Tuesday 20, May 2025
कृष्ण पक्ष सप्तमी, जेष्ठ 2025
पंचांग 20/05/2025 • May 20, 2025
ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष सप्तमी, कालयुक्त संवत्सर विक्रम संवत 2082, शक संवत 1947 (विश्वावसु संवत्सर), बैशाख | सप्तमी तिथि 05:52 AM तक उपरांत अष्टमी तिथि 04:55 AM तक उपरांत नवमी | नक्षत्र धनिष्ठा 07:32 PM तक उपरांत शतभिषा | इन्द्र योग 02:50 AM तक, उसके बाद वैधृति योग | करण बव 05:52 AM तक, बाद बालव 05:28 PM तक, बाद कौलव 04:55 AM तक, बाद तैतिल |
मई 20 मंगलवार को राहु 03:38 PM से 05:20 PM तक है | 07:35 AM तक चन्द्रमा मकर उपरांत कुंभ राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 5:25 AM सूर्यास्त 7:02 PM चन्द्रोदय 12:43 AM चन्द्रास्त 12:50 PM अयन उत्तरायण द्रिक ऋतु ग्रीष्म
- विक्रम संवत - 2082, कालयुक्त
- शक सम्वत - 1947, विश्वावसु
- पूर्णिमांत - ज्येष्ठ
- अमांत - बैशाख
तिथि
- कृष्ण पक्ष सप्तमी
- May 19 06:11 AM – May 20 05:52 AM
- कृष्ण पक्ष अष्टमी [ क्षय तिथि ]
- May 20 05:52 AM – May 21 04:55 AM
- कृष्ण पक्ष नवमी
- May 21 04:55 AM – May 22 03:22 AM
नक्षत्र
- धनिष्ठा - May 19 07:29 PM – May 20 07:32 PM
- शतभिषा - May 20 07:32 PM – May 21 06:58 PM

बनाने की सोचिए, बिगाड़ने की नहीं | Banane Ki Sochiye Bigadane Ki Nahi

"धन का दुष्परिणाम : सेठ अमीचंद"

जीवन में आगे कैसे बढ़े ? | आतंरिक दुर्बलताओं से लड़ पड़िए भाग-3 | सफल जीवन की दिशा धारा

आज की सामस्या और समाधान | Aaj Ki Samasya Aur Samadhan | Pujay Gurudev Pt Shriram Sharma Acharya

अखिल विश्व गायत्री परिवार के युवा प्रतिनिधि आदरणीय डॉ. चिन्मय पंड्या जी के मार्गदर्शन में यू.के. में दिव्य ज्योति कलश यात्रा का शुभारंभ लेस्टर से हुआ। इस अवसर पर भावपूर्ण वातावरण में परिजनों की गरिमामयी उपस्थिति रही। .......

विचार ही नहीं कार्य भी कीजिए, Vichar Hi Nhi Karya Bhi Kijiye

जीवन में एक लक्ष्य पर केन्द्रित रहना जरुरी हैं | Jivan Mei Ek lakshay Par Kendrit Rehna Zaruri Hai

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गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन






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नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन

!! शांतिकुंज दर्शन 20 May 2025 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!

अमृतवाणी: ब्रह्मविद्या किसे कहते हैं | पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
ब्रह्मविद्या किसे कहते हैं? ब्रह्मविद्या, बेटे, कहते हैं साइंस ऑफ सोल — यानी जीवात्मा की साइंस। हमारी आंखें बाहर की ओर देखती हैं। भगवान ने हमारे साथ क्या मखौल किया है, क्या दिल्लगी की है! सुराख तो दे दिए, लेकिन सभी इंद्रियाँ बाहर की ओर लगी हुई हैं। आंखें तो हमारी हैं, बहुत अच्छी हैं, लेकिन ये सिर्फ बाहर देखती हैं। भीतर क्या चल रहा है, इसका कुछ पता नहीं चलता। पेट में क्या है, कीड़े तो नहीं बैठे हैं — हमको क्या मालूम? डॉक्टर को बुलाना पड़ता है। क्यों? आपकी आंखें तो हैं! बाहर मक्खी देख सकते हैं, चींटी देख सकते हैं, पर पेट में नहीं देख सकते। यह एक मखौल है, एक दिल्लगीबाज़ी है जो भगवान ने की है। हमारी हर इंद्रिय बाहर की ओर झुकी हुई है। हमारी जीभ भी बाहर के स्वाद खोजती है, लेकिन यह नहीं बता पाती कि जायके आखिर आते कहां से हैं। बताइए, जायके कहां से आते हैं? कहीं से नहीं आते, जायके जीभ से ही निकलते हैं। किसी पदार्थ में कोई स्वाद नहीं होता। नीम की पत्ती हमें कड़वी लगती है और ऊँट को मीठी। तो असल में नीम की पत्ती कैसी है? इसका उत्तर कोई नहीं दे सकता। नीम का पत्ता जब हमारी जीभ के स्लाइवा से मिल जाता है, तो दिमाग कहता है यह कड़वा है। और ऊँट के मुंह का स्लाइवा जब उसे छूता है, तो उसका दिमाग कहता है यह तो मीठा है। तो असल में कुछ भी नहीं है — केवल मिट्टी है, अनुभव है, संवेदना है, हमारी चेतना है। हमारी सहानुभूतियाँ और संवेदनाएँ ही तय करती हैं कि हमें क्या अच्छा और क्या बुरा लगना चाहिए। असली स्वाद पदार्थों में नहीं, हमारी चेतना में है। हमारी समृद्धियाँ भी बाहर नहीं, भीतर हैं। हम जिसे अपनी मान लेते हैं, वह सचमुच हमारी हो जाती है। जिसे दान मान लेते हैं, वह पराई हो जाती है। चीज तो वहीं की वहीं रहती है, पर भाव बदल जाता है। हम सोचते हैं कि अब यह हमारी नहीं रही, इसका मोह नहीं है, घमंड नहीं है, अधिकार नहीं है। जमीन वहीं की वहीं खड़ी है, पर जब हमने उसे बेच दिया तो वह हमारी नहीं रही। संपत्ति कहां से होती है? हमारा तन — इसी तन के माध्यम से जिसे हम अपना मान लेते हैं, वह हमारी हो जाती है।
अखण्ड-ज्योति से
आत्म-मैत्री का भाव स्थापित करने के लिये मनुष्य को पुनः शिक्षा की आवश्यकता होती है। पहले तो अपनी महानता का भाव छोड़ना पड़ता है। समाज में बड़े कहे जाने की इच्छा सरलता से नष्ट नहीं होती। बहुत से व्यक्ति बड़े ही विनीत और नम्र बनते हैं। वे अपने आपको सब की पदधूल कहते हैं। ऐसे व्यक्ति बड़े अभिमानी होते हैं और उनका नम्र बनने का दिखावा ढोंग मात्र होता है। दूसरे को इस प्रकार अपने वश में किया जाता है और उसके ऊपर अपना प्रभुत्व स्थापित किया जाता है। सच्चे मन से महत्वाकाँक्षा का त्याग वही करता है जो सब प्रकार की असाधारणता अपने जीवन से निकाल डालता है।
जो व्यक्ति अपने आपको सामान्य व्यक्ति मानने लगता है वह नैतिकता में नीचे दिखाई देने वाले व्यक्तियों के प्रति सहानुभूति का भाव रखता है। वह उनकी भूलों को क्षम्य समझता है। वह जब बाहरी जगत् में प्रकाशित अनेक भावों को क्षम्य मानने लगता है तो वह अपने दलित भावों को भी उदार दृष्टि से देखने लगता है। दूसरों के दोषों से घृणा का भाव हट जाने से अपने दोषों से भी घृणा का भाव हट जाता है। फिर उसके मन के भीतर के दलित भाव चेतना के समक्ष आने लगते हैं, और जैसे-जैसे उसका बाहरी जगत से साम्य स्थापित होता जाता है, उसके आन्तरिक मन से भी साम्य स्थापित हो जाता है। वह अपने भीतरी मन से मित्रता स्थापित करने में समर्थ होता है।
आंतरिक समता अथवा एकत्व और बाह्य समता एक दूसरे के सापेक्ष हैं, मनुष्य अपने आपको सुधार कर अपना समाज से सम्बन्ध सुधार सकता है और समाज से सम्बन्ध सुधारने से अपने आप से सम्बन्ध सुधार सकता है। वास्तव में वाह्य और आन्तरिक जगत एक ही पदार्थ के दो रूप हैं। मन और संसार एक दूसरे के सापेक्ष हैं। जैसा मनुष्य का मन होता है उसका संसार भी वैसा ही होता है।
हमारी नादानी ही हमें अपना तथा संसार का शत्रु बनाती है और विचार की कुशलता दोनों प्रकार की कहानियों का अन्त कर देती है।
अखण्ड ज्योति फरवरी 1956 पृष्ठ 12
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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