Magazine - Year 1942 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
श्रीमद्भागवत और सतयुग
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
कलियुग कब से आरम्भ हुआ। इसके सम्बन्ध में भगवान के दूसरे अध्याय में वर्णन है।
यदा देवर्षयः सप्तमघासु विचरन्ति हि।
तदा प्रवृत्तस्तु कलिर्द्वादशाब्द शतात्मकः॥31॥
यदा मघाभ्यो यास्यन्ति पूर्वाषाढ़ा महर्षयः।
तदा नन्दात् प्रभृत्येष कलिवृद्धिगमिष्यति॥32।
यस्मिन कृष्णो दवं यातस्तास्मिन्नेंव तदाहनि।
प्रतिपन्नं कलियुगमिति प्राहुः पुराविदः॥ 33॥
अर्थात् जब सप्तऋषि (तारागण) मघा नक्षत्र पर आये थे तब कलियुग का आरम्भ हुआ और सप्तऋषि पूर्वाषाढ़ नक्षत्र में आ चुकेंगे तो बारह सौ वर्षों में कलियुग राजा नन्द के समय में वृद्धि को प्राप्त हो जायेगा जब भगवान् कृष्णा अपने धाम को पधारे, उसी समय से कलियुग चल पड़ा।
सप्तऋषि तारागण वर्तमान समय से कृतिका नक्षत्र पर है। एक नक्षत्र पर इनके 100 वर्ष रहने का प्रमाण है। मघा में जब यह थे तो कलियुग का आरम्भ हुआ। अब तक यह एक बार सत्ताइसों नक्षत्रों पर घूम चुके हैं। इस प्रकार मघा से रेवती तक 18 एक बार का पूरा चक्र 27 और कृतिका तक 3 अर्थात् कुल 48 नक्षत्र घूम चुके एवं 4800 वर्ष कलियुग को सम्वत् 2000 में श्रावण कृष्णा अमावस्या को पूरे हो जाते हैं।
कलियुग समाप्त होने का ठीक-ठीक समय निम्न श्लोक से प्रकट हो जाता है -
यदा चनद्रश्च सूर्यश्च तथा तिष्य बृहस्पती।
एक राशौ समेष्यन्ति तदा भवति तत् कृतम्॥
भागवत् 12-2-24
अर्थात् जिस समय चन्द्रमा, सूर्य, और बृहस्पति एक ही समय पुष्य नक्षत्र में प्रवेश करते हैं। एक राशि में आते है तो कलियुग समाप्त होकर सतयुग आरम्भ होता है, यह योग संवत् दो हजार की श्रावण कृष्णा अमावस्या तदनुसार 1 अगस्त सन् 43 में आ रहा है।
श्रीधरी टीका में ऐसा प्रश्न उठाया गया है कि ऐसा योग बीच-बीच में भी आता है, परन्तु यह ठीक नहीं, क्योंकि गत 4800 वर्ष में कभी भी ऐसा योग नहीं आया।
कलियुग के वर्ष संख्या पूरी हो जाने तथा सतयुग के आगमन का योग भी उसी समय आने से दोनों बातें एक साथ हो जाती हैं। निश्चय ही यह युग परिवर्तन का समय है।
एक सन्त कबीर की वाणी।
साँच बराबर तप नहीं, झूँठ बराबर पाप।
जाके हिरदे साँच है, ताके हिरदे आप॥
साँच बिना सुमिरन नहीं, भय बिन भक्ति न होय।
पारस में पड़दा रहै, कंचन किहि विधि होय॥
साँचे को साँचा मिलै, अधिका बढ़े सनेह॥
झूँठे को साँचा मिलै, तब ही टूटे नेह॥
सहब के दरबार में साँचे को सिर पाव।
झूठ तमाचा खायेगा, रंक्क होय या राव।
झूठी बात न बोलिये, जब लग पार बसाय।
कहो कबीरा साँच गहु, आवागमन नसाय॥
जाकी साँची सुरति है, ताका साँचा खेल।
आठ पहर चोंसठ घड़ी, हे साँई सो मेल॥
कबीर लज्जा लोक की, बोले नाहीं साँच।
जानि बूझ कंचन तजै, क्यों तू पकड़े काँच॥
सच सुनिये सच बोलिये, सच की करिये आस।
सत्य नाम का जप करो, जग से रहो उदास॥
साँच शब्द हिरदै गहा, अलख पुरुष भरपुर।
प्रेम प्रीति का चोलना, पहरै दास हजूर॥
साँई सों साचा रहो, साँई साँच सुहाय।
भावै लम्बे केस रख, भावै मूड मुड़ाय॥