Magazine - Year 1943 - Version 2
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Language: HINDI
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ब्रह्मानन्द
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(रचयिता-श्री महावीर प्रसाद विद्यार्थी, टेढ़ा-उन्नाव)
(1)
बैठ बसन्त के सुन्दर अड्क में नन्दन-सा खिलता रहेगा।
भानु-विभीषिका में यह राग-सुहाग सभी जलता रहेगा। ।
पाला हुआ तन पावस का पतझार में ये गलता रहेगा।
सर्जन और विसर्जन का क्रम नित्य यहाँ चलता रहेगा।
(2)
उलझता हुआ मानव! आँसुओं की लड़ियाँ अपनी क्यों पिरो रहा है?
व्यर्थ विषाद की कालिमा से मन की यह लालिमा धो रहा है
अम्बर में खिली स्वर्ण-लता उसके लिये विह्वल सा हो रहा है।
देख रहा सपना यह कौन-सा? जगा रहा है कि सो रहा है॥
(3)
सरिता यह मानव-शोणित की वसुधा-तल पै लहरा रही है।
सुख और दुख के भ्रम-पूर्ण-निशा-तम में जगती चकरा रही है। ।
दृंग मींचे हुए यह घोर अशान्ति की ओर बढ़ी चली जा रही है।
मुँह मोड़ के देख अरे। इस ओर तो मंजु उषा मुसका रही है। ।
(4)
छलनामयी कामना जीवन-कुँज में शूल नहीं बिखराती जहाँ।
मलयानिल से इठलाती स्नेह की धारा सदा लहराती जहाँ। ।
जलती वसुयाम वियोग की आग में आशा विहाग न गाती जहाँ।
नव सौरभ से सनी दिव्य प्रभा नित शान्ति-सुधा सरसाती जहाँ। ।
(5)
चल तू वहीं श्रृंग खड़े जो अड़े उनपै हँसता चढ़ता चला जा।
हहरा रहा है, उमड़ा रहा है, जल, निभय हो कढ़ता चला जा। ।
यह कण्टक पूर्ण अरण्य यहाँ अपना पथ तू गढ़ता चला जा।
नित गीत नये-नये गाता हुआ, मुसकाता हुआ बढ़ता चला जा। ।
(6)
कौन है तू, पहचाना कभी, अब तोड़ दे ये अपने प्रिय बन्धन।
मानव, तू तो गिरा हुआ है पशु से भी टटोल अरे ! अपना मन।
मायामयी इस वासना के भ्रम-जाल में खो रहा क्यों अपना पन।
ज्योति अखण्ड है जाग रही उसमें लय तू कर दे यह जीवन। ।
*समाप्त*