Magazine - Year 1943 - Version 2
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Language: HINDI
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अभागो! आँखें खोलो!!
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(समर्थ गुरु रामदास)
अभागे को आलस्य अच्छा लगता है। परिश्रम करने से ही है और अधर्म अनीति से भरे हुए कार्य करने के सोच विचार करता रहता है। सदा भ्रमित, उनींदा, चिड़चिड़ा, व्याकुल और संतप्त सा रहता है। दुनिया में लोग उसे अविश्वासी, धोखेबाज, धूर्त, स्वार्थी तथा निष्ठुर दिखाई पड़ते हैं। भलों की संगति उसे नहीं सुहाती, आलसी, प्रमादी, नशेबाज, चोर, व्यभिचारी, वाचाल और नटखट लोगों से मित्रता बढ़ाता है। कलह करना, कटुवचन बोलना, पराई घात में रहना, गंदगी, मलीनता और ईर्ष्या में रहना यह उसे बहुत रुचता है।
ऐसे अभागे लोग इस दुनिया में बहुत है। उन्हें विद्या प्राप्त करने से, सज्जनों की संगति में बैठने से, शुभ कर्म और विचारों से चिढ़ होती है। झूठे मित्रों और सच्चे शत्रुओं की संख्या दिन दिन बढ़ता चलता है। अपने बराबर बुद्धिमान उसे तीनों लोकों में और कोई दिखाई नहीं पड़ता। खुशाकय, चापलूस, चाटुकार और धूर्तों की संगति में सुख मानता है और हितकारक, खरी खरी बात कहने वालों को पास भी खड़े नहीं होने देता नाम के पथ पर सरपट दौड़ता हुआ वह मंद भागी क्षण भर में विपत्तियों के भारी भारी पाषाण अपने ऊपर लादता चला जाता है।
कोई अच्छी बात कहना जानता नहीं तो भी विद्वानों की सभा में वह निर्बलता पूर्वक बेतुका सुर अलापता ही चला आता है। शाम का संचय, परिश्रम, उन्नति का मार्ग निहित है यह बात उसके गले नहीं उतरती और न यह बात समझ में आती है कि अपने अन्दर की त्रुटियों को ढूँढ़ निकालना एवं उन्हें दूर करने का प्रचण्ड प्रयत्न करना जीवन सफल बनाने के लिए आवश्यक है। हे अभागे मनुष्य! अपनी आस्तीन में सर्प के समान बैठे हुए इस दुर्भाग्य को जान। तुम क्यों नहीं देखते? क्यों नहीं पहचानते?