
किधर जा रहे हो?
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पाठक अपने जीवन को सफल बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं। हर आदमी यह चाहता है कि मैं जीवन का फल प्राप्त कर सकूँ, बड़ा बन सकूँ, औरों से मुझमें विशेषताएं हों, जिन कामों को कर सकने में, दूसरे लोग समर्थ नहीं हुए हैं उन्हें मैं संपादित कर सकूँ, उच्च पद प्राप्त कर सकूँ। यह इच्छाएं हर आदमी को सताती हैं। इन्हें पूरा करने के लिए आदमी भरसक कोशिश भी करता है। उसने अपनी लड़की के विवाह में बड़ा दहेज दिया, उसने पुत्र के विवाह में रुपयों की बखेर की, उसने अपने पिता की मृत्यु पर बड़ा भारी भोज दिया, उसने चारों धामों की तीर्थ यात्रा की, उसने अमुक मंदिर की मूर्ति पर सोने का छत्र चढ़वाया, उसने अपने खर्च से कई दिन लोगों के लिए तमाशा करवाया, उसने चांद्रायण व्रत किया, इस प्रकार के काम हम रोज सुनते और देखते हैं। करने वाला इनमें काफी त्याग करता है, कष्ट उठाता है, उदारता प्रकट करता है और अपनी सुख सामग्री में कमी कर लेता है। यहाँ इस बात पर बहस नहीं है कि इन कार्यों का क्या फल होता है। धन से उच्च पद मिलता है या नहीं। कर्म का फल मिलता है यह बात निर्विवाद है। उपरोक्त पंक्तियों का तात्पर्य इतना ही है कि महत्ता प्राप्त करने की उम्र आकाँक्षा हम धारण किये हुए हैं। कितनी ही अविकसित दशा में, कितनी ही पिछड़ी परिस्थितियों में हम हों यह दैवी प्रेरणा हर घड़ी भीतर ही भीतर नोंचती रहती है। जिसका ज्ञान जितना है या जो जैसी परिस्थिति में प्रसन्न है, उसे उसी के अनुसार अपना कार्यक्रम बनाना पड़ता है। हम उस मोटर के समान हैं जिसका पहिया हर घड़ी घूमता रहता है। ड्राइवर उसे अपनी इच्छानुसार चाहे जहाँ ले जा सकता है। इच्छा करते ही वह पूरब, पच्छिम, उत्तर, दक्खिन, चाहे जिधर की सड़क पर सरपट दौड़ लगा सकती है। महत्व कामना दबाई नहीं जा सकती क्योंकि वह मनुष्य का धर्म और दैवी प्रेरणा है। ईश्वरीय नियम है कि तुम्हें आगे बढ़ना पड़ेगा। संसार चक्र आगे बढ़ रहा है, नन्हे बालक, पौधे, घास-पात, कीड़े-मकोड़े, वायु, जल, अग्नि, पृथ्वी, आकाश आग बढ़ने के लिए सब को घसीटा जा रहा है। इस सृष्टि की धारा ही ऐसी है। वृद्धि, उन्नति, विकास इसका धर्म है। बढ़ो, बढ़ो, बढ़ो, जर्रे जर्रे से यही आवाज आ रही है बढ़ो! आगे बढ़ो! उस घूमते हुए पहिये को ध्यान से देखो, क्या वह निरंतर आगे नहीं बढ़ रहा है? जब तुम किसी भौतिक विज्ञानी से विकासवाद के संबंध में पूछने जाओगे तो वह तुम्हें विस्तारपूर्वक बतायेगा कि आगे बढ़ने का निश्चित परिणाम घूमना है। तुम यदि लगातार चलते ही रहो तो घूमकर वहीं आ जाओगे जहाँ से चले थे। पृथ्वी, सूर्य, नक्षत्र, आदि सब चल रहे हैं इसलिए घूम रहे हैं। वैज्ञानिक परीक्षणों से सिद्ध हो गया है कि प्रकृति का प्रत्येक परमाणु घूम रहा है अर्थात् वह बिना ठहरे आगे की ओर बढ़ता जा रहा है। ध्यानपूर्वक सुनलो, अच्छी तरह समझलो, भली प्रकार अनुभव कर लो कि तुम बढ़ रहे हो, एक निश्चित चेतना द्वारा तुम्हारे मन को बढ़ने के लिए अग्रसर किया जा रहा है। फिर भी उसकी गति किस ओर हो यह बात तुम्हारे ही ऊपर छोड़ी गई है। ईश्वर ने एक गतिवान यंत्र देकर जीव को इस चतुर्मुखी दुनिया में घूमने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया है। जिस मोटर का पहिया बराबर घूम रहा हो और उसका ड्राइवर यदि उसे चाहे जिस ओर चला जाने दे तो वह कहाँ जा पहुँचेगा? जिस सड़क पर वह दौड़ लगा रहा है वह कहाँ पहुँचेगी इस बात की जानकारी उसे रखनी चाहिये। सड़क साफ है, मुझे पसन्द है, इस पर बहुत से आदमी चल रहे हैं, इन्हीं तर्कों के आधार पर जो अपना कार्यक्रम बना लेते हैं वे अंधेरे में हैं और वे उस अन्धे के समान हैं जो बिना सोचे विचारे चाहे जिधर को कदम उठाता जा रहा है। ऐसे सारथी को क्या कहा जाय जो चलती हुई सड़क को देखकर अपना रथ भी उसी पर डाल देता है। कहीं तुम भी ऐसे ही संचालक तो नहीं हो। जीवन केन्द्र जहाँ से आरंभ होता है वहीं से हजारों लाखों पगडंडियाँ निकलती हैं। यह मत स्वातन्त्र्य के भेद से विभिन्न दिशाओं को जाती हैं। नीच उद्देश्य, पाशविक वासना और भोगेच्छा की पगडंडियाँ हरी भरी मालूम होती हैं। थोड़ी ही दूरी पर सब्जबाग दिखाई देते हैं। इसलिए ललचा कर हरे भरे खेतों में पिल पड़ने वाली भेड़ों की तरह हम में से अधिकाँश लोग उधर पिल पड़ते हैं और इस बात को भूल जाते हैं कि इसका परिणाम क्या होगा? ऐसी हरकत करने वाली दूसरी भेड़ों को किसान द्वारा लाठियों से पीटे जाते उन्होंने देखा होता है किन्तु अपनी पीठ पर धमाका हुए बिना उनकी जड़ता दूर नहीं होती। उच्च उद्देश्यों के मार्ग उतने लुभावने नहीं है। हमारी जड़ता दूर पर खड़े हुए अमृत फलों को नहीं देख पाती और पास की कठिनाइयों एवं कम चलने वाले रास्ते को देखकर निराश हो जाती है। ऐसी जड़ता और अदूरदर्शिता भेड़ों को ही शोभा देती है। कहीं तुम भी ऐसी ही भेड़ तो नहीं हो? निरंतर चलने वाले प्रकृति चक्र में हम अपना कौन सा स्थान ग्रहण कर रहे हैं और हमारा विकास रथ किस मार्ग पर चला जा रहा है? क्या इस बात को सोचने की तुम कोई जरूरत नहीं समझते? जीवन जैसा बहुमूल्य भण्डार किन कामों में खर्च हो रहा है क्या इसका हिसाब रखना तुम्हारी दृष्टि में व्यर्थ है? अखंड ज्योति के पाठकों से मैं ऐसी आशा नहीं कर सकता। मेरा विश्वास है कि वे अपनी स्थिति के बारे में कुछ अधिक जानने के लिए प्रयत्नशील होंगे। इस देव दुर्लभ मानव शरीर में विचार शक्ति ही मुख्य है। शास्त्र कहता है ‘मनानत् मनुष्य’ अर्थात् मनन करने से ही मनुष्य है। हम सोच विचार सकते हैं यही हमारी विशेषता है। कितनी गुत्थियों को हमारा मस्तिष्क सुलझाता है। किसी में झगड़ा हो रहा है तुम जाकर शान्त करते हो, आर्थिक कठिनाई का हल निकालते हो, असंतुष्ट लोगों को संतुष्ट करते हो। सामाजिक प्रथाओं में परिवर्तन करते हो, विद्या प्राप्त करते हो, नई व्यापारिक योजनाएं बनाते हो, गुप्त मंत्रणाएं करते हो, षडयंत्र रचते हो, ऐसे ऐसे पेचीदा मामलों को समझते हो, उनका स्वरूप निर्माण करते हो और वह वह तरकीबें सोचते हों जिन्हें देखकर दंग रह जाना पड़ता है। इतनी योग्यता रखते हुए भी ऐ मेरे अभिन्न! अपने बारे में कुछ क्यों नहीं सोचते कि तुम क्या हो? कैसे हो? क्या कर रहे हो? कहाँ जा रहे हो? बाहरी कार्यों में जितना प्रयत्न करते हो उसका एक अंश अपने लिये भी करो। दूसरों की हजामत बना कर अपना मतलब गाँठने में तो तुम बड़े प्रवीण हो, इस कला में काफी निपुणता प्राप्त कर चुके हो, पर तथ्य के स्थान पर आकर क्यों गड़बड़ा जाते हो। उसकी जेब तो बड़ी सफाई से काट लाये पर मिले हुए द्रव्य को इसके घर में क्यों पटक दिया? तुम तो बहुत सयाने हो पर यहाँ चौकड़ी क्यों भूलते हो? होशियारी बहुत अच्छी चीज है। कमाऊ पूत होना बहुत बढ़िया काम है। हर किसी से अपना मतलब निकाल लेना तुम्हें आता है। पर मेरे अच्छे भाई, उसे क्यों नहीं पहचानते जो तुम्हारी भी जेब काट लेता है और अपने मतलब के लिये तुम्हारा वैसा ही उपयोग करता है जैसे मदारी, एक चालाक बन्दर से खूब नाच-कूद करवाता है और उसकी कमाई को खुद हजम कर जाता है। तुम्हारी होशियारी की परीक्षा का स्थल यह है। यहाँ फेल होकर तुम उस गधे के उदाहरण बनते हो जिसने सारे दिन सुभोज्य पदार्थ लादे थे किन्तु शाम को सड़े गले भूसे पर बाँध दिया गया था। हम लोग अपने को भूल जाते हैं अपने घर को ठीक तरह नहीं पहचानते इसलिये कठिन श्रम साध्य अपनी कमाई दूसरों के घर पटक आते हैं। इसे कैसी चालाकी, बुद्धिमानी, होशियारी समझें जरा तुम्हीं मुझे समझाओ। चलो, उठो, उस एकान्त कोठरी में चले जाओ और अपने शरीर व मन को शान्त करके अपने बारे में विचार करो, सोचो, मनन करो कि हमारी प्रगति किस दिशा में हो रही है, हम किस दिशा में बढ़ रहे हैं, हमारी मोटर किस सड़क पर दौड़ी जा रही है, खेत के चरने का क्या परिणाम होगा। जिस प्रकार एक गहरे षड़यंत्र का सुराग लगाया जाता है वैसे ही पता लगाओ कि हम अपना जीवन रूपी अमूल्य निधि खर्च करके जो कमाते हैं वह हमारे ही पास रहता है या बीच में ही हड़प लिया जाता है? अपने बारे में पूरी तरह से विचार करो तो तुम्हें बहुत नई बातें मालूम होंगी और समझ सकोगे कि किस तरफ बढ़ रहे हो किन्तु वास्तव में किस तरफ बढ़ना चाहिए था।