Sunday 11, May 2025
शुक्ल पक्ष चतुर्दशी, बैशाख 2025
पंचांग 11/05/2025 • May 11, 2025
बैशाख शुक्ल पक्ष चतुर्दशी, कालयुक्त संवत्सर विक्रम संवत 2082, शक संवत 1947 (विश्वावसु संवत्सर), बैशाख | चतुर्दशी तिथि 08:02 PM तक उपरांत पूर्णिमा | नक्षत्र स्वाति | व्यातीपात योग 05:00 AM तक, उसके बाद वरीयान योग | करण गर 06:47 AM तक, बाद वणिज 08:02 PM तक, बाद विष्टि |
मई 11 रविवार को राहु 05:15 PM से 06:56 PM तक है | चन्द्रमा तुला राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 5:30 AM सूर्यास्त 6:56 PM चन्द्रोदय 5:59 PM चन्द्रास्त 4:49 AM अयन उत्तरायण द्रिक ऋतु ग्रीष्म
- विक्रम संवत - 2082, कालयुक्त
- शक सम्वत - 1947, विश्वावसु
- पूर्णिमांत - बैशाख
- अमांत - बैशाख
तिथि
- शुक्ल पक्ष चतुर्दशी
- May 10 05:30 PM – May 11 08:02 PM
- शुक्ल पक्ष पूर्णिमा
- May 11 08:02 PM – May 12 10:25 PM
नक्षत्र
- स्वाति - May 11 03:15 AM – May 12 06:17 AM

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अमृतवाणी: साहस से ही महानता की प्राप्ति |Sahas Se Hi Mahanta Ki Prapti | पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन












आज का सद्चिंतन (बोर्ड)




आज का सद्वाक्य




नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन

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अमृत सन्देश: उपासना और चमत्कारों के रहस्य क्या हैं गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
वो सारी की सिद्धियां और चमत्कार प्राचीन काल के लोगों के तरीके से आज भी सुरक्षित हैं। शर्त है, शर्त है, बिना शर्त नहीं मिल सकती। बिना शर्त के नहीं मिल सकती। बिना शर्त, बिना शर्त, हमको कलेक्टर बनवा दीजिए।
नहीं बेटे, बिना शर्त नहीं बनवा सकता। कलेक्टर बनने से पहले तुझे ग्रेजुएट होना चाहिए। ग्रेजुएट होने के साथ-साथ में आईसीएस पास करना चाहिए। तब बनवा दूंगा।
नहीं महाराज जी, पहले ही बनवा दीजिए। जैसे नहीं तो आप तो इंदिरा गांधी को बहुत जानते हैं, मोरार जी देसाई, आप मिलने वाली हैं। आप हमको तो कलेक्टर बनवा ही दीजिए।
पास भी है क्या? पास क्या हूं? पांचवी कक्षा तक पढ़ा हूं। कलेक्टर मैं कैसे बनवा दूंगा? आपकी तो जान-पहचान है।
ऐसे ही मारा तुक्का नहीं बेटे। तुक्का मारा जाता है, आदमी नहीं। भगवान जी के यहां तुक्का मारा ऐसे ही सब हो जायेगा नहीं बेटे।
ऐसे नहीं हो सकता। इसके लिए कुपात्रता का विकास करना चाहिए। सुपात्रता के विकास करने के लिए मेरे गुरु ने मुझसे दबाव डाला। तो मैंने अपनी पात्रता का विकास किया।
पात्रता का विकास जिसके अंदर होता हुआ चला गया, उसी तरह मुझे देवताओं का, भगवान का, ऋषियों का और अनुग्रह मिलता हुआ चला गया।
आपको भी मैं वही रास्ता दिखाऊंगा, जो पहले दिन मैंने आपको बताया था।
हमको गायत्री उपासना करते हुए जो चमत्कार और सिद्धियां मिलीं, उसके आधार पर रहस्य क्या थे, छिपाव क्या थे, वह मैं आपको छिपाव और रहस्य बता करके अपनी बात समाप्त करता हूं।
और यह आपका फिर कहता हूं कि उपासना से लाभ पाने के लिए अटूट श्रद्धा जरूरी है। श्रद्धा अर्थात भगवान के संदेश, भगवान के आदेशों पर चलने के लिए यह विश्वास।
जैसे मैंने आपको न्याना का एक शानदार किस्सा बताया था, जो तर्कों पर चला गया था, भगवान पर विश्वास था। भगवान के विश्वास के आधार पर श्रेष्ठ जीवन जीने के लिए, आदर्श जीवन जीने के लिए हम तैयार होते हैं।
अखण्ड-ज्योति से
मैं क्या हूँ? मैं कौन हूँ? मैं क्यों हूँ? इस छोटे से प्रश्न का सही समाधान न कर सकने के कारण ‘मैं’ को कितनी विषम विडम्बनाओं में उलझना पड़ता है और विभीषिकाओं में संत्रस्त होना पड़ता है, यदि यह समय रहते समझा जा सके तो हम वह न रहें, जो आज हैं। वह न सोचें जो आज सोचते हैं। वह न करें जो आज करते हैं।
हम कितने बुद्धिमान हैं कि धरती आकाश का चप्पा-चप्पा छान डाला और प्रकृति के रहस्यों को प्रत्यक्ष करके सामने रख दिया। इस बुद्धिमत्ता की जितनी प्रशंसा की जाय उतनी कम और अपने आपके बारे में जितनी उपेक्षा बरती गई उसकी जितनी निन्दा की जाय वह भी कम ही है।
जिस काया को शरीर समझा जाता है क्या यही मैं हूँ? क्या कष्ट, चोट, भूख, शीत, आतप आदि से पग-पग पर व्याकुल होने वाला अपनी सहायता के लिए बजाज दर्जी, किसान, रसोइया, चर्मकार, चिकित्सक आदि पर निर्भर रहने वाला ही मैं हूँ? दूसरों की सहायता के बिना जिसके लिए जीवन धारण कर सकना कठिन हो-जिसकी सारी हँसी-खुशी और प्रगति दूसरों की कृपा पर निर्भर हो, क्या वही असहाय, असमर्थ, मैं हूँ? मेरी आत्म निर्भरता क्या कुछ भी नहीं है? यदि शरीर ही मैं हूँ तो निस्सन्देह अपने को सर्वथा पराश्रित और दीन, दुर्बल ही माना जाना चाहिए।
परसों पैदा हुआ, खेल-कूद, पढ़ने-लिखने में बचपन चला गया। कल जवानी आई थी। नशीले उन्माद की तरह आँखों में, दिमाग में छाई रही। चञ्चलता और अतृप्ति से बेचैन बनाये रही। आज ढलती उम्र आ गई। शरीर ढलने गलने लगा। इन्द्रियाँ जवाब देने लगी। सत्ता, बेटे, पोतों के हाथ चली गई। लगता है एक उपेक्षित और निरर्थक जैसी अपनी स्थिति है। अगली कल यही काया जरा जीर्ण होने वाली है। आँखों में मोतियाबिन्द, कमर-घुटनों में दर्द, खाँसी, अनिद्रा जैसी व्याधियाँ, घायल गधे पर उड़ने वाले कौओं की तरह आक्रमण की तैयारी कर रही हैं।
अपाहिज और अपंग की तरह कटने वाली जिन्दगी कितनी भारी पड़ेगी। यह सोचने को जी नहीं चाहता वह डरावना और घिनौना दृश्य एक क्षण के लिए भी आँखों के सामने आ खड़ा होता है रोम-रोम काँपने लगता है? पर उस अवश्यंभावी भवितव्यता से बचा जाना सम्भव नहीं? जीवित रहना है तो इसी दुर्दशा ग्रस्त स्थिति में पिसना पड़ेगा। बच निकलने का कोई रास्ता नहीं। क्या यही मैं हूँ? क्या इसी निरर्थक विडम्बना के कोल्हू के चक्कर काटने के लिए ही ‘मैं’ जन्मा? क्या जीवन का यही स्वरूप है? मेरा अस्तित्व क्या इतना ही तुच्छ है?
.... क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति मार्च 1972 पृष्ठ 3
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