Magazine - Year 1943 - Version 2
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Language: HINDI
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निजी प्रयत्न का फल
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(आत्म गौरव की साधना)
आध्यात्मिक शास्त्र का यह एक अटल सिद्धान्त है कि जो अपने को जैसा मानता है, उसका बाह्य आचरण भी वैसा ही बनने लगता है। बीज से पौधा उगता है और विचारों से आचरण का निर्माण होता है। जो अपने को दीन, दास, दुखी, दासता मानता है वह वैसा ही बना रहेगा। हमारे देश में दीनता, दद्रिता, दुख, दरिद्रता के विचार फैले और भारतभूमि ठीक वैसी ही बन गई। अपने निवास लोक को जब हम ‘जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ कहते थे तब यह दैव लोक थी, जब ‘भव सागर’ कहने लगे तो वह बद्ध कारागार के रूप में हमारे मौजूद है। यदि आप अपने को नीच पतित मानते हैं तो विश्वास रखिये आप वैसे ही बने रहेंगे कोई भी आपको ऊँचा या पवित्र न बना सकेगा, किन्तु जिस दिन आपके अन्दर से आत्मगौरव की आध्यात्मिक महत्ता की हुँकार उठने लगेगी उसी दिन से आपका जीवन दूसरे ही ढांचे में ढलना शुरू हो जायेगा संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं उनमें उनके निजी प्रयत्न का ही श्रेय अधिक है। हम मानते कि दूसरों की सहायता से भी उन्नति होती है पर यह सहायता उन्हें ही प्राप्त होती है। जो अपने सहायता खुद करते हैं।