Magazine - Year 1944 - Version 2
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Language: HINDI
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राजा भोज का स्वप्न
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(श्री मंगलचन्दजी भंडारी, हि. सा. विशारद)
एक दिन राजा भोज गहरी निद्रा में सोया हुआ था। उसे स्वप्न में एक बड़े तेजस्वी वृद्ध पुरुष के दर्शन हुए। भोज ने उससे पूछा -भगवन् आप कौन हैं? वृद्ध ने कहा-हे राजन्! मैं सत्य हूँ। तुझे तेरे कार्यों का वास्तविक स्वरूप दिखाने आया हूँ। मेरे पीछे पीछे चला आ, और अपने कार्यों की वास्तविकता को देख। राजा प्रसन्नता पूर्वक उस वृद्ध पुरुष के पीछे पीछे चल दिया।
राजा भोज अपने को बहुत बड़ा धर्मात्मा समझता था। उसने दान, पुण्य, यज्ञ, व्रत, उपवास, तीर्थ यात्रा, कथा, कीर्तन, भजन, पूजन आदि में कुछ भी कसर न रहने दी थी। वह ब्राह्मणों का बड़ा सत्कार करता था, उन्हें प्रचुर दक्षिणा देकर संतुष्ट करता था। मन्दिर बाग, बगीचे, कुंआ, बावड़ी, तालाब आदि उसने एक से एक अच्छे बनवाये थे। अपनी इन वृत्तियों को देख देखकर राजा मन नहीं मन बहुत अभिमान किया करता था।
वृद्ध पुरुष के रूप में आया हुआ सत्य राजा भोज को अपने साथ लेकर उसकी कृतियों के पास ले गया। पहले एक बड़े भारी बगीचे में वह उसे ले गया। भोज का लगाया हुआ यह बगीचा फल फूलों से लदा हुआ था। सत्य ने कहा-हे भोज! तुझे अपनी इस कृति के बाह्य रूप को देखकर बड़ा अभिमान होगा। पर इसमें असलियत कितनी है यह मैं तुझे अभी दिखाये देता हूँ। सत्य ने एक पेड़ को छुआ, छूते ही उसके सारे फल फूल ओर पत्ते जमीन पर गिर पड़े छुए और वे सभी ठूँठ हो गये। यह सब देखकर भोज के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। आकुलता पूर्वक चिन्तित नेत्रों से सत्य की ओर देखा। वृद्ध पुरुष ने कहा-मैं जानता हूँ कि तुम इसका कारण जानना चाहते हो पर आओ मुझे अभी तुम्हारी अन्य कृतियों का भी खोखलापन दिखाना है। उन्हें दिखा लेने के बाद ही इसका कारण तुम्हें बताऊँगा।
सत्य, राजा भोज को साथ लेकर आगे बढ़ा वह उसे उस स्वर्ण जटित मन्दिर के पास ले गया जिस पर भोज को बड़ा अभिमान था। सत्य ने उसे जरा सा छुआ, छूते ही उसकी सारी चमक उड़ गई। सोना लोहे के समान काला हो गया, आलीशान पत्थर जमीन पर गिर गिर कर चूर होने लगे थोड़ी ही देर में वह गगनचुम्बी मन्दिर टूटे फूटे खँडहर के रूप में परिणित हो गया। इस दृश्य को देखकर राजा के होश उड़ने लगे। वह जड़ पत्थर की तरह गति हीन होकर खड़ा हो गया, सत्य ने कहा- राजन्! विषाद मत करो, अभी और मेरे साथ आओ, मैं तुम्हारे सभी धर्म कार्यों की वास्तविकता खोल खोल कर सामने रखे देता हूँ।
वृद्ध पुरुष आगे बढ़ा उसने राजा के यज्ञ, तीर्थ, कथा, कीर्तन, पूजन, भजन, दीन, व्रत आदि के निमित्त बने हुए स्थानों, व्यक्तियों और उपादानों को हुआ। सत्य जिस वस्तु से उंगली लगाता था, उसी की चमक दमक गायब हो जाती थी और टूटे फूटे नष्ट रूप में वह भूमि पर गिर पड़ती थी। कुंआ, बावड़ी, मन्दिर मठों की भी यही दुर्गति हुई। दान में दी हुई धन की बड़ी भारी स्वर्ण राशि के निकट भी उसे ले जाया गया, सत्य ने जैसे ही उसे छुआ वह भी मिट्टी कंकड़ की शकल में बदल गई। राजा को अपनी जिन जिन वस्तुओं पर अभिमान था उन सभी को सत्य ने स्पर्श करके दिखाया। वे सभी निकम्मी-झूठी और निष्फल साबित हुई। राजा की आँखों के आगे अँधेरा छा गया। जिन वस्तुओं को देख देखकर वह फूला नहीं समाता था, उनकी यह दुर्गति होते देख कर भोज के पैरों तले से जमीन खिसकने लगी। वह हत बुद्धि होकर वहीं जमीन पर बैठ गया।
सत्य ने कहा- राजन्! वास्तविकता को समझो। भ्रम में मत पड़ो। भौतिक वस्तुओं के न्यूनाधिकता के आधार पर धर्म की न्यूनाधिकता नहीं होती। कर्म के राज्य में भावना का सिक्का चलता है। भावना के अनुरूप ही पुण्य फल प्राप्त होता है। यश की इच्छा से, लोक दिखावे के लिए जो कार्य किये गये हैं उनका फल इतना ही है कि दुनिया की वाहवाही मिल जाए। सच्ची सद्भावना से, निस्वार्थ होकर, कर्तव्य भाव से जो कार्य किये गये हैं वे ही पुण्य फल हैं। एक गरीब आदमी जिसके पास पैसा नहीं हैं यदि निस्वार्थ भाव से किसी को एक लोटा जल पिलाता है तो उसका पुण्य किसी यश लोलुप धनी के लाख करोड़ रुपया खर्च करने से अधिक है। मजहबी कर्मकाण्डों की कवायद पूरी कर देने मात्र से यदि पुण्य प्राप्त हो जाता तो धनिकों के लिए या अमुक मजहब वालों के लिए ही धर्म खरीद लिया गया होता परन्तु सचाई यह नहीं है। वास्तविकता यह है कि जो मनुष्य अपने तुच्छ स्वार्थों से आगे बढ़कर कर्तव्य भावना से लोग कल्याण के लिए ठीक कार्य करता है वही पुण्य होता है और उसी का पुण्य फल प्राप्त होता है। बाकी अन्य आडम्बर तो दिखावा मात्र हैं उनकी पहुँच तो इस लोक तक ही है। धर्म के राज्य तक इनकी पहुँच नहीं हो सकती।
इतना कह कर वह वृद्ध पुरुष के रूप में आया हुआ सत्य अन्तर्धान हो गया। भोज की निद्रा टूटी। उसने गंभीरतापूर्वक अपने स्वप्न पर विचार किया और अन्त में इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि भौतिक साधनों की सहायता से पुण्य कमाने की आशा छोड़ कर मनुष्य को अपने अन्तःकरण की पवित्रता और विशुद्धता की ओर प्रवृत्त होना चाहिए, क्योंकि धर्म अधर्म की जड़ मन में हैं बाहर नहीं।
सात्विक सहायताएं
इस मास ज्ञान यज्ञ के लिए निम्नलिखित सात्विक सहायता प्राप्त हुई हैं। अखंड ज्योति इन महानुभावों के प्रति अपनी आन्तरिक कृतज्ञता प्रकट करती है।
5. श्री दयाशंकर जी दुवे, कान्हेपुर।
5. श्री गोवर्धनदासजी खिमज भाई, पौनी।
2. श्री शिवप्रतापजी श्रीवास्तव, कानपुर।
1. श्री धर्मपालसिंहजी, रुड़की।