Magazine - Year 1944 - Version 2
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Language: HINDI
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थके हुए विहंग से
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(लेखक-कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर, अनुवादक-साहित्य-रत्न श्री सुधीन्द्र बी. ए.)
(1)
यदि संध्या बढ़ती आती है गति मन्द मन्द मन्थर चलकर।
संगीत रुक गया हैं दिन का उसके इन नीरव इंगित पर।
साथी-संगी भी नहीं एक सूना-सा हैं अनन्त अम्बर।
यदि अंग-अंग में भी तेरे आई है गहरी क्लाँति उतर॥
जाग्रत हैं अन्तर में तेरे यदि निस्वर आशंका महान।
सोये हैं सारे दिग दिगन्त अपने अवगुण्ठन श्याम तान॥
मेरे विहंग, अंधे विहंग, पर पंख अभी तू बन्द न कर।
(2)
अब भी मेरे आगे विहंग! हैं रात बड़ी लम्बी-दृभर।
सम्मुख सुदूर अस्ताचल पर हैं अब भी ऊंघ रहा दिनकर॥
संसार सकल निश्वास रोक एकान्त स्तब्ध-आसन ऊपर।
रजनी के ये धीमे-धीमे है एक-एक गिन रहा पहर॥
तिर अंधकार सागर अकूल, कढ़ अभी अभी ही लिए बाँक
पश्चिम-दिशान्त पर वह सुदूर हैं क्षीण चंद्रमा रहा झाँक॥
मेरे विहंग, अंधे विहंग, पर पंख अभी तू बन्द न कर।
(3)
तारागण अम्बर में ऊपर अँगुलियों से इंगित कर कर।
तेरी ही ओर निहार रहे अपनी अनिमेष दृष्टि रख कर॥
नीचे अधीर गंभीर मरण शत-शत लहरों से लहर-लहर।
तेरी ही ओर दौड़ता हैं उद्वेलित, उछल उछल कर॥
वे किन्तु न जाने कौन वहाँ हैं खड़े हुए बहु दूर, पार।
कर जोड़ करुणा अनुनय करके ‘आओं-आओं!’ करते पुकार!
मेरे विहंग, अंधे विहंग, पर पंख अभी तू बन्द न कर!
(4)
भय नहीं, मीति भी नहीं अरे, ने स्नेह-मोह का पाश ।
आशा न यहाँ, आशा केवल छल हैं जग में-झूठा- ।
मुँह में न अरे वाणी नहीं कोई बैठना वृथा न ।
टिक रहने को घर-बार नहीं फूलों की सेज ॥
हैं पंख, पंख बस विद्यमान, फैला आँगन-सा ॥
हैं निबिड़ भयावह अन्धकार, हैं कहीं न ऊषा- ।
मेरे विहंग, अन्धे विहंग, पर पंख अभी तू बं ।
*समाप्त*