Magazine - Year 1941 - Version 2
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Language: HINDI
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अमर-ज्योति
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(रचयिता-श्री शशिमूषण)
विहंसो, विकसो, प्रिय! अमर बना, मैं अमर-ज्योति-निर्माण करूं!
तुम मुकुल मुकुल में हास बनो, मैं नव-जीवन बन कर, उतरुं!
यह नहीं स्वप्न या सम्भ्रम है, यह ज्योतित जागृति का क्रम है!
प्रिय, आशा के सुरभित-प्रफुल्ल, अरुणोदय का मधु-आगम है!
तुम गगन-अजिर में नखत भले, मैं। तरल-तुहिन-कण बन बिखरुं!
विहंसो, विकसो, प्रिय, अमर बनो, मैं अमर ज्योति निर्माण करूं!
निज भाग्य-लीक विपरीत रहे, जीवन में हार कि जीत रहे!
मेरी वंशी के छिद्रों में, गोतीत क्वणनमय गीत रहे!
तुम विश्व-वेदना में पिघलो, मैं विश्व वेदना पी उभरुं।
बिहंसो, विकसों, प्रिय, अमर बनो, मैं अमर-ज्योति निर्माण करुं!
प्रिय, एक हूक मंडराती है, भावना-कुसुम बिखराती है!
प्राणों के स्तर में गोपन से, सुध बन-बन कर छा जाती है!
तुम नवल-विभा प्रस्तीर्ण करो, मैं नीलम-आशा सा निखरुं!
बिहंसो, विकसो, प्रिय अमर बनो, मैं अमर ज्योति निर्माण करुं!