Magazine - Year 1945 - Version 2
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Language: HINDI
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ईर्ष्या क्यों करते हो?
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(श्री हरदयाल जी एम. ए.)
प्रकृति सब प्रकार के उपहार एक व्यक्ति को नहीं देती, किन्तु वह उनमें से कुछ उपहार प्रत्येक व्यक्ति को देती है जिससे वह सब बराबर हो जाता है। आप सुन्दर और बुद्धिमान और प्रसिद्ध और सब कुछ नहीं हो सकते। “मैं” और “मुझको” के विषय में अधिक सोचना बंद कर दो, वरन् “हम” और “हमको” के विषय में अधिक सोचा करो। इस प्रकार करने से ईर्ष्या अपने आप दूर हो जावेगी और आप में सहानुभूति पूर्ण कद्र करने की प्रवृत्ति उत्पन्न होकर विकसित होगी। यदि कोई व्यक्ति आपसे अधिक प्रसिद्ध है तो यह विचार करो, यह ख्याति मेरी ही है, केवल यह दूसरे के नाम के साथ है।” आपके भाई-दूसरे मनुष्य में-जो कुछ गुण हैं वह मानवी एकता के नियम से आपके ही हैं। आपको यह भी सोचना चाहिये कि प्रत्येक पुरुष किन्हीं बातों में दूसरों से अधिक और किन्हीं बातों में कम होता है। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति की क्षतिपूर्ति हो जाती है। ईर्ष्या, अभिमान और असमानता से उत्पन्न होती है, यह एक पूर्णतया प्रतिशोधात्मक और अलाभदायक भाव है, क्योंकि आप केवल दूसरों से ईर्ष्या करके सौंदर्य, बुद्धि अथवा ख्याति को प्राप्त नहीं कर सकते, ईर्ष्या करने से आप उस कुत्ते के समान हो जाते हो, जो हाथी अथवा मोटरकार पर भौंकता है।
ईर्ष्या करने से आपको कुछ नहीं मिलता इसके विरुद्ध अपने ही ओछेपन और स्वार्थपरता से आपके मन की शान्ति और आपका आनन्द दूर हो जाता है।