Books - युग संधि पुरश्चरण प्रयोजन और प्रयास
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युग संधि पुरश्चरण प्रयोजन और प्रयास
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पतझड़ के बाद बसन्त आता है। तपती गर्मी के बाद बरसाती घटायें जल थल कर करतीं और हरीतिमा का मखमली फर्श बिछाती है। अंधेरी रात का भी अन्त होती है और प्रभात का अरुणोदय सर्वत्र उल्लास भरी उमंगें बिखेरता है। लम्बी अवधि आतंक और असमंजस के बीच गुजर जाने के बाद अब निकट भविष्य में ऐसी सम्भावनायें बन रही है, जिसमें चैन की सांस ली जा सके। इसे एक प्रकार से सतयुग की वापसी, या नव युग के अवतरण के नाम से भी जाना जा सकता है।
भूतकाल की भूलों और वर्तमान की भ्रान्तियों को गम्भीरता पूर्वक देखा जाय तो आश्चर्य होता है कि समझदार कहलाने वाले मनुष्य ने क्यों इतनी नासमझी बरती और क्यों अपने लिए सबके लिए विपत्ति न्यौत बुलायी? फिर भी-इतना निश्चय है कि विपत्ति भूलों को सुधारने के लिए मजबूर करती है। भटकाव के बाद भी सही राह और रोग पता होने पर उपचार की विधि खोज ही ली जाती है। लम्बा समय दुखद-दुर्भाग्य में बोता; पर वह स्थिति सदा क्यों बनी रहेगी? शांति और प्रगति सदैव प्रतीक्षा सूची में ही रहे ऐसा तो नहीं हो सकता। इक्कीसवीं सदी सन्निकट है। इसमें हम सब सुखद परिस्थितियों का आनन्द ले सकेंगे ऐसी आशा की जानी चाहिए।
पृथ्वी को बने और मनुष्य को सभ्य बने लम्बा अतीत बीत गया। पर उपक्रम ऐसा चल रहा था जिसमें शान्ति पूर्वक रहा और सन्तोष पूर्वक जिया जा सके। पर समय की विडम्बना तो देखी जाय जिसमें नशेबाजी जैसा उन्माद चढ़ दौड़ा और ऐसे कृत्य किए जाने लगे जो करते समय तो अतीव लाभ दायक लगे पर यह भुला दिया गया कि इनका परिणाम अगले दिनों कितना कष्ट कारक हो सकता है।
पिछली दो शताब्दियों को विज्ञान का उदय, अभिवर्धन और चमत्कार प्रस्तुत करने का अवसर कहा जा सकता है। प्रत्यक्षवाद द्वारा तत्वदर्शन को पीछे धकेले जाने का अवसर भी यही रहा। पचाने की क्षमता से अधिक साधन प्राप्त होने पर उत्पन्न उन्माद ऐसा ही कुछ करा डालता है, जो विवेकशीलता की दृष्टि से नहीं किया जाना चाहिए। इधर प्रकृति के दरबार में किसी के साथ लिहाज नहीं, करनी का फल भुगतना एक अनिवार्यता है, जो होकर ही रहती है। यही क्रम चल भी रहा है।
विज्ञान ने औद्योगीकरण की दिशा में कदम बढ़ाया। विशाल-काय कल कारखाने लगे। उत्पादन की मात्रा इतनी बढ़ी कि उसे खपाने के लिए मंडियों की आवश्यकता पड़ी। इसका एक प्रभाव यह हुआ कि अविकसित देशों पर आधिपत्य जमाकर, उन्हें कच्चा माल देने और बना माल खरीदने के लिए विवश किया गया। भारत पर अंग्रेजी शासन का यही प्रधान कारण था। औद्योगीकरण से सम्पन्न अन्य देशों ने जहां बस चला वहां पंजे गड़ाये। दूसरे समर्थ राष्ट्रों ने यह आशातीत लाभ देखा न गया और वे आपस में लड़ पड़े। इन दो सौ वर्षों में छुट पुट युद्ध तो हजारों हुए, पर दो विश्व युद्ध ऐसे हुए, जिन्हें अभूतपूर्व कहा जा सकता है। इनमें जन धन की अपार क्षति हुई। विकसित आयुधों और वाहनों द्वारा अनुचित लाभ उठाने का लोभ सामर्थ्यों से संवरण न हो सका। तात्कालिक लाभ के समुख हानियां नगण्य लगें। यदि विज्ञान-जन्य औद्योगीकरण की इतनी आपा धापी न बढ़ी होती तो इतने भयावह विनाश का समय न आता।
बड़े कारखानों में सीमित मजदूर ही खपें, शेष बेकार हो गये। गृह उद्योग उस स्पर्धा में न टिक सके। सम्पदा की अति, दुर्व्यसनों से लेकर अनाचार तक की अनेकों, अवांछनीयताएं उत्पन्न करते हैं। नशेबाजी, व्यभिचार, विलासिता, कामुक चिन्तन आदि के जो दुष्परिणाम होने चाहिए वे तेजी से उभर कर सामने आ रहे हैं।
इसी माहौल में बड़े शहर बढ़े। देहातों से लोग बड़े शहरों की ओर भागे, शहरों की अतिशय विस्तार हुआ, गांव वीरान हो गये। शहरों की बढ़ी आबादी अपने आप में एक विपत्ति बनती जा रही है। वहां गन्दगी से लेकर बीमारियों तक ने अनेक उपद्रव बढ़ रहे हैं।
पिछले छोटे बड़े युद्धों के परिणाम देखकर भी तीसरे विश्व युद्ध की हविश शान्त नहीं हुई है। युद्धोन्माद अणु आयुधों के अम्बार लगाने पर उतारू है। यदि यह हुआ तो धरती तल पर शायद एक भी जीवधारी न बचेगा। यदि वह न हुआ तो भी आणविक कचरे और विकिरण से ही जन समाज के अर्ध मृतक बनने जैसी स्थिति पैदा हो रही है। दृष्टि पसार कर देखने से लगता है कि यह कथित प्रगति वर्तमान समुदाय और भावी पीढ़ी के लिए ऐसे संकट खड़े कर रही है, जिनसे निपटना अभी भी कठिन है, अगले दिनों तो पूरी तरह गतिरोध ही हो जायेगा।
प्रत्यक्षवाद ने तत्वदर्शन को झुठलाने में बड़ी हद तक सफलता पायी है। फलतः अनाचार, अपराध इस तेजी से बढ़े हैं कि जन साधारण अपने आपको असुरक्षित आशंकित, आतंकित अनुभव करता है। शोषण और छल की तेजी से बढ़ती हुई प्रवृत्ति कहीं एक दूसरे को चीर कर खा जाने की स्थिति तक न पहुंचा दे? स्नेह, सौजन्य, सहकार घटने तथा लिप्सा-लालसाओं के अनियंत्रित होने पर इसके अतिरिक्त और हो ही क्या सकता है कि दैत्यों-दानवों का युग फिर लौट आये? संयम गया, कामुकता को छूट मिली तो बहु प्रजनन स्वाभाविक है। चक्र वृद्धि क्रम से बढ़ रही जनसंख्या की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए साधन उस गति से बढ़ नहीं सकते। न तो पृथ्वी को रबड़ की तरह खींच कर बढ़ाया जा सकता है, और न उत्पादन दिन दूना रात चौगुना हो सकता है। जनसंख्या और औद्योगीकरण की मांग पूरी करने के लिए खनिजों का दोहन तेजी से हो रहा है। लगता है पूरा भूमिगत भंडार शीघ्र ही चुक जायेगा। उसके बाद भावी पीढ़ी के लिए क्या बचेगा? कृषि के लिए भूमि बढ़ाने के लिए वन सम्पदा नष्ट की जा रही है। उद्योगीकरण के बढ़ते प्रदूषण ने हरीतिमा पर और भी गहरी चोट की है। हरीतिमा घटने से भूमि क्षरण, रेगिस्तानों के विस्तार जैसी समस्याएं विकराल हो रही है। पर्यावरण का असन्तुलन ऋतुचक्र को ही अस्त−व्यस्त किए दे रहा है। जनसंख्या की बाढ़ न रुकने से विकास के लिए किए गये प्रयास विफल होते जा रहे हैं। इन सब का परिणाम क्या होगा इसका अनुमान लगाते ही हर विचारशील का मन घड़घड़ाने लगता है।
किसी भी शक्ति अथवा साधन का दुरुपयोग बुरा होता है। मर्यादाएं टूटी और वर्जनाओं का उल्लंघन द्रुत गति से हुआ तो उसके परिणाम भयावह ही हो सकते हैं। यही हो भी रहा है। समस्याओं विभीषिकाओं विपत्तियों के घटा टोप बढ़ रहे हैं। पतन और पराभव का क्रम जिस तेजी से गति पकड़ रहा है, उसे देखते हुए अगले दिनों की भयंकरता में कोई सन्देह नहीं रह जाता है।
मनुष्य का चिन्तन, चरित्र और व्यवहार व्यक्ति और समाज को तो प्रभावित करता ही है, सूक्ष्म जगत भी उससे अछूता नहीं रह पाता। विकृत चिन्तन और भ्रष्टचरित्र, सूक्ष्म जगत के अदृश्य वातावरण को प्रदूषण से भर देते हैं। प्रकृति की सरल स्वाभाविकता बदल जाती है और वह रुष्ट होकर दैवी आपत्तियां बरसाने लगती है। इन दिनों अतिवृष्टि, अनावृष्टि, बाढ़, दुष्काल, भूकम्प जैसी विपत्तियां बड़े क्षेत्रों को प्रभावित कर रही है। शारीरिक ही नहीं, मानसिक रोगों में भी भारी बढ़ोतरी हो रही है। मानवी सद्भावना से, व्यक्तित्व के स्तरों में बुरी तरह गिरावट आ रही है। इन सब के कारण वर्तमान जटिल और भविष्य धूमिल बनता जा रहा है। अनेक विसंगतियां जड़ें जमा रही हैं। जो लोग इन परिस्थितियों में सुधार करने की स्थिति में है, उनमें भी इन कर्तव्यों के प्रति आवश्यक उत्साह नहीं है। सदुपयोग से वही शक्तियां सुख सुविधा सम्पन्न स्वर्गीय वातावरण बना सकती है।
प्रवाह यदि उल्टा न गया तो स्थिति ऐसी भी आ सकती है जिसे प्रलय के समतुल्य कहा जा सकता है। अंतरिक्ष का बढ़ता हुआ तापमान ध्रुव प्रदेशों की बर्फ गलाकर जल प्रलय जैसी स्थिति बना सकता है। असंतुलन के दूसरे पक्ष के कारण हिम प्रलय की सम्भावनाएं विज्ञजनों द्वारा व्यक्त की जा रही है। धरती के अन्तरिक्ष कवच-ओजोन की पर्त क्षीण होकर फट गयी तो ब्रह्माण्डीय किरणें धरती के जीवन को भूतकाल का विषय बना सकती है। यह सब और कुछ नहीं, मनुष्य की उन करतूतों की प्रतिक्रिया है, जो पिछली दो शताब्दियों में उन्मादी उपक्रम अपनाकर महाविनाश को आमन्त्रण दे रही है।
परन्तु सृष्टा ऐसा होने नहीं देगा। उससे इस धरती को, उसकी प्रकृति सम्पदा को, मानवी सत्ता में बड़े मनोयोग पूर्वक संजोया है। सृष्टि के आदि से लेकर अब तक अनेकों बार, अनेकों प्रकार की विकट परिस्थितियां आयी हैं। उन्हें टालने वाले ने समय रहते टाला है और उलटी दिशा में बहते प्रवाह को उलट कर सीधा किया है। ‘‘यदा यदा हि धर्मस्य......’’ वाला वचन समय समय पर पूरा होता रहा है। अब भी वह पूरा होकर रहेगा। वही होने जा रहा है। इसलिए सतर्कता बरतते हुए भी निराश होने की आवश्यकता नहीं है। विनाश की विभीषिकाओं में सन्देह नहीं, पर यह भी निश्चित है कि समय चक्र पूर्वस्थिति की ओर घूम गया है। पुरातन सतयुगी वातावरण का पुनर्निर्माण होकर रहेगा। इसके लिए उपयुक्त समय यही है।
रात्रि जब समाप्त होती है, तो एक बार सघन अंधियारा छाता है। बुझते दीपक की लौ तेज हो जाती है। संव्याप्त असुरता भी यदि अपने विनाश की वेला देखकर पूरी शक्ति के साथ आक्रमण करे तो आश्चर्य नहीं। प्राचीन काल में असुरों को जब अपनी दुष्टता का समापन होता दिखा तो उन्हें देवत्व पर सारी शक्ति झोंक कर आक्रमण किया। हारा जुआरी एक बार साहस बटोर कर सब कुछ दांव पर लगा देता है, भले ही उसे वह सब गंवाना पड़े। युग संधि में ऐसा ही हो तो आश्चर्य नहीं।
युग संधि प्रसव पीड़ा जैसा समय है। शिशु जन्म के समय जननी पर क्या बीतती है, इसे सभी जानते हैं, पर पुत्र रत्न को पाकर उसकी खुशी का ठिकाना भी नहीं रहता। फसल, जिन दिनों पकने को होती है उन्हीं दिनों खेतों में पक्षियों के झुण्ड टूटते हैं। युग सन्धि की इस वेला में जहां पके फोड़े को फूटने और दुर्गन्ध भरी मवाद निकलने की सम्भावना है, वहां यह भी निश्चित है कि आपरेशन के बाद दर्द घटेगा, घाव भरेगा और संचित विकारों से छुटकारा मिलेगा।
परन्तु यह अनायास ही हो जाने वाला नहीं है। इसके लिए प्राणवानों को प्रबल प्रयत्न करने होंगे। दुष्काल ग्रस्त सुखी पड़ी जमीन को हरी भरी बनाने के लिए गंगा को स्वर्ग से उतारना आवश्यक हुआ। इसके लिए भगीरथ जैसे पुण्यात्मा को उग्र तप करना पड़ा। इस पुण्य पुरुषार्थ को देखकर शिव जी प्रसन्न हुए, उनकी सहायता से गंगावतरण संभव हुआ, जिससे भौतिक समृद्धि और आत्मिक शान्ति के उभयपक्षीय प्रयोजन पूरे हुए।
देवताओं की संयुक्त शक्ति से असुर निकन्दिनी दुर्गा का अवतरण हुआ था। उन्हें संघ शक्ति भी कहा जाता है। ऋषियों का रक्त संचय करके घड़ा भरा गया, उससे सीता उत्पन्न हुई जिनने लंका की असुरता को नष्ट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निबाही। समुद्र सेतु बनना, दुर्दान्त दानवों को निरस्त करना, राम राज्य का सतयुगी माहौल बनाना, रीछ वानरों की सेना द्वारा ही संभव हुआ। उस पुण्य प्रयोजन में गीध गिलहरी तक ने योगदान दिया। बुद्ध के धर्म चक्र प्रवर्तन ने संसार को हिलाया, यह पुरुषार्थ भिक्षु और भिक्षुणियों के समुदाय का ही था। गोवर्धन उठाने में ग्वाल वालों ने भी लाठियां लगाकर सहयोग किया था। गांधी के सत्याग्रही ही खोयी हुई आजादी वापिस लाने में समर्थ हुए। तिनके मिलकर रस्सी और धागों के मिलने से कपड़ा बनने की बात सभी को विदित है। युग संधि के दुहरे मोर्चे पर लड़ना वरिष्ठ प्राणवानों के लिए ही संभव होगा। अनिष्टों को निरस्त करना और उज्ज्वल भविष्य को धरती पर स्वर्ग उतारने जैसा उदाहरण प्रस्तुत करना देव दानवों की संयुक्त शक्ति से ही संभव है। इसी उमंग को उमगाना अदृश्य भगवान का साकार रूप में अवतरण कहा जा सकता है।
युग संधि बारह वर्ष की है। अब से लेकर सन् 2000 तक इक्कीसवीं सदी से नवयुग-सतयुग आरम्भ होने की भविष्यवाणी अनेक आध्यात्मिक एवं परिस्थितियों का आंकलन करने वाले विज्ञानी एक स्वर में प्रतिपादित करते रहे हैं। इस कथन से भविष्यवक्ताओं और ज्योतिर्विदों का भी प्रतिपादन सम्मिलित हैं। इक्कीसवीं सदी निश्चय ही उज्ज्वल भविष्य का संदेश लेकर आ रही है। पर उससे पूर्व कठिन अग्नि परीक्षा में भी हम सब को गुजरना पड़ेगा। इस बारह वर्ष की अवधि में जहां तक सृजन का शिलान्यास होगा वहां संचित अवांछनीयताओं के दुष्परिणामों से भी निपटना होगा। इसलिए इस अवधि में को दुहरे उत्तर दायित्वों से लदा हुआ कहा गया है। इसमें वरिष्ठ जनों को सहभागी बना कर हनुमान और अर्जुन जैसी भूमिका निभानी होगी। परोक्ष प्रक्रिया भगवान की होगी, पर उसका श्रेय तो इस संदर्भ में प्रबल पुरुषार्थ करने वालों को ही मिलेगा।
प्रयासों की तीन दिशा धाराएं हैं। (1) लोक मंगल के लिए जो प्रत्यक्ष उपाय अपनाए जा रहे हैं उनसे सहयोग करना। (2) विचार क्रान्ति को व्यापक बनाने की विशिष्ट भूमिका सम्पन्न करना। (3) सामूहिकता आध्यात्म साधना से सूक्ष्म वातावरण में संव्याप्त प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलना। प्रथम सोपान को राजतंत्र, अर्थतंत्र, एवं स्वयं सेवी संस्थान पूरा कर रहे हैं। तो भी उसमें यथा शक्ति सहयोग प्रज्ञा परिजनों को भी देना चाहिए।
शेष दो उपेक्षित कार्य ऐसे हैं जो युग शिल्पियों को विशेष रूप से अपने कंधे पर उठाना है। ‘जन मानस का परिष्कार’ सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन एक ऐसा महत्वपूर्ण कार्य है, जिसके सहारे उस दुर्बुद्धि से लोहा लिया जाना है, जो क्षमताओं को दुरुपयोग करने, नारकीय परिस्थितियां उत्पन्न करने के लिए प्रधान रूप से उत्तरदायी है। इसके लिए लेखनी, वाणी और सद्भाव सम्पन्नों के संगठनों को सक्रिय किया जा रहा है। अब उसमें और भी अधिक गति देने की आवश्यकता पड़ेगी। शान्तिकुंज में युग सृजेताओं को एक बहुत बड़ी संख्या इन्हीं प्रयोजनों की पूर्ति के लिए संगठित ही जा रही है। एक एक महीने के और नौ नौ दिन के प्रशिक्षण सत्र इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए किए जा रहे हैं। युग साहित्य का सृजन और युग चेतना का आलोक वितरण करने वाले सत्संग आयोजनों का उद्देश्य यही है। दीप यज्ञों की श्रृंखला इसी लिए व्यापक बनाई जा रही है कि युग चेतना से लोक मानस को आन्दोलित किया जा सके और जिनको प्राण चेतना जीवन्त हैं, उन्हें इस विषम वेला में कुछ पुरुषार्थ करने के लिए कटिबद्ध किया जा सके।
इसके अतिरिक्त तीसरा पक्ष हैं सूक्ष्म जगत के परिशोधन एवं भविष्य को उज्ज्वल बनाने हेतु दिव्य उपासना। मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण संभव बनाने के लिए सामूहिक महा साधना का नियोजन। यह दिव्य पुरश्चरण सन्निकट की आश्विन नव रात्रि से शान्ति कुंज से आरम्भ किया गया है। नाम है ‘युग संधि महापुरश्चरण’ शान्तिकुंज हरिद्वार में यह पुण्य आयोजन सन् 2000 तक चलता रहेगा। इक्कीसवीं सदी के आरम्भ के साथ ही इसकी पूर्णाहुति जिसकी तुलना अब तक के किसी विशालतम समापन से भी न की जा सके। इस संकल्प के अन्तर्गत आयोजन केन्द्र में नौ दिवसीय गायत्री अनुष्ठानों की श्रृंखला अन्त तक अनवरत रूप से जारी रहेगी।
पाण्डव वनवास में बारह वर्ष साधना रत रहे। राम ने चौदह वर्षों में से बारह वर्ष तप प्रयोजन में और दो वर्ष असुर संहार में लगाए। पार्वती का, भागीरथ का, दधीच का, च्यवन का, तप भी बारह वर्ष का रहा। बुद्ध अपने में दैवी शक्ति का अवतरण करने हेतु बारह वर्ष तक तप में रहे। शंकराचार्य और चाणक्य भी प्रायः इतने ही दिन साधनारत रहे। विश्वामित्र, वशिष्ठ, अत्रि, अगस्त, नारद आदि ऋषियों ने प्रचण्ड तप की अवधि भी प्रायः इतनी ही रही। युग संधि के उभयपक्षीय प्रयोजन भी बारह वर्ष की नर देवों इतनी लम्बी साधना से ही पूर्ण होंगे।
द्रोपदी ने लाज जाते समय और गज ने भवसागर में डूबते समय भगवान को ही पुकारा था। इन दिनों युग चेतना भी इसी स्थिति में हैं और यही कर रही है। शिव और शेषनाग का तप ही उन्हें शक्ति पुंज बना सकने में समर्थ हुआ था। युग संधि पुरश्चरण में भी उसी विद्या को अपनाया जा रहा है।
प्रस्तुत साधना का केन्द्र शान्तिकुंज बन रहा है। यहां बारह वर्ष नौ दिवसीय गायत्री अनुष्ठानों की श्रृंखला चलती रहेगी। जिनको उपासना की गरिमा पर विश्वास है उन सभी का आह्वान किया गया है कि इस अवधि में एक अनुष्ठान यहीं सम्पन्न करें और विराट सामूहिक जप यज्ञ के भागीदार बनने का श्रेय प्राप्त करें। आशा की जाती है कि निर्धारित अवधि में लाखों व्यक्ति इसके सहगामी बन सकेंगे। उद्देश्य तो युग परिवर्तन के दोनों पक्षों को सम्पन्न कर सकने वाला दिव्य वातावरण बनाना है। पर साथ ही यह बात भी है कि दूसरों के लिए मेंहदी पीसने वाले के अपने हाथ उससे पहले ही रच जाते हैं। साधक अपने लिए सुरक्षा कवच प्राप्त करने में प्रतीक परिष्कार से लाभान्वित होने में सफल हो सकते हैं। यदि उनकी निष्ठा बीच में ही न डगमगा गई तो लक्ष्य तक पहुंचने के लिए अनवरत प्रयत्न करने वालों को सेनापतियों जैसा श्रेय मिलेगा।
प्रस्तुत युग साधना में अन्य क्रिया-कलाप तो साधारण अनुष्ठानों की भांति ही रहेंगे। पर एक बात विशिष्ठ रहेगी ‘‘सूर्योपस्थान’’ भगवान सूर्य की निकटता। उन्हें ही इस महान् प्रक्रिया का अधिष्ठाता वरण किया गया है। इसलिए जप गायत्री का पूजन गायत्री का करते हुए भी प्रातःकाल उदय होते हुए स्वर्णिम आभा वाले सविता देव का ध्यान करते रहना होगा। ध्यान ही नहीं प्राण प्रत्यावर्तन का भाव समर्पण भी। साधक का प्राण सविता में प्रवेश करके वैसा ही लाल हो जाता है जैसा भट्ठी में कुछ समय पड़ा रहने के उपरान्त सोना लाल हो जाता है। ईंधन को आग में डालने पर भी यही होता है। यह समर्पण हुआ। दूसरा भाग है सविता का साधक की सत्ता में अवतरण। जिस प्रकार किरणें धरती पर उतरती हैं और प्रभाव क्षेत्र में ऊर्जा एवं आभा से भर देती है। उसी प्रकार साधक भी अनुभव करेगा कि सविता का ओजस, तेजस, वर्चस बरसता है और उपासनारत को अपने दिव्य अनुग्रह से ओत-प्रोत कर देता है।
गहरी सांस लेते हुए सूर्य के अवतरण की और धीरे धीरे सांस छोड़ते हुए सूर्यार्घ्य दान की तरह सविता को आत्म समर्पण करने की भावना करते रहना चाहिए।
इक्कीसवीं सदी में सूर्य तेजस के भी अनुकूल परिवर्तन होगा और उसका प्रभाव समस्त वातावरण पर पड़ेगा। प्राणियों में भी क्षमता और चेतना विकसित होगी। ईंधन का विद्युत का, रोग नियन्त्रण का, समुद्र से पानी लाकर मेघ बरसाने, वायु संशोधन का काम तो सूर्य अभी भी करता है। सड़ी हुई दुर्गन्ध को मिटाने और विषाणुओं को हनन करने में उसके चमत्कार निरन्तर देखे जाते हैं। शरीरों में विटामिन ‘‘डी’’ का उत्पादन स्रोत वही है। अगले दिनों उसी प्रखरता चेतना क्षेत्र को भी अपने प्रभाव में लेगी। गिरों को उठाने और उठों को उछालने में जहां मानवी प्रयत्न काम करेंगे वहां उसे सफल संभव बनाने में सविता की अदृश्य भूमिका भी काम करेगी। आद्यशक्ति गायत्री का अधिष्ठाता भी तो सविता ही है। उसी का प्रतीक दीपक ज्योति को, अगरबत्ती के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है।
सूर्य योग के सम्बन्ध में सूर्य पुराण, सूर्य उपनिषद्, चाक्षुषी उपनिषदों आदि में बहुत कुछ कहा गया है। सावित्री और सविता का युग्म अपने समय की आवश्यकता भली प्रकार पूरी कर सकेगा, ऐसा विश्वास किया जाता है। निराकरण, उन्नयन के लिए जो भौतिक प्रयत्न चल रहे हैं उनमें से इस दिव्य साधना का समावेश हो जाने से लक्ष्य की पूर्ति में असाधारण योगदान मिलने की आशा है। इसी से पुरश्चरण में गायत्री मंत्र और सूर्योपस्थान का महत्व दिया गया है। दैनिक साधना की पूर्णाहुति सूर्यार्घ्यदान के रूप में होती रहेगी। अन्तिम पूर्णाहुति में भी उस महातेज की अभ्यर्थना होगी। ऐसी जिसे अभूतपूर्व कहा जा सके।
शान्तिकुंज को केन्द्र यहां के परम्परागत विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है। गंगा की गोद, हिमालय की छाया, सप्त ऋषियों का तपस्थान, जैसी पुरातन और नित्य गायत्री जप, यज्ञ व गुरुकुल, आरण्यक जैसी विशेषताओं के कारण वह एक प्रकार से असाधारण विशेषताओं से सम्पन्न हो चला है। घर गृहस्थी के वातावरण की अपेक्षा ऐसे दिव्य केन्द्र में रहकर साधना करने में कितनी अधिक विशेषता हो सकती है उसका अनुमान कोई भी लगा सकता है। सभी इच्छुकों को अवसर मिल सके इस दृष्टि से नौ दिवसीय साधना सत्र बारह वर्ष तक चलते रहने का संकल्प प्रकट किया गया है। अन्तरिक्ष का विभाजन बारह राशियों में हुआ है। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करते हुए ठीक अपनी उसी स्थिति में बारह वर्ष में आती है। इस तथ्य को देखते हुए प्रस्तुत पुरश्चरण की अवधि बारह वर्ष रखी गयी है।
युग सन्धि पुरश्चरण शान्तिकुंज में उद्भूत अवश्य हुआ है। पर उसका विस्तार उद्गम तक ही सीमित न रहकर विश्वव्यापी बनेगा। कम से कम प्रज्ञा परिवार के तो सभी लोग उसमें भाग लेंगे ही। जो घर से बाहर नहीं जा सकते, अत्यधिक व्यस्त या प्रतिबंधित हैं वे अवकाश के किसी भी समय कम से कम दस मिनट मानसिक रूप से गायत्री का जप और ध्यान कर सकते हैं। मन में ही सूर्यार्घ्य देने की भावना की जा सकती है और शान्तिकुंज पहुंच कर मन ही मन उस उद्गम की परिक्रमा लगाने की भी।
जहां प्रज्ञा पीठें बनी हैं, जहां प्रज्ञा मण्डल या महिला मण्डल बनें हों, गायत्री परिवार जीवन्त हैं, वहां भी महा पुरश्चरण की एक इकाई अपने यहां प्रतिष्ठित करनी चाहिए। हर रोज बन पड़ना कठिन रहे तो सप्ताह में एक दिन इसके लिए निश्चित किया जा सकता है, रविवार- यह सूर्य का दिन भी है। उस दिन किसी स्थिर स्थान में अथवा बारी-बारी आमंत्रित करने वाले सदस्यों के घरों में यह आयोजन रखा जा सकता है। समय प्रातः काल का रखना ही ठीक पड़ता है।
सामूहिक गायत्री पाठ। दीप यज्ञ का प्रज्ज्वलन। पांच दीपक एक माचिस, अगरबत्ती दो थालियों में सूर्य प्रतीक के रूप में स्थापन। आधा घंटा मानसिक जप ध्यान, युग संगीत का सहगान कीर्तन, ‘‘यन्मण्डलम्’’ स्तोत्रों में सविता का स्तवन। इसके बाद झोला पुस्तकालय उपक्रम में सभी उपस्थित जनों को भागीदार बनाना। जिनके जितनों, जितनों से सम्बन्ध हो वे उतनी पुस्तकें पढ़ाने के लिए मण्डल से ले जायें और अगले सप्ताह जब आवें तो अधिकाधिक शिक्षितों को पढ़ाने और अशिक्षितों को सुनाने के उपरान्त, जिसमें दिव्य अवतरण तो प्रधान है ही, पर साथ में जन मानस को परिष्कृत करने वाले ज्ञान यज्ञ का भी समावेश है। युग संगीत और युग साहित्य द्वारा आलोक वितरण यह दोनों कार्य इसी स्तर के हैं। जिनके माध्यम से विचार क्रान्ति अभियान का भी विस्तार होता है।
‘‘पांच से पच्चीस’’ बनने का प्रेरणा मंत्र किसी को भी भूलना नहीं चाहिए। इसी आधार पर तो अपना सीमित परिवार विश्व व्यापी बनेगा। साप्ताहिक आयोजनों में सम्मिलित होने वाले इस प्रयत्न में रहें कि अगले सप्ताह अपने प्रभाव क्षेत्र से अधिक से अधिक लोगों को लेकर चलें। उनकी निष्ठा बढ़ें तो वे भी पांच नये खोज निकालें और आयोजन के साथ जोड़ें। इसी प्रयास के अन्तर्गत प्रज्ञा मण्डलों और महिला मंडलों का गठन एवं विस्तार होता चलेगा। संघ शक्ति बनकर अगले दिनों कंधे पर आने वाले उत्तरदायित्वों का वहन कर सकेंगे।
यहां भी युग पुरश्चरण की उपरोक्त सामूहिक साधना का उपक्रम चले वहां से नए सम्मिलित होने वाले श्रद्धालुओं को एक बार एक अनुष्ठान शान्तिकुंज में जाकर पूरा करने के लिए कहा जाय। लौटने पर वे पूरा उत्साह लेकर लौटेंगे और बारह वर्ष तक सम्मिलित होते रहने के व्रत का निर्वाह करेंगे। यह लोग मिल कर स्थानीय आयोजन को तो सुव्यवस्थित बनाए ही रहेंगे, समीपवर्ती क्षेत्रों में भी विस्तार करेंगे। एक ही बड़े नगर में ऐसे छोटे-छोटे कई मण्डल बन सकते हैं।
आयोजनों का खर्च चलाने के लिए सम्मिलित होने वाले साधकों के यहां बीस पैसे नित्य जमा करने के लिए ज्ञानघट स्थापित किए जायें। उसी संग्रहीत राशि से साप्ताहिक आयोजन का खर्च चलता रहेगा। इस आपूर्ति की जिम्मेदारी साधकों को ही मिल जुल कर उठानी चाहिए। बड़े खर्च वाली आवश्यकताओं के लिए ही बाहर के लोगों के अनुदान स्वीकार किये जायें।
प्रचार उपकरणों के लिए लाउडस्पीकर, टैप रिकॉर्डर स्लाइड प्रोजेक्टर आदि की आवश्यकता पड़ती है। इसमें लगभग दो हजार खर्च होते हैं। दीप यज्ञायोजनों एवं ज्ञान रथ की स्थापना के लिए भी कुछ अतिरिक्त धन की आवश्यकता पड़ती है। इन सब के लिए जन सहयोग लिया जा सकता है। जो एकत्र हो और किस प्रकार खर्च किया गया, उसका विवरण दान देने वालों को देते रहने से किसी को उंगली उठाने का अवसर नहीं मिलता।
युग संधि पुरश्चरण के आरम्भिक वर्ष में युग चेतना का उदय दृष्टिगोचर कराने वाले आदर्श वाक्यों के स्टीकर घर-घर चिपकाने का आन्दोलन पूरे उत्साह के साथ चलाया जाना चाहिए। कोई दुकान, कोई घर, कोई दफ्तर- कारखाना, कोई वाहन ऐसा न बचे जहां आदर्श वाक्यों का अंकन दृष्टिगोचर न हो। देखने वालों को लगता है कि घर-घर में स्थान-स्थान पर युग चेतना की छवि उभरने लगी है। नव युग की चेतना उभरने का परिचय स्टीकरों के माध्यम से मिले तो जन-जन को लगे कि आदर्शवादिता जड़ जमाने लगी। पतन या उत्थान के लिए प्रेरणाएं दृश्य वातावरण से बनती हैं। इसके लिए अति सस्ते और सरल उपाय स्टीकर योजना को अधिकाधिक व्यापक बनाना है। इन्हें मुफ्त न बांटा जाय, लागत मूल्य पर दिया जाय। यह प्रयास भी प्रकारान्तर से युग संधि के अवसर पर किये जाने वाले पुरश्चरण, जन मानस के परिष्कार एवं सदुद्देश्य के लिए सत्पुरुषों को उल्लसित एवं संगठित करने का ही एक अंग है।
गायत्री परिवार में जिनकी भी श्रद्धा है, वे उपरोक्त क्रिया-कलाप को दिव्य साधना का प्रारम्भिक चरण मानें और उसे भावना पूर्वक अपनाये। इतना कर लेने वाले उस अग्रगामी भूमिका को निभा सकेंगे जिसके आधार पर महाविनाश को रोकने और महाविकास के सतयुगी वातावरण का नव निर्माण संभव हो सके। बड़े कार्यों को बड़ी शक्तियां सम्पन्न करती हैं। उच्चस्तरीय बड़प्पन का सम्पादन करने के लिए राजमार्ग बनाना ही प्रस्तुत युग संधि का महा पुरश्चरण का प्रमुख उद्देश्य है। इसमें सच्चे स्वार्थ और सच्चे परमार्थ का समन्वय है।
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*समाप्त*
भूतकाल की भूलों और वर्तमान की भ्रान्तियों को गम्भीरता पूर्वक देखा जाय तो आश्चर्य होता है कि समझदार कहलाने वाले मनुष्य ने क्यों इतनी नासमझी बरती और क्यों अपने लिए सबके लिए विपत्ति न्यौत बुलायी? फिर भी-इतना निश्चय है कि विपत्ति भूलों को सुधारने के लिए मजबूर करती है। भटकाव के बाद भी सही राह और रोग पता होने पर उपचार की विधि खोज ही ली जाती है। लम्बा समय दुखद-दुर्भाग्य में बोता; पर वह स्थिति सदा क्यों बनी रहेगी? शांति और प्रगति सदैव प्रतीक्षा सूची में ही रहे ऐसा तो नहीं हो सकता। इक्कीसवीं सदी सन्निकट है। इसमें हम सब सुखद परिस्थितियों का आनन्द ले सकेंगे ऐसी आशा की जानी चाहिए।
पृथ्वी को बने और मनुष्य को सभ्य बने लम्बा अतीत बीत गया। पर उपक्रम ऐसा चल रहा था जिसमें शान्ति पूर्वक रहा और सन्तोष पूर्वक जिया जा सके। पर समय की विडम्बना तो देखी जाय जिसमें नशेबाजी जैसा उन्माद चढ़ दौड़ा और ऐसे कृत्य किए जाने लगे जो करते समय तो अतीव लाभ दायक लगे पर यह भुला दिया गया कि इनका परिणाम अगले दिनों कितना कष्ट कारक हो सकता है।
पिछली दो शताब्दियों को विज्ञान का उदय, अभिवर्धन और चमत्कार प्रस्तुत करने का अवसर कहा जा सकता है। प्रत्यक्षवाद द्वारा तत्वदर्शन को पीछे धकेले जाने का अवसर भी यही रहा। पचाने की क्षमता से अधिक साधन प्राप्त होने पर उत्पन्न उन्माद ऐसा ही कुछ करा डालता है, जो विवेकशीलता की दृष्टि से नहीं किया जाना चाहिए। इधर प्रकृति के दरबार में किसी के साथ लिहाज नहीं, करनी का फल भुगतना एक अनिवार्यता है, जो होकर ही रहती है। यही क्रम चल भी रहा है।
विज्ञान ने औद्योगीकरण की दिशा में कदम बढ़ाया। विशाल-काय कल कारखाने लगे। उत्पादन की मात्रा इतनी बढ़ी कि उसे खपाने के लिए मंडियों की आवश्यकता पड़ी। इसका एक प्रभाव यह हुआ कि अविकसित देशों पर आधिपत्य जमाकर, उन्हें कच्चा माल देने और बना माल खरीदने के लिए विवश किया गया। भारत पर अंग्रेजी शासन का यही प्रधान कारण था। औद्योगीकरण से सम्पन्न अन्य देशों ने जहां बस चला वहां पंजे गड़ाये। दूसरे समर्थ राष्ट्रों ने यह आशातीत लाभ देखा न गया और वे आपस में लड़ पड़े। इन दो सौ वर्षों में छुट पुट युद्ध तो हजारों हुए, पर दो विश्व युद्ध ऐसे हुए, जिन्हें अभूतपूर्व कहा जा सकता है। इनमें जन धन की अपार क्षति हुई। विकसित आयुधों और वाहनों द्वारा अनुचित लाभ उठाने का लोभ सामर्थ्यों से संवरण न हो सका। तात्कालिक लाभ के समुख हानियां नगण्य लगें। यदि विज्ञान-जन्य औद्योगीकरण की इतनी आपा धापी न बढ़ी होती तो इतने भयावह विनाश का समय न आता।
बड़े कारखानों में सीमित मजदूर ही खपें, शेष बेकार हो गये। गृह उद्योग उस स्पर्धा में न टिक सके। सम्पदा की अति, दुर्व्यसनों से लेकर अनाचार तक की अनेकों, अवांछनीयताएं उत्पन्न करते हैं। नशेबाजी, व्यभिचार, विलासिता, कामुक चिन्तन आदि के जो दुष्परिणाम होने चाहिए वे तेजी से उभर कर सामने आ रहे हैं।
इसी माहौल में बड़े शहर बढ़े। देहातों से लोग बड़े शहरों की ओर भागे, शहरों की अतिशय विस्तार हुआ, गांव वीरान हो गये। शहरों की बढ़ी आबादी अपने आप में एक विपत्ति बनती जा रही है। वहां गन्दगी से लेकर बीमारियों तक ने अनेक उपद्रव बढ़ रहे हैं।
पिछले छोटे बड़े युद्धों के परिणाम देखकर भी तीसरे विश्व युद्ध की हविश शान्त नहीं हुई है। युद्धोन्माद अणु आयुधों के अम्बार लगाने पर उतारू है। यदि यह हुआ तो धरती तल पर शायद एक भी जीवधारी न बचेगा। यदि वह न हुआ तो भी आणविक कचरे और विकिरण से ही जन समाज के अर्ध मृतक बनने जैसी स्थिति पैदा हो रही है। दृष्टि पसार कर देखने से लगता है कि यह कथित प्रगति वर्तमान समुदाय और भावी पीढ़ी के लिए ऐसे संकट खड़े कर रही है, जिनसे निपटना अभी भी कठिन है, अगले दिनों तो पूरी तरह गतिरोध ही हो जायेगा।
प्रत्यक्षवाद ने तत्वदर्शन को झुठलाने में बड़ी हद तक सफलता पायी है। फलतः अनाचार, अपराध इस तेजी से बढ़े हैं कि जन साधारण अपने आपको असुरक्षित आशंकित, आतंकित अनुभव करता है। शोषण और छल की तेजी से बढ़ती हुई प्रवृत्ति कहीं एक दूसरे को चीर कर खा जाने की स्थिति तक न पहुंचा दे? स्नेह, सौजन्य, सहकार घटने तथा लिप्सा-लालसाओं के अनियंत्रित होने पर इसके अतिरिक्त और हो ही क्या सकता है कि दैत्यों-दानवों का युग फिर लौट आये? संयम गया, कामुकता को छूट मिली तो बहु प्रजनन स्वाभाविक है। चक्र वृद्धि क्रम से बढ़ रही जनसंख्या की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए साधन उस गति से बढ़ नहीं सकते। न तो पृथ्वी को रबड़ की तरह खींच कर बढ़ाया जा सकता है, और न उत्पादन दिन दूना रात चौगुना हो सकता है। जनसंख्या और औद्योगीकरण की मांग पूरी करने के लिए खनिजों का दोहन तेजी से हो रहा है। लगता है पूरा भूमिगत भंडार शीघ्र ही चुक जायेगा। उसके बाद भावी पीढ़ी के लिए क्या बचेगा? कृषि के लिए भूमि बढ़ाने के लिए वन सम्पदा नष्ट की जा रही है। उद्योगीकरण के बढ़ते प्रदूषण ने हरीतिमा पर और भी गहरी चोट की है। हरीतिमा घटने से भूमि क्षरण, रेगिस्तानों के विस्तार जैसी समस्याएं विकराल हो रही है। पर्यावरण का असन्तुलन ऋतुचक्र को ही अस्त−व्यस्त किए दे रहा है। जनसंख्या की बाढ़ न रुकने से विकास के लिए किए गये प्रयास विफल होते जा रहे हैं। इन सब का परिणाम क्या होगा इसका अनुमान लगाते ही हर विचारशील का मन घड़घड़ाने लगता है।
किसी भी शक्ति अथवा साधन का दुरुपयोग बुरा होता है। मर्यादाएं टूटी और वर्जनाओं का उल्लंघन द्रुत गति से हुआ तो उसके परिणाम भयावह ही हो सकते हैं। यही हो भी रहा है। समस्याओं विभीषिकाओं विपत्तियों के घटा टोप बढ़ रहे हैं। पतन और पराभव का क्रम जिस तेजी से गति पकड़ रहा है, उसे देखते हुए अगले दिनों की भयंकरता में कोई सन्देह नहीं रह जाता है।
मनुष्य का चिन्तन, चरित्र और व्यवहार व्यक्ति और समाज को तो प्रभावित करता ही है, सूक्ष्म जगत भी उससे अछूता नहीं रह पाता। विकृत चिन्तन और भ्रष्टचरित्र, सूक्ष्म जगत के अदृश्य वातावरण को प्रदूषण से भर देते हैं। प्रकृति की सरल स्वाभाविकता बदल जाती है और वह रुष्ट होकर दैवी आपत्तियां बरसाने लगती है। इन दिनों अतिवृष्टि, अनावृष्टि, बाढ़, दुष्काल, भूकम्प जैसी विपत्तियां बड़े क्षेत्रों को प्रभावित कर रही है। शारीरिक ही नहीं, मानसिक रोगों में भी भारी बढ़ोतरी हो रही है। मानवी सद्भावना से, व्यक्तित्व के स्तरों में बुरी तरह गिरावट आ रही है। इन सब के कारण वर्तमान जटिल और भविष्य धूमिल बनता जा रहा है। अनेक विसंगतियां जड़ें जमा रही हैं। जो लोग इन परिस्थितियों में सुधार करने की स्थिति में है, उनमें भी इन कर्तव्यों के प्रति आवश्यक उत्साह नहीं है। सदुपयोग से वही शक्तियां सुख सुविधा सम्पन्न स्वर्गीय वातावरण बना सकती है।
प्रवाह यदि उल्टा न गया तो स्थिति ऐसी भी आ सकती है जिसे प्रलय के समतुल्य कहा जा सकता है। अंतरिक्ष का बढ़ता हुआ तापमान ध्रुव प्रदेशों की बर्फ गलाकर जल प्रलय जैसी स्थिति बना सकता है। असंतुलन के दूसरे पक्ष के कारण हिम प्रलय की सम्भावनाएं विज्ञजनों द्वारा व्यक्त की जा रही है। धरती के अन्तरिक्ष कवच-ओजोन की पर्त क्षीण होकर फट गयी तो ब्रह्माण्डीय किरणें धरती के जीवन को भूतकाल का विषय बना सकती है। यह सब और कुछ नहीं, मनुष्य की उन करतूतों की प्रतिक्रिया है, जो पिछली दो शताब्दियों में उन्मादी उपक्रम अपनाकर महाविनाश को आमन्त्रण दे रही है।
परन्तु सृष्टा ऐसा होने नहीं देगा। उससे इस धरती को, उसकी प्रकृति सम्पदा को, मानवी सत्ता में बड़े मनोयोग पूर्वक संजोया है। सृष्टि के आदि से लेकर अब तक अनेकों बार, अनेकों प्रकार की विकट परिस्थितियां आयी हैं। उन्हें टालने वाले ने समय रहते टाला है और उलटी दिशा में बहते प्रवाह को उलट कर सीधा किया है। ‘‘यदा यदा हि धर्मस्य......’’ वाला वचन समय समय पर पूरा होता रहा है। अब भी वह पूरा होकर रहेगा। वही होने जा रहा है। इसलिए सतर्कता बरतते हुए भी निराश होने की आवश्यकता नहीं है। विनाश की विभीषिकाओं में सन्देह नहीं, पर यह भी निश्चित है कि समय चक्र पूर्वस्थिति की ओर घूम गया है। पुरातन सतयुगी वातावरण का पुनर्निर्माण होकर रहेगा। इसके लिए उपयुक्त समय यही है।
रात्रि जब समाप्त होती है, तो एक बार सघन अंधियारा छाता है। बुझते दीपक की लौ तेज हो जाती है। संव्याप्त असुरता भी यदि अपने विनाश की वेला देखकर पूरी शक्ति के साथ आक्रमण करे तो आश्चर्य नहीं। प्राचीन काल में असुरों को जब अपनी दुष्टता का समापन होता दिखा तो उन्हें देवत्व पर सारी शक्ति झोंक कर आक्रमण किया। हारा जुआरी एक बार साहस बटोर कर सब कुछ दांव पर लगा देता है, भले ही उसे वह सब गंवाना पड़े। युग संधि में ऐसा ही हो तो आश्चर्य नहीं।
युग संधि प्रसव पीड़ा जैसा समय है। शिशु जन्म के समय जननी पर क्या बीतती है, इसे सभी जानते हैं, पर पुत्र रत्न को पाकर उसकी खुशी का ठिकाना भी नहीं रहता। फसल, जिन दिनों पकने को होती है उन्हीं दिनों खेतों में पक्षियों के झुण्ड टूटते हैं। युग सन्धि की इस वेला में जहां पके फोड़े को फूटने और दुर्गन्ध भरी मवाद निकलने की सम्भावना है, वहां यह भी निश्चित है कि आपरेशन के बाद दर्द घटेगा, घाव भरेगा और संचित विकारों से छुटकारा मिलेगा।
परन्तु यह अनायास ही हो जाने वाला नहीं है। इसके लिए प्राणवानों को प्रबल प्रयत्न करने होंगे। दुष्काल ग्रस्त सुखी पड़ी जमीन को हरी भरी बनाने के लिए गंगा को स्वर्ग से उतारना आवश्यक हुआ। इसके लिए भगीरथ जैसे पुण्यात्मा को उग्र तप करना पड़ा। इस पुण्य पुरुषार्थ को देखकर शिव जी प्रसन्न हुए, उनकी सहायता से गंगावतरण संभव हुआ, जिससे भौतिक समृद्धि और आत्मिक शान्ति के उभयपक्षीय प्रयोजन पूरे हुए।
देवताओं की संयुक्त शक्ति से असुर निकन्दिनी दुर्गा का अवतरण हुआ था। उन्हें संघ शक्ति भी कहा जाता है। ऋषियों का रक्त संचय करके घड़ा भरा गया, उससे सीता उत्पन्न हुई जिनने लंका की असुरता को नष्ट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निबाही। समुद्र सेतु बनना, दुर्दान्त दानवों को निरस्त करना, राम राज्य का सतयुगी माहौल बनाना, रीछ वानरों की सेना द्वारा ही संभव हुआ। उस पुण्य प्रयोजन में गीध गिलहरी तक ने योगदान दिया। बुद्ध के धर्म चक्र प्रवर्तन ने संसार को हिलाया, यह पुरुषार्थ भिक्षु और भिक्षुणियों के समुदाय का ही था। गोवर्धन उठाने में ग्वाल वालों ने भी लाठियां लगाकर सहयोग किया था। गांधी के सत्याग्रही ही खोयी हुई आजादी वापिस लाने में समर्थ हुए। तिनके मिलकर रस्सी और धागों के मिलने से कपड़ा बनने की बात सभी को विदित है। युग संधि के दुहरे मोर्चे पर लड़ना वरिष्ठ प्राणवानों के लिए ही संभव होगा। अनिष्टों को निरस्त करना और उज्ज्वल भविष्य को धरती पर स्वर्ग उतारने जैसा उदाहरण प्रस्तुत करना देव दानवों की संयुक्त शक्ति से ही संभव है। इसी उमंग को उमगाना अदृश्य भगवान का साकार रूप में अवतरण कहा जा सकता है।
युग संधि बारह वर्ष की है। अब से लेकर सन् 2000 तक इक्कीसवीं सदी से नवयुग-सतयुग आरम्भ होने की भविष्यवाणी अनेक आध्यात्मिक एवं परिस्थितियों का आंकलन करने वाले विज्ञानी एक स्वर में प्रतिपादित करते रहे हैं। इस कथन से भविष्यवक्ताओं और ज्योतिर्विदों का भी प्रतिपादन सम्मिलित हैं। इक्कीसवीं सदी निश्चय ही उज्ज्वल भविष्य का संदेश लेकर आ रही है। पर उससे पूर्व कठिन अग्नि परीक्षा में भी हम सब को गुजरना पड़ेगा। इस बारह वर्ष की अवधि में जहां तक सृजन का शिलान्यास होगा वहां संचित अवांछनीयताओं के दुष्परिणामों से भी निपटना होगा। इसलिए इस अवधि में को दुहरे उत्तर दायित्वों से लदा हुआ कहा गया है। इसमें वरिष्ठ जनों को सहभागी बना कर हनुमान और अर्जुन जैसी भूमिका निभानी होगी। परोक्ष प्रक्रिया भगवान की होगी, पर उसका श्रेय तो इस संदर्भ में प्रबल पुरुषार्थ करने वालों को ही मिलेगा।
प्रयासों की तीन दिशा धाराएं हैं। (1) लोक मंगल के लिए जो प्रत्यक्ष उपाय अपनाए जा रहे हैं उनसे सहयोग करना। (2) विचार क्रान्ति को व्यापक बनाने की विशिष्ट भूमिका सम्पन्न करना। (3) सामूहिकता आध्यात्म साधना से सूक्ष्म वातावरण में संव्याप्त प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलना। प्रथम सोपान को राजतंत्र, अर्थतंत्र, एवं स्वयं सेवी संस्थान पूरा कर रहे हैं। तो भी उसमें यथा शक्ति सहयोग प्रज्ञा परिजनों को भी देना चाहिए।
शेष दो उपेक्षित कार्य ऐसे हैं जो युग शिल्पियों को विशेष रूप से अपने कंधे पर उठाना है। ‘जन मानस का परिष्कार’ सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन एक ऐसा महत्वपूर्ण कार्य है, जिसके सहारे उस दुर्बुद्धि से लोहा लिया जाना है, जो क्षमताओं को दुरुपयोग करने, नारकीय परिस्थितियां उत्पन्न करने के लिए प्रधान रूप से उत्तरदायी है। इसके लिए लेखनी, वाणी और सद्भाव सम्पन्नों के संगठनों को सक्रिय किया जा रहा है। अब उसमें और भी अधिक गति देने की आवश्यकता पड़ेगी। शान्तिकुंज में युग सृजेताओं को एक बहुत बड़ी संख्या इन्हीं प्रयोजनों की पूर्ति के लिए संगठित ही जा रही है। एक एक महीने के और नौ नौ दिन के प्रशिक्षण सत्र इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए किए जा रहे हैं। युग साहित्य का सृजन और युग चेतना का आलोक वितरण करने वाले सत्संग आयोजनों का उद्देश्य यही है। दीप यज्ञों की श्रृंखला इसी लिए व्यापक बनाई जा रही है कि युग चेतना से लोक मानस को आन्दोलित किया जा सके और जिनको प्राण चेतना जीवन्त हैं, उन्हें इस विषम वेला में कुछ पुरुषार्थ करने के लिए कटिबद्ध किया जा सके।
इसके अतिरिक्त तीसरा पक्ष हैं सूक्ष्म जगत के परिशोधन एवं भविष्य को उज्ज्वल बनाने हेतु दिव्य उपासना। मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण संभव बनाने के लिए सामूहिक महा साधना का नियोजन। यह दिव्य पुरश्चरण सन्निकट की आश्विन नव रात्रि से शान्ति कुंज से आरम्भ किया गया है। नाम है ‘युग संधि महापुरश्चरण’ शान्तिकुंज हरिद्वार में यह पुण्य आयोजन सन् 2000 तक चलता रहेगा। इक्कीसवीं सदी के आरम्भ के साथ ही इसकी पूर्णाहुति जिसकी तुलना अब तक के किसी विशालतम समापन से भी न की जा सके। इस संकल्प के अन्तर्गत आयोजन केन्द्र में नौ दिवसीय गायत्री अनुष्ठानों की श्रृंखला अन्त तक अनवरत रूप से जारी रहेगी।
पाण्डव वनवास में बारह वर्ष साधना रत रहे। राम ने चौदह वर्षों में से बारह वर्ष तप प्रयोजन में और दो वर्ष असुर संहार में लगाए। पार्वती का, भागीरथ का, दधीच का, च्यवन का, तप भी बारह वर्ष का रहा। बुद्ध अपने में दैवी शक्ति का अवतरण करने हेतु बारह वर्ष तक तप में रहे। शंकराचार्य और चाणक्य भी प्रायः इतने ही दिन साधनारत रहे। विश्वामित्र, वशिष्ठ, अत्रि, अगस्त, नारद आदि ऋषियों ने प्रचण्ड तप की अवधि भी प्रायः इतनी ही रही। युग संधि के उभयपक्षीय प्रयोजन भी बारह वर्ष की नर देवों इतनी लम्बी साधना से ही पूर्ण होंगे।
द्रोपदी ने लाज जाते समय और गज ने भवसागर में डूबते समय भगवान को ही पुकारा था। इन दिनों युग चेतना भी इसी स्थिति में हैं और यही कर रही है। शिव और शेषनाग का तप ही उन्हें शक्ति पुंज बना सकने में समर्थ हुआ था। युग संधि पुरश्चरण में भी उसी विद्या को अपनाया जा रहा है।
प्रस्तुत साधना का केन्द्र शान्तिकुंज बन रहा है। यहां बारह वर्ष नौ दिवसीय गायत्री अनुष्ठानों की श्रृंखला चलती रहेगी। जिनको उपासना की गरिमा पर विश्वास है उन सभी का आह्वान किया गया है कि इस अवधि में एक अनुष्ठान यहीं सम्पन्न करें और विराट सामूहिक जप यज्ञ के भागीदार बनने का श्रेय प्राप्त करें। आशा की जाती है कि निर्धारित अवधि में लाखों व्यक्ति इसके सहगामी बन सकेंगे। उद्देश्य तो युग परिवर्तन के दोनों पक्षों को सम्पन्न कर सकने वाला दिव्य वातावरण बनाना है। पर साथ ही यह बात भी है कि दूसरों के लिए मेंहदी पीसने वाले के अपने हाथ उससे पहले ही रच जाते हैं। साधक अपने लिए सुरक्षा कवच प्राप्त करने में प्रतीक परिष्कार से लाभान्वित होने में सफल हो सकते हैं। यदि उनकी निष्ठा बीच में ही न डगमगा गई तो लक्ष्य तक पहुंचने के लिए अनवरत प्रयत्न करने वालों को सेनापतियों जैसा श्रेय मिलेगा।
प्रस्तुत युग साधना में अन्य क्रिया-कलाप तो साधारण अनुष्ठानों की भांति ही रहेंगे। पर एक बात विशिष्ठ रहेगी ‘‘सूर्योपस्थान’’ भगवान सूर्य की निकटता। उन्हें ही इस महान् प्रक्रिया का अधिष्ठाता वरण किया गया है। इसलिए जप गायत्री का पूजन गायत्री का करते हुए भी प्रातःकाल उदय होते हुए स्वर्णिम आभा वाले सविता देव का ध्यान करते रहना होगा। ध्यान ही नहीं प्राण प्रत्यावर्तन का भाव समर्पण भी। साधक का प्राण सविता में प्रवेश करके वैसा ही लाल हो जाता है जैसा भट्ठी में कुछ समय पड़ा रहने के उपरान्त सोना लाल हो जाता है। ईंधन को आग में डालने पर भी यही होता है। यह समर्पण हुआ। दूसरा भाग है सविता का साधक की सत्ता में अवतरण। जिस प्रकार किरणें धरती पर उतरती हैं और प्रभाव क्षेत्र में ऊर्जा एवं आभा से भर देती है। उसी प्रकार साधक भी अनुभव करेगा कि सविता का ओजस, तेजस, वर्चस बरसता है और उपासनारत को अपने दिव्य अनुग्रह से ओत-प्रोत कर देता है।
गहरी सांस लेते हुए सूर्य के अवतरण की और धीरे धीरे सांस छोड़ते हुए सूर्यार्घ्य दान की तरह सविता को आत्म समर्पण करने की भावना करते रहना चाहिए।
इक्कीसवीं सदी में सूर्य तेजस के भी अनुकूल परिवर्तन होगा और उसका प्रभाव समस्त वातावरण पर पड़ेगा। प्राणियों में भी क्षमता और चेतना विकसित होगी। ईंधन का विद्युत का, रोग नियन्त्रण का, समुद्र से पानी लाकर मेघ बरसाने, वायु संशोधन का काम तो सूर्य अभी भी करता है। सड़ी हुई दुर्गन्ध को मिटाने और विषाणुओं को हनन करने में उसके चमत्कार निरन्तर देखे जाते हैं। शरीरों में विटामिन ‘‘डी’’ का उत्पादन स्रोत वही है। अगले दिनों उसी प्रखरता चेतना क्षेत्र को भी अपने प्रभाव में लेगी। गिरों को उठाने और उठों को उछालने में जहां मानवी प्रयत्न काम करेंगे वहां उसे सफल संभव बनाने में सविता की अदृश्य भूमिका भी काम करेगी। आद्यशक्ति गायत्री का अधिष्ठाता भी तो सविता ही है। उसी का प्रतीक दीपक ज्योति को, अगरबत्ती के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है।
सूर्य योग के सम्बन्ध में सूर्य पुराण, सूर्य उपनिषद्, चाक्षुषी उपनिषदों आदि में बहुत कुछ कहा गया है। सावित्री और सविता का युग्म अपने समय की आवश्यकता भली प्रकार पूरी कर सकेगा, ऐसा विश्वास किया जाता है। निराकरण, उन्नयन के लिए जो भौतिक प्रयत्न चल रहे हैं उनमें से इस दिव्य साधना का समावेश हो जाने से लक्ष्य की पूर्ति में असाधारण योगदान मिलने की आशा है। इसी से पुरश्चरण में गायत्री मंत्र और सूर्योपस्थान का महत्व दिया गया है। दैनिक साधना की पूर्णाहुति सूर्यार्घ्यदान के रूप में होती रहेगी। अन्तिम पूर्णाहुति में भी उस महातेज की अभ्यर्थना होगी। ऐसी जिसे अभूतपूर्व कहा जा सके।
शान्तिकुंज को केन्द्र यहां के परम्परागत विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है। गंगा की गोद, हिमालय की छाया, सप्त ऋषियों का तपस्थान, जैसी पुरातन और नित्य गायत्री जप, यज्ञ व गुरुकुल, आरण्यक जैसी विशेषताओं के कारण वह एक प्रकार से असाधारण विशेषताओं से सम्पन्न हो चला है। घर गृहस्थी के वातावरण की अपेक्षा ऐसे दिव्य केन्द्र में रहकर साधना करने में कितनी अधिक विशेषता हो सकती है उसका अनुमान कोई भी लगा सकता है। सभी इच्छुकों को अवसर मिल सके इस दृष्टि से नौ दिवसीय साधना सत्र बारह वर्ष तक चलते रहने का संकल्प प्रकट किया गया है। अन्तरिक्ष का विभाजन बारह राशियों में हुआ है। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करते हुए ठीक अपनी उसी स्थिति में बारह वर्ष में आती है। इस तथ्य को देखते हुए प्रस्तुत पुरश्चरण की अवधि बारह वर्ष रखी गयी है।
युग सन्धि पुरश्चरण शान्तिकुंज में उद्भूत अवश्य हुआ है। पर उसका विस्तार उद्गम तक ही सीमित न रहकर विश्वव्यापी बनेगा। कम से कम प्रज्ञा परिवार के तो सभी लोग उसमें भाग लेंगे ही। जो घर से बाहर नहीं जा सकते, अत्यधिक व्यस्त या प्रतिबंधित हैं वे अवकाश के किसी भी समय कम से कम दस मिनट मानसिक रूप से गायत्री का जप और ध्यान कर सकते हैं। मन में ही सूर्यार्घ्य देने की भावना की जा सकती है और शान्तिकुंज पहुंच कर मन ही मन उस उद्गम की परिक्रमा लगाने की भी।
जहां प्रज्ञा पीठें बनी हैं, जहां प्रज्ञा मण्डल या महिला मण्डल बनें हों, गायत्री परिवार जीवन्त हैं, वहां भी महा पुरश्चरण की एक इकाई अपने यहां प्रतिष्ठित करनी चाहिए। हर रोज बन पड़ना कठिन रहे तो सप्ताह में एक दिन इसके लिए निश्चित किया जा सकता है, रविवार- यह सूर्य का दिन भी है। उस दिन किसी स्थिर स्थान में अथवा बारी-बारी आमंत्रित करने वाले सदस्यों के घरों में यह आयोजन रखा जा सकता है। समय प्रातः काल का रखना ही ठीक पड़ता है।
सामूहिक गायत्री पाठ। दीप यज्ञ का प्रज्ज्वलन। पांच दीपक एक माचिस, अगरबत्ती दो थालियों में सूर्य प्रतीक के रूप में स्थापन। आधा घंटा मानसिक जप ध्यान, युग संगीत का सहगान कीर्तन, ‘‘यन्मण्डलम्’’ स्तोत्रों में सविता का स्तवन। इसके बाद झोला पुस्तकालय उपक्रम में सभी उपस्थित जनों को भागीदार बनाना। जिनके जितनों, जितनों से सम्बन्ध हो वे उतनी पुस्तकें पढ़ाने के लिए मण्डल से ले जायें और अगले सप्ताह जब आवें तो अधिकाधिक शिक्षितों को पढ़ाने और अशिक्षितों को सुनाने के उपरान्त, जिसमें दिव्य अवतरण तो प्रधान है ही, पर साथ में जन मानस को परिष्कृत करने वाले ज्ञान यज्ञ का भी समावेश है। युग संगीत और युग साहित्य द्वारा आलोक वितरण यह दोनों कार्य इसी स्तर के हैं। जिनके माध्यम से विचार क्रान्ति अभियान का भी विस्तार होता है।
‘‘पांच से पच्चीस’’ बनने का प्रेरणा मंत्र किसी को भी भूलना नहीं चाहिए। इसी आधार पर तो अपना सीमित परिवार विश्व व्यापी बनेगा। साप्ताहिक आयोजनों में सम्मिलित होने वाले इस प्रयत्न में रहें कि अगले सप्ताह अपने प्रभाव क्षेत्र से अधिक से अधिक लोगों को लेकर चलें। उनकी निष्ठा बढ़ें तो वे भी पांच नये खोज निकालें और आयोजन के साथ जोड़ें। इसी प्रयास के अन्तर्गत प्रज्ञा मण्डलों और महिला मंडलों का गठन एवं विस्तार होता चलेगा। संघ शक्ति बनकर अगले दिनों कंधे पर आने वाले उत्तरदायित्वों का वहन कर सकेंगे।
यहां भी युग पुरश्चरण की उपरोक्त सामूहिक साधना का उपक्रम चले वहां से नए सम्मिलित होने वाले श्रद्धालुओं को एक बार एक अनुष्ठान शान्तिकुंज में जाकर पूरा करने के लिए कहा जाय। लौटने पर वे पूरा उत्साह लेकर लौटेंगे और बारह वर्ष तक सम्मिलित होते रहने के व्रत का निर्वाह करेंगे। यह लोग मिल कर स्थानीय आयोजन को तो सुव्यवस्थित बनाए ही रहेंगे, समीपवर्ती क्षेत्रों में भी विस्तार करेंगे। एक ही बड़े नगर में ऐसे छोटे-छोटे कई मण्डल बन सकते हैं।
आयोजनों का खर्च चलाने के लिए सम्मिलित होने वाले साधकों के यहां बीस पैसे नित्य जमा करने के लिए ज्ञानघट स्थापित किए जायें। उसी संग्रहीत राशि से साप्ताहिक आयोजन का खर्च चलता रहेगा। इस आपूर्ति की जिम्मेदारी साधकों को ही मिल जुल कर उठानी चाहिए। बड़े खर्च वाली आवश्यकताओं के लिए ही बाहर के लोगों के अनुदान स्वीकार किये जायें।
प्रचार उपकरणों के लिए लाउडस्पीकर, टैप रिकॉर्डर स्लाइड प्रोजेक्टर आदि की आवश्यकता पड़ती है। इसमें लगभग दो हजार खर्च होते हैं। दीप यज्ञायोजनों एवं ज्ञान रथ की स्थापना के लिए भी कुछ अतिरिक्त धन की आवश्यकता पड़ती है। इन सब के लिए जन सहयोग लिया जा सकता है। जो एकत्र हो और किस प्रकार खर्च किया गया, उसका विवरण दान देने वालों को देते रहने से किसी को उंगली उठाने का अवसर नहीं मिलता।
युग संधि पुरश्चरण के आरम्भिक वर्ष में युग चेतना का उदय दृष्टिगोचर कराने वाले आदर्श वाक्यों के स्टीकर घर-घर चिपकाने का आन्दोलन पूरे उत्साह के साथ चलाया जाना चाहिए। कोई दुकान, कोई घर, कोई दफ्तर- कारखाना, कोई वाहन ऐसा न बचे जहां आदर्श वाक्यों का अंकन दृष्टिगोचर न हो। देखने वालों को लगता है कि घर-घर में स्थान-स्थान पर युग चेतना की छवि उभरने लगी है। नव युग की चेतना उभरने का परिचय स्टीकरों के माध्यम से मिले तो जन-जन को लगे कि आदर्शवादिता जड़ जमाने लगी। पतन या उत्थान के लिए प्रेरणाएं दृश्य वातावरण से बनती हैं। इसके लिए अति सस्ते और सरल उपाय स्टीकर योजना को अधिकाधिक व्यापक बनाना है। इन्हें मुफ्त न बांटा जाय, लागत मूल्य पर दिया जाय। यह प्रयास भी प्रकारान्तर से युग संधि के अवसर पर किये जाने वाले पुरश्चरण, जन मानस के परिष्कार एवं सदुद्देश्य के लिए सत्पुरुषों को उल्लसित एवं संगठित करने का ही एक अंग है।
गायत्री परिवार में जिनकी भी श्रद्धा है, वे उपरोक्त क्रिया-कलाप को दिव्य साधना का प्रारम्भिक चरण मानें और उसे भावना पूर्वक अपनाये। इतना कर लेने वाले उस अग्रगामी भूमिका को निभा सकेंगे जिसके आधार पर महाविनाश को रोकने और महाविकास के सतयुगी वातावरण का नव निर्माण संभव हो सके। बड़े कार्यों को बड़ी शक्तियां सम्पन्न करती हैं। उच्चस्तरीय बड़प्पन का सम्पादन करने के लिए राजमार्ग बनाना ही प्रस्तुत युग संधि का महा पुरश्चरण का प्रमुख उद्देश्य है। इसमें सच्चे स्वार्थ और सच्चे परमार्थ का समन्वय है।
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