Tuesday 07, January 2025
शुक्ल पक्ष अष्टमी, पौष 2025
पंचांग 07/01/2025 • January 07, 2025
पौष शुक्ल पक्ष अष्टमी, पिंगल संवत्सर विक्रम संवत 2081, शक संवत 1946 (क्रोधी संवत्सर), पौष | अष्टमी तिथि 04:27 PM तक उपरांत नवमी | नक्षत्र रेवती 05:50 PM तक उपरांत अश्विनी | शिव योग 11:15 PM तक, उसके बाद सिद्ध योग | करण बव 04:27 PM तक, बाद बालव 03:27 AM तक, बाद कौलव |
जनवरी 07 मंगलवार को राहु 02:56 PM से 04:12 PM तक है | 05:50 PM तक चन्द्रमा मीन उपरांत मेष राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 7:18 AM सूर्यास्त 5:28 PM चन्द्रोदय 12:00 PM चन्द्रास्त 1:20 AM अयन दक्षिणायन द्रिक ऋतु शिशिर
V. Ayana उत्तरायण
- विक्रम संवत - 2081, पिंगल
- शक सम्वत - 1946, क्रोधी
- पूर्णिमांत - पौष
- अमांत - पौष
तिथि
- शुक्ल पक्ष अष्टमी - Jan 06 06:23 PM – Jan 07 04:27 PM
- शुक्ल पक्ष नवमी - Jan 07 04:27 PM – Jan 08 02:26 PM
नक्षत्र
- रेवती - Jan 06 07:06 PM – Jan 07 05:50 PM
- अश्विनी - Jan 07 05:50 PM – Jan 08 04:29 PM
सर्वनाश से पूर्व ही मनुष्य संभल जाता है। इतिहास के पृष्ठों पर इसके अगणित प्रमाण विद्यमान है। इस बार भी ऐसा ही होना है। अणुयुद्ध, प्रदूषण, प्रजनन, विस्फोट, पूँजी का एकत्रीकरण, अपराधों का अभिवर्धन, प्रमाद और विलास का विस्तार जैसी अनेकों समस्याऐं औद्योगिक क्रान्ति की देन है। इसे इस रूप में नहीं चलना है जैसे अब तक चलती रही है। कटु अनुभव को बार-बार दुहराते नहीं रहा जा सकता।
अगले दिनों महान परिवर्तन की प्रक्रिया प्रचण्ड होगी। उसे दैवी निर्धारण, साँस्कृतिक पुनरुत्थान, विचार क्रान्ति आदि भी कहा जा सकता है, पर वह होगी वस्तुतः समाजक्रान्ति ही। समाज, जन समुदाय को एक सूत्र में बाँधे रहने वाली व्यवस्था को कहते हैं। यह व्यवस्था बदलेगी तो प्रचलन और स्वभावों में समान रूप से एक साथ परिवर्तन प्रस्तुत होंगे।
व्यक्ति सादगी सीखेगा। सरल बनेगा और सन्तोषी रहेगा। श्रमशीलता गौरवास्पद बनेगी। हिल−मिलकर रहने की सहकारिता और मिल बाँटकर खाने की उदारता बदले हुए स्वभाव की विशेषता होगी। महत्त्वाकाँक्षाएँ उद्विग्न न करेंगी। उद्धत प्रदर्शन का अहंकार तब बड़प्पन का नहीं पिछड़ेपन का चिन्ह समझा जायेगा। विलासी और संग्रही भी अपराधियों की पंक्ति में खड़े किये जायेंगे और उन्हें सराहा नहीं दबाया जाएगा। कुटिलता अपनाने की गुंजाइश जागृत एवं परिवर्तित समाज में रहेगी ही नहीं। छद्म आवरणों को उघाड़ने में ऐसा ही उत्साह उभरेगा जैसा कि इन दिनों विनोद मंचों के निमित्त पाया जाता है।
इन दिनों अधिक कमाने, अधिक उड़ाने और ठाट-बाट दिखाने की जिस दुष्प्रवृत्ति का बोलबाला है उसे भविष्य में अमान्य ही नहीं, हेय भी ठहरा दिया जायेगा। थोड़े में निर्वाह होने से कम समय में उपार्जन के साधन जुट जायेंगे। बचा हुआ समय तब आलस्य-प्रमाद में नहीं वरन् सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन में लगा करेगा। सार्वजनिक सुव्यवस्था और मानवी गरिमा को बढ़ाने वाले तब ऐसे अनेकानेक कार्य सामने होंगे जिनमें व्यस्त रहते हुए व्यक्ति हर घड़ी प्रसन्नता, प्रगति और सुसम्पन्नता का अनुभव करता रहें।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1984 पृष्ठ 59
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करते रहे नित पुण्य हम, बचते रहे हर पाप से,
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गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन
आज का सद्चिंतन (बोर्ड)
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नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन
!! आज के दिव्य दर्शन 07 January 2025 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!
!! परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी का अमृत सन्देश !!
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
कुटुंब की महत्ता आप में से हर एक को समझनी चाहिए। हर एक को उसका प्रयोग इस तरीके से करने चाहिए कि आदमी के व्यक्तित्वों का विकास हो, जिसमें आप भी शामिल हैं और आपके घर के हर सदस्य शामिल हैं। जिनको आप प्यार करते हैं; जिनको आप अपना मानते हैं। अपना मानते हैं तो उनके व्यक्तित्व के विकास में मदद कीजिए। धन बढ़ाने में धन बढ़ाएँ कि न बढ़ाएँ, मैं इस पर आपसे बहस नहीं करता। धन की आवश्यकता है कि नहीं, मैं बहस नहीं करता। धन कितना चाहिए और कितना नहीं चाहिए, ये तय करना आपका और दूसरों का काम है, हमारा नहीं। हम तो सिर्फ एक बात कहना चाहते हैं कि व्यक्तित्व अगर आपको विकसित करना है तो आपको एक कुटुंब के बीच में परिवार के बीच मेंरहना चाहिए, चाहे वो आपका बनाया हुआ हो; आपके पिता जी का बनाया हुआ हो; भाइयों का बनाया हुआ हो; पड़ोसियों का बनाया हुआ हो। बहरहाल किसी-न-किसी के कुटुंब के सदस्य होकरके रहना चाहिए। अलग रहने की बात अकेला जिंदगी जीने की बात अक्कड़ रहने की बात समाज से विरत रहने की बात परिवार से दूर रहने की बात आपको नहीं सोचनी चाहिए।
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड-ज्योति से
आज हम सब जिस स्थिति में चल रहे है, उसमें जीवन निर्माण की सरल आध्यात्मिक साधना ही सम्भव है। इस स्तर से शुरू किए बिना काम भी तो नहीं चल सकता। बाह्य जीवन को यथास्थिति में छोड़कर आत्मिक स्तर पर पहुँच सकना भी तो सम्भव नहीं है। अस्तु हमें उस अध्यात्म को लेकर ही चलना होगा, जिसे जीवन जीने की कला कहा गया है। जीवन विषयक अध्यात्म हमारे गुण, कर्म, स्वभाव से सम्बन्धित है। हमें चाहिये कि हम अपने में गुणों की वृद्धि करते रहे। ब्रह्मचर्य, सच्चरित्रता, सदाचार, मर्यादा-पालन और अपनी सीमा में अनुशासित रहना आदि ऐसे गुण हैं, जो जीवन जीने की कला के नियम माने गये हैं।
व्यसन, अव्यवस्था, अस्तव्यस्तता व आलस्य अथवा प्रमाद जीवनकाल के विरोधी दुर्गुण है। इनका त्याग करने से जीवनकाल को बल प्राप्त होता है। हमारे कर्म भी गुणों के अनुसार ही होने चाहिये। गुण और कर्म में परस्पर विरोध रहने से जीवन में न शांति का आगमन होता है और न प्रगतिशीलता का समावेश। हममें सत्य-निष्ठा का गुण तो हो पर उसे कर्मों में मूर्तिमान् करने का साहस न हो तो कर्म तो जीवन कला के प्रतिकूल होते ही है, वह गुण भी मिथ्या हो जाता है। तथापि असम्भव भी नहीं है।
एक समय था, जब भारतवर्ष में अध्यात्म की इस साधना पद्धति का पर्याप्त प्रचलन रहा। देश का ऋषि वर्ग उसी समय की देन है। जो-जो पुरुषार्थी इस सूक्ष्म साधना को पूरा करते गये, वे ऋषियों की श्रेणी में आते गये। यद्यपि आज इस साधना के सर्वथा उपयुक्त न तो साधन है और न समय, तथापि वह परम्परा पूरी तरह से उठ नहीं गई है। अब भी यदाकदा, यत्र-तत्र इस साधना के सिद्ध पुरुष देखे सुने जाते है। किन्तु इनकी संख्या बहुत विरल है।
वैसे योग का स्वांग दिखा कर और सिद्धों का वेश बनाकर पैसा कमाने वाले रगें सियार तो बहुत देखे जाते है। किन्तु उच्च स्तरीय अध्यात्म विद्या की पूर्वोक्त वैज्ञानिक पद्धति से सिद्धि की दिशा में अग्रसर होने वाले सच्चे योगी नहीं के बराबर ही है। जिन्होंने साहसिक तपस्या के बल पर आत्मा की सूक्ष्म शक्तियों को जागृत कर प्रयोग योग्य बना लिया होता है, वे संसार के मोह जाल से दूर प्रायः अप्रत्यक्ष ही रहा करते है। शीघ्र किसी को प्राप्त नहीं होते और पुण्य अथवा सौभाग्य से जिसको मिल जाते है, उसका जीवन उनके दर्शनमात्र से ही धन्य हो जाता है।
इतनी बड़ी तपस्या को छोटी-मोटी साधना अथवा थोड़े से कर्मकाण्ड द्वारा पूरी कर लेने की आशा करने वाले बाल-बुद्धि के व्यक्ति ही माने जायेंगे। यह उच्च स्तरीय आध्यात्मिक साधना शीघ्र पूरी नहीं की जा सकती। स्तर के अनुरूप ही पर्याप्त समय, धैर्य, पुरुषार्थ एवं शक्ति की आवश्यकता होती है। इस आवश्यकता की पूर्ति धीरे धीरे अपने बाह्य जीवन के परिष्कार से प्रारम्भ होती है। बाह्य की उपेक्षा कर सहसा है, जिसमें सफलता की आशा नहीं की जा सकती।
.... क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1969 पृष्ठ 9
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