन ने आस्ट्रिया को इसलिए हरा दिया कि वहां के सैनिकों ने उसका सामना करने में कुछ ही मिनटों की देर कर दी थी। लेकिन वहीं नेपोलियन वाटरलू के युद्ध में पराजित हुआ और बन्दी बना लिया गया क्योंकि उसका एक सेनापति ग्रुशी पांच मिनट विलम्ब से आया। इसी अवसर का सदुपयोग करके अंग्रेजों ने उसे कैद कर लिया। समय की उपेक्षा करने पर देखते-देखते विजय का पासा पराजय में पलट जाता है। लाभ हानि में बदल जाता है।
समय की चूक पश्चात्ताप की हूक बन जाती है। जीवन में प्रगति की इच्छा रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने किसी भी कर्तव्य को भूलकर भी कल पर न डालें जो आज किया जाना चाहिए। आज के काम के लिए आज का ही दिन निश्चित है और कल के काम के लिए कल का दिन निर्धारित है। आज का काम कल पर डाल देने से कल का भार दो गुना हो जायगा, जो निश्चित ही कल के समय में पूरा नहीं हो सकता। इस प्रकार आज का काम कल पर और कल का काम परसों पर ठेला हुआ काम इतना बढ़ जायगा कि वह फिर किसी भी प्रकार पूरा नहीं किया जा सकता। इतना ही नहीं जो काम हमें आज करने हैं, वह कल भी उतने ही महत्व के रहेंगे, यह नहीं कहा जा सकता। परिस्थितियां क्षण-क्षण बदलती रहती हैं और पिछड़े कार्यों का कोई महत्व नहीं रह जाता।
कार्य की उपयोगिता और महत्ता की दृष्टि से कुछ काम पहले किये जा सकते हैं एवं कम महत्व के कामों को बाद में भी किया जा सकता है। किन्तु काम को आगे के लिए टालना, जी चुराना, बचना बुरी आदत है। वस्तुतः आलस्य और अकर्मण्यता का संशोधित रूप काम को टालना है, जिससे सफलता और प्रगति के आकांक्षी प्रत्येक व्यक्ति को बचना ही चाहिए।
काम को टालिये नहीं :
कोई व्यक्ति यह कहकर ऋण चुकाने से इन्कार नहीं कर सकता कि साहब रुपये तो मेरी जेब में हैं परन्तु देने को जी नहीं चाहता। दुनिया ऐसे आदमी को क्या कहेगी? पास में पैसा होते हुए भी केवल यह बहाना करना कि देने की इच्छा नहीं है। यह बेवकूफी और मक्कारी दोनों का ही मिश्रण कहा जायगा। परन्तु जब हम कष्टसाध्य कर्तव्यों और कठिन कार्यों को न करने या बाद में करने को ठानते हैं तो हमारी स्थिति उस बुद्धिहीन व्यक्ति की तरह होती है।
आज का काम कल पर न टालना एक प्रशंसनीय सद्गुण है उसी प्रकार श्रम साध्य कार्य को सबसे पहले करने का निश्चय सफलता का स्वर्णिम सूत्र है। ऐसे आगत कर्तव्यों से छुटकारा नहीं पाया जा सकता। देर-सवेर उन कार्यों का पूरा करना ही पड़ता है फिर क्या जरूरी है कि हम दूसरे कामों में लगे रहकर कठिन कार्यों का बोझ अपने मन मस्तिष्क पर बनाये रखें।
सूक्ष्म दृष्टि से देखना चाहिए कि कहीं हममें कठिन कार्यों को टालने, श्रम साध्य कर्तव्यों से बचने की आदत तो नहीं पड़ गयी है। आत्म-निरीक्षण के द्वारा ऐसी स्थिति का पता चले तो दृढ़ निश्चय करना चाहिए कि जिन कार्यों को हम सबसे पीछे डालते रहे हैं उन्हें ही सबसे पहले कर लें। परीक्षा में कठिन प्रश्नों को सर्वप्रथम हल करके आसान सवालों का उत्तर उनके बाद करने की पद्धति सफलता प्राप्त करने का आसान उपाय है।
यदि यह आदत डाल ली जाय तो जो काम सबसे कठिन दिखाई पड़ते हैं वे बहुत आसान लगने लगते हैं। वास्तव में कोई भी कार्य असाध्य व कठिन नहीं है। उन्हें हम ही कठिन बनाते हैं, अपनी टालने की वृत्ति से। इस वृत्ति के कारण आसान और सहज साध्य कार्य भी धीरे-धीरे कठिन लगने लग जाते हैं।
कम कठिनाई का कार्य पहले करने की आदत मनुष्य को प्रकृति का दास बना लेती है। जबकि वह अपने स्वभाव का, आदतों का दास नहीं स्वामी है। बहुत से व्यक्ति जो अपने जीवन में कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर पाते हैं, इसी आदत के दास होते हैं। ऐसी प्रकृति के हारे हुए व्यक्ति फिर कठिन कार्यों से ही नहीं, थोड़ी-सी कठिन परिस्थितियों में भी घबरा उठते हैं।
वे सरल कार्य पहले चुन-चुन कर लेते हैं। उनका सारा श्रम और कार्यक्षमता इन सरल कामों में लग जाती है। जब थक जाते हैं तब कार्य दीर्घ सूत्रता के शिकार हो जाते हैं। फिर करेंगे की भावना समस्या बन जाती है और काम का बोझ हमेशा खटकने लगता है।
सुबह जब हम अपनी दिनचर्या आरम्भ करते हैं तो कठिन और श्रम साध्य कार्यों को सबसे पहले कर लेना एक अच्छी और प्रगतिदायी आदत है। इसकी अपेक्षा अनावश्यक कामों को पहले करने का स्वभाव थकाने वाला बन जाता है। और कठिन कार्य पड़े रह जाते हैं। यदि हम इस आलस्य की वृत्ति पर विजय नहीं प्राप्त कर सके तो निश्चित है कि हम औसत स्तर से रत्ती भर भी ऊंचा नहीं उठ सकेंगे और सफलता हमसे कोसों दूर रहेगी। हम जिन परिस्थितियों में हैं, प्रगतिशील व्यक्ति उनसे गई-गुजरी स्थिति में भी हमसे आगे बढ़ जाता है और फिर हम कुछ कर सकते हैं तो केवल ईर्ष्या।
कुछ बनने के लिए दृढ़ संकल्प के साथ अपने कार्यों में लगना चाहिए। यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि कठिन कार्यों में ही हमारी सामर्थ्य तथा योग्यता का विकास सम्भव है।
कार्य सभी समान होते हैं। करने से सब पूरे हो जाते हैं। यह हमारे मन का आलस्य ही कठिन और सरल का वर्गीकरण करता है। अपने भीतर छिपे बैठे इस घर के भेदी की बात मान ली तो फिर हमें सभी काम कठिन लगने लगेंगे। अतः पुरुषार्थी व्यक्तियों की दृष्टि में काम केवल काम होता है। कठिन सरल के वर्गीकरण के चक्कर में न पड़ते हुए वे उसे पूरा करने में जुट पड़ते हैं।
समय का मूल्य पैसे से भी अधिक :
अमीर साहूकारों की दिनचर्या पर ध्यान दें तो मालूम पड़ेगा कि समय काटने के लिए उनने भी एक टाइम टेबिल बना रखा है। थोड़ा-बहुत ही आगा-पीछा होता है कि कोई यार-दोस्त आ धमके तब, नहीं तो सबेरे से उठकर हाथ-मुंह धोने, हजामत बनाने, चाय पीने, अखबार पढ़ने, भोजन करके विश्राम के लिये चले जाने, उठने पर चाय पीने, ताश खेलने, रात का टी.वी. देखने, दस बजे भोजन करने और सवेरे आठ बजे तक का बना-बनाया कार्यक्रम रहता है। यार-दोस्तों के आ धमकने पर जो काम अकेले करते थे वह कइयों द्वारा मिल-जुलकर होने लगता है। कभी-कभी इसमें सैर-सपाटा भी शामिल हो जाता है। पूछने पर वे भी अपने को व्यस्त बताते हैं।
स्त्रियों में ढेरों ऐसी होती हैं जिनके जिम्मे दोनों समय की रसोई होती है—दो-तीन आदमियों की। इसको भी वे लापरवाही से इस तरह करती हैं कि सारा दिन उसी में घूम जाता है। कहने को वे भी यही कहती हैं कि दिनभर लगे रहते हैं, फुरसत ही नहीं मिलती।
समय काटने के लिए कोई भी इससे मिलता-जुलता कार्यक्रम बना सकता है। शरीर यात्रा अपने आप में एक काम है। बाजार जाकर घर की चीजें खरीदना भी ढेरों समय ले जाता है। ऐसी दशा में किसी महत्वपूर्ण काम के लिए समय निकालना मुश्किल है।
जिनने विशेष अध्ययन, कलाकारिता, शोध जैसे महत्वपूर्ण कार्य किये हैं उन्हें अपने फैले हुए समय को सिकोड़ना पड़ा है।
संसार में महापुरुषों को किसी महत्वपूर्ण प्रगति के लिए समय का केन्द्रीकरण और विचारों का केन्द्रीकरण करना पड़ता है। शरीर यात्रा के काम तो ऐसे ही चलते-फिरते हो जाते हैं। उन्हें भी तत्परतापूर्वक किया जाय तो दो घण्टे में रसोई आदि के नित्य कर्म पूरे हो जाते हैं। रात को जल्दी सोया जाय और सवेरे जल्दी उठा जाय तो वह सवेरे का बचा हुआ समय ऐसा सुविधाजनक होता है कि उसमें बौद्धिक काम दिन भर जितना निपट जाता है।
सबसे ज्यादा समय की बर्बादी यारवाशी करती है। ठलुआ देखते रहते हैं कि हमारे जैसा बेकार समय वाला आदमी कौन है? जब मन में आया तभी चल पड़ते हैं और इधर-उधर की बेकार बातें आरम्भ कर देते हैं। टालने पर टलते नहीं। बीच-बीच में चाय जलपान, ताश, शतरंज आदि के मन बहलाव मिलते रहें तब तो कहना ही क्या? बड़े आदमी रिटायर होने पर आमतौर से बेकार हो जाते हैं और समझते हैं कि सब लोग भी हमारे जैसे बेकार होंगे। एक-दो बार सम्मानपूर्वक आदर सत्कार मिल जाय तो समझते हैं कि हमारे आगमन का अहसान माना गया। फिर वे जल्दी-जल्दी आने का सिल-सिला आरम्भ कर देते हैं। यह सिलसिला जिन घरों में भी चल पड़ेगा समझना चाहिए कि अपने साथ-साथ घर वालों की बर्बादी भी आरम्भ हुई। स्वागत-सत्कार भी अब कम महंगा नहीं है। एक के लिए बनाने पर घर के सभी सदस्यों के लिए बनाना पड़ता है। स्त्रियों के लिये तो बर्तन मांजने-धोने समेत उतना ही काम बढ़ जाता है जितना कि एक समय की रसोई बनाने का।
जिन्हें अपने समय का मूल्य विदित हो, जो उसे बचाना और किसी महत्वपूर्ण कार्य में लगाना चाहते हों, उन्हें ठाली रहने की तरह यारवाशी का चस्का लगाने से भी बचना चाहिए। दुर्व्यसनों में एक यह भी है कि ठाली लोगों के साथ दोस्ती बढ़ाई जाय और उनके साथ गपशप का सिलसिला चलाया जाय।
महत्वपूर्ण व्यक्ति-जिन्हें जीवन में महत्वपूर्ण काम करने हैं वे समय के साथ कड़ाई बरतते हैं। उसे तनिक भी बर्बाद नहीं होने देते। मनोरंजन के लिए मन करे तो स्त्री बच्चों के साथ ज्ञानवर्धक एवं उपयोगी चर्चा की आदत डालनी चाहिए इससे वे प्रसन्न भी रहते हैं और कुछ अच्छा बनने का उत्साह भी प्राप्त करते हैं।
प्रगति की महत्वपूर्ण कुंजी : नियमितता
जीवन के बहु आयामी विकास के लिए जो सद्गुण आवश्यक हैं, उनमें नियमितता प्रधान ही नहीं अनिवार्य भी है। समय और कार्य की योजनाबद्ध रूप से संयत दिनचर्या बनाने और उस पर आरूढ़ रहने का नाम ही ‘नियमितता’ है। इस तरह व्यवस्थित कार्यक्रम बनाकर चलने से शरीर और मन को उसमें संलग्न रहने की उमंग रहती है तथा प्रवीणता भी बढ़ती है। फलतः सूझबूझ के साथ निश्चित किया गया कार्य सरलता और सफलतापूर्वक भली प्रकार सम्पन्न होता चला जाता है।
संसार में विविध क्षेत्रों में जिन महामानवों ने प्रगति की, सफलता पाई उनके जीवन-पटल की गहनता-गम्भीरतापूर्वक अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि उनके जीवन का केन्द्रीय आधार नियमितता ही रही है।
राष्ट्रभाषा के कुशल शिल्पी, तत्कालीन सरस्वती के सम्पादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसकी महत्ता बताते हुए एक स्थान पर लिखा है कि जो लोग अवनति, असफलता का हर समय रोना रोया करते हैं, निश्चित ही उनने साफल्य प्रदायिनी विद्या ‘नियमितता’ की आराधना नहीं की। उन्होंने अपने निज के विकास का श्रेय भी इसी को दिया है। रेलवे की नौकरी, अन्यान्य गृह-कार्य, सामाजिक कार्य करते हुए उनने जिस विशाल ज्ञान राशि का संचय किया तथा परवर्ती काल में साहित्यिक क्षेत्र में जो असामान्य प्रगति की, उसका आधार यही है। हरिभाऊ उपाध्याय ने अपने एक संस्मरण परक लेख में आचार्य द्विवेदी जी की नियमबद्धता की चर्चा करते हुए लिखा है कि आचार्य जी के हर कार्य का नियत समय था। उसमें भूल-चूक होने की कोई गुंजाइश नहीं थी। इसका पालन वह इतनी दृढ़ता से करते थे कि उनके सहयोगी, मिलने वाले उनके कार्य विशेष को देखकर अपनी घड़ी मिला लेते। क्योंकि उन सभी को विश्वास रहता था कि द्विवेदी जी के प्रत्येक कार्य का सुनिश्चित समय है, उसमें हेर-फेर का कोई स्थान नहीं।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का व्यक्तित्व भी इस गुण से पूरी तरह ओत-प्रोत था। उनके समय और कार्य की सुनियोजित पद्धति सुनियोजित क्रम अनुकरणीय था। जिस समय उन्होंने गीता का शब्दकोश तैयार किया जो गीता-माता नामक ग्रन्थ में संग्रहीत है, तो सहयोगियों ने जिज्ञासावश प्रश्न किया कि वह इतने व्यस्त जीवन में यह समय साध्य, चिन्तनपरक कार्य कैसे कर सके। बापू का जवाब था—मेरा जीवन व्यस्त तो है पर अस्त-व्यस्त नहीं। मैं इस कार्य में नियमित 20 मिनट का समय नियोजित करता था। उसी नियमबद्धता, सुनियोजित कार्य-पद्धति का प्रतिफल है कि यह कार्य सफलतापूर्वक कम समय में सम्पन्न हो सका।
निश्चित ही जिन लोगों का जीवनक्रम अस्त-व्यस्त और अनियमित रहता है, वे न तो अपने जीवन का सही उपयोग कर पाते हैं और न ही समुचित विकास। ऐसे व्यक्ति प्रायः असफल ही देखे जाते हैं। मानवी प्रगति में इस गुण का अभाव एक बड़ी बाधा है। अनियमित व्यक्ति हवा में उड़ते रहने वाले पत्तों की तरह कभी इधर-उधर कुदकते-फुदकते रहते हैं। निश्चित दिशा-धारा नियोजित क्रम के अभाव में उनका परिश्रम और समय बेतरह बरबाद होता रहता है। धीमी चाल से चलने वाले स्वल्प क्षमताशील प्राणी कछुए ने सतत् प्रयत्न व नियमबद्धता को अपनाकर बाजी जीती थी। जब कि बेतरतीब इधर-उधर भटकने वाला खरगोश अधिक क्षमतावान होते हुए भी पराजित और अपमानित हुआ। सामर्थ्य प्रतिभा का जितना महत्व है, उससे अधिक महत्वपूर्ण और आवश्यक यह है कि जो कुछ उपलब्ध है उसी को योजनाबद्ध रूप से नियमित व्यवस्था क्रम अपनाकर सदुद्देश्य के लिए प्रयुक्त किया जाय। जो ऐसा कर पाते हैं, वे ही क्रम-विकास के सुप्रशस्त राजपथ पर चलते हुए उन्नति के शिखर पर आरूढ़ होते हैं। सुविख्यात गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजम् न तो उच्च शिक्षित थे, न ही उनके पास साधन सुविधाओं की विपुलता थी। पर्याप्त समय भी उनके पास नहीं था। मद्रास पोर्ट ट्रस्ट के कार्यालय में साधारण से क्लर्क के पद पर नौकरी करते हुए घर-परिवार, माता-पिता की देख-भाल आदि नाना विधि कार्यों को करते हुए अपने अध्ययन हेतु थोड़ा समय दे पाते थे, पर यह समय नियमित था। इस नियमबद्धता और निरन्तरता को आधार बनाकर ही वह गणित विषय में अनेकानेक शोध कर सकने में सक्षम हो सके। प्रो. जी.एच. हार्डी तो उनके इस कार्य को देखकर आश्चर्यचकित रह गये कि यह व्यक्ति इतना व्यस्त जीवनयापन करते हुए शोध-अन्वेषण का समय साध्य कार्य कैसे कर पाता है। जिज्ञासा करने पर रामानुजम् ने बताया कि नियमितता ही मेरे शोध प्रयास में सफलता की रीढ़-रज्जु है। कालान्तर में उन्हें रायल सोसायटी का सभासद बनाया गया। जो इस क्षेत्र में अद्वितीय सम्मान है।
निःसंदेह जिन्होंने जीवन चर्या को सुनियोजित किया है वे एक सीढ़ी से दूसरी सीढ़ी पर चढ़ते हुए वहां जा पहुंचे जहां उनके अन्यान्य साथियों के साथ तुलना करने पर प्रतीत होता है कि कदाचित किसी देव-दानव ने ही ऐसा विलक्षण चमत्कार प्रस्तुत किया है, पर वास्तविकता यह है कि उन्होंने नियमितता अपनाई। अपने समय, श्रम एवं चिन्तन को एक दिशा विशेष में संकल्पपूर्वक सुनियोजित किया।
भारत के अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त नाभिकीय भौतिक विज्ञानी डा. मेघनाद साहा ने अपने जीवन क्रम का सुनियोजन इसी ढंग से किया। ढाका से 75 किलोमीटर दूर सियोराताली गांव में एक दुकानदार के घर जन्मे बालक साहा अपने पिता की आठ सन्तानों में से एक थे। घर की आर्थिक समस्या के कारण उन्हें पिता का सहयोग करना पड़ता था। घर के अन्यान्य कार्यों को करते हुए अध्ययन की नियमितता में उन्होंने कोई कमी नहीं की। अध्ययन की व्यस्तता के साथ-साथ उन्होंने देश सेवा का भी समय निर्वाह किया। आर.एस. एण्डरसन ने अपनी पुस्तक ‘‘बिल्डिंग आफ साइन्टिफिक इन्स्टीट्यूशन्स इन इण्डिया’’ में उनके बारे में लिखते हुए बताया कि डा. साहा का प्रत्येक कार्य योजनाबद्ध रीति से सुनियोजित क्रम से होता है। किसी भी कार्य को हाथ में लेकर वे उसे नियमित रूप से करते और भली प्रकार सम्पन्न करते हैं। इसी के कारण उन्होंने अपने जीवन में विविध सफलतायें पायीं और उस समय के मूर्धन्य भौतिक विदों आइन्स्टीन, सोमरफील्ड, मैक्स फ्लेक आदि के द्वारा सम्मानित हुए। उन्हें रायल सोसायटी का सभासद भी मनोनीत किया गया।
नियमितता ही वह महामंत्र है, जिसको अपनाकर कोई भी अपने जीवन को समग्र रूप से विकसित करने, प्रगति-समृद्धि के उच्च शिखर पर आरूढ़ होने का सुयोग-सौभाग्य प्राप्त कर सकता है। यह गुण दीखने में भले ही छोटा लगे, पर प्रभाव और परिणाम की दृष्टि से इसका महत्व सर्वाधिक है। इसे अपनाने और व्यावहारिक जीवन में क्रियान्वित करने में ही सही माने में जीवन की सार्थकता है।