Books - यह अनावश्यक भार अब न बढ़ायें
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Language: HINDI
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यह अनावश्यक भार अब न बढ़ाएं
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प्रकृति ने प्राणी को निरन्तर कार्य में व्यस्त रहने के लिए दो ऐसे माध्यम बना दिये हैं, जिनके जाल-जंजाल में फंसा हुआ निरन्तर दौड़ धूप करता रहे और व्यस्तता से घिरा रहे।
इनमें एक पेट की भूख। हर प्राणी की शरीर संरचना को देखते हुए ही उसका पेट रखा है। उसको भरने के लिए मुख का ही आश्रय लेना पड़ता है। हाथ-पांव किसी के भी ऐसे नहीं हैं जिनके सहारे वह आवश्यकता पड़ने पर बहुत दिनों काम दे सकने योग्य आहार जमा न कर सके। उसे मुंह से ही हाथों का काम लेना पड़ता है और उसे उदरस्थ करने का भी। इस प्रयोजन के लिए दिन भर यहां से वहां दौड़ना पड़ता है क्योंकि जहां आहार अर्जित नहीं होता उसे प्राप्त करने के लिए जहां-तहां तलाशने घूमने फिरने के अतिरिक्त और कोई चारा भी नहीं। बड़े पेट को धीरे-धीरे भरते और साथ का साथ पचाते रहने में उसके सोने के अतिरिक्त बचा हुआ कार्यकाल पूरा हो जाता है। दूसरे दिन का कार्यकाल आरम्भ होते ही फिर उस निमित्त प्रयाण करना पड़ता है। दिवाचर, निशाचर, शाकाहारी, मांसाहारी—सभी के लिए प्रकृति का यही क्रम नियत है।
इनके उपरान्त प्रौढ़ता आते ही जब शक्ति का कुछ संचय और बचाव होने लगता है तो उस पर एक नया फितूर चढ़ता है—यौनाचार का। उसकी विनोद क्रीड़ा कुछ क्षण की ही होती है पर उत्पादनकर्त्ता पर विशेषतया माता पर उसकी भारी जिम्मेदारी चढ़ लेती है। अण्डे तथा बच्चे का पेट में रखवाली। प्रजनन व्यथा और उसके उपरान्त बालक के समर्थ होने तक उसकी देखभाल, भोजन व्यवस्था आदि। अधिकांश प्राणियों में तो यह गुरुतर भार माता को ही वहन करना पड़ता है। कुछेक ऐसे भी है जो इस कार्य में मादा की सहायता करते हैं। घोंसला बनाने, दाना एकत्रित करने, रखवाली करने का प्रचलन पक्षियों में बहुत करके पाया जाता है। नर समुदाय में हाथी जैसे कुछ ही वर्ग हैं जो शिशु पालन में मादा की सहायता करते हैं, अन्यथा वे विनोद क्रीड़ा में ही थोड़ी सहायता करने के उपरान्त पल्ला झाड़कर अलग हो जाते हैं। जो हो, मादा ही रही पर वह कठिन काम ऐसा है जिसमें कम से कम साथी ढूंढ़ने और उसे सहमत करने के लिए-मनुहार करने के लिए सभी को नर प्राणियों की आवश्यकता पड़ती है। बच्चों को बड़ा होने और आत्मरक्षा के लिए अपेक्षाकृत अधिक सतर्कता बरतनी पड़ती है। प्राणि समुदाय में समय क्षेप के लिए यहां दो तरीके निर्धारित हैं, वे अपनी जिंदगी उन्हीं समस्याओं के समाधान में पूरी करते हुए समयानुसार मृत्यु के मुख में चले जाते हैं। आत्मरक्षा के लिए बचने या आक्रमण करने का तीसरी प्रवृत्ति भी उनकी जीवनचर्या को उलझनों में उलझाये रहती हैं।
मनुष्य की स्थिति इस संदर्भ में अन्य प्राणियों से भिन्न है। उसका बच्चा लम्बी अवधि के उपरान्त स्वावलम्बी बनता है। इस बीच मादा उपार्जन के योग्य नहीं रहती। उसका बहुत सारा समय भी शिशु पोषण में चला जाता है इसलिए प्रकृति क्रम के अनुसार पिता को भी गर्भिणी और प्रसूता का नहीं बच्चे के पालन पोषण में बढ़ चढ़ कर उत्तरदायित्व निभाना पड़ता है। जब तक बच्चे समर्थ और स्वावलम्बी होते हैं तब तक माता पिता का बुढ़ापा आ घेरता है और उन्हें बच्चों के उपार्जन पर अवलम्बित रहना पड़ता है। यह एक परा कुचक्र है जिसमें अन्य प्राणियों की तरह मनुष्य को भी व्यस्त रहना पड़ता है। इस प्रयास में ही उनका अधिकांश समय बीत जाता है। यदि बच्चों का विकास और आचरण ठीक न हुआ हो तो उनके कारण उन्हें बुढ़ापे में भी चैन नहीं मिलता। देर तक डडडडड होते रहने पर जीवन के अन्त तक वह समस्या सुलझ नहीं पाती और उन्हीं के निमित्त उन्हें अपना समूचा जीवन खपा देना पड़ता है।
जो मनुष्य जीवन की गरिमा महत्ता समझते हैं वे अपने समय और शक्तिओं को आदर्शवादी उच्च प्रयोजनों में लगाने की बात को ध्यान में रखते हुए प्रजनन कृत्य से बचते हैं। दाम्पत्य जीवन निर्वाह को यदि प्रजनन रहित रखा जा सके तो उससे कठिनाई नहीं पड़ती पर प्रकृति क्रम को कोई क्या करे कि दम्पत्ति सहवास के उपरान्त प्रजनन क्रम चल पड़ता है और बच्चों की संख्या क्रमशः बढ़ती ही जाती है। उनके प्रति दायित्व भी बढ़ता है और मोह भी। पत्नी भी सहचरी के रूप गांठ बंध जाती है। इसलिए देखा गया है कि औसत आदमी पेट और परिवार में ही अपनी सामर्थ्य चुका देता है। यह गाड़ी इतनी भारी हो जाती है कि उसे खींचते रहने में जीवन का सारा शारीरिक और मानसिक सार तत्व खप जाता है। कभी-कभी तो अनीतिपूर्ण उपार्जन तक के लिए विवश होना पड़ता है।
किन्तु कठिनाई एक और भी है कि मनुष्य के अन्दर एक उच्चस्तरीय आत्म तत्व भी है जो कितनी ही बातें सोचता है। इतना सुविधा सम्पन्न जीवन मनुष्य को भगवान ने किसलिए दिया जिसके साथ विलक्षण शारीरिक संरचना और अद्भुत बुद्धिमत्ता जुड़ी हुई है। वह अन्य प्राणियों को न मिलकर मात्र मनुष्य को ही मिली है तो इसमें स्रष्टा का एक के प्रति पक्षपात और सभी अन्य जीवधारियों के प्रति अन्याय होना चाहिए। यदि ईश्वर की महान गरिमा पर ऐसा दोषारोपण करने का मन न करना पड़ता हो तो फिर शास्त्रकारों और आप्त वचनों पर विश्वास करते हुए ऐसा मानना पड़ता है कि मनुष्य जीवन किसी विशेष उद्देश्य के लिए मिला है। किस काम के लिए? उसका उत्तर है कि अपनी गरिमा को बढ़ाने के लिए और विश्व उद्यान को समुन्नत सुशोभित करने के लिए पुण्य परमार्थ स्तर के कार्य करने में संलग्न रहा जाय। निज का व्यक्तित्व निखारने के लिए गुण, कर्म स्वभाव में उत्कृष्टता का अधिकाधिक समावेश करना पड़ता है और परमार्थ के लिए सत्प्रवृत्ति संवर्धन की सेवा साधना में संलग्न रहना पड़ता है। यह दोनों कार्य परस्पर अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। परमार्थ करना उसी के लिए संभव है जिसने अपनी जीवनचर्या पुण्यमय बनाई है। जो पुण्य अर्जित करना चाहता है उसके लिए परमार्थ को प्राण प्रिय बनाकर अपनाना पड़ता है। दोनों को एक दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता।
इन परिस्थितियों में व्यक्ति के लिए दुहरी खींचतान खड़ी होती है। शरीर विलास चाहता है। विलासों में यौनाचार प्रमुख है। यौनाचार के साथ जुड़े हुए दायित्व और झंझट इतने अधिक हैं कि उन्हीं में सारा जीवन खप जाता है। फिर पुण्य परमार्थ के लिए न समय बचता है न साधन। इस तथ्य पर जो गंभीरता पूर्वक विचार करते हैं उनका विकसित अन्तरात्मा कहता है कि यौनाचार और उदरपूर्ति के अवसर सभी योनियों में समान रूप से उपलब्ध हैं। मनुष्य जीवन तो ईश्वर का विशेष अनुग्रह और मनुष्य का असाधारण सौभाग्य है। इससे पूर्व भी 84 लाख योनियों में भ्रमण करते हुए एक से एक बढ़कर कष्ट उठाने पड़ेंगे। मुसलमान, ईसाई धर्मों के अनुसार तो महाप्रलय के उपरान्त ही मनुष्य जन्म जाने का सुयोग बनता है।
दोनों विकल्पों में से किस एक को चुना जाय
? इसके लिए अदूरदर्शी विलासिता को और दूरदर्शी महान लक्ष्य की प्राप्ति को महत्व देते रहे हैं। ऋषियों की भी एक दो संतानें थीं पर उन्होंने उन्हें छात्रों की तरह सुशिक्षित बनाकर ब्रह्म परम्परा से लेकर पुरोहित परम्परा को जीवित रखने भर का प्रयत्न किया, आज के विलासी यौनाचार और बच्चों को अधिक कमाऊ दैत्य बनाने के लिए एड़ी से चोटी तक का पसीना नहीं बहाया। फलतः उनका सन्तानोत्पादन भी शिष्य प्रशिक्षण द्वारा धर्म प्रचार की परम्परा का ही एक अंग रहा। कितने ही ऋषियों ने आजन्म ब्रह्मचर्य निभाया। कितने ही गृहस्थ रहते हुये भी प्रजनन का अवसर न आने देने के संबंध में सतर्क रहे। कितनों ने ऋषि कुमारों की वैसे परम्परा स्थापित की जैसी लोमश ऋषि के शृंगी ऋषि पुत्र भी थे और शिष्य भी। प्रजनन का अम्बार लगा देना उन दिनों भी एक सामाजिक अपराध माना जाता था। रावण जैसों ने इस मर्यादा का उल्लंघन किया। वह ब्राह्मण कुल में पैदा होने पर भी असुर घोषित करते हुए धिक्कारा गया। संभव है अधिक सन्तान जनने और उन्हें सम्पन्न बनाने के लिए ही देवताओं और ऋषियों पर अत्याचार किये गये हैं। अन्यान्य कुकर्मों के मूल में भी संभव है यही व्यामोह काम करता रहा हो।
उन दिनों वंश चलाने, परलोक में पिण्डदान मिलने, बुढ़ापे की लकड़ी सिद्ध होने जैसी मूर्खतापूर्ण बातों की कोई कल्पना ही नहीं करता था। क्योंकि व्यक्तित्व का निजी स्वरूप ही शान्ति, सद्गति और सुविधाओं को एकमात्र कारण माने जाने की शास्त्रोक्त परम्परा मान्य रहती थी।
पुत्र और पुत्री में भी कोई अन्तर नहीं माना जाता था। जनक की सीता, दक्ष की सती, हिमाचल की पार्वती, मनु की इला आदि अनेकों कन्यायें पुत्रों से बढ़कर अपने वंश को उज्ज्वल करती रहीं। जबकि पुलस्त्य मुनि के पौत्र रावण ने सारी वंश परम्परा को बदनाम कर दिया।
इन दिनों समय की गति को देखते हुए यदि आगामी बीस वर्षों तक विज्ञजन स्वेच्छापूर्वक सन्तानोत्पादन न करने का व्रत निवाहें तो यह सहृदयता और समझदारी की बात होगी। समझदारी की इसलिए कि धरती की शक्ति और अधिक मनुष्यों का भार वहन करने की रह नहीं गई है।
धरती के दो तिहाई भाग को समुद्र घेरे हुए है। एक तिहाई में पर्वत, रेगिस्तान, ऊसर, बंजर आदि का बड़ा भाग है। सिंचाई के साधन हर जगह नहीं हैं। वर्षा न होने पर वे क्षेत्र घास तक उपजाने में असमर्थ हो जाते हैं। जितनी धरती है वह वर्तमान 500 करोड़ मनुष्यों के लिए अन्न, शाक, वस्त्र, पानी, निवास, आवास, पशुपालन आदि के लिए जगह चाहिए। अब तक का काम तो किसी तरह चल गया पर आगे के लिए अब तनिक भी गुंजाइश ऐसी नहीं रही है कि 500 करोड़ वर्तमान जनसंख्या के साथ जुड़े हुए प्रायः इतने ही पालतू पशुओं का निर्वाह कर सके।
ईसा के समय अब से दो हजार वर्ष पूर्व समस्त संसार में प्रायः 15 करोड़ व्यक्ति थे। वे आर्थिक और बौद्धिक सुविधाएं बढ़ने से इन दिनों 500 करोड़ अर्थात् प्रायः 35 गुने हो गये हैं। यह चक्रवृद्धि क्रम है। एक के चार बच्चे, चार के सोलह और सोलह के 64 एक पीढ़ी 20 वर्ष में बढ़ जाती है। इस क्रम से 60 वर्ष में एक व्यक्ति की संतानें बढ़कर 64 तक हो सकती हैं। यह क्रम रुका नहीं तो अभी तो भोजन की महंगाई और निवास की कठिनाई है पर आगे चलकर पीने का पानी और रहने को छाया का भी संकट खड़ा हो जायेगा। जगह खाली करने के लिए एक ही उपाय रह गया है कि जंगल काट कर पेड़ समाप्त किये जायं और उस स्थान में आवास बनाने या अन्न उगाने जैसे काम किये जायं। किन्तु देखा यह गया है कि पेड़ कटते जाने से अन्य अनेक तरह की मुसीबतें खड़ी हो जाती हैं। वायु प्रदूषण बढ़ता है। क्योंकि पेड़ों में ही प्रधानतया हवा को शुद्ध करने और वायु में ऑक्सीजन भरने की शक्ति होती है। यदि उसे नष्ट कर दिया जाय तो वायु मंडल में इतनी विषाक्तता भर जायेगी कि शुद्ध सांस लेने भर को जगह नहीं मिलेगी। पेड़ कटने का दूसरा प्रभाव होता है कि बादलों को बरसाने के लिए पेड़ों की चुम्बकीय शक्ति काम करती है। उसके घट जाने पर वर्षा का अनुपात कम हो जाता है। दूसरे जिस जमीन को पेड़ों की जड़ें पकड़े रहती हैं और नम बनाये रहती हैं। उसका पेड़ कटने पर वह गुण समाप्त हो जाता है। फलतः वर्षा होने पर मिट्टी घुल कर नदियों में चली जाती है। उनकी सतह उथली होने लगती है। फलतः बाढ़ें आती हैं और हर साल ढेरों उपजाऊ भूमि बहा ले जाती है। नदियों की गहराई उथली होती जाती है और नदियों का पानी फैलने लगता है। यह संकट हर वर्ष के लिए खड़ा हो जाता है और पौधे गल जाने से उपज घटने लगती है। जमीन की ऊपरी परत ही उपजाऊ है। नीचे खोदने पर उर्वरता रहित मिट्टी निकलने लगती है। ऊपर की परत धुल जाने का परिणाम यह होता है कि जमीन रेगिस्तान बनती जाती है। पिछली एक शताब्दी में रेगिस्तान का विस्तार प्रायः दूना हो गया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि वहां पेड़ तक नहीं रहे और जगह ऐसी हो गयी जिसमें मनुष्य तो क्या पशु पक्षी भी निवास कर सकने की स्थिति में नहीं रहे। यह सब पेड़ कटने, वन घटने के दुष्परिणाम हैं। यही घटना क्रम बढ़ता रहा तो नई जमीन प्राप्त कर सकना तो दूर जो पुरानी है वह भी हाथ से छिन जायेगी।
अधिक उत्पादन की दृष्टि से खेतों को थोड़े समय भी विश्राम न लेने दिया जाय और एक के बाद दूसरी फसल उगाई जाने लगे तो भी पैदावार का अनुपात घटेगा और गुणों की दृष्टि से भी घटियापन बढ़ेगा। जिसको खाने वाले मनुष्य और पशु दुर्बल होते जायेंगे और वे उतना श्रम न कर सकेंगे जितना कि करते रहे हैं। दुर्बल भूमि में उपजे पेड़ पौधे फसल के कीड़ों से ग्रसित होते जाते हैं, और उन्हें मारने के लिए विषैले कीटनाशकों का प्रयोग करना पड़ता है। वह सब भी घूम फिर कर मनुष्यों के ही पेट में पहुंचता है और स्पष्टतः जीवनी शक्ति घटती है। यह भी एक प्रकार का संकट ही है जिसके कारण मनुष्य दुर्बल होता और बीमार पड़ता जाता है। बीमार स्वयं कष्ट पाता है, संबंधियों को परिचर्या में घेरता है और दवादारू में पैसा खर्च कराता है सो अलग। फिर एक की बीमारी दूसरे को भी छूत की तरह तो लगती ही है। यह सब कठिनाई दुर्बल स्तर के आहार का प्रतिफल है जिसे कुपोषण भी कहा जाता है। आज असंख्य व्यक्ति कुपोषण के शिकार होकर दुर्बल होते और बीमार पड़ते हैं। यह कुपोषण आसमान से नहीं टपकता। यह दुर्बल भूमि से उत्पन्न हुए दुर्बल अनाज का ही प्रतिफल है।
जनसंख्या वृद्धि के व्यापक दुष्परिणाम ऐसे हैं जो समूचे संसार को, समूचे समाज को हिलाकर रख देते हैं। व्यक्तिगत रूप से उसके जो प्रभाव पड़ते हैं वे तो और भी स्पष्ट हैं, उन्हें हाथों हाथ देखा जा सकता है।
छोटी आयु में विवाह हो जाने के परिणाम स्वरूप जल्दी-जल्दी बच्चे होने लगते हैं। प्रत्येक प्रसव में जननी के स्वास्थ्य पर असाधारण दबाव पड़ता है। उदरस्थ भ्रूण की पोषण माता के शरीर से मिलता है। जननी का शरीर स्वयं दुर्बल हो तो वह उसी में से कटौती करके भ्रूण को रक्त मांस देती है। इससे उसका अपना स्वास्थ्य गड़बड़ा जाता है और बालक भी समुचित पोषण के अभाव में दुर्बल पैदा होता है और वह आरंभिक दुर्बलता आजीवन उसे कमजोर बनाये रहती है।
माता को जल्दी बच्चे जनने पड़ें और उसे महंगा पोष्टिक भोजन तथा समुचित विश्राम न मिले तो उसकी दुर्बलता प्रसव का असह्य कष्ट सहने के उपरान्त भी बनी रहती है। बच्चे को दूध पिलाना पड़ता है इससे भी माता के शरीर के पोषण तत्वों का ही क्षरण होता है। हर बच्चे के बीच कम से कम तीन वर्ष का अन्तर होना चाहिए ताकि पिछले बच्चे का दूध पीना छूट जाय और वह नये बच्चे के लिए आवश्यक जीवनी शक्ति उत्पन्न कर ले; पर देखा यह जाता है कि पिछला बच्चा शारीरिक दृष्टि से स्वावलम्बी होने से पहले ही नारी के गर्भ में दूसरा बच्चा आ जाता है। इसका परिणाम तीन गुना होता है। पहला बच्चा अच्छी तरह चल नहीं पाता। नारी उसके दायित्वों को पूरा नहीं कर पाती कि पेट में आये नये बच्चे को उसी दुर्बल शरीर में से बड़ी मात्रा में बहुमूल्य भाग काटकर उदरस्थ बच्चे को देना पड़ता है। हर प्रसव कितना कष्ट कारक होता है इसे भुक्त भोगी ही जानते हैं। प्रसव निवृत्ति को नया जन्म माना जाता है।
जल्दी-जल्दी अधिक संख्या में जिन्हें प्रसव संकट सहने पड़ते हैं वे बाहर से देखने में चमड़ी और मांस थोड़ा चेहरे पर ही भले बना रहे भीतर से खोखली हो जाती हैं। उसी कोल्हू में पिसते हुए उन्हें जननेन्द्रिय संबंधी ऐसी बीमारियां लग जाती हैं जिन्हें न तो वे संकोच वश घर वालों से कह पाती हैं और न उनका इलाज ही ठीक तरह हो पाता है। बीमारियां, दुर्बलता, बच्चे, घर का काम काज, इस पर भी यौनाचार का दबाव इन सब मुसीबतों की चक्की में पिसते हुए वह उठती उम्र में ही बूढ़ी हो जाती हैं और फिर वे इस योग्य नहीं रहतीं कि घर की गाड़ी को किसी तरह धकेलते रहने के उपरान्त भी कुछ ऐसा कर सके, जिससे उनका कहने योग्य पुरुषार्थ कहा जा सके। पत्नी की ऐसी दुर्दशा बना देना उस पति नामधारी की व्यावहारिक शत्रुता है जो अपने मतलब के लिए जब-जब मीठे वचन बोलकर उसे रिझाने का झूठा प्रयत्न करता रहता है। यदि प्यार से पत्नी को कसौटी पर कसा जाय तो इसके लिए सीधी कसौटी यह है कि उसने पत्नी को प्रसव उत्पीड़न के संकट में कितनी कम बार डाला।
बूढ़े पुराने सड़े गले लोगों का यह कथन सर्वथा बेतुका है कि बहू को ब्याह आये इतने दिन हो गये पर अभी बच्चा नहीं हुआ। वे बात बहुत पुरानी है जब जंगल और खेत ढेरों थे। उन्हें कमाने और रखाने के लिए घर का बड़ा कुटुम्ब चाहिए। संभवतः उन्हीं दिनों घर में अधिक बच्चे पैदा करना सौभाग्य माना जाता रहा होगा और उन्हीं दिनों वंश चलाने, पिण्डदान मिलने जैसी बेतुकी बातें मूढ़ मान्यताओं के रूप में चल पड़ी होंगी।
पर आज की स्थिति तो सर्वदा विपरीत है। उस जमाने में घर में ढेरों दुधारू पशु रहते थे और उसमें बच्चों को ही नहीं बड़ों को भी समुचित दूध घी मिल जाता था। पर अब तो सब चीजें मिलावटी और नकली होने के साथ-साथ महंगी भी हैं कि उन्हें खरीद सकना हर किसी के बस की बात नहीं है। आज हर दैनिक उपयोग की वस्तुएं इतनी महंगी हैं कि छोटे बच्चे के पोषण पर भी बड़े आदमी के बराबर खर्च आता है।
पढ़ाई की फीस, किताबें, कॉपियां, ड्रेस आदि सब मिलाकर इतना बोझिल बैठती हैं कि प्राथमिक शिक्षा से आगे बढ़कर पढ़ा सकना हर किसी के बस की बात नहीं है। फिर स्कूलों की पढ़ाई जिस उपेक्षा पूर्वक होती है उसे देखते हुए ट्यूशन लगाने पर ही बच्चे के अच्छे नम्बरों से पास होने की आशा बंधती है। कॉलेज की पढ़ाई तक पहुंचते-पहुंचते बोर्डिंग खर्च समेत वह खर्च चार पांच सौ तक जा पहुंचता है। जिसके चार बच्चे पढ़ने लायक हो गये, वह ऊंची शिक्षा किस तरह दिला पायें?
वयस्क होते ही शादी करनी पड़ती है। लड़की वाले के तो एक शादी में ही प्याले बर्तन बिक जाते हैं। लड़के वाले भी नफे में नहीं आता है। लुटने वाला काठ कबाड़ तो घर में भर जाता है किन्तु जेवर, कपड़े, प्रदर्शन, बारात, प्रीतिभोज आदि में जो खर्च पड़ता है वह लगभग बेटी वाले के जितना ही जा बैठता है। बच्चों की शादी भी इतनी ही भारी पड़ती है जितनी पढ़ाई। इसके बाद भी उनके स्वावलम्बन का प्रश्न रह जाता है। भाई भाई मिलकर कदाचित ही कोई व्यवसाय कर पाते हों। नौकरियों में आये दिन ट्रान्सफर होते रहते हैं और उसमें मित्रता पड़ोसी का तो कुछ तुक बैठ ही नहीं पाता। साथ ही बच्चों की पढ़ाई में भी भारी व्यवधान पड़ता है। मकान किराया बिजली आदि का खर्च चुकाने के उपरान्त तो नौकरी के पैसों में से कुछ बचता ही नहीं। ऐसी दशा में वयस्क बच्चों के स्वावलम्बन का ताना-बाना भी पिता को ही बुनना पड़ता है। लड़की का विवाह तब हुआ समझा जाता है जब वह अपना घर संभाल लें। इस बीच इसमें तरह-तरह के व्यवधान आते हैं। बहुत करने पर भी आशंका यही बनी रहती है कि लड़की अपने घर ही न लौट आये या किसी दबाव विग्रह में अपनी जान ही न गंवा बैठे। कई बार लड़के ही ऊंची शिक्षा प्राप्त लड़कियों को गृहस्थ संबंधी जानकारी के अभाव में तलाक की धमकी हर घड़ी देते रहते हैं। दो स्थानों पर दूर-दूर नौकरियां करने वाले तो एक प्रकार से आरंभ से ही आधी तलाक की स्थिति में रहते हैं।
उठती आयु के बच्चे आवेश, आतुरता, उद्दण्डता अनुशासन हीनता, कुसंग, दुर्व्यसन जैसी बुराइयों में फंसने लगते हैं तो वे स्वयं परेशान नहीं होते, परिवार को भी अनेक चिन्ताओं और झंझटों में फंसाते हैं। वह समय तो बहुत पीछे रह गया जब बच्चे मां के प्रति कृतज्ञ रहते थे और उनकी सेवा सहायता में तत्परता दिखाते थे। अब तो शरीर से अशक्त होने की स्थिति में उन्हें संतान के साथ भारभूत होकर ही काटने पड़ते हैं। चाहा यही जाता है कि इनसे जितना जल्दी पीछा टूटे उतना ही अच्छा।
बच्चे उत्पन्न करने के व्यवसाय में आदि से अन्त तक घाटा ही घाटा है। जो उससे किसी प्रकार के लाभ की अपेक्षा करते हैं, वे मूर्खों के स्वर्ग में रहते हैं और समय की बदली हुई परिस्थितियों को नहीं पहचानते। माता को स्वास्थ्य गंवाना पड़ता है। पिता पर अर्थ संकट राहु केतु की तरह चढ़ता चला आता है। बच्चे का भविष्य अन्धकार मय बनता है। क्योंकि उन्हें खुले वातावरण में रहने तक का अवसर नहीं मिलता। पिंजड़े जैसी कोठरी में ही कैद रहते हैं। बाहर कहीं निकल करके भी जावें तो वे आवारा साथियों के साथ गाली गलौच से लेकर गंदगी और असभ्यता के अनेकों दोष दुर्गुण बटोर लाते हैं। जो कुछ ही समय बाद अभिभावकों की बदनामी परेशानी का कारण बनते हैं। गरीबों के लिए तो बच्चे पैदा करना व्यर्थ है यह तो हाथी पालने जैसा व्यसन है जिनके पास उतनी ज्यादा सुविधाएं हों उन्हीं को बच्चे पैदा करने और बढ़ाने की बात सोचनी चाहिए। दुर्भाग्य से अभी भी यह मान्यता जीवित है कि लड़कियां पराये घर का कूड़ा और लड़के अपने आंगन के कल्पवृक्ष होते हैं। जबकि बात ठीक उल्टी है। लड़कियों के विवाह के बाद जिम्मेदारी हलकी हो जाती है। वे अपना घर संभाल लें तो उसके उपरान्त निश्चिंत होकर प्राचीन परम्परा के अनुसार वानप्रस्थ लेकर उस दिशा में कदम उठाये जा सकते हैं जिससे मनुष्य का जीवन, संस्कृति का पुनर्जीवन तथा लोक मंगल के उपयोगी कार्यक्रम में लग पड़ने में किसी प्रकार का अवरोध नहीं रहता। किन्तु लड़के होने पर उनके पोते—पर पोतों को गले से बांधे फिरने का मोह छोड़े नहीं छूटता। व्यक्ति जैसे जैसे बूढ़ा होता जाता है वैसे-वैसे वह अपने ऊपर से नियंत्रण खोता जाता है। लोभ और मोह का आक्रमण उस अवधि में दूना हो जाता है। घर परिवार की चिन्ताएं उसी निठल्ले पर लद बैठती हैं। अपनी मर्जी चलाता है तो उसे कोई सुनता नहीं। अगला जन्म और धर्म कर्त्तव्य भी नहीं सूझता। घर की चौकीदारी, छोटे बच्चों की निगरानी जैसे व्यर्थ के काम करता रहता है अपमान सहता और मोह जन्य प्रताड़नाएं सहता है। इसी प्रकार मौत के दिन आ धमकते हैं और इच्छा आकांक्षाओं से लिपटा हुआ वह व्यक्ति फिर चौरासी के चक्र में घूमने के लिए निकल पड़ता है। अन्तिम दिनों की आदतों और इच्छाओं के अनुरूप ही अगला जन्म मिलता है। यह स्थिति बेटे-पोते वालों की अधिक होती है। जिनकी मात्र कन्याएं ही है वे उनके विवाह के बाद अपने को हलका फुलका अनुभव करते हैं और बची हुई जीवन सम्पदा को वानप्रस्थ जैसे देव जीवन में प्रवेश करते हुए अपनी और देश, धर्म, समाज संस्कृति की सेवा कर सकते हैं। आजीवन चिन्ताग्रस्त एवं व्यस्तताग्रस्त रहने को कोई बहाना रह नहीं जाता। जिनने व्यामोह को ही अपना प्राण प्रिय बना लिया है वे तो दूर के किसी संबंधी के साथ भी लिपटे रहते हैं। जिन्हें जीवन लक्ष्य का स्वरूप ही विदित नहीं है उनके लिए कोई कुछ क्या कह सकता है और क्या सोच सकता है?
जिनको बच्चों की इच्छा रही ही नहीं है वे भरी जवानी में ही एकाकी या पत्नी समेत अपना जीवन परमार्थ प्रयोजनों में लगाये रह सकते हैं। पत्नी यदि विचारशील हो तो वह परमार्थ कार्यों में बाधक नहीं सहायक ही हो सकती है। वासना पर नियन्त्रण न हो सके तो आधुनिक गर्भनिरोधक साधनों का उपयोग करते हुए भी बच्चों का जंजाल बुनने की अपेक्षा उस मार्ग को अपनाने में भी कोई अनर्थ नहीं करते। गर्भ निरोध के अब तक के विदित प्रयासों में सब से सरल और निश्चित तरीका यह है कि वीर्यपात योनि के भीतर नहीं, बाहर किया जाय। इतनी भर सावधानी बरतने से कोई जोड़ा ब्रह्मचर्य न निभ पाने पर भी इस उपाय से वही सुविधा अर्जित कर सकता है जिसमें दाम्पत्य जीवन की सुविधा तो उठाई जा सकती है; किन्तु शिशु जनन जिसे आज के समय में समाज द्रोह या देश द्रोह की संज्ञा दी जा सकती है, उससे बचा जा सकता है।
यह स्तर अपना लेने पर न नौकरी ढूंढ़ने की जरूरत है न कृषि व्यवसाय आदि करने की। उनके लिए सीधा तरीका यह है कि विनिर्मित प्रज्ञा पीठों में से किसी को चुनने और वहां रहकर लोक मानस के पुण्य प्रयास में जीवन का शेष समय सार्थक करें। ऐसे सेवाभावियों, साधु ब्राह्मण परम्परा का निर्वाह करने वालों के लिए निवास या निर्वाह की कहीं भी कठिनाई नहीं पड़ेगी। किसी भी सुनसान पड़े देवालय में निवास करते हुए उनके प्रस्तुत मरणकाल को नव जीवन में परिवर्तित कर सकते हैं। कर्मठता शेष हो तो शान्ति कुंज हरिद्वार में भी उनका सदा स्वागत रहेगा।
देश सेवा का सर्वोत्तम तरीका वानप्रस्थ परम्परा को पुनर्जीवित करना है। पत्नी महिला समाज में काम करती रह सकती है और पुरुष, पुरुष वर्ग में प्राण चेतना फूंकता रह सकता है। जीवन भर साथ रहने वाले बुढ़ापे में बिछुड़े ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है। शारीरिक अशक्तता की मिलजुल कर पूर्ति कर सकते हैं। हारी बीमारी में साथ दे सकते हैं और साथ रहने में कोई असुविधा न होने पर भी बिछुड़ने की व्यथा सहने जैसी कोई शास्त्री रोक या व्यवहारिक कठिनाई भी नहीं है।
संतानोत्पादन को समाज द्रोह, देश द्रोह की संज्ञा इसलिए दी गई है कि उस प्रयास के फलस्वरूप व्यास द्वारा शुकदेव उत्पन्न किये जाने जैसा पितृ-ऋण चुकाने की बात तो किसी के ध्यान में रहती नहीं कि शंकराचार्य, चाणक्य जैसी संतति का निर्माण करने के लिए गर्भाधान से पूर्व ही प्रयत्न आरंभ कर दें और बच्चे में उच्चस्तरीय संस्कार भरें। होता यही है कि सांसारिक प्रचलन और वातावरण के अनुसार स्वार्थी और विलासी बच्चे ही बन पाते हैं। वे नागरिक कर्त्तव्य और समाज निष्ठा की अनिवार्यता तक को तो समझते नहीं। देश के अभ्युत्थान में अपने आप को समर्पित क्या करेंगे। स्वार्थी और चालाकों से दुनिया अभी भी भरी पड़ी है उसी वर्ग के और सदस्य उत्पन्न कर दिये जायं तो उनके पाप का एक अंश उनके हिस्से में भी आ जाता है, जिन्होंने इस प्रकार के विष-वृक्षों का उत्पादन किया। कहा जाता है कि शिष्य और पुत्र के सत्कर्मों का एक अंश अध्यापक या अभिभावकों को भी मिलता है। इस तरह का विश्वास करने वालों को अपनी मान्यताओं में एक तथ्य और भी जोड़ना चाहिए कि यदि वे दुष्ट या भ्रष्ट निकले तो उनके द्वारा किये हुए पापों का दुष्परिणाम उन अध्यापकों को भी भुगतना पड़ेगा। इन दिनों का भरण-पोषण या शिक्षण, वातावरण किस स्तर की नई पीढ़ियां उत्पन्न कर रहा है यह किसी से छिपा नहीं है।
जनसंख्या वृद्धि का सांसारिक दृष्टि से सीधा अर्थ यह है कि यह नया बालक पुराने वृद्ध असहायों से मुख का ग्रास छीनता है। उत्पादन बढ़ने की सीमा का अब अन्त ही समझना चाहिए। रासायनिक खादों के सहारे पृथ्वी का कुछ दिनों दोहन तो किया जा सकता है पर उसकी मौलिक उर्वरता नहीं बढ़ाई जा सकती। रासायनिक कुचक्र में अमेरिका ने अपने देश की लाखों हैक्टर जमीन बांझ बना दी। भूमि में उर्वरता असीम नहीं है। वह एक सीमा तक ही उत्पादन कर सकती है। नये आगन्तुकों को, जो पुराना है उसी में से हिस्सा बटाना पड़ेगा। स्वयं पेट भरेंगे तो किन्हीं दूसरों को भूखा रहने के लिए विवश करेंगे। स्वयं खायेंगे तो दूसरों के मुंह का ग्रास छीनेंगे। इस प्रकार संसार में दरिद्रता बढ़ेगी ही। पिछड़ापन का अनुपात अधिक ही व्यापक बनेगा।
प्रकृति का नियम है कि यदि किन्हीं प्राणियों की संख्या अतिशय बढ़ती है तो उन पर आसमान से विपत्ति उतरती है और उसके फलस्वरूप वह बढ़ा हुआ जंजाल किसी न किसी आकस्मिक विपत्ति का ग्रास बन जाता है। बीमारियां फैलती हैं, भूखे मरते हैं, आवेश में आकर आपस में लड़ते या आत्महत्या करते हैं। प्रकृति अपने अनावश्यक उत्पादन को ऐसे ही समेट लेती है। एक बार आस्ट्रेलिया में खरगोश अत्यधिक बढ़े तो वे सामूहिक आत्महत्या के लिए आवेशग्रस्त होकर समुद्र में कूद पड़े। विशेष प्रकार की महामारियां आ धमकती हैं। यादव दल की तरह आपस में ही लड़ मरते हैं। दुर्भिक्ष, भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि जैसे संकट आते हैं और उन्हें ठिकाने लगा देते हैं। मक्खी, मच्छर, मछली आदि अंधाधुंध अण्डे देने के लिए बदनाम हैं; पर उनका अधिकांश भाग आपत्तिग्रस्त होकर मौत के मुंह में चला जाता है। यह नियम मनुष्य पर भी लागू होकर रहता है। जब भी जिस क्षेत्र में भी उसकी अतिशय वृद्धि हुई है वहां उन पर भी ऐसा ही विपत्ति वज्र टूटता रहता है। घिच-पिच का आवेश एक प्रकार के उन्माद के रूप में उभरता है और वह युद्धों महायुद्धों, आक्रमणों, रोगों का रूप धारण करके बढ़ी हुई जनसंख्या को अपने झोले में भर ले जाता है। अच्छा हो हम समय रहते चेतें और विपत्तियों को बुलावा देने से संतति परिसीमन की बात को गले उतारें।
जिन्हें बच्चों की विशेष ममता है, वे अनाथ, असहायों के बालकों को गोद लेकर सैकड़ों हजारों के अभिभावक धर्म पिता बन सकते हैं और वात्सल्य का लाभ उठाते हुए अगणित बिलखते हुए को नव जीवन प्रदान कर सकते हैं। आज ऐसे हजारों अनाथालयों की हर जगह, हर क्षेत्र में, हर वर्ग में आवश्यकता है जो अत्यधिक बच्चे वालों की संतान को गोद लेकर उन्हें सुयोग्य समुन्नत बना सकते हैं।
विपत्ति तब आती है जब वंश चलाने के लिए, घर का दीपक बनाने के लिए, बुढ़ापे में उनकी कमाई खाने के लिए, स्वर्ग में पिण्डदान प्राप्त करने के लिए, अपनी बनी कमाई को हराम में खाने के लिए उत्तराधिकारी ढूंढ़े जाते हैं। इस स्वार्थ भावना को गोद लिए बच्चे भी ताड़ लेते हैं और बुड्ढ़े बुढ़ियों को जल्दी उठ जाने की कामना एवं चेष्टा करते हैं ताकि उस हराम की कमाई का मनमाना उपयोग करने के लिए उन्हें जल्दी से जल्दी अवसर मिले। ऐसे गोद लिए लड़कों द्वारा उन तथाकथित अभिभावकों की हत्या कर दिये जाने या करा दिये जाने की अनेकों घटनाएं आये दिन सुनने को मिलती हैं। उन पर कोई आंसू भी नहीं बहाता। क्योंकि उन्हें उत्तराधिकार की सम्पत्ति का लोभ दिखाकर बाप, भाई, बहिनों से छुड़ाया गया होता है। इस कृत्य के पीछे निकृष्ट कोटि की स्वार्थपरता प्रत्यक्ष झलकती है और जैसे को तैसा फल मिलने पर सुनने वाले व्यंग-उपहास ही करते हैं। ऐसे मरणों पर कोई सच्चे मन से दुःख नहीं मानता और जमाने का प्रचलन कह कर चुप हो जाता है।
यह मार्ग अपनाने की अपेक्षा बिना अपनेपन या मोह, उत्तराधिकार का मन में रखे बिना यदि अभावग्रस्तों के बालकों को पालने और पढ़ाने भर का उद्देश्य सामने रखकर अपनी संचित सम्पदा को लगाया गया होता तो वे बच्चे बड़े होने पर कृतज्ञ भी रहते, सद्भावना का आदर भी करते और हराम की कमाई लूटने के लिए चले जाने की आये दिन धमकी भी न देते और अवसर पाकर हत्या कर डालने जैसा क्रूर कर्म भी न करते।
जिनके पास पैसा है; किन्तु सन्तान नहीं है, उन्हें भतीजों को बांट जाने की अपेक्षा उन जरूरतमंदों के लिए उदारता उभारनी चाहिए जो भले ही अपने अंश-वंश के नहीं हैं; किन्तु अभावग्रस्तता की परिस्थितियों के कारण सहायता के अधिकारी हैं।
जिन्हें संतानें हुई ही नहीं, उन्हें ईश्वर का महान कृपा पात्र मानना चाहिए कि उत्कृष्ट कर्म करने और जीवनोद्देश्य पूरा करने के लिए अलभ्य अवसर मिला। जिनके मात्र लड़कियां हों, उन्हें समझना चाहिए कि परब्रह्म की तो नहीं; पर लक्ष्मी, सरस्वती, गायत्री जैसी किसी देवी की कृपा हुई, उनने अपनी पवित्रता की प्रतीक कोई देवी घर में भेजी। जिन्हें लड़के ही लड़के हों उन्हें समझना चाहिए कि पिछले जन्मों में किन्हीं कर्जों का बोझ लादकर मरा है, जो इस जन्म में कोल्हू के बैल की तरह पिटते-कुटते उस कर्ज को चुकाना पड़ेगा।
असल में बात यह है कि हमें सतयुग की और वापिस लौटना पड़ेगा, जबकि सारी दुनिया में पन्द्रह करोड़ मात्र आदमी थे। खेतों का; जंगलों का अभाव नहीं था, जिनमें मनुष्य या पशु पक्षी चैन से रहते थे।
आज की बढ़ती हुई जनसंख्या ही है जो पेट भरने के लिए खाद्य-अखाद्य का विचार किये बिना किसी प्रकार पेट भरने की बात सोच रही है अभी तो मुर्गी, मछली, सुअर जैसे जानवरों से पेट की आग बुझाने की बात सोची जा रही है; पर वह दिन दूर नहीं जब बढ़ते हुए जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, कीट नाशकों के प्रभाव से यह वर्ग संसार से उठ जायेगा और मनुष्यों को शायद घास खाकर गुजारा करने की बात सोचनी पड़े।
कभी समयानुसार चाल तेज भी करनी पड़ती है; किन्तु स्टेशन पर पहुंचते ही गाड़ी धीमी पड़ती और रुक जाती है। अब सन्तानोत्पादन की चाल को धीमा करना और रोकना है। यह इन दिनों अच्छी तरह गांठ बांध लेना चाहिए कि जो सन्तानोत्पादन की चाल को रोकेगा नहीं, उसे निजी जीवन में अनेकानेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा, मूर्ख और अनाड़ी कहा जायेगा। इतना ही नहीं, वह अपने साथ ही समूचे समाज का अहित करेगा।
शिक्षा संवर्धन और गरीबी उन्मूलन के सरकारी प्रयत्न चल रहे हैं। उनमें प्रगति के आंकड़े भी बताते हैं कि काम बहुत हुआ; किन्तु पिछली बार से जब तुलना की जाती है तो प्रतीत होता है कि अशिक्षितों और दरिद्रों का अनुपात घटा नहीं, बढ़ा ही है। कारण यह है कि प्रयत्नों की तुलना में जनसंख्या कहीं अधिक बढ़ जाती है अस्तु अनुपात घटा नहीं बढ़ा ही है। कारण यह कि प्रगति प्रयत्नों की तुलना में जनसंख्या कहीं अधिक बढ़ जाती है, अस्तु अनुपात घटा हुआ ही दीखता है।
सारा विश्व अपना परिवार है। अगले दिनों ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ के आदर्श को मान्यता मिलेगी। जिस प्रकार एक दयालु डॉक्टर अपने अस्पताल के मरीजों की पूरी देखभाल और चिकित्सा करता है, उसी प्रकार हम में से प्रत्येक को अपने निर्बलों, अशक्तों और साधनहीनों के लिए अपनी क्षमता को नियोजित करने की बात सोचनी चाहिए। इन दिनों अधिकांश लोग बौद्धिक और भावनात्मक दृष्ट से कहीं अधिक गये गुजरे हैं। गरीबी भी इसी कारण है और पिछड़ी स्थिति में पड़े हुए हैं। जो सामने मौजूद हैं उनकी सेवा-सहायता में अपनी क्षमता को लगाना क्या बुरा है कि हम नये लोगों को इस निमित्त बुलावें जो यहां नहीं हैं, अनेक समस्याएं लेकर हमारे और संसार के ऊपर कूद पड़ें। समझदारी इसी में है कि जितने लोग अत्यन्त पीड़ित और सहायता के लिए आतुर हैं, पहले उन्हीं की देख भाल की जाय। जिनके पास उत्तराधिकार में कोई धन है, जो छोटों को कंधे पर बिठाना और दुलार करना चाहते हैं, उनके लिए इसी समय भटकते लोग इतने अधिक हैं कि वे उसी कार्य में आजीवन लगे रह सकते हैं; जबकि बच्चों की कोमलता का लाभ कुछ ही दिन उठाया जा सकता है। आज अनेकों अनाथालयों की, विद्यालयों की, चिकित्सालयों की आवश्यकता हैं। यदि सचमुच हम भावनाशील हैं और वात्सल्य की दुहाई देते हैं तो यह अच्छा कि जो काम हाथ के नीचे पड़ा है, उसी को संभालें, यह पुकार न करें कि हमारे पास सेवा करने के लिए, दुलारने के लिए बच्चे नहीं हैं उन्हें तो जितनी अधिक संख्या में जो चाहता हो वह तत्काल अपने इर्द-गिर्द से ही एकत्रित कर सकता है। अपने पराये का भेदभाव करने से बात कुछ बनती नहीं। सभी अपने और सभी पराये। अपनी संतान को पोसने से तो किसी को परोपकार बताने की आवश्यकता नहीं। या तो सभी अपने हैं या सभी बिराने। मन की चौड़ाई इतनी होती चाहिए कि जिसमें अपने पराये सभी समा सकें। जो लोग दरवाजे पर भूखे चिल्ला रहे हैं, उन्हें दुत्कार कर ऐसे लोगों को बुलाते ढूंढ़ते फिरा जाय जो अभी हैं ही नहीं, जिन्हें बुलाने के लिए नये कष्ट उठाने और नये दायित्व उठाने पड़ेंगे, अपने को, अपनी पत्नी को जोखिम में डालना पड़ेगा, ऐसी स्थिति में मोहग्रस्त ही कहलायेंगे, जबकि अन्य माताओं के उदर से पैदा हुए बालकों को शिक्षित और सुयोग्य बनाने में हमें पुण्यात्मा और परमार्थी कहा जायेगा।
सबसे बड़ा काम है—ज्ञानदान। उस एक का ही वितरण जिन छोटे-बड़ों में किया जाय उन सभी का कल्याण होता है। यदि व्यक्तिगत प्रगति और सेवा-साधना की दृष्टि से देखा जाय, तो सीमित परिवार वाले नर-नारियों में ही इसके योग्य समय या साधन बचते हैं, जो उनके माध्यम से बड़ा काम कर सकें, बड़े कदम उठा सकें। जिनके पास ढेरों बच्चों की जिम्मेदारी है, वे उनका भार वहन करने में ही अपनी जिम्मेदारी और क्षमता खपा देते हैं। इतने पर भी वह प्रयोजन पूरा नहीं होता। बच्चे भी कहते हैं और पड़ोसी सम्बन्धी भी कि यदि इतने बच्चों को सुयोग्य बनाने की सामर्थ्य ही नहीं थी तो उन्हें पैदा ही क्यों किया? इसके उत्तर में अपनी प्रारंभिक मूर्खता ही याद आती है और मानना पड़ता है कि समय रहते चेते होते तो इतना स्वार्थी और इतना कष्ट साध्य—इतनी बदनामी से भरा जीवन क्यों जीना पड़ता। समय निकल जाने पर मात्र पश्चाताप ही हाथ रह जाता है और जीवन भर बच्चे के लिए ही हाय-हाय करके और चिन्ता समस्याओं में घुलते-मरते रहना पड़ता है।
सिवाय सड़े दिमाग की उपज और अपनी कौतूहल ग्रस्त मूर्खता के सिवाय कोई समझदार यह सलाह किसी को नहीं दे सकता कि जब दुनिया विनाश के कगार पर खड़ी है, अन्न जल व हवा में जहर ही जहर भरा है। वातावरण विषाक्त हो रहा है, आर्थिक तंगी के रहते किसी प्रकार मुश्किल से ही दिन कटते हैं, तो नये बच्चे पैदा करने का संकट सिर पर लादा जाय; अपने को गरीबी में, पत्नी को बीमारी में, बच्चों को कठिनाई में और समूचे समाज को संकट में डाला जाय। काम निर्दोष दीखते हुए भी उसके परिणाम यह बताते हैं कि यह निर्दोष नहीं है। इसके आगे-पीछे अनेकानेक संकट और विग्रह रह सकते हैं। इन्हीं दुष्परिणामों को देखते हुए किसी कृत्य को पाप की संज्ञा दी जाती है।
समझदारी साथ दे तो उसका सत्परामर्श एक ही हो सकता है कि अपने जैसे कुछ शरीर मिले हैं; उन्हें देर तक काम करते रहने और कुछ प्रशंसनीय पुरुषार्थ करने के लिए जीवित रहने दिया जाय। शास्त्रकार का कथन है—‘‘मरणं बिन्दु पातेन जीवनं विन्दु धारणात्।’’ अर्थात् वीर्यपात मृत्यु है और ब्रह्मचर्य पालन जीवन। इस कथन के पीछे यों ब्रह्मचर्य की महत्ता का यशगान किया है। यह अपना स्वतंत्र विधान है। उसमें शारीरिक ही नहीं, बौद्धिक समर्थता का भी प्रतिपादन है। भीष्मपितामह, हनुमान, दयानंद, विवेकानंद आदि ने ब्रह्मचर्य के सहारे ही अपनी असाधारण शक्ति सामर्थ्य का अभिवर्धन किया था। वह बन पड़े तो कहना ही क्या; पर इतना न बन पड़े, तो सन्तानोत्पादन रहित दाम्पत्य जीवन भी अपने आप में इतनी बड़ी समझदारी का कृत्य है, जिससे पुरुष से भी अधिक स्त्री का भी हित है। पुरुष पर तो प्रधानतया अर्थ उपार्जन का ही अतिरिक्त भार आता है। स्त्री तो अपने रूप, यौवन, स्वास्थ्य और जीवन संकट में से गुजरती है। इसलिए संसार भर के विज्ञजन जनसंख्या की दृष्टि से, पृथ्वी के छोटी पड़ती जाने की दृष्टि से और न्याय समर्थक नारी के ऊपर इस असाधारण अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाने की दृष्टि से भी यह आवाज उठाते हैं कि जिस प्रकार संभव हो सके उस प्रकार प्रजनन रोका जाय। संयम से भी, कृत्रिम उपकरणों से भी और सर्वसुलभ योनि से वीर्यपात बाहर करके भी। इस संकट से बचा जाय जिसे अणुयुद्ध जितना भयंकर कहा जा सकता है। अणु युद्ध की विभीषिका का वर्णन होता रहता है कि यदि अणुयुद्ध हुआ तो जीतेगा कोई नहीं, मरेगी सारी दुनिया। इसी स्तर का दूसरा शीतयुद्ध है कि यदि बहु प्रजनन न रुका तो धरती पर मनुष्यों के लिए स्थान मिलना तो दूर चलने-फिरने के लिए जगह मिलना भी मुश्किल हो जायेगा और उनके मल-मूत्र की सफाई करना तक संभव न रहेगा।
इक्कीसवीं सदी के सुनहरे स्वप्न वाले यह भी कहते हैं कि वैज्ञानिक प्रगति के कारण अगले दिनों भण्डार भर जायेंगे। यदि युद्ध न हुआ और अणु आयुधों का प्रयोग किसी प्रकार रोका भी जा सका तो जनसंख्या की दृष्टि से भी भयंकर विपत्ति रहेगी जिनके कारण आर्थिक साधन जुटा लेने पर भी आवास-निर्वाह का, सफाई का, पेय जल का, शुद्ध वायु का संकट इतना बड़ा होगा कि जिस पर नियंत्रण प्राप्त कर सकना मनुष्य के हाथ में किसी भी प्रकार न रहेगा और दैवी विपत्तियां टूट-टूट कर बढ़े हुए जन समुदाय को अकाल मृत्यु के लिए बाधित करेंगी।
बढ़ते हुए प्रदूषण और विकिरण का संकट भी बढ़ा-चढ़ा बताया जाता है कि इनके कारण बढ़ी हुई विषाक्तता मनुष्य को इस पृथ्वी पर जीवित न रहने देगी। यह स्मरण रहने योग्य बात है कि विकिरण भले ही अणु परीक्षण से बढ़ता हो पर प्रदूषण तो बहुतों की बड़ी हुई आवश्यकता को पूरा करने के लिए विशालकाय उद्योगों और द्रुतगामी वाहनों से ही बढ़ता है। इन विचित्र निर्माणों के लिए पृथ्वी का गहरा धरातल खोद और तलाश लिया गया है।
धातुओं, खनिजों, तेलों के भण्डार, कोयला आदि अनन्त गहराई तक से ढूंढ़ निकाले गये हैं और उनके अत्यधिक उपयोग ने न केवल वातावरण बिगाड़ा है, वरन् भू गर्भ पर भी संकट उड़ेला है। ज्वालामुखी विस्फोटों और भूकम्पों की शृंखला निरन्तर बढ़ते जाने का एक बड़ा कारण है कि मनुष्य विभिन्न प्रकार के यंत्र उपकरणों के लिए धरती की काफी गहरी परतों को खोखली किये देता है और पोले भाग में होकर गुजरने वाले हवा और पानी के स्रोत यह संकट उत्पन्न कर रहे हैं। वायुयानों की भगदड़, उपग्रह, राकेटों की बढ़ती हुई हलचल भी आकाश को इस योग्य नहीं रहने दे रही है कि उसमें से सही स्तर की सांस लेना संभव हो। अन्तरिक्ष टूटे-फूटे राकेटों से धीरे-धीरे कबाड़ियों का गोदाम बनता जा रहा है। यह स्थिति निश्चित है कि स्थिति यही बनी रही, तो विषैला पानी बादलों से वर्षा किया करेगा और उससे जल जन्तुओं तथा पेड़-पौधों को भयावह संकट उत्पन्न होगा। यह सारे संकट मिलकर भी अणु युद्ध से उत्पन्न होने वाली विभीषिकाओं से कोई कम त्रास मनुष्य को नहीं होगा।
वृक्ष-वनस्पतियों की कमी और मनुष्य की भरमारी एक प्रकार का हानिकारक मानसिक उन्माद उत्पन्न करता है। उसके कारण मनुष्य अपना असली संतुलन गंवा बैठता है और ऐसे हानिकारक कृत्य करने लगता है, जिसे अनाचारों की बाढ़ कह सकते हैं। इन सबका परिणाम यह होता है कि जन समुदाय के बीच स्नेह-सौजन्य तो टिकता नहीं; उलटे दोषारोपण, छिद्रान्वेषण, अभक्ष्य भक्षण, नशा सेव, व्यभिचार जैसे दुर्व्यसनों की बाढ़ आती है और उनके कारण भी मनुष्य का व्यक्तित्व खतरे में पड़ता है।
पृथ्वी का वजन उल्कापिण्डों के आकाशीय धूलि कणों से गिरने से भी बढ़ता है फिर मनुष्य जन्म से लेकर मरने तक जिस प्रकार जीवन यापन करता है, उस हिसाब से भी धरती का बोझ बढ़ता है। इस बढ़े हुए भार से पृथ्वी की घूर्णन तथा पृथ्वी की कक्षा में अन्तर आ सकता है और ऐसा संकट खड़ा हो सकता है कि धरती अपनी उपयोगी कक्षा को छोड़कर किसी ऐसे रास्ते चल पड़े, जहां उसकी चन्द्रमा, शनि, प्लूटो जैसी विचित्र स्थिति उत्पन्न हो जाती और शीत पात का असंतुलन उत्पन्न हो जाने से ही मनुष्यों का रहना उस पर संभव न रहे।
विज्ञान की हर शाखा के जानकार अपने-अपने अनुसंधानों और आंकड़ों को प्रस्तुत करते हुए यही निष्कर्ष निकालते हैं कि मनुष्यों का बढ़ता हुआ संकट अगले दिनों ऐसे विग्रह खड़े करेगा, जिसका समाधान किसी प्रकार संभव ही न रहे। अच्छा यही है कि सन्तानोत्पादन पर जैसे भी बने, वैसे नियन्त्रण लगाया जाय और महा विनाश से बचा जाय।
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*समाप्त*
इनमें एक पेट की भूख। हर प्राणी की शरीर संरचना को देखते हुए ही उसका पेट रखा है। उसको भरने के लिए मुख का ही आश्रय लेना पड़ता है। हाथ-पांव किसी के भी ऐसे नहीं हैं जिनके सहारे वह आवश्यकता पड़ने पर बहुत दिनों काम दे सकने योग्य आहार जमा न कर सके। उसे मुंह से ही हाथों का काम लेना पड़ता है और उसे उदरस्थ करने का भी। इस प्रयोजन के लिए दिन भर यहां से वहां दौड़ना पड़ता है क्योंकि जहां आहार अर्जित नहीं होता उसे प्राप्त करने के लिए जहां-तहां तलाशने घूमने फिरने के अतिरिक्त और कोई चारा भी नहीं। बड़े पेट को धीरे-धीरे भरते और साथ का साथ पचाते रहने में उसके सोने के अतिरिक्त बचा हुआ कार्यकाल पूरा हो जाता है। दूसरे दिन का कार्यकाल आरम्भ होते ही फिर उस निमित्त प्रयाण करना पड़ता है। दिवाचर, निशाचर, शाकाहारी, मांसाहारी—सभी के लिए प्रकृति का यही क्रम नियत है।
इनके उपरान्त प्रौढ़ता आते ही जब शक्ति का कुछ संचय और बचाव होने लगता है तो उस पर एक नया फितूर चढ़ता है—यौनाचार का। उसकी विनोद क्रीड़ा कुछ क्षण की ही होती है पर उत्पादनकर्त्ता पर विशेषतया माता पर उसकी भारी जिम्मेदारी चढ़ लेती है। अण्डे तथा बच्चे का पेट में रखवाली। प्रजनन व्यथा और उसके उपरान्त बालक के समर्थ होने तक उसकी देखभाल, भोजन व्यवस्था आदि। अधिकांश प्राणियों में तो यह गुरुतर भार माता को ही वहन करना पड़ता है। कुछेक ऐसे भी है जो इस कार्य में मादा की सहायता करते हैं। घोंसला बनाने, दाना एकत्रित करने, रखवाली करने का प्रचलन पक्षियों में बहुत करके पाया जाता है। नर समुदाय में हाथी जैसे कुछ ही वर्ग हैं जो शिशु पालन में मादा की सहायता करते हैं, अन्यथा वे विनोद क्रीड़ा में ही थोड़ी सहायता करने के उपरान्त पल्ला झाड़कर अलग हो जाते हैं। जो हो, मादा ही रही पर वह कठिन काम ऐसा है जिसमें कम से कम साथी ढूंढ़ने और उसे सहमत करने के लिए-मनुहार करने के लिए सभी को नर प्राणियों की आवश्यकता पड़ती है। बच्चों को बड़ा होने और आत्मरक्षा के लिए अपेक्षाकृत अधिक सतर्कता बरतनी पड़ती है। प्राणि समुदाय में समय क्षेप के लिए यहां दो तरीके निर्धारित हैं, वे अपनी जिंदगी उन्हीं समस्याओं के समाधान में पूरी करते हुए समयानुसार मृत्यु के मुख में चले जाते हैं। आत्मरक्षा के लिए बचने या आक्रमण करने का तीसरी प्रवृत्ति भी उनकी जीवनचर्या को उलझनों में उलझाये रहती हैं।
मनुष्य की स्थिति इस संदर्भ में अन्य प्राणियों से भिन्न है। उसका बच्चा लम्बी अवधि के उपरान्त स्वावलम्बी बनता है। इस बीच मादा उपार्जन के योग्य नहीं रहती। उसका बहुत सारा समय भी शिशु पोषण में चला जाता है इसलिए प्रकृति क्रम के अनुसार पिता को भी गर्भिणी और प्रसूता का नहीं बच्चे के पालन पोषण में बढ़ चढ़ कर उत्तरदायित्व निभाना पड़ता है। जब तक बच्चे समर्थ और स्वावलम्बी होते हैं तब तक माता पिता का बुढ़ापा आ घेरता है और उन्हें बच्चों के उपार्जन पर अवलम्बित रहना पड़ता है। यह एक परा कुचक्र है जिसमें अन्य प्राणियों की तरह मनुष्य को भी व्यस्त रहना पड़ता है। इस प्रयास में ही उनका अधिकांश समय बीत जाता है। यदि बच्चों का विकास और आचरण ठीक न हुआ हो तो उनके कारण उन्हें बुढ़ापे में भी चैन नहीं मिलता। देर तक डडडडड होते रहने पर जीवन के अन्त तक वह समस्या सुलझ नहीं पाती और उन्हीं के निमित्त उन्हें अपना समूचा जीवन खपा देना पड़ता है।
जो मनुष्य जीवन की गरिमा महत्ता समझते हैं वे अपने समय और शक्तिओं को आदर्शवादी उच्च प्रयोजनों में लगाने की बात को ध्यान में रखते हुए प्रजनन कृत्य से बचते हैं। दाम्पत्य जीवन निर्वाह को यदि प्रजनन रहित रखा जा सके तो उससे कठिनाई नहीं पड़ती पर प्रकृति क्रम को कोई क्या करे कि दम्पत्ति सहवास के उपरान्त प्रजनन क्रम चल पड़ता है और बच्चों की संख्या क्रमशः बढ़ती ही जाती है। उनके प्रति दायित्व भी बढ़ता है और मोह भी। पत्नी भी सहचरी के रूप गांठ बंध जाती है। इसलिए देखा गया है कि औसत आदमी पेट और परिवार में ही अपनी सामर्थ्य चुका देता है। यह गाड़ी इतनी भारी हो जाती है कि उसे खींचते रहने में जीवन का सारा शारीरिक और मानसिक सार तत्व खप जाता है। कभी-कभी तो अनीतिपूर्ण उपार्जन तक के लिए विवश होना पड़ता है।
किन्तु कठिनाई एक और भी है कि मनुष्य के अन्दर एक उच्चस्तरीय आत्म तत्व भी है जो कितनी ही बातें सोचता है। इतना सुविधा सम्पन्न जीवन मनुष्य को भगवान ने किसलिए दिया जिसके साथ विलक्षण शारीरिक संरचना और अद्भुत बुद्धिमत्ता जुड़ी हुई है। वह अन्य प्राणियों को न मिलकर मात्र मनुष्य को ही मिली है तो इसमें स्रष्टा का एक के प्रति पक्षपात और सभी अन्य जीवधारियों के प्रति अन्याय होना चाहिए। यदि ईश्वर की महान गरिमा पर ऐसा दोषारोपण करने का मन न करना पड़ता हो तो फिर शास्त्रकारों और आप्त वचनों पर विश्वास करते हुए ऐसा मानना पड़ता है कि मनुष्य जीवन किसी विशेष उद्देश्य के लिए मिला है। किस काम के लिए? उसका उत्तर है कि अपनी गरिमा को बढ़ाने के लिए और विश्व उद्यान को समुन्नत सुशोभित करने के लिए पुण्य परमार्थ स्तर के कार्य करने में संलग्न रहा जाय। निज का व्यक्तित्व निखारने के लिए गुण, कर्म स्वभाव में उत्कृष्टता का अधिकाधिक समावेश करना पड़ता है और परमार्थ के लिए सत्प्रवृत्ति संवर्धन की सेवा साधना में संलग्न रहना पड़ता है। यह दोनों कार्य परस्पर अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। परमार्थ करना उसी के लिए संभव है जिसने अपनी जीवनचर्या पुण्यमय बनाई है। जो पुण्य अर्जित करना चाहता है उसके लिए परमार्थ को प्राण प्रिय बनाकर अपनाना पड़ता है। दोनों को एक दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता।
इन परिस्थितियों में व्यक्ति के लिए दुहरी खींचतान खड़ी होती है। शरीर विलास चाहता है। विलासों में यौनाचार प्रमुख है। यौनाचार के साथ जुड़े हुए दायित्व और झंझट इतने अधिक हैं कि उन्हीं में सारा जीवन खप जाता है। फिर पुण्य परमार्थ के लिए न समय बचता है न साधन। इस तथ्य पर जो गंभीरता पूर्वक विचार करते हैं उनका विकसित अन्तरात्मा कहता है कि यौनाचार और उदरपूर्ति के अवसर सभी योनियों में समान रूप से उपलब्ध हैं। मनुष्य जीवन तो ईश्वर का विशेष अनुग्रह और मनुष्य का असाधारण सौभाग्य है। इससे पूर्व भी 84 लाख योनियों में भ्रमण करते हुए एक से एक बढ़कर कष्ट उठाने पड़ेंगे। मुसलमान, ईसाई धर्मों के अनुसार तो महाप्रलय के उपरान्त ही मनुष्य जन्म जाने का सुयोग बनता है।
दोनों विकल्पों में से किस एक को चुना जाय
? इसके लिए अदूरदर्शी विलासिता को और दूरदर्शी महान लक्ष्य की प्राप्ति को महत्व देते रहे हैं। ऋषियों की भी एक दो संतानें थीं पर उन्होंने उन्हें छात्रों की तरह सुशिक्षित बनाकर ब्रह्म परम्परा से लेकर पुरोहित परम्परा को जीवित रखने भर का प्रयत्न किया, आज के विलासी यौनाचार और बच्चों को अधिक कमाऊ दैत्य बनाने के लिए एड़ी से चोटी तक का पसीना नहीं बहाया। फलतः उनका सन्तानोत्पादन भी शिष्य प्रशिक्षण द्वारा धर्म प्रचार की परम्परा का ही एक अंग रहा। कितने ही ऋषियों ने आजन्म ब्रह्मचर्य निभाया। कितने ही गृहस्थ रहते हुये भी प्रजनन का अवसर न आने देने के संबंध में सतर्क रहे। कितनों ने ऋषि कुमारों की वैसे परम्परा स्थापित की जैसी लोमश ऋषि के शृंगी ऋषि पुत्र भी थे और शिष्य भी। प्रजनन का अम्बार लगा देना उन दिनों भी एक सामाजिक अपराध माना जाता था। रावण जैसों ने इस मर्यादा का उल्लंघन किया। वह ब्राह्मण कुल में पैदा होने पर भी असुर घोषित करते हुए धिक्कारा गया। संभव है अधिक सन्तान जनने और उन्हें सम्पन्न बनाने के लिए ही देवताओं और ऋषियों पर अत्याचार किये गये हैं। अन्यान्य कुकर्मों के मूल में भी संभव है यही व्यामोह काम करता रहा हो।
उन दिनों वंश चलाने, परलोक में पिण्डदान मिलने, बुढ़ापे की लकड़ी सिद्ध होने जैसी मूर्खतापूर्ण बातों की कोई कल्पना ही नहीं करता था। क्योंकि व्यक्तित्व का निजी स्वरूप ही शान्ति, सद्गति और सुविधाओं को एकमात्र कारण माने जाने की शास्त्रोक्त परम्परा मान्य रहती थी।
पुत्र और पुत्री में भी कोई अन्तर नहीं माना जाता था। जनक की सीता, दक्ष की सती, हिमाचल की पार्वती, मनु की इला आदि अनेकों कन्यायें पुत्रों से बढ़कर अपने वंश को उज्ज्वल करती रहीं। जबकि पुलस्त्य मुनि के पौत्र रावण ने सारी वंश परम्परा को बदनाम कर दिया।
इन दिनों समय की गति को देखते हुए यदि आगामी बीस वर्षों तक विज्ञजन स्वेच्छापूर्वक सन्तानोत्पादन न करने का व्रत निवाहें तो यह सहृदयता और समझदारी की बात होगी। समझदारी की इसलिए कि धरती की शक्ति और अधिक मनुष्यों का भार वहन करने की रह नहीं गई है।
धरती के दो तिहाई भाग को समुद्र घेरे हुए है। एक तिहाई में पर्वत, रेगिस्तान, ऊसर, बंजर आदि का बड़ा भाग है। सिंचाई के साधन हर जगह नहीं हैं। वर्षा न होने पर वे क्षेत्र घास तक उपजाने में असमर्थ हो जाते हैं। जितनी धरती है वह वर्तमान 500 करोड़ मनुष्यों के लिए अन्न, शाक, वस्त्र, पानी, निवास, आवास, पशुपालन आदि के लिए जगह चाहिए। अब तक का काम तो किसी तरह चल गया पर आगे के लिए अब तनिक भी गुंजाइश ऐसी नहीं रही है कि 500 करोड़ वर्तमान जनसंख्या के साथ जुड़े हुए प्रायः इतने ही पालतू पशुओं का निर्वाह कर सके।
ईसा के समय अब से दो हजार वर्ष पूर्व समस्त संसार में प्रायः 15 करोड़ व्यक्ति थे। वे आर्थिक और बौद्धिक सुविधाएं बढ़ने से इन दिनों 500 करोड़ अर्थात् प्रायः 35 गुने हो गये हैं। यह चक्रवृद्धि क्रम है। एक के चार बच्चे, चार के सोलह और सोलह के 64 एक पीढ़ी 20 वर्ष में बढ़ जाती है। इस क्रम से 60 वर्ष में एक व्यक्ति की संतानें बढ़कर 64 तक हो सकती हैं। यह क्रम रुका नहीं तो अभी तो भोजन की महंगाई और निवास की कठिनाई है पर आगे चलकर पीने का पानी और रहने को छाया का भी संकट खड़ा हो जायेगा। जगह खाली करने के लिए एक ही उपाय रह गया है कि जंगल काट कर पेड़ समाप्त किये जायं और उस स्थान में आवास बनाने या अन्न उगाने जैसे काम किये जायं। किन्तु देखा यह गया है कि पेड़ कटते जाने से अन्य अनेक तरह की मुसीबतें खड़ी हो जाती हैं। वायु प्रदूषण बढ़ता है। क्योंकि पेड़ों में ही प्रधानतया हवा को शुद्ध करने और वायु में ऑक्सीजन भरने की शक्ति होती है। यदि उसे नष्ट कर दिया जाय तो वायु मंडल में इतनी विषाक्तता भर जायेगी कि शुद्ध सांस लेने भर को जगह नहीं मिलेगी। पेड़ कटने का दूसरा प्रभाव होता है कि बादलों को बरसाने के लिए पेड़ों की चुम्बकीय शक्ति काम करती है। उसके घट जाने पर वर्षा का अनुपात कम हो जाता है। दूसरे जिस जमीन को पेड़ों की जड़ें पकड़े रहती हैं और नम बनाये रहती हैं। उसका पेड़ कटने पर वह गुण समाप्त हो जाता है। फलतः वर्षा होने पर मिट्टी घुल कर नदियों में चली जाती है। उनकी सतह उथली होने लगती है। फलतः बाढ़ें आती हैं और हर साल ढेरों उपजाऊ भूमि बहा ले जाती है। नदियों की गहराई उथली होती जाती है और नदियों का पानी फैलने लगता है। यह संकट हर वर्ष के लिए खड़ा हो जाता है और पौधे गल जाने से उपज घटने लगती है। जमीन की ऊपरी परत ही उपजाऊ है। नीचे खोदने पर उर्वरता रहित मिट्टी निकलने लगती है। ऊपर की परत धुल जाने का परिणाम यह होता है कि जमीन रेगिस्तान बनती जाती है। पिछली एक शताब्दी में रेगिस्तान का विस्तार प्रायः दूना हो गया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि वहां पेड़ तक नहीं रहे और जगह ऐसी हो गयी जिसमें मनुष्य तो क्या पशु पक्षी भी निवास कर सकने की स्थिति में नहीं रहे। यह सब पेड़ कटने, वन घटने के दुष्परिणाम हैं। यही घटना क्रम बढ़ता रहा तो नई जमीन प्राप्त कर सकना तो दूर जो पुरानी है वह भी हाथ से छिन जायेगी।
अधिक उत्पादन की दृष्टि से खेतों को थोड़े समय भी विश्राम न लेने दिया जाय और एक के बाद दूसरी फसल उगाई जाने लगे तो भी पैदावार का अनुपात घटेगा और गुणों की दृष्टि से भी घटियापन बढ़ेगा। जिसको खाने वाले मनुष्य और पशु दुर्बल होते जायेंगे और वे उतना श्रम न कर सकेंगे जितना कि करते रहे हैं। दुर्बल भूमि में उपजे पेड़ पौधे फसल के कीड़ों से ग्रसित होते जाते हैं, और उन्हें मारने के लिए विषैले कीटनाशकों का प्रयोग करना पड़ता है। वह सब भी घूम फिर कर मनुष्यों के ही पेट में पहुंचता है और स्पष्टतः जीवनी शक्ति घटती है। यह भी एक प्रकार का संकट ही है जिसके कारण मनुष्य दुर्बल होता और बीमार पड़ता जाता है। बीमार स्वयं कष्ट पाता है, संबंधियों को परिचर्या में घेरता है और दवादारू में पैसा खर्च कराता है सो अलग। फिर एक की बीमारी दूसरे को भी छूत की तरह तो लगती ही है। यह सब कठिनाई दुर्बल स्तर के आहार का प्रतिफल है जिसे कुपोषण भी कहा जाता है। आज असंख्य व्यक्ति कुपोषण के शिकार होकर दुर्बल होते और बीमार पड़ते हैं। यह कुपोषण आसमान से नहीं टपकता। यह दुर्बल भूमि से उत्पन्न हुए दुर्बल अनाज का ही प्रतिफल है।
जनसंख्या वृद्धि के व्यापक दुष्परिणाम ऐसे हैं जो समूचे संसार को, समूचे समाज को हिलाकर रख देते हैं। व्यक्तिगत रूप से उसके जो प्रभाव पड़ते हैं वे तो और भी स्पष्ट हैं, उन्हें हाथों हाथ देखा जा सकता है।
छोटी आयु में विवाह हो जाने के परिणाम स्वरूप जल्दी-जल्दी बच्चे होने लगते हैं। प्रत्येक प्रसव में जननी के स्वास्थ्य पर असाधारण दबाव पड़ता है। उदरस्थ भ्रूण की पोषण माता के शरीर से मिलता है। जननी का शरीर स्वयं दुर्बल हो तो वह उसी में से कटौती करके भ्रूण को रक्त मांस देती है। इससे उसका अपना स्वास्थ्य गड़बड़ा जाता है और बालक भी समुचित पोषण के अभाव में दुर्बल पैदा होता है और वह आरंभिक दुर्बलता आजीवन उसे कमजोर बनाये रहती है।
माता को जल्दी बच्चे जनने पड़ें और उसे महंगा पोष्टिक भोजन तथा समुचित विश्राम न मिले तो उसकी दुर्बलता प्रसव का असह्य कष्ट सहने के उपरान्त भी बनी रहती है। बच्चे को दूध पिलाना पड़ता है इससे भी माता के शरीर के पोषण तत्वों का ही क्षरण होता है। हर बच्चे के बीच कम से कम तीन वर्ष का अन्तर होना चाहिए ताकि पिछले बच्चे का दूध पीना छूट जाय और वह नये बच्चे के लिए आवश्यक जीवनी शक्ति उत्पन्न कर ले; पर देखा यह जाता है कि पिछला बच्चा शारीरिक दृष्टि से स्वावलम्बी होने से पहले ही नारी के गर्भ में दूसरा बच्चा आ जाता है। इसका परिणाम तीन गुना होता है। पहला बच्चा अच्छी तरह चल नहीं पाता। नारी उसके दायित्वों को पूरा नहीं कर पाती कि पेट में आये नये बच्चे को उसी दुर्बल शरीर में से बड़ी मात्रा में बहुमूल्य भाग काटकर उदरस्थ बच्चे को देना पड़ता है। हर प्रसव कितना कष्ट कारक होता है इसे भुक्त भोगी ही जानते हैं। प्रसव निवृत्ति को नया जन्म माना जाता है।
जल्दी-जल्दी अधिक संख्या में जिन्हें प्रसव संकट सहने पड़ते हैं वे बाहर से देखने में चमड़ी और मांस थोड़ा चेहरे पर ही भले बना रहे भीतर से खोखली हो जाती हैं। उसी कोल्हू में पिसते हुए उन्हें जननेन्द्रिय संबंधी ऐसी बीमारियां लग जाती हैं जिन्हें न तो वे संकोच वश घर वालों से कह पाती हैं और न उनका इलाज ही ठीक तरह हो पाता है। बीमारियां, दुर्बलता, बच्चे, घर का काम काज, इस पर भी यौनाचार का दबाव इन सब मुसीबतों की चक्की में पिसते हुए वह उठती उम्र में ही बूढ़ी हो जाती हैं और फिर वे इस योग्य नहीं रहतीं कि घर की गाड़ी को किसी तरह धकेलते रहने के उपरान्त भी कुछ ऐसा कर सके, जिससे उनका कहने योग्य पुरुषार्थ कहा जा सके। पत्नी की ऐसी दुर्दशा बना देना उस पति नामधारी की व्यावहारिक शत्रुता है जो अपने मतलब के लिए जब-जब मीठे वचन बोलकर उसे रिझाने का झूठा प्रयत्न करता रहता है। यदि प्यार से पत्नी को कसौटी पर कसा जाय तो इसके लिए सीधी कसौटी यह है कि उसने पत्नी को प्रसव उत्पीड़न के संकट में कितनी कम बार डाला।
बूढ़े पुराने सड़े गले लोगों का यह कथन सर्वथा बेतुका है कि बहू को ब्याह आये इतने दिन हो गये पर अभी बच्चा नहीं हुआ। वे बात बहुत पुरानी है जब जंगल और खेत ढेरों थे। उन्हें कमाने और रखाने के लिए घर का बड़ा कुटुम्ब चाहिए। संभवतः उन्हीं दिनों घर में अधिक बच्चे पैदा करना सौभाग्य माना जाता रहा होगा और उन्हीं दिनों वंश चलाने, पिण्डदान मिलने जैसी बेतुकी बातें मूढ़ मान्यताओं के रूप में चल पड़ी होंगी।
पर आज की स्थिति तो सर्वदा विपरीत है। उस जमाने में घर में ढेरों दुधारू पशु रहते थे और उसमें बच्चों को ही नहीं बड़ों को भी समुचित दूध घी मिल जाता था। पर अब तो सब चीजें मिलावटी और नकली होने के साथ-साथ महंगी भी हैं कि उन्हें खरीद सकना हर किसी के बस की बात नहीं है। आज हर दैनिक उपयोग की वस्तुएं इतनी महंगी हैं कि छोटे बच्चे के पोषण पर भी बड़े आदमी के बराबर खर्च आता है।
पढ़ाई की फीस, किताबें, कॉपियां, ड्रेस आदि सब मिलाकर इतना बोझिल बैठती हैं कि प्राथमिक शिक्षा से आगे बढ़कर पढ़ा सकना हर किसी के बस की बात नहीं है। फिर स्कूलों की पढ़ाई जिस उपेक्षा पूर्वक होती है उसे देखते हुए ट्यूशन लगाने पर ही बच्चे के अच्छे नम्बरों से पास होने की आशा बंधती है। कॉलेज की पढ़ाई तक पहुंचते-पहुंचते बोर्डिंग खर्च समेत वह खर्च चार पांच सौ तक जा पहुंचता है। जिसके चार बच्चे पढ़ने लायक हो गये, वह ऊंची शिक्षा किस तरह दिला पायें?
वयस्क होते ही शादी करनी पड़ती है। लड़की वाले के तो एक शादी में ही प्याले बर्तन बिक जाते हैं। लड़के वाले भी नफे में नहीं आता है। लुटने वाला काठ कबाड़ तो घर में भर जाता है किन्तु जेवर, कपड़े, प्रदर्शन, बारात, प्रीतिभोज आदि में जो खर्च पड़ता है वह लगभग बेटी वाले के जितना ही जा बैठता है। बच्चों की शादी भी इतनी ही भारी पड़ती है जितनी पढ़ाई। इसके बाद भी उनके स्वावलम्बन का प्रश्न रह जाता है। भाई भाई मिलकर कदाचित ही कोई व्यवसाय कर पाते हों। नौकरियों में आये दिन ट्रान्सफर होते रहते हैं और उसमें मित्रता पड़ोसी का तो कुछ तुक बैठ ही नहीं पाता। साथ ही बच्चों की पढ़ाई में भी भारी व्यवधान पड़ता है। मकान किराया बिजली आदि का खर्च चुकाने के उपरान्त तो नौकरी के पैसों में से कुछ बचता ही नहीं। ऐसी दशा में वयस्क बच्चों के स्वावलम्बन का ताना-बाना भी पिता को ही बुनना पड़ता है। लड़की का विवाह तब हुआ समझा जाता है जब वह अपना घर संभाल लें। इस बीच इसमें तरह-तरह के व्यवधान आते हैं। बहुत करने पर भी आशंका यही बनी रहती है कि लड़की अपने घर ही न लौट आये या किसी दबाव विग्रह में अपनी जान ही न गंवा बैठे। कई बार लड़के ही ऊंची शिक्षा प्राप्त लड़कियों को गृहस्थ संबंधी जानकारी के अभाव में तलाक की धमकी हर घड़ी देते रहते हैं। दो स्थानों पर दूर-दूर नौकरियां करने वाले तो एक प्रकार से आरंभ से ही आधी तलाक की स्थिति में रहते हैं।
उठती आयु के बच्चे आवेश, आतुरता, उद्दण्डता अनुशासन हीनता, कुसंग, दुर्व्यसन जैसी बुराइयों में फंसने लगते हैं तो वे स्वयं परेशान नहीं होते, परिवार को भी अनेक चिन्ताओं और झंझटों में फंसाते हैं। वह समय तो बहुत पीछे रह गया जब बच्चे मां के प्रति कृतज्ञ रहते थे और उनकी सेवा सहायता में तत्परता दिखाते थे। अब तो शरीर से अशक्त होने की स्थिति में उन्हें संतान के साथ भारभूत होकर ही काटने पड़ते हैं। चाहा यही जाता है कि इनसे जितना जल्दी पीछा टूटे उतना ही अच्छा।
बच्चे उत्पन्न करने के व्यवसाय में आदि से अन्त तक घाटा ही घाटा है। जो उससे किसी प्रकार के लाभ की अपेक्षा करते हैं, वे मूर्खों के स्वर्ग में रहते हैं और समय की बदली हुई परिस्थितियों को नहीं पहचानते। माता को स्वास्थ्य गंवाना पड़ता है। पिता पर अर्थ संकट राहु केतु की तरह चढ़ता चला आता है। बच्चे का भविष्य अन्धकार मय बनता है। क्योंकि उन्हें खुले वातावरण में रहने तक का अवसर नहीं मिलता। पिंजड़े जैसी कोठरी में ही कैद रहते हैं। बाहर कहीं निकल करके भी जावें तो वे आवारा साथियों के साथ गाली गलौच से लेकर गंदगी और असभ्यता के अनेकों दोष दुर्गुण बटोर लाते हैं। जो कुछ ही समय बाद अभिभावकों की बदनामी परेशानी का कारण बनते हैं। गरीबों के लिए तो बच्चे पैदा करना व्यर्थ है यह तो हाथी पालने जैसा व्यसन है जिनके पास उतनी ज्यादा सुविधाएं हों उन्हीं को बच्चे पैदा करने और बढ़ाने की बात सोचनी चाहिए। दुर्भाग्य से अभी भी यह मान्यता जीवित है कि लड़कियां पराये घर का कूड़ा और लड़के अपने आंगन के कल्पवृक्ष होते हैं। जबकि बात ठीक उल्टी है। लड़कियों के विवाह के बाद जिम्मेदारी हलकी हो जाती है। वे अपना घर संभाल लें तो उसके उपरान्त निश्चिंत होकर प्राचीन परम्परा के अनुसार वानप्रस्थ लेकर उस दिशा में कदम उठाये जा सकते हैं जिससे मनुष्य का जीवन, संस्कृति का पुनर्जीवन तथा लोक मंगल के उपयोगी कार्यक्रम में लग पड़ने में किसी प्रकार का अवरोध नहीं रहता। किन्तु लड़के होने पर उनके पोते—पर पोतों को गले से बांधे फिरने का मोह छोड़े नहीं छूटता। व्यक्ति जैसे जैसे बूढ़ा होता जाता है वैसे-वैसे वह अपने ऊपर से नियंत्रण खोता जाता है। लोभ और मोह का आक्रमण उस अवधि में दूना हो जाता है। घर परिवार की चिन्ताएं उसी निठल्ले पर लद बैठती हैं। अपनी मर्जी चलाता है तो उसे कोई सुनता नहीं। अगला जन्म और धर्म कर्त्तव्य भी नहीं सूझता। घर की चौकीदारी, छोटे बच्चों की निगरानी जैसे व्यर्थ के काम करता रहता है अपमान सहता और मोह जन्य प्रताड़नाएं सहता है। इसी प्रकार मौत के दिन आ धमकते हैं और इच्छा आकांक्षाओं से लिपटा हुआ वह व्यक्ति फिर चौरासी के चक्र में घूमने के लिए निकल पड़ता है। अन्तिम दिनों की आदतों और इच्छाओं के अनुरूप ही अगला जन्म मिलता है। यह स्थिति बेटे-पोते वालों की अधिक होती है। जिनकी मात्र कन्याएं ही है वे उनके विवाह के बाद अपने को हलका फुलका अनुभव करते हैं और बची हुई जीवन सम्पदा को वानप्रस्थ जैसे देव जीवन में प्रवेश करते हुए अपनी और देश, धर्म, समाज संस्कृति की सेवा कर सकते हैं। आजीवन चिन्ताग्रस्त एवं व्यस्तताग्रस्त रहने को कोई बहाना रह नहीं जाता। जिनने व्यामोह को ही अपना प्राण प्रिय बना लिया है वे तो दूर के किसी संबंधी के साथ भी लिपटे रहते हैं। जिन्हें जीवन लक्ष्य का स्वरूप ही विदित नहीं है उनके लिए कोई कुछ क्या कह सकता है और क्या सोच सकता है?
जिनको बच्चों की इच्छा रही ही नहीं है वे भरी जवानी में ही एकाकी या पत्नी समेत अपना जीवन परमार्थ प्रयोजनों में लगाये रह सकते हैं। पत्नी यदि विचारशील हो तो वह परमार्थ कार्यों में बाधक नहीं सहायक ही हो सकती है। वासना पर नियन्त्रण न हो सके तो आधुनिक गर्भनिरोधक साधनों का उपयोग करते हुए भी बच्चों का जंजाल बुनने की अपेक्षा उस मार्ग को अपनाने में भी कोई अनर्थ नहीं करते। गर्भ निरोध के अब तक के विदित प्रयासों में सब से सरल और निश्चित तरीका यह है कि वीर्यपात योनि के भीतर नहीं, बाहर किया जाय। इतनी भर सावधानी बरतने से कोई जोड़ा ब्रह्मचर्य न निभ पाने पर भी इस उपाय से वही सुविधा अर्जित कर सकता है जिसमें दाम्पत्य जीवन की सुविधा तो उठाई जा सकती है; किन्तु शिशु जनन जिसे आज के समय में समाज द्रोह या देश द्रोह की संज्ञा दी जा सकती है, उससे बचा जा सकता है।
यह स्तर अपना लेने पर न नौकरी ढूंढ़ने की जरूरत है न कृषि व्यवसाय आदि करने की। उनके लिए सीधा तरीका यह है कि विनिर्मित प्रज्ञा पीठों में से किसी को चुनने और वहां रहकर लोक मानस के पुण्य प्रयास में जीवन का शेष समय सार्थक करें। ऐसे सेवाभावियों, साधु ब्राह्मण परम्परा का निर्वाह करने वालों के लिए निवास या निर्वाह की कहीं भी कठिनाई नहीं पड़ेगी। किसी भी सुनसान पड़े देवालय में निवास करते हुए उनके प्रस्तुत मरणकाल को नव जीवन में परिवर्तित कर सकते हैं। कर्मठता शेष हो तो शान्ति कुंज हरिद्वार में भी उनका सदा स्वागत रहेगा।
देश सेवा का सर्वोत्तम तरीका वानप्रस्थ परम्परा को पुनर्जीवित करना है। पत्नी महिला समाज में काम करती रह सकती है और पुरुष, पुरुष वर्ग में प्राण चेतना फूंकता रह सकता है। जीवन भर साथ रहने वाले बुढ़ापे में बिछुड़े ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है। शारीरिक अशक्तता की मिलजुल कर पूर्ति कर सकते हैं। हारी बीमारी में साथ दे सकते हैं और साथ रहने में कोई असुविधा न होने पर भी बिछुड़ने की व्यथा सहने जैसी कोई शास्त्री रोक या व्यवहारिक कठिनाई भी नहीं है।
संतानोत्पादन को समाज द्रोह, देश द्रोह की संज्ञा इसलिए दी गई है कि उस प्रयास के फलस्वरूप व्यास द्वारा शुकदेव उत्पन्न किये जाने जैसा पितृ-ऋण चुकाने की बात तो किसी के ध्यान में रहती नहीं कि शंकराचार्य, चाणक्य जैसी संतति का निर्माण करने के लिए गर्भाधान से पूर्व ही प्रयत्न आरंभ कर दें और बच्चे में उच्चस्तरीय संस्कार भरें। होता यही है कि सांसारिक प्रचलन और वातावरण के अनुसार स्वार्थी और विलासी बच्चे ही बन पाते हैं। वे नागरिक कर्त्तव्य और समाज निष्ठा की अनिवार्यता तक को तो समझते नहीं। देश के अभ्युत्थान में अपने आप को समर्पित क्या करेंगे। स्वार्थी और चालाकों से दुनिया अभी भी भरी पड़ी है उसी वर्ग के और सदस्य उत्पन्न कर दिये जायं तो उनके पाप का एक अंश उनके हिस्से में भी आ जाता है, जिन्होंने इस प्रकार के विष-वृक्षों का उत्पादन किया। कहा जाता है कि शिष्य और पुत्र के सत्कर्मों का एक अंश अध्यापक या अभिभावकों को भी मिलता है। इस तरह का विश्वास करने वालों को अपनी मान्यताओं में एक तथ्य और भी जोड़ना चाहिए कि यदि वे दुष्ट या भ्रष्ट निकले तो उनके द्वारा किये हुए पापों का दुष्परिणाम उन अध्यापकों को भी भुगतना पड़ेगा। इन दिनों का भरण-पोषण या शिक्षण, वातावरण किस स्तर की नई पीढ़ियां उत्पन्न कर रहा है यह किसी से छिपा नहीं है।
जनसंख्या वृद्धि का सांसारिक दृष्टि से सीधा अर्थ यह है कि यह नया बालक पुराने वृद्ध असहायों से मुख का ग्रास छीनता है। उत्पादन बढ़ने की सीमा का अब अन्त ही समझना चाहिए। रासायनिक खादों के सहारे पृथ्वी का कुछ दिनों दोहन तो किया जा सकता है पर उसकी मौलिक उर्वरता नहीं बढ़ाई जा सकती। रासायनिक कुचक्र में अमेरिका ने अपने देश की लाखों हैक्टर जमीन बांझ बना दी। भूमि में उर्वरता असीम नहीं है। वह एक सीमा तक ही उत्पादन कर सकती है। नये आगन्तुकों को, जो पुराना है उसी में से हिस्सा बटाना पड़ेगा। स्वयं पेट भरेंगे तो किन्हीं दूसरों को भूखा रहने के लिए विवश करेंगे। स्वयं खायेंगे तो दूसरों के मुंह का ग्रास छीनेंगे। इस प्रकार संसार में दरिद्रता बढ़ेगी ही। पिछड़ापन का अनुपात अधिक ही व्यापक बनेगा।
प्रकृति का नियम है कि यदि किन्हीं प्राणियों की संख्या अतिशय बढ़ती है तो उन पर आसमान से विपत्ति उतरती है और उसके फलस्वरूप वह बढ़ा हुआ जंजाल किसी न किसी आकस्मिक विपत्ति का ग्रास बन जाता है। बीमारियां फैलती हैं, भूखे मरते हैं, आवेश में आकर आपस में लड़ते या आत्महत्या करते हैं। प्रकृति अपने अनावश्यक उत्पादन को ऐसे ही समेट लेती है। एक बार आस्ट्रेलिया में खरगोश अत्यधिक बढ़े तो वे सामूहिक आत्महत्या के लिए आवेशग्रस्त होकर समुद्र में कूद पड़े। विशेष प्रकार की महामारियां आ धमकती हैं। यादव दल की तरह आपस में ही लड़ मरते हैं। दुर्भिक्ष, भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि जैसे संकट आते हैं और उन्हें ठिकाने लगा देते हैं। मक्खी, मच्छर, मछली आदि अंधाधुंध अण्डे देने के लिए बदनाम हैं; पर उनका अधिकांश भाग आपत्तिग्रस्त होकर मौत के मुंह में चला जाता है। यह नियम मनुष्य पर भी लागू होकर रहता है। जब भी जिस क्षेत्र में भी उसकी अतिशय वृद्धि हुई है वहां उन पर भी ऐसा ही विपत्ति वज्र टूटता रहता है। घिच-पिच का आवेश एक प्रकार के उन्माद के रूप में उभरता है और वह युद्धों महायुद्धों, आक्रमणों, रोगों का रूप धारण करके बढ़ी हुई जनसंख्या को अपने झोले में भर ले जाता है। अच्छा हो हम समय रहते चेतें और विपत्तियों को बुलावा देने से संतति परिसीमन की बात को गले उतारें।
जिन्हें बच्चों की विशेष ममता है, वे अनाथ, असहायों के बालकों को गोद लेकर सैकड़ों हजारों के अभिभावक धर्म पिता बन सकते हैं और वात्सल्य का लाभ उठाते हुए अगणित बिलखते हुए को नव जीवन प्रदान कर सकते हैं। आज ऐसे हजारों अनाथालयों की हर जगह, हर क्षेत्र में, हर वर्ग में आवश्यकता है जो अत्यधिक बच्चे वालों की संतान को गोद लेकर उन्हें सुयोग्य समुन्नत बना सकते हैं।
विपत्ति तब आती है जब वंश चलाने के लिए, घर का दीपक बनाने के लिए, बुढ़ापे में उनकी कमाई खाने के लिए, स्वर्ग में पिण्डदान प्राप्त करने के लिए, अपनी बनी कमाई को हराम में खाने के लिए उत्तराधिकारी ढूंढ़े जाते हैं। इस स्वार्थ भावना को गोद लिए बच्चे भी ताड़ लेते हैं और बुड्ढ़े बुढ़ियों को जल्दी उठ जाने की कामना एवं चेष्टा करते हैं ताकि उस हराम की कमाई का मनमाना उपयोग करने के लिए उन्हें जल्दी से जल्दी अवसर मिले। ऐसे गोद लिए लड़कों द्वारा उन तथाकथित अभिभावकों की हत्या कर दिये जाने या करा दिये जाने की अनेकों घटनाएं आये दिन सुनने को मिलती हैं। उन पर कोई आंसू भी नहीं बहाता। क्योंकि उन्हें उत्तराधिकार की सम्पत्ति का लोभ दिखाकर बाप, भाई, बहिनों से छुड़ाया गया होता है। इस कृत्य के पीछे निकृष्ट कोटि की स्वार्थपरता प्रत्यक्ष झलकती है और जैसे को तैसा फल मिलने पर सुनने वाले व्यंग-उपहास ही करते हैं। ऐसे मरणों पर कोई सच्चे मन से दुःख नहीं मानता और जमाने का प्रचलन कह कर चुप हो जाता है।
यह मार्ग अपनाने की अपेक्षा बिना अपनेपन या मोह, उत्तराधिकार का मन में रखे बिना यदि अभावग्रस्तों के बालकों को पालने और पढ़ाने भर का उद्देश्य सामने रखकर अपनी संचित सम्पदा को लगाया गया होता तो वे बच्चे बड़े होने पर कृतज्ञ भी रहते, सद्भावना का आदर भी करते और हराम की कमाई लूटने के लिए चले जाने की आये दिन धमकी भी न देते और अवसर पाकर हत्या कर डालने जैसा क्रूर कर्म भी न करते।
जिनके पास पैसा है; किन्तु सन्तान नहीं है, उन्हें भतीजों को बांट जाने की अपेक्षा उन जरूरतमंदों के लिए उदारता उभारनी चाहिए जो भले ही अपने अंश-वंश के नहीं हैं; किन्तु अभावग्रस्तता की परिस्थितियों के कारण सहायता के अधिकारी हैं।
जिन्हें संतानें हुई ही नहीं, उन्हें ईश्वर का महान कृपा पात्र मानना चाहिए कि उत्कृष्ट कर्म करने और जीवनोद्देश्य पूरा करने के लिए अलभ्य अवसर मिला। जिनके मात्र लड़कियां हों, उन्हें समझना चाहिए कि परब्रह्म की तो नहीं; पर लक्ष्मी, सरस्वती, गायत्री जैसी किसी देवी की कृपा हुई, उनने अपनी पवित्रता की प्रतीक कोई देवी घर में भेजी। जिन्हें लड़के ही लड़के हों उन्हें समझना चाहिए कि पिछले जन्मों में किन्हीं कर्जों का बोझ लादकर मरा है, जो इस जन्म में कोल्हू के बैल की तरह पिटते-कुटते उस कर्ज को चुकाना पड़ेगा।
असल में बात यह है कि हमें सतयुग की और वापिस लौटना पड़ेगा, जबकि सारी दुनिया में पन्द्रह करोड़ मात्र आदमी थे। खेतों का; जंगलों का अभाव नहीं था, जिनमें मनुष्य या पशु पक्षी चैन से रहते थे।
आज की बढ़ती हुई जनसंख्या ही है जो पेट भरने के लिए खाद्य-अखाद्य का विचार किये बिना किसी प्रकार पेट भरने की बात सोच रही है अभी तो मुर्गी, मछली, सुअर जैसे जानवरों से पेट की आग बुझाने की बात सोची जा रही है; पर वह दिन दूर नहीं जब बढ़ते हुए जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, कीट नाशकों के प्रभाव से यह वर्ग संसार से उठ जायेगा और मनुष्यों को शायद घास खाकर गुजारा करने की बात सोचनी पड़े।
कभी समयानुसार चाल तेज भी करनी पड़ती है; किन्तु स्टेशन पर पहुंचते ही गाड़ी धीमी पड़ती और रुक जाती है। अब सन्तानोत्पादन की चाल को धीमा करना और रोकना है। यह इन दिनों अच्छी तरह गांठ बांध लेना चाहिए कि जो सन्तानोत्पादन की चाल को रोकेगा नहीं, उसे निजी जीवन में अनेकानेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा, मूर्ख और अनाड़ी कहा जायेगा। इतना ही नहीं, वह अपने साथ ही समूचे समाज का अहित करेगा।
शिक्षा संवर्धन और गरीबी उन्मूलन के सरकारी प्रयत्न चल रहे हैं। उनमें प्रगति के आंकड़े भी बताते हैं कि काम बहुत हुआ; किन्तु पिछली बार से जब तुलना की जाती है तो प्रतीत होता है कि अशिक्षितों और दरिद्रों का अनुपात घटा नहीं, बढ़ा ही है। कारण यह है कि प्रयत्नों की तुलना में जनसंख्या कहीं अधिक बढ़ जाती है अस्तु अनुपात घटा नहीं बढ़ा ही है। कारण यह कि प्रगति प्रयत्नों की तुलना में जनसंख्या कहीं अधिक बढ़ जाती है, अस्तु अनुपात घटा हुआ ही दीखता है।
सारा विश्व अपना परिवार है। अगले दिनों ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ के आदर्श को मान्यता मिलेगी। जिस प्रकार एक दयालु डॉक्टर अपने अस्पताल के मरीजों की पूरी देखभाल और चिकित्सा करता है, उसी प्रकार हम में से प्रत्येक को अपने निर्बलों, अशक्तों और साधनहीनों के लिए अपनी क्षमता को नियोजित करने की बात सोचनी चाहिए। इन दिनों अधिकांश लोग बौद्धिक और भावनात्मक दृष्ट से कहीं अधिक गये गुजरे हैं। गरीबी भी इसी कारण है और पिछड़ी स्थिति में पड़े हुए हैं। जो सामने मौजूद हैं उनकी सेवा-सहायता में अपनी क्षमता को लगाना क्या बुरा है कि हम नये लोगों को इस निमित्त बुलावें जो यहां नहीं हैं, अनेक समस्याएं लेकर हमारे और संसार के ऊपर कूद पड़ें। समझदारी इसी में है कि जितने लोग अत्यन्त पीड़ित और सहायता के लिए आतुर हैं, पहले उन्हीं की देख भाल की जाय। जिनके पास उत्तराधिकार में कोई धन है, जो छोटों को कंधे पर बिठाना और दुलार करना चाहते हैं, उनके लिए इसी समय भटकते लोग इतने अधिक हैं कि वे उसी कार्य में आजीवन लगे रह सकते हैं; जबकि बच्चों की कोमलता का लाभ कुछ ही दिन उठाया जा सकता है। आज अनेकों अनाथालयों की, विद्यालयों की, चिकित्सालयों की आवश्यकता हैं। यदि सचमुच हम भावनाशील हैं और वात्सल्य की दुहाई देते हैं तो यह अच्छा कि जो काम हाथ के नीचे पड़ा है, उसी को संभालें, यह पुकार न करें कि हमारे पास सेवा करने के लिए, दुलारने के लिए बच्चे नहीं हैं उन्हें तो जितनी अधिक संख्या में जो चाहता हो वह तत्काल अपने इर्द-गिर्द से ही एकत्रित कर सकता है। अपने पराये का भेदभाव करने से बात कुछ बनती नहीं। सभी अपने और सभी पराये। अपनी संतान को पोसने से तो किसी को परोपकार बताने की आवश्यकता नहीं। या तो सभी अपने हैं या सभी बिराने। मन की चौड़ाई इतनी होती चाहिए कि जिसमें अपने पराये सभी समा सकें। जो लोग दरवाजे पर भूखे चिल्ला रहे हैं, उन्हें दुत्कार कर ऐसे लोगों को बुलाते ढूंढ़ते फिरा जाय जो अभी हैं ही नहीं, जिन्हें बुलाने के लिए नये कष्ट उठाने और नये दायित्व उठाने पड़ेंगे, अपने को, अपनी पत्नी को जोखिम में डालना पड़ेगा, ऐसी स्थिति में मोहग्रस्त ही कहलायेंगे, जबकि अन्य माताओं के उदर से पैदा हुए बालकों को शिक्षित और सुयोग्य बनाने में हमें पुण्यात्मा और परमार्थी कहा जायेगा।
सबसे बड़ा काम है—ज्ञानदान। उस एक का ही वितरण जिन छोटे-बड़ों में किया जाय उन सभी का कल्याण होता है। यदि व्यक्तिगत प्रगति और सेवा-साधना की दृष्टि से देखा जाय, तो सीमित परिवार वाले नर-नारियों में ही इसके योग्य समय या साधन बचते हैं, जो उनके माध्यम से बड़ा काम कर सकें, बड़े कदम उठा सकें। जिनके पास ढेरों बच्चों की जिम्मेदारी है, वे उनका भार वहन करने में ही अपनी जिम्मेदारी और क्षमता खपा देते हैं। इतने पर भी वह प्रयोजन पूरा नहीं होता। बच्चे भी कहते हैं और पड़ोसी सम्बन्धी भी कि यदि इतने बच्चों को सुयोग्य बनाने की सामर्थ्य ही नहीं थी तो उन्हें पैदा ही क्यों किया? इसके उत्तर में अपनी प्रारंभिक मूर्खता ही याद आती है और मानना पड़ता है कि समय रहते चेते होते तो इतना स्वार्थी और इतना कष्ट साध्य—इतनी बदनामी से भरा जीवन क्यों जीना पड़ता। समय निकल जाने पर मात्र पश्चाताप ही हाथ रह जाता है और जीवन भर बच्चे के लिए ही हाय-हाय करके और चिन्ता समस्याओं में घुलते-मरते रहना पड़ता है।
सिवाय सड़े दिमाग की उपज और अपनी कौतूहल ग्रस्त मूर्खता के सिवाय कोई समझदार यह सलाह किसी को नहीं दे सकता कि जब दुनिया विनाश के कगार पर खड़ी है, अन्न जल व हवा में जहर ही जहर भरा है। वातावरण विषाक्त हो रहा है, आर्थिक तंगी के रहते किसी प्रकार मुश्किल से ही दिन कटते हैं, तो नये बच्चे पैदा करने का संकट सिर पर लादा जाय; अपने को गरीबी में, पत्नी को बीमारी में, बच्चों को कठिनाई में और समूचे समाज को संकट में डाला जाय। काम निर्दोष दीखते हुए भी उसके परिणाम यह बताते हैं कि यह निर्दोष नहीं है। इसके आगे-पीछे अनेकानेक संकट और विग्रह रह सकते हैं। इन्हीं दुष्परिणामों को देखते हुए किसी कृत्य को पाप की संज्ञा दी जाती है।
समझदारी साथ दे तो उसका सत्परामर्श एक ही हो सकता है कि अपने जैसे कुछ शरीर मिले हैं; उन्हें देर तक काम करते रहने और कुछ प्रशंसनीय पुरुषार्थ करने के लिए जीवित रहने दिया जाय। शास्त्रकार का कथन है—‘‘मरणं बिन्दु पातेन जीवनं विन्दु धारणात्।’’ अर्थात् वीर्यपात मृत्यु है और ब्रह्मचर्य पालन जीवन। इस कथन के पीछे यों ब्रह्मचर्य की महत्ता का यशगान किया है। यह अपना स्वतंत्र विधान है। उसमें शारीरिक ही नहीं, बौद्धिक समर्थता का भी प्रतिपादन है। भीष्मपितामह, हनुमान, दयानंद, विवेकानंद आदि ने ब्रह्मचर्य के सहारे ही अपनी असाधारण शक्ति सामर्थ्य का अभिवर्धन किया था। वह बन पड़े तो कहना ही क्या; पर इतना न बन पड़े, तो सन्तानोत्पादन रहित दाम्पत्य जीवन भी अपने आप में इतनी बड़ी समझदारी का कृत्य है, जिससे पुरुष से भी अधिक स्त्री का भी हित है। पुरुष पर तो प्रधानतया अर्थ उपार्जन का ही अतिरिक्त भार आता है। स्त्री तो अपने रूप, यौवन, स्वास्थ्य और जीवन संकट में से गुजरती है। इसलिए संसार भर के विज्ञजन जनसंख्या की दृष्टि से, पृथ्वी के छोटी पड़ती जाने की दृष्टि से और न्याय समर्थक नारी के ऊपर इस असाधारण अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाने की दृष्टि से भी यह आवाज उठाते हैं कि जिस प्रकार संभव हो सके उस प्रकार प्रजनन रोका जाय। संयम से भी, कृत्रिम उपकरणों से भी और सर्वसुलभ योनि से वीर्यपात बाहर करके भी। इस संकट से बचा जाय जिसे अणुयुद्ध जितना भयंकर कहा जा सकता है। अणु युद्ध की विभीषिका का वर्णन होता रहता है कि यदि अणुयुद्ध हुआ तो जीतेगा कोई नहीं, मरेगी सारी दुनिया। इसी स्तर का दूसरा शीतयुद्ध है कि यदि बहु प्रजनन न रुका तो धरती पर मनुष्यों के लिए स्थान मिलना तो दूर चलने-फिरने के लिए जगह मिलना भी मुश्किल हो जायेगा और उनके मल-मूत्र की सफाई करना तक संभव न रहेगा।
इक्कीसवीं सदी के सुनहरे स्वप्न वाले यह भी कहते हैं कि वैज्ञानिक प्रगति के कारण अगले दिनों भण्डार भर जायेंगे। यदि युद्ध न हुआ और अणु आयुधों का प्रयोग किसी प्रकार रोका भी जा सका तो जनसंख्या की दृष्टि से भी भयंकर विपत्ति रहेगी जिनके कारण आर्थिक साधन जुटा लेने पर भी आवास-निर्वाह का, सफाई का, पेय जल का, शुद्ध वायु का संकट इतना बड़ा होगा कि जिस पर नियंत्रण प्राप्त कर सकना मनुष्य के हाथ में किसी भी प्रकार न रहेगा और दैवी विपत्तियां टूट-टूट कर बढ़े हुए जन समुदाय को अकाल मृत्यु के लिए बाधित करेंगी।
बढ़ते हुए प्रदूषण और विकिरण का संकट भी बढ़ा-चढ़ा बताया जाता है कि इनके कारण बढ़ी हुई विषाक्तता मनुष्य को इस पृथ्वी पर जीवित न रहने देगी। यह स्मरण रहने योग्य बात है कि विकिरण भले ही अणु परीक्षण से बढ़ता हो पर प्रदूषण तो बहुतों की बड़ी हुई आवश्यकता को पूरा करने के लिए विशालकाय उद्योगों और द्रुतगामी वाहनों से ही बढ़ता है। इन विचित्र निर्माणों के लिए पृथ्वी का गहरा धरातल खोद और तलाश लिया गया है।
धातुओं, खनिजों, तेलों के भण्डार, कोयला आदि अनन्त गहराई तक से ढूंढ़ निकाले गये हैं और उनके अत्यधिक उपयोग ने न केवल वातावरण बिगाड़ा है, वरन् भू गर्भ पर भी संकट उड़ेला है। ज्वालामुखी विस्फोटों और भूकम्पों की शृंखला निरन्तर बढ़ते जाने का एक बड़ा कारण है कि मनुष्य विभिन्न प्रकार के यंत्र उपकरणों के लिए धरती की काफी गहरी परतों को खोखली किये देता है और पोले भाग में होकर गुजरने वाले हवा और पानी के स्रोत यह संकट उत्पन्न कर रहे हैं। वायुयानों की भगदड़, उपग्रह, राकेटों की बढ़ती हुई हलचल भी आकाश को इस योग्य नहीं रहने दे रही है कि उसमें से सही स्तर की सांस लेना संभव हो। अन्तरिक्ष टूटे-फूटे राकेटों से धीरे-धीरे कबाड़ियों का गोदाम बनता जा रहा है। यह स्थिति निश्चित है कि स्थिति यही बनी रही, तो विषैला पानी बादलों से वर्षा किया करेगा और उससे जल जन्तुओं तथा पेड़-पौधों को भयावह संकट उत्पन्न होगा। यह सारे संकट मिलकर भी अणु युद्ध से उत्पन्न होने वाली विभीषिकाओं से कोई कम त्रास मनुष्य को नहीं होगा।
वृक्ष-वनस्पतियों की कमी और मनुष्य की भरमारी एक प्रकार का हानिकारक मानसिक उन्माद उत्पन्न करता है। उसके कारण मनुष्य अपना असली संतुलन गंवा बैठता है और ऐसे हानिकारक कृत्य करने लगता है, जिसे अनाचारों की बाढ़ कह सकते हैं। इन सबका परिणाम यह होता है कि जन समुदाय के बीच स्नेह-सौजन्य तो टिकता नहीं; उलटे दोषारोपण, छिद्रान्वेषण, अभक्ष्य भक्षण, नशा सेव, व्यभिचार जैसे दुर्व्यसनों की बाढ़ आती है और उनके कारण भी मनुष्य का व्यक्तित्व खतरे में पड़ता है।
पृथ्वी का वजन उल्कापिण्डों के आकाशीय धूलि कणों से गिरने से भी बढ़ता है फिर मनुष्य जन्म से लेकर मरने तक जिस प्रकार जीवन यापन करता है, उस हिसाब से भी धरती का बोझ बढ़ता है। इस बढ़े हुए भार से पृथ्वी की घूर्णन तथा पृथ्वी की कक्षा में अन्तर आ सकता है और ऐसा संकट खड़ा हो सकता है कि धरती अपनी उपयोगी कक्षा को छोड़कर किसी ऐसे रास्ते चल पड़े, जहां उसकी चन्द्रमा, शनि, प्लूटो जैसी विचित्र स्थिति उत्पन्न हो जाती और शीत पात का असंतुलन उत्पन्न हो जाने से ही मनुष्यों का रहना उस पर संभव न रहे।
विज्ञान की हर शाखा के जानकार अपने-अपने अनुसंधानों और आंकड़ों को प्रस्तुत करते हुए यही निष्कर्ष निकालते हैं कि मनुष्यों का बढ़ता हुआ संकट अगले दिनों ऐसे विग्रह खड़े करेगा, जिसका समाधान किसी प्रकार संभव ही न रहे। अच्छा यही है कि सन्तानोत्पादन पर जैसे भी बने, वैसे नियन्त्रण लगाया जाय और महा विनाश से बचा जाय।
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*समाप्त*