Monday 05, May 2025
शुक्ल पक्ष अष्टमी, बैशाख 2025
पंचांग 05/05/2025 • May 05, 2025
बैशाख शुक्ल पक्ष अष्टमी, कालयुक्त संवत्सर विक्रम संवत 2082, शक संवत 1947 (विश्वावसु संवत्सर), बैशाख | अष्टमी तिथि 07:36 AM तक उपरांत नवमी | नक्षत्र आश्लेषा 02:01 PM तक उपरांत मघा | वृद्धि योग 12:19 AM तक, उसके बाद ध्रुव योग | करण बव 07:36 AM तक, बाद बालव 08:02 PM तक, बाद कौलव |
मई 05 सोमवार को राहु 07:15 AM से 08:54 AM तक है | 02:01 PM तक चन्द्रमा कर्क उपरांत सिंह राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 5:35 AM सूर्यास्त 6:52 PM चन्द्रोदय 12:32 PM चन्द्रास्त 2:06 AM अयन उत्तरायण द्रिक ऋतु ग्रीष्म
- विक्रम संवत - 2082, कालयुक्त
- शक सम्वत - 1947, विश्वावसु
- पूर्णिमांत - बैशाख
- अमांत - बैशाख
तिथि
- शुक्ल पक्ष अष्टमी
- May 04 07:19 AM – May 05 07:36 AM
- शुक्ल पक्ष नवमी
- May 05 07:36 AM – May 06 08:38 AM
नक्षत्र
- आश्लेषा - May 04 12:53 PM – May 05 02:01 PM
- मघा - May 05 02:01 PM – May 06 03:51 PM

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गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन







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आज का सद्वाक्य




नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन

!! शांतिकुंज दर्शन 04 May 2025 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!

!! परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी का अमृत सन्देश !!
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
आप लोगों को गायत्री उपासना करते समय प्रारंभिक अगर आप उपासक हों तो आपको गायत्री माता का ध्यान करना चाहिए। ध्यान करना चाहिए माता सद्बुद्धि रूपी माता, सद्विवेक रूपी माता, श्रद्धा रूपी माता, करुणा रूपी माता, प्रेम रूपी माता। अपना अमृत सा दूध हमको पीला देती है। दूध को पी करके हमारी नसें और हमारी नाड़ियाँ शुद्ध परक होती चली जाती हैं। हम स्नेह से भर रहे हैं, करुणा से भर रहे हैं, भावना से भर रहे हैं, स्नेह से भर रहे हैं, कोमलता से भर रहे हैं। हमारा जो स्थूल मन है, इसके अंदर कोमलता पैदा होनी चाहिए, सरसता पैदा होनी चाहिए, सौम्यता तो हममें पैदा होनी चाहिए। प्रारंभिक हमारी जो आवश्यकता है, सौम्यता की, करुणा की है। हमारा तो मन सब जगह से निष्ठुरता से भरा हुआ पड़ा है। जब इसमें ज्यादातर आ जाए, श्रद्धा आ जाए, तो हम ये कहने के अधिकारी हैं कि भगवान हमको शक्ति दीजिए और शक्ति आपको आ गई। शक्ति अगर आपको आ गई, कब? जब तक आप शुद्ध पवित्र नहीं हुए, तो आपकी हानि हो जाएगी, आपका नुकसान हो जाएगा। दुर्वासा ऋषि ने अपने क्रोध का समापन नहीं किया था। जप, तप उपासना करने लगे, उनके क्रोध की वृद्धि हो गई। विश्वामित्र जब तक अपने आपको संशोधन करने की पूरी प्रक्रिया नहीं कर सके, तब तक, जब तक अपने भजन में लग गए। भजन में लगने का परिणाम ये हुआ, उनको कि उनकी काम वासना ज्यादा उत्तेजित हो गई। उत्तेजित होने के फलस्वरूप फिर क्या हुआ बेटे? उनके एक शकुंतला नाम की लड़की भी थी, तुझे मालूम है, जो कण्व ऋषि के आश्रम में पैदा हुई थी। विश्वामित्र जी के पास मेनका आई थी, उन्होंने जप करते करते ब्याह कर लिया। साहब जी ऐसा हो सकता है? हाँ साहब, ऐसा हो सकता है। ये शक्ति जो आती है, शक्ति को प्राप्त करने से पहले संशोधन की जरूरत है। संशोधन की जरूरत है। संशोधन अगर आप प्राप्त कर लें, तब तब आपको सविता का ध्यान करना चाहिए।
अखण्ड-ज्योति से
ध्यान भूमिका की साधना में शरीर को ढीला और मन को खाली रखना चाहिए। इसके लिए शिथिलीकरण मुद्रा तथा उन्मनी मुद्रा का अभ्यास करना पड़ता है। शिथिलीकरण का स्वरूप यह है कि देह को मृतक-निष्प्राण मूर्छित, निद्रित, निश्चेष्ट स्थिति में किसी आराम कुर्सी या किसी अन्य सहारे की वस्तु से टिका दिया जाय और ऐसा अनुभव किया जाय मानो शरीर प्रसुप्त स्थिति में पड़ा हुआ है। उसमें कोई हरकत हलचल नहीं हो रही है। यह मुद्रा शरीर को असाधारण विश्राम देती और तनाव दूर करती है। ध्यानयोग के लिए यही स्थिति सफलता का पथ प्रशस्त करती है।
मन मस्तिष्क को ढीला करने वाली उन्मनी मुद्रा यह है कि इस समस्त विश्व को पूर्णतया शून्य रिक्त अनुभव किया जाय। प्रलय के समय ऊपर नील आकाश, नीचे नील जल स्वयं अबोध बालक की तरह कमल पत्र पर पड़े हुए तैरना अपने पैर का अँगूठा अपने मुख से चूसना, इस प्रकार का प्रलय चित्र बाज़ार में भी बिकता है। मन को शान्त करने की दृष्टि से यह स्थिति बहुत ही उपयुक्त है संसार में कोई व्यक्ति, वस्तु , हलचल, समस्या, आवश्यकता है ही नहीं, सर्वत्र पूर्ण नीरवता ही भरी पड़ी है- यह मान्यता प्रगाढ़ होने पर मन के लिए भोगने, सोचने, चाहने का कोई पदार्थ या कारण रह ही नहीं जाता।
अबोध बालक के मन में कल्पनाओं की घुड़दौड़ की कोई गुँजाइश नहीं रहती। अपने पैर के अँगूठे में से निसृत अमृत का जब आप ही परमानन्द उपलब्ध हो रहा है तो बाहर कुछ ढूँढ़ने खोजने की आवश्यकता ही क्या रही? इस उन्मनी मुद्रा में आस्था पूर्वक यदि मन जमाया जाय तो उसके खाली एवं शान्त होने की कोई कठिनाई नहीं रहती। कहना न होगा कि शरीर को ढीला और मन को खाली करना ध्यानयोग के लिए नितान्त आवश्यक है। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि ध्यानयोग का चुम्बकत्व ही आत्मा और परमात्मा की प्रगाढ़ घनिष्ठता को विकसित करके द्वैत को अद्वैत बनाने में सफल होता है। आत्मा और परमात्मा का मिलन संयोग जितना गहरा होगा उतना ही परस्पर लय होने की-सम्भावना बढ़ेगी इस एकता के आधार पर ही बिन्दु को सिन्धु बनने का अवसर मिलता है। जीव के ब्रह्म बनने का अवसर ऐसे ही लय समर्पण पर एकात्म भाव पर निर्भर रहता है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति मार्च 1973 पृष्ठ 50
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