Magazine - Year 1943 - Version 2
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Language: HINDI
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विनाश का आराधन
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(लेखक- श्री दिनकर प्रसाद शुल्क विशारद, गोहद)
अल्हड़ जीवन, भोले मानव, तेरे विकास के कितने क्षण।
(1)
तेरे प्रतिभा-प्रकाश मेरे,
ध्वन्यात्मक उरोल्लास मेरे,
अवनत मुख अन्तर जगत झाँक-
है तेरे उर तम का क्रन्दन!
तेरे विकास के कितने क्षण!!
(2)
ऊषा का मदिराघर-विलास
प्रियतम का पावन-प्रणय पाश,
है करुणा वसना रजनी के-
बिखरे यौवन का चित्राँकण!
तेरे विकास के कितने क्षण!!
(3)
विद्युत का चीर सद्यत सवेश
रह रह नभ का उल्कोन्मेष,
वारिद की तिमिराच्छन्न क्षीण-
रेखाओं का है समीकरण!
तेरे विकास के कितने क्षण!!
(4)
यह प्रकृति नटी का अमिट नाट्य,
यह अभिनय अभिनव तर अकाट्य,
प्रलयान्धकार की रंग भूमि-
का है पैशाचिक दिग्दर्शन!
तेरे विकास के कितने क्षण!!
(5)
यह तेरा वैभव उदधि लुब्ध,
कल्लोल-विक्रीड़ित-स्वर अक्षुब्ध,
है उजड़ी सैकत चाहों का-
आहों से उर्वर उत्पीड़न!
तेरे विकास के कितने क्षण!!
(6)
तेरे हर्षों का रब अपार,
है शत-शत उर का चीत्कार,
तेरे विराम की आशायें-
हैं अगणित अधरों के स्पन्दन!
तेरे, विकास के कितने क्षण!!
(7)
यह प्रस्तर खण्डों का संचय,
मुक्ता, मणि, लुटा लुटा निर्दय,
अभिमानी, रजत-भ्राँति-रंजित,
भू-रज का क्यों यह संरक्षण!
तेरे विकास के कितने क्षण!!
(8)
मानवता वक्षोपरि दानव,
रच उठा आज भीषण ताण्डव,
है ये अपृप्त इच्छायें ही-
तेरे विनाश का आराधन!
तेरे विकास के कितने क्षण!!
*समाप्त*