Sunday 17, November 2024
कृष्ण पक्ष द्वितीया, मार्गशीर्ष 2024
पंचांग 17/11/2024 • November 17, 2024
मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष द्वितीया, पिंगल संवत्सर विक्रम संवत 2081, शक संवत 1946 (क्रोधी संवत्सर), कार्तिक | द्वितीया तिथि 09:06 PM तक उपरांत तृतीया | नक्षत्र रोहिणी 05:22 PM तक उपरांत म्रृगशीर्षा | शिव योग 08:21 PM तक, उसके बाद सिद्ध योग | करण तैतिल 10:25 AM तक, बाद गर 09:06 PM तक, बाद वणिज |
नवम्बर 17 रविवार को राहु 03:57 PM से 05:15 PM तक है | 04:31 AM तक चन्द्रमा वृषभ उपरांत मिथुन राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 6:48 AM सूर्यास्त 5:16 PM चन्द्रोदय 6:25 PM चन्द्रास्त 9:25 AM अयन दक्षिणायन द्रिक ऋतु हेमंत
- विक्रम संवत - 2081, पिंगल
- शक सम्वत - 1946, क्रोधी
- पूर्णिमांत - मार्गशीर्ष
- अमांत - कार्तिक
तिथि
- कृष्ण पक्ष द्वितीया - Nov 16 11:50 PM – Nov 17 09:06 PM
- कृष्ण पक्ष तृतीया - Nov 17 09:06 PM – Nov 18 06:56 PM
नक्षत्र
- रोहिणी - Nov 16 07:28 PM – Nov 17 05:22 PM
- म्रृगशीर्षा - Nov 17 05:22 PM – Nov 18 03:49 PM
EP: 9 Second round of pilgrimage (Part 01)
संतोषामृत पिया करें |
अपने स्वभाव पर विजय प्राप्त करें |
श्रद्धा और विश्वास : भाग 1 |
अपने जीवन में सहिष्णुता का अभ्यास करें। कोई तीखे वचन भी कहे, तो भी अपने आपको सम्भालें, क्रोध को, उत्तेजना को शान्ति से शीतल कर दें। वासना की आँधियों को शान्ति से निकल जाने दें। यदि चरित्र में कोई व्यसन−मद्यपान सिगरेट अपव्यय की आदत−आ गई है तो उसे त्यागने में सहिष्णुता प्रदर्शित करें।
यह संसार कष्ट, अभाव, दुःख, खतरों, चोट, पीड़ा और रोग से मिल कर बना है। हममें से प्रत्येक को इन कड़वी चीजों का हिस्सा मिलना है। कायर डर कर इनसे भाग निकलते हैं, जबकि सहिष्णु साहस से इन पर विजय प्राप्त करते हैं। आप निश्चय ही सहिष्णु हैं। वीरता से कष्टों और अभावों से लड़ सकते हैं। मन में ऐसी धारणा शक्ति बढ़ाइए कि आप आसानी से अस्त व्यस्त न हो सकें। मानसिक सन्तुलन बना रहे।
जब आप मन में ठण्डक और चित्त को शान्त रखते हैं, तो विवेक सर्वोत्कृष्ट रूप में कार्य करता है। हमें नए नए उपयोगी विचार प्राप्त हो जाते हैं। जो जरा जरासी बात में उखड़ता या लड़ता झगड़ता रहता है, क्रोधित होकर मन को उत्तेजित करता है, वह एक प्रकार के पागलपन में पड़ा रहता है। ऐसे उत्तेजक स्वभाव पर विश्वास नहीं किया जा सकता।
सन्तोष वृत्ति मन को सन्तुलित रखने में सहायक दैवी वृत्ति है। लोभ के कारण प्रायः मन का सन्तुलन अस्थिर रहता है। लोभ हृदय में सुलगने वाली एक ऐसी अग्नि है जो मनुष्य का क्षय कर डालती है। लोभ को मारने की दवाई सन्तोषवृत्ति है। लोभ की अग्नि से दग्ध व्यक्ति संतोष गंगा में स्नान कर शीतलता का अनुभव करता है। मोक्ष प्राप्ति के चार उपाय हैं—शान्ति, सन्तोष, सत्संग और विचार। इनमें संतोष सबसे शक्तिशाली दैवी सम्पदा है। यदि किसी प्रकार सन्तोष वृत्ति को धारण करलें तो शान्ति, सत्संग और विचार स्वयं आ सकते हैं।
मन बड़ा चंचल होता है। एक इच्छा पूर्ण हुई तो दूसरी पर कूदता है, फिर तीसरी को पकड़ता है। यह चंचलता−अस्थिरता कम्पन संयम और संतोष से काबू में आ जाते हैं। राजयोग के अंतर्गत संतोष एक महत्वपूर्ण नियम है। सुकरात ने इसका वर्णन बड़े ऊंचे रूप में किया है। संतोष से मन की शान्ति एवं संतुलन स्थिर रहता है।
.... क्रमशः जारी
अखण्ड ज्योति, फरवरी 1955 पृष्ठ 13
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गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन
आज का सद्चिंतन (बोर्ड)
आज का सद्वाक्य
नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन
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!! परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी का अमृत सन्देश !!
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
वेद हमारी संस्कृति के मूलभूत आधार हैं। वेदों की व्याख्या अन्य ग्रंथों में हुई है। सब ग्रंथ उसी से बनते चले जा रहे हैं ब्राह्मण ग्रंथ बने हैं, आरण्यक बने हैं, और उपनिषदें बनी हैं, दर्शन बने हैं, स्मृतियां बनी हैं, पुराण बने हैं, सब उसी से बने हैं गायत्री मंत्र का ज्ञान वाला भाग और विज्ञान वाला भाग अंतरंग और बहिरंग वाला भाग किस तरीके से काम में लाया जा सकता है यह राम चरित्र और कृष्ण चरित्र के माध्यम से समझाया जाय। बाल्मीकि रामायण में 24000 श्लोक हैं और 1000 श्लोकों के बाद एक अक्षर का संपुट लगाकर के बाल्मीकि रामायण बनाई गई है और रामचरित्र जैसा भी कुछ है गायत्री मंत्र के आंतरिक जीवन का मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप का मर्यादाएं किस तरीके से पालन करनी चाहिए उसका सारे का सारा शिक्षण रामचरित्र के माध्यम से दिया गया है। अध्यात्म रामायण अपने लोगों में से पढ़ी होगी किसी ने। संस्कृत की पुस्तक है भीतर बताया है यह हमारे अध्यात्म ही भीतर ही हमारी रामा हैं भीतर ही हमारा भरत है भीतर ही हमारी कौशल्या हैं कौन-कौन हैं सब इसमें रूपक बना के दिखाया गया है। यह सारे का सारा आंतरिक जीवन का शिक्षण रामायण के माध्यम से बना है |
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड-ज्योति से
ऐसा भयंकर अकाल पहले कभी नहीं पड़ा था। समस्त अभयारण्यक ताप और भूख की ज्वाला में जल रहा था। राजकोष में जमा अन्न भण्डार भी समाप्त हो चला था। अन्न एवं पानी के एक साथ अभाव पड़ने से क्षुधार्थ लोग दम तोड़ रहे थे। राहत के सारे राजकीय उपाय-उपचार असफल सिद्ध हो रहे थे। सम्राट विडाल ने सभी मनीषियों, तत्त्वदर्शियों तथा ज्योतिर्विदों की गोष्ठी बुलायी। विचार विमर्श का क्रम चला। सर्वसम्मति से निश्चय हुआ कि भगवान इन्द्र को प्रसन्न करने के लिए विशाल यज्ञ का आयोजन किया जाय। तैयारियाँ आरम्भ हुईं।
सन्त शार्गंधर भी उसी प्रदेश में रहते थे। उनके दो पुत्र, पत्नी भी क्षुधा पिपासा के कारण प्राण त्याग चुके थे। असमय सगे सम्बन्धियों पुत्रों के बिछुड़ने का उन्हें जितना दुःख हुआ, उससे अधिक इस बात का था कि यदि उपाय न निकला तो प्रदेश की अधिकाँश जनता अकाल के कारण दम तोड़ देगी। इस आशंका से सन्त का हृदय द्रवित हो उठा।
भूख की ज्वाला में जल रहे लोगों के लिए अन्न का प्रबन्ध करना पहली और प्रमुख आवश्यकता थी। पड़ौसी राज्य से सहयोग पाने अन्न जुटाने के लिए वे चल पड़े। कौमीलिया नामक स्थान पर जाकर एक धनाढ्य के यहाँ नौकरी कर ली। ब्राह्मण सन्त की विद्वता तथा आचरण की पवित्रता से विशेष प्रभावित हुआ। वास्तविकता मालूम होते ही उसने सन्त को एक सहस्र मुद्राएं दीं। उन्हें लेकर वे स्वदेश लौटे किन्तु अभी सीमा पर ही पहुँच पाये थे कि देखा सैकड़ों व्यक्ति भीख माँग रहे हैं, भूख से पीड़ित हैं। सन्त की करुणा उमड़ी, एक सहस्र मुद्राएं उन्होंने भूखे लोगों को बाँट दी और फिर काम की खोज में लौट पड़े।
इस बार एक किसान के यहाँ नौकरी मिली। किसान उनकी परिश्रमशीलता से बहुत प्रभावित हुआ। प्रसन्न होकर उसने बहुत-सा अन्न तथा कुछ मुद्राएँ दीं। जैसे ही कमाई लेकर राज्य सीमा में प्रवेश किया, अनेकों नारियाँ अपने मरणासन्न अबोध बच्चों को लिए बिलख रही थीं। अपने बच्चों के मरण का दुःख वे भुगत चुके थे। स्मृति पटल पर वह याद अभी ताजी थी। बिना विलम्ब किये उन्होंने उस मुद्रा से वस्त्र खरीदे तथा उसे अन्न सहित स्त्रियों में बाँट दिया। पुनः वे वापस लौटे और एक चाण्डाल के यहाँ काम करना आरम्भ किया।
पूरे सप्ताह काम करने के बाद चाण्डाल ने उन्हें पाँच रोटियाँ दी। शार्गधर को इस बीच भूखे रहकर ही काम करना पड़ा। रोटियाँ लेकर अपने घर वापस चले। जैसे ही एक गाँव में पहुँचे, एक कारुणिक दृश्य दिखायी पड़ा। एक किसान के छः पुत्रों को कहीं से एक रोटी मिली थी। सभी भूखे थे। रोटी, एक दूसरे से छिनने के लिए झगड़ रहे थे। सन्त का हृदय हाहाकार कर उठा। एक रोटी के लिए ऐसी छीना-झपटी! दुर्दैव का यह कैसा प्रकोप? उन्होंने बच्चों को शान्त किया और अपनी पाँचों रोटियाँ बच्चों में बांट दीं। बच्चे शान्त हो गये। रोटियां खाने लगे। उनकी नम आंखें मूक रूप से सन्त के प्रति कृतज्ञता व्यक्त कर रही थीं।
यह दृश्य सभी दैव शक्तियाँ देख रही थीं। जैसे ही उन्होंने लड़कों के हाथ में रोटियाँ थमायीं उसी क्षण आकाश में तेज ध्वनि हुई, बिजली कड़की, देखते ही देखते घनघोर घटाएँ आकाश में घिर आयीं और मूसलाधार बारिश होने लगी। उसी दिन से अकाल का प्रकोप समाप्त हो गया। प्यासी धरती ने जी भर कर अपनी प्यास बुझायी। परितृप्ति होते ही उसके पेट से अंकुर फूटने लगे।
उधर सम्राट विडाल के यहाँ यज्ञ की सभी तैयारियाँ पूर्ण हो चुकी थीं। मंगल कलश स्थापित किये जा चुके थे। इन्द्र देवता का आह्वान आचार्यगण कर रहे थे। एकाएक वृष्टि आरम्भ हुई देखकर विद्वान गण आश्चर्यचकित रह गये। उन्होंने इन्द्रदेव की स्तुति की। वे प्रकट हुए। आचार्यगण ने सविनय पूछ- देवेश! इस अप्रत्याशित कृपा का कारण क्या है? न ऋचाएं बोली गयीं, न आहुतियाँ पड़ीं, न यज्ञ पूरा हुआ। पर इसके उपरान्त भी आपकी करुणा मेघ बनकर कैसे बरसने लगी?
देवेन्द्र मुस्कराये, बोले- तात! यज्ञ तो पूरा हो गया। अब आप किस यज्ञ की तैयारी कर रहे हैं। विद्वानों की सभा में खलबली मच गयी। सबके मुँह से एक ही प्रश्न निकला- किसने सम्पन्न किया यह यज्ञ?
इन्द्र ने सन्त की परदुःख का कारण बताते हुए कहा- मनीषियों! परमार्थ- सबसे बड़ा यज्ञ है। जहाँ यह यज्ञ सम्पन्न होता रहेगा, वहाँ अकाल की छाया टिक नहीं सकती सुख शान्ति एवं समृद्धि की वृद्धि ऐसे ही यज्ञ पर अवलंबित है।
अखण्ड ज्योति, जुलाई 1983
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