Thursday 01, May 2025
शुक्ल पक्ष चतुर्थी, बैशाख 2025
पंचांग 01/05/2025 • May 01, 2025
बैशाख शुक्ल पक्ष चतुर्थी, कालयुक्त संवत्सर विक्रम संवत 2082, शक संवत 1947 (विश्वावसु संवत्सर), बैशाख | चतुर्थी तिथि 11:23 AM तक उपरांत पंचमी | नक्षत्र म्रृगशीर्षा 02:20 PM तक उपरांत आद्रा | अतिगण्ड योग 08:34 AM तक, उसके बाद सुकर्मा योग | करण विष्टि 11:24 AM तक, बाद बव 10:14 PM तक, बाद बालव |
मई 01 गुरुवार को राहु 01:53 PM से 03:32 PM तक है | चन्द्रमा मिथुन राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 5:38 AM सूर्यास्त 6:50 PM चन्द्रोदय 8:15 AM चन्द्रास्त 11:17 PM अयन उत्तरायण द्रिक ऋतु ग्रीष्म
- विक्रम संवत - 2082, कालयुक्त
- शक सम्वत - 1947, विश्वावसु
- पूर्णिमांत - बैशाख
- अमांत - बैशाख
तिथि
- शुक्ल पक्ष चतुर्थी
- Apr 30 02:12 PM – May 01 11:23 AM
- शुक्ल पक्ष पंचमी
- May 01 11:23 AM – May 02 09:14 AM
नक्षत्र
- म्रृगशीर्षा - Apr 30 04:18 PM – May 01 02:20 PM
- आद्रा - May 01 02:20 PM – May 02 01:04 PM

अपना भाग्य अपने हाथों बनाइए | Apna Bhagya Apne Hathon Banaeiye

Apna Bhagya Apne Hathon Banaiye

प्रतिहिंसा का अन्त नहीं | Pratihinsa Ka Ant Nhi | पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य

आदर्श का चुनाव | Adrash Ka Chunav

पत्नी का सदैव सम्मान कीजिए | Patni Ka Sadaiva Samman Kijiye

ज्ञान और बल दोनों का समन्वय होना जरुरी हैं | Gyan Aur Bal Dono Ka Samanvay Hona Jaruri Hai

उद्विग्न मत होइए | Udvign Mat Hoiye | Pt Shriram Sharma Acharya
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन












आज का सद्चिंतन (बोर्ड)




आज का सद्वाक्य




नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन

!! शांतिकुंज दर्शन 01 may 2025 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!

!! अखण्ड दीपक Akhand Deepak (1926 से प्रज्ज्वलित) एवं चरण पादुका गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार 01 may 2025 !!

!! परम पूज्य गुरुदेव का कक्ष 01 may 2025 गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!

!! परम पूज्य गुरुदेव का कक्ष 01 may 2025 गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!

!! परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी का अमृत सन्देश !! (पूजा के स्थान पर शुद्धता क्यों महत्वपूर्ण है )
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
दीपक जलाने से हमारी जिंदगी दीपक की तरीके से जलने वाली हो, तो भगवान हमारे प्रसन्न हों, भगवान हमारे नजदीक आयें, भगवान का अनुग्रह हमारे पास हो, और जो फल देवपूजन के लिखे हुए हैं, वो सब फल आपको मिलते चले जाएँ। एक और फल मिलेगा, मैं आपको निश्चित करा सकता हूँ और आपको इस बात का विश्वास दिला सकता हूँ। देवता की कृपा की गारंटी मेरे पास है। आप जिस देवता की कृपा करें, उसी को मैं उसी की कृपा करा दूंगा। लेकिन शर्त ये है कि अपना जीवन जीवन तो हमारा गंदा ही रहेगा। नहीं, बेटे, जीवन गंदा रहेगा तो देवता की कृपा तुझे कभी नहीं आएगी। देवता, जीवन तेरा गंदा रहेगा तो कृपा नहीं आएगी। नहीं महाराज जी, देवता की कृपा बना दीजिए और मैं तो ऐसे बहका दूंगा तुझे। कह दूंगा जो कहेगा बस, मैं तो पानी से नहा लूंगा। खट से बेटे, पानी से नहाने से नहीं चेतना को स्नान कराने से मतलब है। नहीं महाराज जी, चेतना को तो नहीं स्नान कराऊँगा। पानी से शरीर झाड़ लूंगा। नहीं, तो तू कैसे निर्णय लेगा? बता तो सही, जरा तेरे से क्या नहलाता है? महाराज जी, ऐसे नहा लेता हूँ, नहा लेता हूँ। तो तू एक बात बता, चमड़ी को तेरी तो मैं खोल के निकालता हूँ और देखूँ तेरे अंदर में क्या भरा हुआ है? मांस भरा हुआ पड़ा है। तू ये बता, पूजा की कोठरी में मांस तो नहीं ले गया कभी? महाराज जी, पूजा की कोठरी में मांस तो नहीं जाता और हड्डी? हड्डी भी नहीं ले जाता। तब फिर तू ऐसे करना, मुँह में जब तू भजन करता है, तो कुल्ला कर लेता है। हाँ, कुल्ला करता हूँ। मुँह में कोई गंदी चीज तो नहीं रखता? नहीं महाराज जी, गंदी तो नहीं रखता। तो ये बता, तेरे मुँह में मांस वांस तो नहीं कभी थी? मुँह मांस खा, मुँह मांस, मुँह में भरा रहता हो और जप करता रहता हो? महाराज जी, मुँह में मांस भरा रहेगा तो मैं क्या जप करूंगा? ऐसा तो नहीं, तू सूखी हड्डी ले जाता हो, हड्डी मुँह में भरे रहता हो। फिर तू राम का नाम लेता हो। ऐसी गलती मत करना, कहीं मुँह में हड्डी दे करके तैने मांस मुँह में वैसा जूठा मांस पकड़ के जप किया, तो भगवान नाराज हो जाएंगे। नहीं महाराज जी, ऐसा तो नहीं करता, निकाल तू अपनी जीभ, काहे की जीभ है तेरी? मांस की हट तेरी की और तेरे मुँह में थूक हट तेरी की और हड्डियाँ! अरे राम राम, मुँह में हड्डियाँ भरे हुए पड़ा है, मांस भरे हुए पड़ा है, थूक भरे हुए पड़ा है। इतनी गंदी चीजें भरी हुई पड़ी हैं। और ऊपर से देवी ने सुन लिया, तो मार डालेंगी तुझे। देवी का पाठ करता है और मुँह में इतनी चीजें भरी पड़ी हैं। मुँह को शुद्ध हो के ले। महाराज जी, ये तो मुझसे नहीं हो सकता। तो बेटे, हम बताते तो रहे हैं, जहां कहीं भी स्नान का वर्णन है, वहां शरीर के धोने तक साबित नहीं है। शरीर के धोने के संबंध में सब एक सा है। और दूसरे लोग जो अपने खुशबूदार शरीरों को बनाते रहते हैं, कभी धोते रहते हैं, सारे दिन कोई पाउडर लगाता रहता है, कोई क्रीम लगाता रहता है, कोई सेंट चुपड़ता रहता है, कभी साबुन धोता रहता है, कभी ये नहाता रहता है, कभी सुपर लक्स से नहाता है, कभी स्काई से नहाता है, कभी कौन सा साबुन आता है बढ़िया, बढ़िया रोज ये करते रहते हैं। नहाने के बारे में, कौन लोगों को देख जो तुझे शरीर को छूने से और सूंघने से पैसा करते हैं, धंधा कमाते हैं, जिसमें वेश्या भी शामिल हैं। बहैसमझ समझता क्यों नहीं है? एक ही सिद्धांत तुझे मिले कि हमारा मन और चेतना परिष्कृत होना चाहिए।
अखण्ड-ज्योति से
किन्हीं विगतमान चीजों के प्रति दुःख होने का कारण यह है कि व्यामोह के वशीभूत मनुष्य उससे अपना आत्मभाव स्थापित कर लेता है। सोचने की बात है कि जब यह संसार ही हमारा नहीं है, यह शरीर तक हमारा नहीं है तो यहाँ की किसी चीज के साथ आत्मभाव स्थापित कर लेने में क्या बुद्धिमत्ता है। एक दिन जब मनुष्य खुद ही सब को छोड़कर चला जाता है तो यदि कोई चीज उसे छोड़कर चली जाती है तो इसमें दुःख की क्या बात है? यह संसार और उसकी दृश्यमान अथवा अदृश्यमान सारी चीजें एकमात्र परमानन्द की हैं। उसके सिवाय किसी भी व्यक्ति का यहाँ की किसी चीज पर अधिकार नहीं है। जिसे जो कुछ मिलता है, वह सब परमात्मा का दिया होता है।
मनुष्य की बुद्धिमानी इसी में है कि वह इस सत्य को स्वीकार करे और इस बात के लिये सदैव तैयार रहना चाहिये कि परिवर्तन के नियम के अन्तर्गत उससे कोई भी चीज किसी भी समय ली जा सकती है। इस सत्य में विश्वास रखने वाले को व्यामोह का कोई दोष नहीं लगने पाता और वह सम्पत्ति तथा विपत्ति में सदा समभाव रहता है।
इसी व्यामोह के जाल से बचने के लिए ही गीता में भगवान् ने अनासक्तिपूर्वक जीवन−चक्र चलाने का निर्देश किया है। उत्साहपूर्वक अपना कर्तव्य करते हुए इस बात के लिए सदा तैयार रहना चाहिये कि इस परिवर्तनशील जगत् में कुछ भी अपना नहीं है। सम्पन्नता अथवा विपन्नता जो भी प्राप्त हो रही है, किसी समय भी बदल सकती है। यह अनासक्त भाव मानव−जीवन में सुख−शाँति का बड़ा महत्वपूर्ण विधायक है। मानव−जीवन आनन्द रूप है। दुःखों सन्तापों तथा आवेगों से इसे अशान्त करना अन्याय है। ऊर्ध्व स्थिति से अधोस्थिति में आकर अथवा विपन्नता से सम्पन्नता में पहुँचकर किन्हीं अतिरिक्त अथवा अन्यथा भाव से आन्दोलित नहीं होना चाहिये। सम्पन्नता की स्थिति में अभिभूत रहना और विपन्नता में दुखी होना, दोनों भाव ही जीवन में अशाँति का कारण हैं।
विगत वैभव का सोच करना किसी प्रकार भी उचित नहीं। क्योंकि अतीत का चिन्तन न तो वर्तमान में कोई सहायता करता है और न भविष्य का निर्माण। बल्कि वह उस व्यामोह को और भी सघन तथा दृढ़ बना देता है, जिसके अधीन मनुष्य विगत वैभव का सोच किया करते हैं। उत्थान अथवा अवनति के माया जाल से बचने के लिए आवश्यक है कि उनके प्रति व्यामोह के अंधकार से बचे रहा जाय। इस सत्य में तर्क की जरा भी गुँजाइश नहीं है कि संसार परिवर्तन के चक्र से बँधा हुआ घूम रहा है।
.... समाप्त
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1970 पृष्ठ 58
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