Magazine - Year 1943 - Version 2
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Language: HINDI
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यौवन की जिम्मेदारी
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(श्री सच्चिदानन्दजी पाण्डेय, पुँवाया)
युवावस्था जीवन का वह अंश है, जिसमें उत्साह, स्फूर्ति, उमंग, उन्माद और क्रिया शीलता का तरंगें प्रचण्ड वेग के साथ बहती रहती है। अब तक जितने भी महत्वपूर्ण कार्य हुए हैं, उसकी नींव यौवन की सुदृढ़ भूमि पर ही रखी गई हैं। बालकों और वृद्धों की शक्ति सीमित होने भाई के कारण उनसे किसी महान् कार्य की आशा बहुत ही स्वल्प मात्रा में की जा सकती है।
वृक्ष बसन्त ऋतु में पल्लव, पुष्प और फलों से सुशोभित होते हैं। मनुष्य अपने यौवन काल में पूर्ण आया के साथ विकसित होता है। वृक्षों को कई बसन्त बार-बार प्राप्त होते हैं, पर मनुष्य का यौवन बसन्त केवल एक बार ही आता है, इसके बाद असमर्थता और निराशा से भरी वृद्धावस्था तत्पश्चात् मृत्यु! जिसने यौवन का सदुपयोग नहीं कर पाया, उसको हाथ मल-मल कर पक्ष ताना ही शेष रह जाता है।
यौवन सब से बड़ी जिम्मेदारी है। यह ईश्वर की दी हुई सब से बड़ी अमानत है, जिसका समय रहते उसमें से उत्तम उपयोग करना चाहिए। किसी भी देश और जाति का भाग्य उसके नव-युवकों के हाथ रहता है। जिस समाज के युवक जागरुक परायण और देश भक्त हैं, वहीं सामूहिक उन्नत हो सकती है। जहाँ के युवकों आलस्य, अकर्मण्यता, स्वार्थ परता और दुर्गुणों की भरमार होगी, वह देश जाति कदापि उन्नति के पथ पर अवसर नहीं हो सकती।
एक समय जो संसार का मुकुट मणि था, वह भारत आज सब प्रकार दीन-हीन, पतित-पराधीन बना हुआ है। पद-दलित भारत माता अपने सपूतों की ओर सजल नेत्रों से देख रही है और चाहती है, कि उसके ननिहाल अपने तुच्छ स्वार्थों को छोड़कर आगे बढ़ें और अज्ञान, दरिद्र, दुष्ट दुराचार रूपी असुरों को इस पुण्य भूमि से मार भगावें। भारतीय नवयुवक यौवन की जिम्मेदारी को अनुभव करते हुए तुच्छ स्वार्थों को छोड़कर देश सेवा के पथ पर अग्रसर हो इसकी आज ही सबसे बड़ी आवश्यकता है।
*समाप्त*