Thursday 24, April 2025
कृष्ण पक्ष एकादशी, बैशाख 2025
पंचांग 24/04/2025 • April 24, 2025
बैशाख कृष्ण पक्ष एकादशी, कालयुक्त संवत्सर विक्रम संवत 2082, शक संवत 1947 (विश्वावसु संवत्सर), चैत्र | एकादशी तिथि 02:32 PM तक उपरांत द्वादशी | नक्षत्र शतभिषा 10:49 AM तक उपरांत पूर्वभाद्रपदा | ब्रह्म योग 03:55 PM तक, उसके बाद इन्द्र योग | करण बालव 02:32 PM तक, बाद कौलव 01:13 AM तक, बाद तैतिल |
अप्रैल 24 गुरुवार को राहु 01:53 PM से 03:30 PM तक है | 03:25 AM तक चन्द्रमा कुंभ उपरांत मीन राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 5:45 AM सूर्यास्त 6:45 PM चन्द्रोदय 3:18 AM चन्द्रास्त 3:04 PM अयन उत्तरायण द्रिक ऋतु ग्रीष्म
- विक्रम संवत - 2082, कालयुक्त
- शक सम्वत - 1947, विश्वावसु
- पूर्णिमांत - बैशाख
- अमांत - चैत्र
तिथि
- कृष्ण पक्ष एकादशी
- Apr 23 04:43 PM – Apr 24 02:32 PM
- कृष्ण पक्ष द्वादशी
- Apr 24 02:32 PM – Apr 25 11:45 AM
नक्षत्र
- शतभिषा - Apr 23 12:07 PM – Apr 24 10:49 AM
- पूर्वभाद्रपदा - Apr 24 10:49 AM – Apr 25 08:53 AM

नर नारी परस्पर आगे बढ़े | Nar Nari Parspar Aage Badhe

आत्मनिरीक्षण और उसकी महत्ता, Aatmanirikshan Aur Uski Mahatta

गृहस्थ जीवन की सफलता | Grhsath Jivan Ki Safalta | पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

!! मेलबर्न में सम्पन्न हुआ बाल संस्कारशाला समागम !!

!! मेलबर्न में “जीवन: अभिशाप या वरदान” विषय पर भव्य सेमिनार एवं दीपमहायज्ञ संपन्न हुआ !!

!! मेलबर्न में कार्यकर्ता गोष्ठी एवं दीक्षा संस्कार का समापन !!

गुरुदेव का जीवन | Gurudev Ka Jeevan | Dr Chinmay Pandya, Rishi Chintan

ब्रह्मलोक कहीं बाहर नहीं भीतर है | Bhramalok Khi Bahar Nhi Bhitar Hai
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन












आज का सद्चिंतन (बोर्ड)




आज का सद्वाक्य




नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन

!! परम पूज्य गुरुदेव का कक्ष गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार 24 April 2025 !!

चरित्र निर्माण का महत्व | Chraitra Nirman Ka Mehtav

!! अखण्ड दीपक #Akhand_Deepak (1926 से प्रज्ज्वलित) चरण पादुका गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार 24 April 2025 !!

!! शांतिकुंज दर्शन 24 April 2025 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
युग निर्माण का आंदोलन भावनात्मक नवनिर्माण है। भावना की पूंजी दुनिया में सबसे बड़ी पूंजी है। भावना की शक्ति दुनिया में सबसे बड़ी शक्ति है। और भावनाओं की शक्तियों की पूंजी को आगे बढ़ाने के लिए हमको वो आदमी की आवश्यकता है, जिनके पास वह संपदा स्वयं हो। जले हुए दीपक ही तो दूसरों को जला सकते हैं। जो दीपक स्वयं बुझे हुए हैं, वह किस तरीके से दूसरों को जलाएंगे? साफ पानी से ही तो कीचड़ धोई जा सकती है। अगर साफ पानी न हो, और हमारे पास मैला-कुचैला पानी हो, कीचड़ हो, तो कीचड़ से कीचड़ कौन धोए? अंधा अंधे को रास्ता कैसे दिखाएगा?
हम लोगों को आशावान होना चाहिए, स्वच्छ होना चाहिए, प्रकाशवान होना चाहिए, भावना संपन्न होना चाहिए, चरित्रवान होना चाहिए, उच्च दृष्टिकोण का होना चाहिए। यह काम जब तक हम नहीं करेंगे, तब तक हमारी आवश्यकताएं पूरी न हो सकेंगी। आंदोलन रोज खड़े होते हैं, रोज समाप्त हो जाते हैं। आंदोलन, यज्ञ रोज होते हैं, रोज बंद हो सकते हैं। लेकिन वह बात जो कभी बंद नहीं हो सकती, वह यह है कि मनुष्य के भीतर से उसकी आंतरिक निष्ठा की सुगंधि।
यदि पहले तो हम चंदन के पेड़ की तरह जहां कहीं भी रहें, वही-वही सुगंधि के वृक्ष पैदा करते रहें। दीपक की तरह अगर हम प्रकाशवान हों, तो हमारे आसपास स्वयं प्रकाश पैदा होता रहे। सबसे बड़ा काम युग निर्माण का जो करना है, वह हमारा आत्म निर्माण है, व्यक्ति निर्माण है। हम श्रेष्ठ बनेंगे, पवित्र बनेंगे, चरित्रवान बनेंगे, भावना संपन्न बनेंगे, उदात्त बनेंगे — उतने ही हमारे क्रियाकलापों में तेजी आएगी।
संभव है, इस तरह का उच्च चरित्र, प्रवृत्ति कोई बहुत बड़ा आंदोलन न कर सके। संभव है, कोई बहुत बड़े आयोजन न कर सके। संभव है, कोई बहुत बड़े दिखाई पड़ने वाले काम आपके द्वारा संपन्न न हों। लेकिन इतना होते हुए भी जो काम कर सकता है, वह यह कर सकता है कि अपने चरित्र को ऐसा बना ले जैसे कि दीपक। अपने चरित्र को ऐसा बना ले जैसे कि चंदन का पेड़।
चंदन का पेड़ कहीं जाता है क्या? चंदन का पेड़ कहीं कुछ करता है क्या? लेकिन असंख्य सांप और बिच्छू उसके पास आते हैं, अपना ज़हर खो-खो देते हैं और उसमें चिपक लेते हैं। चंदन किसी को उपदेश देने जाता है क्या? लेकिन असंख्य झाड़ियां उसकी जैसे सुगंधित बन जाती हैं। दीपक कहां-कहां फिरता रहता है? कहीं फिरता नहीं है, लेकिन इतना होते हुए भी वह अपने प्रकाश से सभी को प्रकाशवान बना देता है।
यह हमारी मूलभूत आवश्यकता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि हमको रचनात्मक कार्यों में योगदान नहीं देना चाहिए। इसका अर्थ यह नहीं है कि हमको झोला पुस्तकालय चलाने से उपेक्षा करनी चाहिए। इसका मतलब यह नहीं है कि ज्ञान यज्ञ के प्रति हमारी निष्ठा न हो। हमको चरित्रवान बनना चाहिए और अपनी भावनाओं को उच्चस्तरीय बनाना चाहिए। अपनी भावना को उच्चस्तरीय रख करके, अपने आप को चरित्रवान बना करके, फिर हम थोड़ा भी काम करेंगे तो उसका बहुत फल होगा।
अखण्ड-ज्योति से
मानवी सत्ता शरीर और आत्मा का सम्मिश्रण है। शरीर प्रकृति पदार्थ है। उसका निर्वाह स्वास्थ्य, सौन्दर्य, अन्न-जल जैसे प्रकृति पदार्थों पर निर्भर है। आत्मा चेतन है। परमात्मा चेतना का भाण्डागार है। आत्मा और परमात्मा की जितनी निकटता, घनिष्टïता होगी, उतना ही अंतराल समर्थ होगा। व्यक्तित्व विकसित-परिष्कृत होगा। शरीरगत प्रखरता और चेतना क्षेत्र की पवित्रता जिस अनुपात में बढ़ती है, उतना ही आत्मा और परमात्मा के बीच आदान-प्रदान चल पड़ता है। महानता के अभिवर्धन का यही मार्ग है। इसी निर्धारण पर सच्ची प्रगति एवं समृद्धि अवलम्बित है।
दो तालाबों के बीच नाली का सम्पर्क-संबंध बना देने से ऊँचे तालाब का पानी नीचे तब तक आता रहता है, जब तक कि दोनों की सतह समान नहीं हो जाती। आत्मा और परमात्मा को आपस में जोडऩे वाली उपासना यदि सच्ची हो, तो उसका प्रतिफल सुनिश्चित रूप से यह होना चाहिए कि जीव और ब्रह्मï में गुण, कर्म, स्वभाव की समता दृष्टिïगोचर होने लगे। उपासना निकटता को कहते हैं। आग और ईंधन निकट आते हैं, तो दोनों एक रूप हो जाते हैं। इसके लिए साधक को साध्य के प्रति समर्पण करना होता है। उसके अनुशासन को जीवन नीति बनाना पड़ता है। जो इतना साहस और सद्भाव जुटा सके, वह सच्चा भक्त। भक्त और भगवान् की एकता प्रसिद्ध है। भक्त को अपनी आकांक्षा, विचारणा, आदत एवं कार्य पद्धति में अधिकाधिक उत्कृष्टïता का समावेश करना होता है। आदर्शों का समुच्चय भगवान ही, भक्त का इष्ट एवं उपास्य है।
भगवान् की प्रतिमाओं के पीछे उच्चस्तरीय चिंतन-चरित्र की भावना है। वह भावना न हो, तो प्रतिमाएँ खिलौना भर रह जाती हैं। सदाशयता के प्रति प्रगाढ़ आस्था बनाने में जिसका अंतराल जितना सफल हुआ, वह उसी स्तर का भगवत् भक्त है। भक्त का गुण, कर्म, स्वभाव ईश्वर के सहचर पार्षदों जैसा होना चाहिए। जिस ईश्वर भक्ति के प्रतिफलों का वर्णन स्वर्ग, मुक्ति, ऋद्धि-सिद्धि आदि के रूप में किया गया है, उसमें एकत्व अद्वैत, विलय, विसर्जन की शर्त है। साधक भगवान् को आत्मसात्ï करता है और उसके निर्धारण, अनुशासन में अपनाने को ही गर्व-गौरव और हर्ष-संतोष अनुभव करता है।
शब्द जंजाल से फुसलाने, छुटपुट उपहार देकर बरगलाने और स्वार्थ सिद्धि के लिए बहेलिये, मछुवारे जैसे छद्म प्रदर्शनों की विडम्बना रचना न तो ईश्वर भक्ति है और न उसके बदले किसी बड़े सत्परिणाम की आशा की जानी चाहिए। ईश्वर न्यायकारी है। उसके दरबार में पात्रता की कसौटी पर हर खरे खोटे को परखा जाता है। प्रामाणिकता ही अधिक अनुग्रह एवं अनुदान का कारण होती है। यह कार्य प्रार्थना, याचना के रूप में पूजा-अर्चा मात्र करते रहने से शक्य नहीं। ईश्वर भक्ति, कर्मकाण्ड प्रधान नहीं। उसमें भावना, विचारणा और गतिविधियों को अधिकाधिक उत्कृष्ट बनाना होता है। उसकी उपेक्षा करके मनुहार तक सीमित व्यक्ति आत्मिक उपलब्धियों से वंचित ही रहते हैं। उनके पल्ले थकान, निराशा और खीझ के अतिरिक्त और कुछ नहीं पड़ता।
जन्म-जन्मान्तरों से संचित कुसंस्कारों को हठपूर्वक निरस्त करना पड़ता है। अपने आपे से, अभ्यस्त ढर्रे से संघर्ष करने का नाम तपश्चर्या है। यह आत्मिक प्रगति का प्रथम चरण है। दूसरा है योग साधना। इसका अर्थ है दैवी विशिष्टïताओं के साथ व्यक्तित्व को जोड़ देना। गुण, कर्म, स्वभाव में चिंतन और चरित्र में उत्कृष्टïता, आदर्शवादिता का समावेश करना। आत्मशोधन और आत्म परिष्कार की इस उभयपक्षीय प्रक्रिया को गलाई, ढलाई, धुलाई, रंगाई भी कहते हैं। इन्हीं को पवित्रता-प्रखरता का युग्म भी कहते हैं। सज्जनता और साहसिकता का समन्वय ही आत्मिक प्रगति का सच्चा स्वरूप है। इस प्रगति के साथ भौतिक क्षेत्र के जंजाल, प्रपंच स्वभावत: घटने लगते हैं और सादा जीवन, उच्च विचार अक्षरश: चरितार्थ होने लगते हैं।
अन्न, जल, वायु पर शरीर की स्थिरता एवं प्रगति निर्भर है। आत्मा की प्रगति के लिए उपासना, साधना एवं आराधना के तीन आधार चाहिए। उपासना अर्थात् ईश्वर की इच्छा को प्रमुखता, उसके अनुशासन के प्रति अटूट श्रद्धा, घनिष्ठïता के लिए निर्धारित उपासना प्रक्रिया में भावभरी नियमितता। साधना अर्थात्ï जीवन साधना। संचित कुसंस्कारों एवं अवांछनीय आदतों-मान्यताओं का उन्मूलन। आराधना अर्थात्ï लोकमंगल की सत्प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनाने में उदार सहयोग, श्रमदान, अंशदान। यह तीनों ही प्रयास साथ-साथ चलने चाहिए। इनमें से एक भी ऐसा नहीं जो अपने आप में पूर्ण हो। इसमें से एक भी ऐसा नहीं, जिसे छोडक़र प्रगति पथ पर आगे बढऩा संभव हो सके।
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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