Saturday 03, May 2025
शुक्ल पक्ष षष्ठी, बैशाख 2025
पंचांग 03/05/2025 • May 03, 2025
बैशाख शुक्ल पक्ष षष्ठी, कालयुक्त संवत्सर विक्रम संवत 2082, शक संवत 1947 (विश्वावसु संवत्सर), बैशाख | षष्ठी तिथि 07:52 AM तक उपरांत सप्तमी | नक्षत्र पुनर्वसु 12:34 PM तक उपरांत पुष्य | शूल योग 01:40 AM तक, उसके बाद गण्ड योग | करण तैतिल 07:52 AM तक, बाद गर 07:29 PM तक, बाद वणिज |
मई 03 शनिवार को राहु 08:55 AM से 10:34 AM तक है | 06:37 AM तक चन्द्रमा मिथुन उपरांत कर्क राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 5:37 AM सूर्यास्त 6:51 PM चन्द्रोदय 10:26 AM चन्द्रास्त 12:57 AM अयन उत्तरायण द्रिक ऋतुग्रीष्म
- विक्रम संवत - 2082, कालयुक्त
- शक सम्वत - 1947, विश्वावसु
- पूर्णिमांत - बैशाख
- अमांत - बैशाख
तिथि
- शुक्ल पक्ष षष्ठी
- May 02 09:15 AM – May 03 07:52 AM
- शुक्ल पक्ष सप्तमी
- May 03 07:52 AM – May 04 07:19 AM
नक्षत्र
- पुनर्वसु - May 02 01:04 PM – May 03 12:34 PM
- पुष्य - May 03 12:34 PM – May 04 12:53 PM

कैसा हो ज्ञान और बल के समन्वय का नवीनतम रूप | Kaisa Ho Gyan Aur Bal Ka Smaanvay Ka Navintam Roop

ध्यान:- उगते हुए सूर्य के प्रकाश का ध्यान | Ugte Huye Surya Ka Dhyan | Shraddheya Dr. Pranav Pandya
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन







आज का सद्चिंतन (बोर्ड)




आज का सद्वाक्य




नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन

!! शांतिकुंज दर्शन 03 may 2025 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!

Reel_6 हंस के प्रतीक का क्या अर्थ है 1.mp4
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
अर्जुन एक बार देवलोक में गए। देवलोक में अर्जुन को क्या उपहार मिलने चाहिए, इसकी परीक्षा लेने से पहले उन्होंने क्या किया? उन्होंने ये कहा, पहले उपहार पीछे देंगे, देखें ये इस लायक भी है कि नहीं। उन्होंने पवित्रलोक की सबसे खूबसूरत महिला को उसके पास भेजा, उर्वशी को उसके पास भेजा। और उर्वशी के पास जाकर के जब उर्वशी गई, ये कहने लगी, अर्जुन हाँ देवताओं ने हमको भेजा है और हम तुम्हारी बहुत प्रार्थना करने आए हैं और ये कहने आए हैं कि आपके जैसा बच्चा हमको चाहिए। वो समझ गया क्या मतलब है, क्या मतलब है इसका? उसने कहा, आपको मेरे जैसा बच्चा चाहिए? आप जिस तरीके से चाहती हैं, उस तरीके से तो बच्चा न हुआ, कन्या हो जाए तब और फिर मेरे जैसा न हो, पंगा हो जाए, लंगड़ा हो जाए, काना हो जाए तब मेरे जैसा चाहती हैं न? मेरे जैसा, मेरे जैसा तो मैं एक हूँ। भगवान ने जितने भी जानवर बनाए, एक ही बनाया, दूसरा उसके जैसा नहीं बनाया। एक पेड़ जैसे बनाया, दूसरा पेड़ ही नहीं बना। एक पत्ता किसी पेड़ का जैसे है, दूसरा पत्ता दुनिया में बनाया नहीं गया। हर चीज अलग बनाता है भगवान। मैं जैसा बनाया गया हूँ, मैं तो एक ही बनाया गया हूँ। दूसरा तो भगवान बनाने वाला नहीं है, इसलिये मेरे जैसा तो मैं ही हूँ और आपकी प्रार्थना मैं स्वीकार करता हूँ, आपके आदेश को मानता हूँ। आपका मैं आज से बेटा होता हूँ, चरणों की रज अपने मस्तक पर लगाई और कहा, आज से मैं आपका बेटा और आप हमारी माँ। क्या हुआ? बुद्धि है, ये विचारणा है, संकल्प है, एक सिद्धांत है। सिद्धांत अगर हमारे मन में आयें तो आप गायत्री के उपासक हैं, निश्चित। यदि विवेक आपके भीतर है, तो आप गायत्री के उपासक हैं। गायत्री के उपासक हैं और हमने उसके शिक्षण के लिए कलेवर बना करके रखा है। हंस उस पर गायत्री सवार रहती है। गायत्री हर एक पर सवार नहीं होती है। क्यों महाराज जी? गायत्री हमारे पास तो वो है, भैंसा उस पे बिठा लावें तो बोले नहीं बेटा, उस पे नहीं आएगी। तो महाराज जी, घोड़ा हमारे यहाँ है, घोड़े पे ले आवें, नहीं महाराज जी, घोड़े पर भी नहीं आएगी। तो आप, हम गायत्री माता को बुलाने रिक्शा ले के चले जाएँ, रिक्शे पर बिठाकर ले आवें तो आ जाएगी? रिक्शे पर भी नहीं आएगी। तो महाराज जी, कौन सी सवारी लाएं? गायत्री माता को तो लिवा के ले आना चाहता हो, सवारी की जरूरत हो, तो सिवाय हंस के बिना और कोई सवारी पर नहीं बैठ सकती। अरे हंस तो महाराज जी बेकार होता है, कोई और मैं सवारी ला देता हूँ, उसके लिए घोड़े कहें तो घोड़ा ला दूँ, हाथी कहें तो हाथी ला दूँ, हाथी को वह कहीं नहीं बैठती है। केवल हंस पर बैठती है। हंस से क्या मतलब है? हंस से मतलब है, वो व्यक्ति जो धुला हुआ है, उसने अपने कपड़ों को साफ सुथरा रखा है। हंस से मतलब वो व्यक्ति जिसको कि मोती खाने की आदत है, जो कीड़े मकोड़े नहीं खाता। हंस से मतलब वो व्यक्ति जो कि दूध और पानी को अलग करना जानता है। महाराज जी, ऐसा हंस कौन सा होता है? कोई नहीं होता, हमको बनाना पड़ेगा। हम और आप हो सकते हैं। हंस एक अलंकार है, जैसा हंस हमने कल्पना कर रखा है, वैसा हंस नहीं होते। हंस तो कीड़े खाते हैं और हंस तो दूध पानी कहाँ से बेचारों को दूध मिलेगा? दूध पानी कैसे फाड़ सकते हैं? ये तो अलंकार है, अलंकार है ये जो हंस है, जिसके पीछे गायत्री माता का वाहन है। वैसा हमको भक्त बनना चाहिए, अर्थात हमारा जीवन ऐसा बनना चाहिए, ऐसा बनना चाहिए जैसे हंस का होता है। तो गायत्री माता सवारी करेंगी हमारे ऊपर, हमारे कंधे पर सवार होंगी, हमारे सिर पर सवार होंगी, हमारी पीठ पर सवार होंगी, हमारे ऊपर उनकी छाया अपने आप बन जाएगी।
अखण्ड-ज्योति से
शारीरिक और मानसिक उत्तेजनाओं आत्मिक-साधनाओं में अत्यन्त बाधक होती है। उनके कारण महत्त्वपूर्ण साधना विधानों के लिए किया गया भारी प्रयास पुरुषार्थ भी निरर्थक चला जाता है। इसलिए तत्त्वदर्शी आत्मिक प्रगति की दिशा में बढ़ने के लिए प्रयत्नशील पथिकों को सदा से यही शिक्षा देते रहे हैं कि शरीर को तनाव रहित और मस्तिष्क को उत्तेजना रहित रखा जाय। ताकि उस पर दिव्य चेतना का अवतरण निर्बाध गति से होता रह सकें।
क्रिया-कलापों की भगदड़ से माँस पेशियों में-नाड़ी संस्थान में तनाव रहता है। बाहर से स्थिर होते हुए भी यदि शरीर के भीतर आवेश छाया रहा, तो उस उफान के कारण मन का स्थिर एवं एकाग्र रह सकना भी सम्भव न होगा। हठयोग में शरीर को जटिल स्थिति में डाले रहने की आवश्यकता हो सकती है पर ध्यानयोग की दृष्टि से वह सर्वथा अवांछनीय है अर्धपद्मासन , शीर्षासन, एक पैर से खड़ा होना, जल में बैठना, धूप में तपना, शीत में काँपना, ठण्ड के दिनों में ठण्डे जल से नहाना, गर्मियों में धूनी तपना जैसे शरीर पर दबाव डालने वाले साधन क्रम हठयोग एवं तान्त्रिक साधनाओं के लिए उपयुक्त हो सकते हैं, पर यदि कोई चाहे कि इस स्थिति में प्रत्याहार, धारणा, ध्यान समाधि जैसे लययोग परक, अभ्यास कर सके तो उसे असफलता ही मिलेगी।
इस सन्दर्भ में बहुधा खेचरी मुद्रा, नासिका पर दृष्टि जमाना, उड्डयन बन्ध जालन्धर बन्ध, यहाँ तक कि मन्त्रोच्चारण के साथ किया गया माला जप भी व्यतिरेक उत्पन्न करता है। इस विधि विधानों के साथ ध्यान नहीं हो सकता, क्योंकि चित्त वृत्तियाँ इन शरीरगत हलचलों में लगी रहती हैं- एकाग्रता हो तो कैसे हो।
आरम्भिक साधना प्रयास में केवल आदत डालने नियमितता अपनाने एवं रुचि उत्पन्न करने जितना ही लक्ष्य रहता है इसलिए उपासना में मनोरंजक-चित्त को एक नियत विधि व्यवस्था में लगाये रहने वाली विधियाँ उपयुक्त रहती है। शंकर जी पर बेलपत्र चढ़ाना परि-क्रम करना, धूप, दीप आदि से देव प्रतिमा का पंचोपचार पूजन’ स्तवन, पाठ, जप आदि शारीरिक हलचलों के साथ की जाने वाली साधनायें इसी स्तर की होती हैं, उनमें रुचि उत्पन्न करने, स्वभाव का रुझान ढालने का लक्ष्य जुड़ा रहता है। आरम्भ में इस लाभ का भी महत्त्व करना होता है। तो शरीरगत हलचलें बन्द करके निश्चेष्ट होने की आवश्यकता पड़ती है। माँस पेशियों और नाड़ी संस्थान को जितना अधिक तनाव रहित शान्त रखा जा सके उतना ही लाभ मिलता है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति मार्च 1973 पृष्ठ 49
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