Magazine - Year 1943 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
भक्ति का सच्चा स्वरूप
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(भ. म. श्री गोपाल शास्त्री, दर्शन केशरी काशी)
आजकल लोगों में भक्ति का स्वरूप यही प्रसिद्ध है कि संसार के सभी कार्यों से विरक्त होकर साधु बन किसी तीर्थ में निवास करना और रात दिन हाथ में माला लेकर भगवान का नाम जपना, मन्दिरों में दर्शन करते फिरना आज अमुक मन्दिर में श्रृंगार है तो कल अमुक मन्दिर में झाँकी होगी। इन्हीं उत्सवों में अपने को दिन रात फँसाये रखना, जगत का कोई काम नहीं करना। इसी समाज को आजकल भक्त समाज कहते हैं। सिर्फ भगवान की भक्ति का ही पेशा करने वाला एक बड़ा भारी गिरोह है जिसे वैरागी साधु समाज कहते हैं। आज तो उत्तम भक्त वही कहा जाता है जिसकी चर्चा होती हो कि- ‘सेठजी तो बड़े भक्त आदमी हैं। उनको संसारी जीवों से क्या मतलब, वह तो रात दिन भगवान के पूजन, दर्शन में ही लगे रहते हैं। उनके समान भक्त आज दुनिया में कोई नहीं है” इत्यादि।
ऐसी परिस्थिति में यह आवश्यक प्रतीत होता है कि भक्ति शास्त्रों में भक्ति का क्या स्वरूप बताया गया है, इस पर कुछ प्रकाश डाला जाए। भागवत के तृतीय स्कन्ध में भक्ति योग के स्वरूप का दिग्दर्शन स्वयं कपिल जी ने अपनी माता देवहूति से किया है।
अह सर्वेषु भूतेषु भूतात्माऽवस्थितः सदा।
तमवज्ञाय मा मृत्यः कुरुतेऽर्चा विडम्बनम्॥
यो माँ सर्वेषु भूतेषु सन्तमात्मानमीश्वरम्।
हित्वार्चां भजते मौढ़याद्भस्यन्येव जुहोति सः॥
अहमुच्चावचैर्द्रव्यैः क्रिययोत्पन्नयाऽन्घे।
नैवतुष्येऽर्चितोऽर्चायाँ भृतग्राम म मानिनः॥
अथ माँ सर्व भूतेषु भूतात्मानं कृतालयम्।
अर्हयेद्-दान मानाभ्याँ मैव्याऽभिन्नेन चक्षुषा॥
(भागवत 3/29/21/27)
अर्थ- मैं तो सभी प्राणियों में जीव रूप से बैठा ही रहता हूँ, परन्तु अल्पज्ञ मानव वहाँ मेरा अपमान करके झूठे मन्दिरों में पूजा करता फिरता है। जो सब प्राणियों में रहने वाले ईश्वर को छोड़कर मूर्खतावश मन्दिरों में श्रृंगार, झाँकी देखता फिरता है, वह तो भस्म में हवन के समान व्यर्थ काम करता है। जो प्राणियों के उपकार को छोड़कर उलटे उनका तिरस्कार करता है और बड़ी सामग्रियों से मन्दिरों में मेरी पूजा करता फिरता है, मैं उस पर कभी भी प्रसन्न नहीं होता। इस लिये सब प्राणियों में रहने वाले मुझको दान तथा सत्कार द्वारा पूजन करे। अर्थात् जीवों का उपकार करे, उनको सन्तुष्ट करे।
महाभारत में भी एक जगह लिखा है-
अपहाय निजं कर्म कृष्ण कृष्णेति वादिनः।
ते हरे र्द्वेषिणः पापाः कर्मार्थ जन्म यद्धरेः॥
अर्थ- जो अपने कर्तव्य कर्मों को छोड़ कर केवल कृष्ण कृष्ण जपा करते हैं वे तो भगवान के द्वेषी हैं, क्योंकि भगवान् का भी तो अवतार कर्म करने के लिये होता है।
वस्तुतः भगवान की सच्ची भक्ति तो अपने कर्तव्यों का पूरे तौर से पालन करना ही है। इसी बात को सभी शास्त्रों में स्पष्टतः कहा है। योग सूत्र भाष्य में व्यासजी ये ‘तपः स्व ध्यायेश्च प्रणिधानानि क्रिया योग‘ (21) इस सूत्र का भाष्य करते हुए ईश्वर प्रणिधान शब्द का अर्थ यों किया है, ‘तस्मिन् परम गुरौ परमेश्वरे स्वकृत कर्मणाँ फल समर्पणाम् ईश्वर प्रणिधानम।’ अर्थात् उस परमपिता परमात्मा को अपने कर्तव्य कर्मों द्वारा सन्तुष्ट करना ही तो ईश्वर प्रणिधान ईश्वर भक्ति है। इसी बात को गीता ऐसे उत्पनिषत्सार ग्रन्थ में स्वयं भगवान् कहते हैं-
यतः प्रवृर्त्तिर्भूतानाँ येन सर्व मिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्दर्च्य सिद्धिं विन्दन्ति मानवः॥
जिस ईश्वर से सभी प्राणियों की पैदा यश है और जिसने इस सारे पसारे को फैलाया है, अपने कर्तव्य कर्मों से ही उसकी पूजा करके मनुष्य सिद्धि पा सकता है। सभी शास्त्रों का निचोड़ रूप यों क हिये तो अपने कर्तव्य कर्मों को पूरी तौर से सम्पादन करते हुए सभी प्राणियों का यथा शक्ति उपचार करते रहना, यही भक्ति का सच्चा स्वरूप मेरी दृष्टि में प्रतीत होता है।
भागवत के एकादश स्कन्ध में श्री कृष्णजी उद्धव से कहते हैं कि-
सर्व भूतेषु या पश्येद्भगवद्भाव मात्मनः।
भृतानि भगवत्यात्मन्यष भागवतोत्तम्ः। 2। 45
गृहीत्वायीन्द्रियै र्थान योन द्वेष्टिन हृष्यति ।
विष्णोर्मायामिदं पश्यन् सवै भागवतोत्तमः॥ 2। 48
वेदोक्त मेव कुर्वाणौ निःसंगोऽर्पितमाश्वरे।
नैष्कर्मा लभते सिद्धिं रोचनार्था फलश्रुतिः॥ 3।46
स्वकर्मस्था वजन् यज्ञैरनीशीः काम उद्धवः ।
न याति र्स्वग नरकौ यद्यन्यन्न समाचरेत् । 20।24
अर्थ- जो सभी प्राणियों में मुझे ही देखता है और सब प्राणियों को मेरे में ही देखता है वही मेरा (भगवान का) सर्व श्रेष्ठ मित्र है। (45) जो इन्द्रियों द्वारा सब कर्तव्य कर्मों को करता हुआ भी किसी से राग द्वेष नहीं रखता, संसार को भगवान का ही पसारा समझता है वही श्रेष्ठ भगवद् भक्त कहता है। (46) जो निःशंक होकर कर्तव्य रूप से अपने जिम्मे प्राप्त वेदोक्त कर्मों को ईश्वरार्पण बुद्धि से किया करता है वह अवश्य मुक्त होता है, कर्मों का जो फल बताया है वह तो सिर्फ कर्मों में प्रवृत्त कराने के लिये बढ़ावा दिया है। (46) जो अपने कर्तव्य कर्मों पर दृढ़ रहता हुआ निःशंक होकर परोपकार, देशाभ्युदय साधन कर्मों (यज्ञों) को किया करता है, वह स्वर्ग नरक न जाकर मुक्त हो जाता है। कुछ भी न करे तो भी (24) इत्यादि भक्ति के प्रतिपादक ग्रन्थ भागवत में ही भक्ति का क्या स्वरूप बतलाया है, किन्तु आज कल हमारे देश में भक्ति का कैसा विकृत स्वरूप हो गया है। यही कारण है कि देश आज दिनोंदिन पतित होता चला जा रहा है।
-सात्विक जीवन।