Magazine - Year 1943 - Version 2
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Language: HINDI
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अपने प्रभु की खोज
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(रचयिता-श्रीयुत् ज्वालाप्रसाद जी ज्योतिषी)
अजी, बहुत लड़-झगड़ हुई, अब तो बचपन बीता, छोड़ो,
उन बात-बात पर लड़ने की चालों से अब तो मुँह मोड़ों।
जब बच्चे थे, तब बच्चे थे, अब तो वे बीत चुकी बातें,
कुछ तो समझो, कुछ तो परखो, इनकी बातें, उनकी घातें।
जीवन! मानव जीवन क्या है कंकर, पत्थर से भी हलका!
जो खेल-खेल में देते हो तुम यूँ अपने हाथों ढ़लका?
मन्दिर-मस्जिद की ईंटों में दृग मूँद खोजते हो जिसको,
आँखें खोलो, ढूँढ़ो दो पल, इस मानव-मन्दिर में उसको।
वह ऐसी कोई चीज नहीं जो अंधियारे में खो जावे,
बिजली वह है,जो बादल को खुद फाड़ सामने हो जावे।
तुम अपना धुँधला दीपक ले क्या खूब! ढूँढ़ने चले उसे।
सूरज अपनी अंधियाली में है रखे छिपा कर स्वयं जिसे।
जर्रे जर्रे में जो बैठा पागल से उसे बुलाते तुम,
वह खड़ा सामने है लेकिन हो आँख मीच चिल्लाते तुम।
मन्दिर में जाते हो जिस पर सोने के फूल चढ़ाने को,
उसकी बेटी दरवाजे पर रोती मुट्ठी भर दाने को।
ये निश्चल प्रतिमायें धो-धो मन्दिर में तो कीचड़ कर दी,
कब इन सजीव प्रतिमाओं को, दो बूँदों की अंजली पर दी?
तुम इसको कहते हो मन्दिर और, उसका नाम रखे मस्जिद,
क्या एक किसी में आने की लेकिन है प्रभु को भी कुछ जिद?
मैं कहता हूँ, मन्दिर-मस्जिद दोनों ही हुए आज खाली,
है बची वहाँ हम दोनों की केवल करतूतें ही काली।
इन दोनों के ही बीच कहीं मानवता की कुटिया होगी,
ढूँढ़ो-ढूँढ़ो मिल जायेगा वह जूठे बेरों का भोगी।
इन महलों की प्रभुता में भी होता है प्रभु का बास कहीं?
वह तो उतरा उन कुटियों में जिनमें है विभव विलास नहीं।
मुसकाता हो शायद बैठा वह यहीं कहीं खलिहानों में,
हल जोत रहा होवे या उन कृषकों में छिप मैदानों में।
अपने उस युग-युग से खोये प्रभु को ढूँढ़ो दोनों मिलकर,
दोनों से खींच गया है वह इन दैनिक झगड़ों से चिढ़ कर।
*समाप्त*