Friday 09, May 2025
शुक्ल पक्ष द्वादशी, बैशाख 2025
पंचांग 09/05/2025 • May 09, 2025
बैशाख शुक्ल पक्ष द्वादशी, कालयुक्त संवत्सर विक्रम संवत 2082, शक संवत 1947 (विश्वावसु संवत्सर), बैशाख | द्वादशी तिथि 02:56 PM तक उपरांत त्रयोदशी | नक्षत्र हस्त 12:09 AM तक उपरांत चित्रा | वज्र योग 02:57 AM तक, उसके बाद सिद्धि योग | करण बालव 02:56 PM तक, बाद कौलव 04:13 AM तक, बाद तैतिल |
मई 09 शुक्रवार को राहु 10:33 AM से 12:13 PM तक है | चन्द्रमा कन्या राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 5:32 AM सूर्यास्त 6:55 PM चन्द्रोदय 4:11 PM चन्द्रास्त 3:51 AM अयन उत्तरायण द्रिक ऋतु ग्रीष्म
- विक्रम संवत - 2082, कालयुक्त
- शक सम्वत - 1947, विश्वावसु
- पूर्णिमांत - बैशाख
- अमांत - बैशाख
तिथि
- शुक्ल पक्ष द्वादशी
- May 08 12:29 PM – May 09 02:56 PM
- शुक्ल पक्ष त्रयोदशी
- May 09 02:56 PM – May 10 05:30 PM
नक्षत्र
- हस्त - May 08 09:06 PM – May 10 12:09 AM
- चित्रा - May 10 12:09 AM – May 11 03:15 AM

अमृतवाणी:- गायत्री मंत्र की व्याख्या भाग 4 | गायत्री मंत्र श्रद्धा का सशक्त रूप

योग किसे कहते हें ? Yog Kise Kehte Hai
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन







आज का सद्चिंतन (बोर्ड)




आज का सद्वाक्य




नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन

!! शांतिकुंज दर्शन 09 May 2025 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!

अमृत सन्देश:भावना किसे कहते हैं | गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
भावना उमंग को कहते हैं। भावना किसे कहते हैं? उमंग को कहते हैं। कौन सी उमंग? जो किए बिना चैन नहीं लेते। जो किए बिना चैन नहीं लेते, वो कल्पना जो दिमाग में आती रहे: हम संत बनेंगे, हम महात्मा बनेंगे, हम ज्ञानी बनेंगे, हम ब्रह्मचारी बनेंगे।
"जपो हे प्रभु, आनंद दाता, ज्ञान हमको दीजिए, इसी के सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए।" वो भाई, एक या दो दुर्गुण छोड़ना तो नहीं है। अरे महाराज जी, मैं तो वैसी ही गीत गाया करता हूँ। एक-दो दुर्गुण छोड़ेगा नहीं, महाराज जी। छोड़ने-छोड़ने के चक्कर में नहीं, मैं तो गीत गाता रहता हूँ। पर गीत से क्या बनेगा? अभागे मित्रों, क्या करना चाहिए?
विचारों के साथ-साथ में हमारे अंदर भावना का समावेश हो। भावना का अर्थ ये है: इसके अंदर तड़पन पैदा हो, ऐसी उमंग पैदा हो कि हम इसके बिना रह नहीं सकते। जो चिंतन आप करें, दीपक की तरह जिएंगे। आत्म-संशोधन हम करेंगे। जल हम देंगे। नैवेद्य हम देंगे। इस तरह के जो भी विचार हों, यह पहले क्रिया है। क्रिया के साथ-साथ में विचारों का समन्वय करें।
दो विचारों के समन्वय के पश्चात जब विचार आपके जमने लगें, क्रिया और विचारों का समन्वय करने लगें, तो आप यह कोशिश कीजिए: उसके साथ में यह भाव। भाव माने उमंग। उमंग। उमंग। यह भी करेंगे, बस यही करेंगे। यही करेंगे।
श्रेष्ठता से असीम प्यार, श्रद्धा जिसे हम कहते हैं। श्रेष्ठता से असीम प्यार, श्रेष्ठता को असीम अर्थात् इससे ज्यादा कोई प्यारी चीज नहीं। श्रेष्ठता से असीम, और उससे ज्यादा कोई प्यारा नहीं है। हमें भगवान से ज्यादा और कोई प्यारा नहीं है। श्रेष्ठता से ज्यादा कोई प्यारा नहीं है।
सबसे ज्यादा प्यारा है सबको। हम नाराज कर सकते हैं, पर इसको नाराज नहीं करेंगे। यह उमंग जब बीमारी भीतर से पैदा हो, तो हमारे जीवन में क्रिया किस अस्तर की आ जाए? कर्मकांड, कर्मकांड के साथ-साथ में जुड़े हुए विचार। विचारों के साथ भावनाएं, भावनाओं से हमारा ओतप्रोत रस, विभोर प्राण से सराबोर जीवन।
और जीवन के परिणाम फिर देखिए। फिर आप देखिए: आप संत बनते हैं कि नहीं? फिर देखिए: आप ऋषि बनते हैं कि नहीं? फिर देखिए: आप भगवान का अनुग्रह पाते हैं कि नहीं? फिर देखिए: भगवान की कृपा प्राप्त होती है कि नहीं?
सब चीजें आपको प्राप्त होती चली जाती हैं। शर्त यह है: अपने आपको, अपने जीवन को, अपने विचारों को, अपने चिंतन को, अपने लक्ष्य को, अपने आदर्श को इस लायक बनाने की कोशिश करें जैसे कि संत को होने चाहिए।
अखण्ड-ज्योति से
शरीर रोगी होने से देह दुख पाती है; मन रोगी होने पर हमारा अन्तःकरण नरक की आग में झुलसता रहता है। कई व्यक्ति देह से तो निरोग दीखते हैं पर भीतर ही भीतर इतने अशान्त और उद्विग्न रहते हैं कि उनका कष्ट रोगग्रस्तों से भी कहीं अधिक दिखाई पड़ता है। ईर्ष्या द्वेष, क्रोध, प्रतिशोध की आग में जो लोग जलते रहते हैं उन्हें आग से जलने पर छाले पड़े हुए रोगी की अपेक्षा अधिक अशान्ति और उद्विग्नता रहती है।
घाटा, अपमान, भय, आशंका, चिन्ता, शोक, असफलता, निराशा आदि कारणों से खिन्न बने हुए मन में इतनी गहरी व्यथा होती है कि उससे छूटने के लिए कई तो आत्म-हत्या तक कर बैठते हैं और कइयों से उसी उद्वेग में ऐसे कुकृत्य बन पड़ते हैं जिनके लिए उन्हें जीवन भर पश्चात्ताप करना पड़ता है। ओछी तबियत के कुछ आदमी हर किसी को बुरा समझने, हर किसी में बुराई ढूँढ़ने के आदी होते हैं, उन्हें बुराई के अतिरिक्त और कुछ कहीं भी-दीख नहीं पड़ता। ऐसे लोगों को यह दुनिया काली डरावनी रात की तरह और हर आदमी प्रेत-पिशाच की तरह भयंकर आकृति धारण किये चलता-फिरता नजर आता है। इस प्रकार की मनोभूमि के लोगों की दयनीय दशा का अनुमान लगाने में भी व्यथा होती है।
क्रूर, निर्दयी, अहंकारी, उद्दंड, दस्यु, तस्कर, ढीठ, अशिष्ट, गुंडा प्रकृति के लोगों के शिर पर एक प्रकार का शैतान हर घड़ी चढ़ा रहता है। नशे में मदहोश उन्मत्त की तरह उनकी वाणी, क्रिया एवं चेष्टाएँ होती हैं। कुछ भी आततायीपन वे कर गुजर सकते हैं। तिल को ताड़ समझ सकते हैं, खटका मात्र सुनकर क्रुद्ध विषधर सर्प की तरह वे किसी पर भी हमला कर सकते हैं। ऐसी पैशाचिक मनोभूमि के लोगों के भीतर श्मशान जैसी प्रतिहिंसा और दर्प की आग जलती हुई प्रत्यक्ष देखी जा सकती है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1962
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