Saturday 16, November 2024
कृष्ण पक्ष प्रथमा, मार्गशीर्ष 2024
पंचांग 16/11/2024 • November 16, 2024
मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष प्रतिपदा, पिंगल संवत्सर विक्रम संवत 2081, शक संवत 1946 (क्रोधी संवत्सर), कार्तिक | प्रतिपदा तिथि 11:50 PM तक उपरांत द्वितीया | नक्षत्र कृत्तिका 07:28 PM तक उपरांत रोहिणी | परिघ योग 11:47 PM तक, उसके बाद शिव योग | करण बालव 01:22 PM तक, बाद कौलव 11:50 PM तक, बाद तैतिल |
नवम्बर 16 शनिवार को राहु 09:24 AM से 10:43 AM तक है | चन्द्रमा वृषभ राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 6:47 AM सूर्यास्त 5:16 PM चन्द्रोदय 5:31 PM चन्द्रास्त 8:17 AM अयन दक्षिणायन द्रिक ऋतु हेमंत
- विक्रम संवत - 2081, पिंगल
- शक सम्वत - 1946, क्रोधी
- पूर्णिमांत - मार्गशीर्ष
- अमांत - कार्तिक
तिथि
- कृष्ण पक्ष प्रतिपदा - Nov 16 02:58 AM – Nov 16 11:50 PM
- कृष्ण पक्ष द्वितीया - Nov 16 11:50 PM – Nov 17 09:06 PM
नक्षत्र
- कृत्तिका - Nov 15 09:55 PM – Nov 16 07:28 PM
- रोहिणी - Nov 16 07:28 PM – Nov 17 05:22 PM
सबसे सच्ची सिद्धि गुरूभक्ति |
हमारा दर्द हमारे साहित्य से जुड़ा है |
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन
आज का सद्चिंतन (बोर्ड)
आज का सद्वाक्य
नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन
!! आज के दिव्य दर्शन 16 November 2024 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!
!! परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी का अमृत सन्देश !!
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
गायत्री माता की मूर्ति प्रत्येक हिंदू के मस्तिष्क के ऊपर शिखा के रूप में चोटी के रूप में रखी गई है और ये झंडा है, ध्वज है, किसका है, विवेकशीलता का, ऋतंभरा प्रज्ञा का, मानवता का, द्विजता का ये झंडा है जो हमारे सर पर रखा हुआ है। यह क्या है बेटे प्रकारांतर से गायत्री मंत्र है।जो हर हिंदू के चोटी पे रखा जाता है और प्रत्येक हिंदू के कंधे पर गायत्री मंत्र रखा जाता है। त्रिपदा तीन धागे इसके अंदर हैं। 9 चरण, यज्ञोपवीत के अंदर 9 धागे हैं तीन गाँठें गायत्री की तीन व्याहृतियां हैं। एक बड़ी वाली गांठ गायत्री का ऊँ है। प्रत्येक हिंदू के ऊपर कंधे पर गायत्री मंत्र रखा जाएगा अगर वह विचारशील है तब। नहीं विचारशील है तो कम से कम चोटी तो रखानी पड़ेगी। चोटी गायत्री मंत्र है। हिंदू धर्म के साथ में गायत्री मंत्र ओतप्रोत है। हमारे सारे के सारे जो कुछ भी धर्म ग्रंथ हैं यह सारे के सारे उसी के व्याख्यान से बनाए गए हैं।
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड-ज्योति से
भागीरथी का पावन किनारा। तट पर प्रकृति के सुरम्य वातावरण में महर्षि प्रवर वशिष्ठ का निवास था। आचार्य अपनी सहधर्मिणी अरुन्धती देवी के साथ गृहस्थ जीवन की मर्यादाओं को निबाहते हुए तपश्चर्यारत थे। सूर्यवंशी राजाओं के पुरोहित- ज्ञान के अधिष्ठाता के रूप में उनकी ख्याति चहुँ ओर व्याप्त थी।
एक बार वशिष्ठजी के आश्रम में अपने क्रोधी स्वभाव के लिये प्रख्यात दुर्वासा ऋषि पधारे। ऋषिका देवी अरुन्धती ने उनके स्वागतार्थ अनेकों प्रकार के व्यंजन बनाए। सभी को रुचि पूर्वक खाते हुए वे समूचे आश्रम का स्वयं भोजन अकेले ही उदरस्थ कर गए, मानो ऋषि दम्पत्ति की परीक्षा ले रहे हों। इतना अधिक भी कोई खा सकता है, यह अरुन्धती ने पहली बार देखा था।
वर्षा तेजी से होने लगी। गुरुकुल और आश्रम के बीच पड़ने वाली छोटी सी, पर वर्षा में भयंकर रूप ले लेने वाली सरिता का सहज ही ऋषिका को ध्यान आ गया जो आगे चलकर भागीरथी में एकाकार हो जाती थी। गुरुकुल की व्यवस्था हेतु उन्हें तुरन्त लौटाना भी जरूरी था। ब्रह्मचारी भूखे बैठे होंगे, इस चिन्ता से वे खिन्न हो रही थीं।
महर्षि ने असमंजस को समझा और कहा- “भद्रे! चिन्ता न करो। जब तुम यहाँ से चलो तो नदी के तट पर पहुँचकर उससे अनुरोध करना- “निराहारी दुर्वासा को भोजन कराने का पुण्य फल यदि मैंने कमाया हो तो उसके सहारे मुझे मार्ग मिले और मैं पार जाऊँ।”
अरुन्धती मन में असमंजस लिए चलीं लेकिन पति द्वारा निर्देशित वचन कहते ही देखते-देखते प्रवाह रुक गया पानी घटा और अरुन्धती पार निकल गईं। उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि इतना अधिक खा जाने वाले दुर्वासा निराहारी कैसे रहे? नदी ने किस कारण इस मिथ्या कथन को सत्य माना।
असमंजस चलता ही रहा। दूसरे दिन फिर दुर्वासा को भोजन कराने अरुन्धती वशिष्ठ की पर्णकुटी पहुँची और भोजन बना। दुर्वासा आज स्वरूप भोजन में ही सन्तुष्ट हो गए। संयोगवश लौटते समय आज फिर कल जैसी ही घटना घटी। मूसलाधार वर्षा होने लगी। पहाड़ी नदी देखते ही देखते विशाल रूप लेते हुए इतराते हुए चलने लगी। पानी इतना था कि पार करना कठिन था। अभी तीन-चार पहर और पानी रुक सकेगा, इसकी सम्भावना कम ही थी।
आज फिर महर्षि प्रवर ने ऋषिका को समीप बुलाकर नया अनुरोध नदी से करने का परामर्श दिया। उन्होंने कहा- “भद्रे! आज नदी से कहना- यदि मैं बाल ब्रह्मचारी वशिष्ठ की पत्नी रही हूँ तो मुझे रास्ता मिले।” आज्ञा पाक ऋषि पत्नी चल पड़ीं, पर मन में एक ऊहापोह बराबर बना रहा कि यह कैसा अनुरोध व सरिता इसे कैसे स्वीकार करेगी?
पति के परामर्श के अनुसार उन्होंने पूरी श्रद्धा से इस कथन को दुहराया। नदी कल की तरह ही फिर रुक गयी। किंचित मात्र पानी में चलते-चलते वे सरलता पूर्वक पार हो गयीं। उनके पार होते ही नदी फिर उसी वेग से बहने लगी।
लेकिन उनका आज का असमंजस और भी बड़ा व जटिल था। वशिष्ठ सौ पुत्रों के पिता बन चुके। फिर वे ब्रह्मचारी, कैसे रहे? क्या यह कथन एक ऋषिका के मुँह से मिथ्या नहीं निकला?
अरुन्धती के इस असमंजस का समाधान करते हुए वशिष्ठ ने उन्हें कहा- “भद्रे! मनुष्य का मूल्याँकन उसकी मनःस्थिति के अनुरूप होता है। मात्र शरीर क्रियाओं के आधार पर किसी का स्तर, चिन्तन एवं चरित्र का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। प्रधानता भावना की है, क्रिया की नहीं। जो जल में रहकर भी उससे दूर है, जीवन व्यापार को निभाते हुए भी उसमें लिप्त नहीं है, उसका मूल्याँकन उसके अन्तरंग के अनुसार ही किया जा सकता है- बहिरंगीय क्रिया-कलापों के आधार पर नहीं।” ऋषिका का समाधान हुआ, एक नहीं दृष्टि मिली।
अखण्ड ज्योति, जुलाई 1983
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