Magazine - Year 1945 - Version 2
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Language: HINDI
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गायत्री का अर्थपूर्ण संदेश।
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गायत्री के मंत्र का शाब्दिक अर्थ भी इतना महत्वपूर्ण है कि उसकी महत्ता असाधारण प्रतीत होती है। एक-एक शब्द ऐसा नपा तुला है कि मानव जीवन में जिन तत्वों की सर्वोपरि आवश्यकता है उन्हीं की ओर मन्त्र में ध्यान दिलाया गया है, उन तत्वों को प्राप्त करने और सुरक्षित रखने की प्रेरणा की गई है।
अब आइये, गायत्री मंत्र के एक-एक शब्द का अर्थ करें-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य
धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
ॐ (ब्रह्म) भूः-(प्राण स्वरूप) भुवः-(दुःख नाशक) स्वः-(सुख स्वरूप) तत्-(उस) सवितुः-(तेजस्वी-प्रकाशवान्) वरेण्यं-(श्रेष्ठ को) भर्गो-(नाशक) देवस्य-(देने वाले को, दिव्य को) धीमहि-(धारण करें) धियो-(बुद्धि) यो-(जो) नः-(हमारी) प्रचोदयात्-(प्रेरित करे)
अर्थात्- उस सुख स्वरूप, दुःख नाशक, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पाप नाशक, प्राण स्वरूप ब्रह्म को हम धारण करते हैं। जो हमारी बुद्धि को (सन्मार्ग की ओर) प्रेरणा देता है।
“हम अपने अन्दर प्राण स्वरूप ब्रह्म को धारण करें,” यह इस मन्त्र का मुख्य उपदेश है। असंख्य मनुष्य चलते-फिरते पुतले की तरह जीते हैं। उनमें जान तो है पर प्राण नहीं है। निष्प्राण व्यक्ति, ‘जीवित मृतक’-बन कर जीवन को जीना मनुष्यता को कलंकित करना है। ऐसा जीवन भू-भार बढ़ाना है। जीवन परमात्मा की आत्म गौरव के अनुरूप नीति से जीवित रहना चाहिए।
प्राण युक्त- जीवट दार-महानता से भरा हुआ, जीवन-जीना मनुष्य का कर्त्तव्य है। इस कर्त्तव्य की ओर ही वेद माता गायत्री ने संकेत किया है।
ब्रह्म- जिसको प्राप्त करने के लिए योगी जन सदा प्रयत्न करते रहते हैं। वह ब्रह्म कोई दूर की वस्तु नहीं है, वह प्राण स्वरूप है। जिसने प्राण को धारण कर लिया। जिसके पास प्राण है उसके पास ब्रह्म है। इस ‘जान’ और ‘प्राण’ के भेद को भली प्रकार समझने की आवश्यकता है। जान रहने से चलना, फिरना, सोना, उठना, बैठना, आहार, निद्रा, भय, मैथुन आदि की क्रियाएँ होती रहती हैं। वृक्ष, वनस्पति, उद्भिज कीट-पतंग आदि में जान होती है, यह जानदार होते हैं परन्तु जिस प्राण का ‘भूः’ शब्द में संकेत किया गया है वह भिन्न प्रकार है। वह मानवोचित महत्ताओं का, आध्यात्मिक विशेषताओं का द्योतक है। यह तत्व जिसमें जितनी अधिक मात्राओं में होता है, वह उतना ही उच्च उन्नतिशील गिना जाता है। शास्त्रों में ब्रह्म हत्या को सर्वोपरि पाप माना गया है, वह इसलिए कि जिसमें ‘भू’ तत्व, प्राण तत्व, आध्यात्मिक उच्च तत्व, अधिक है, वह अति मानव है महापुरुष है, साधारण जानदार जीवों से अधिक ऊँचा है, अज्ञानी और अविवेकी मनुष्यों से भी अधिक ऊंचा है। ब्रह्म को-सत्प्राण को-अधिक मात्रा में धारण करने वाला ही ब्राह्मण है। ऐसे ब्रह्मभूत ब्राह्मण की हत्या को ‘सर्वोपरि पाप’ शास्त्रों ने ठीक ही कहा है। इन अति मानव ब्राह्मणों की सत्कारणीय और पूजनीय भी ठीक ही कहा है।
यों तो ‘जान’ को भी प्राण कहते हैं। जानदार जीव को, प्राणी कहा जा सकता है परन्तु ‘भूः’ शब्द द्वारा जिस प्राण का गायत्री में उल्लेख है, वह ब्रह्म स्वरूप है। इस प्राण को समझने में किसी प्रकार का भ्रम एवं सन्देह न रहे इसलिए उसके लक्षणों को भी मंत्रकार ने स्पष्ट कर दिया है। दुःख नाशक, सुख स्वरूप, तेजस्वी, प्रकाशवान, श्रेष्ठ, पाप नाशक, देने वाला-दिव्य, यह विशेषताएँ जिस प्राण में हों वहीं भूः है, इन गुणों का अन्तःकरण में सुदृढ़ समावेश हो जाना ही ब्रह्म-प्राप्ति है।
यदि हम गायत्री के उपदेशानुसार ‘भूः’ तत्व रूपी ब्रह्म को प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें उन गुणों को ढूँढ़-ढूँढ़ कर अपने अन्दर भरना होगा जो कि उसके गुण हैं। जिसमें असुरता के गुण अधिक हो जाते हैं वही असुर कहलाने लगता है, यक्ष, गंधर्व, किन्नर योगी, यती, ब्रह्मचारी पिशाच, हत्या, गायक, दुराचारी आदि विशेषण गुणों के आधार पर मिलते हैं, जिसमें जो गुण अधिक हो जाते हैं उसको उसी नाम से पुकारा जाने लगता है, उसके अन्दर दुराचार, पिशाचत्व ब्रह्मचर्य आदि तत्वों की स्थिति मान ली जाती है। भूः तत्व धारण करना कोई आभूषण, वस्त्र, सूत्र, कवच, तिलक कंठी आदि धारण करना नहीं है जिसमें भूः तत्व के गुण आ गये समझ लीजिए कि उसमें प्राण स्वरूप ब्रह्म की धारण हो गई। वायु में शीतलता, शरबत में मिठास, मिर्च में तीखापन दिखाई नहीं पड़ता, परन्तु गुणों को देखकर यह कहा जाता है कि इसमें यह पदार्थ विद्यमान है, इसी प्रकार भूः तत्व की धारणा हुई है या नहीं यह बात आँखों से दिखाई नहीं देती तो भी उस तत्व के गुणों का समावेश हुआ है या नहीं यह देखकर आसानी से जानी जा सकती है।
गायत्री ने मतानुसार ब्राह्मी-स्थिति वह स्थिति है जिसमें मन से दुखों की समाप्ति हो जाती है और सुख का अनुभव होता रहता है, जिसमें मन तेजस्वी और प्रकाशवान बनता है, कायरता, भय, झिझक को हटाकर स्वतन्त्रता की ओर बढ़ता है, अन्धकार अज्ञान और अविवेक को छोड़ कर प्रकाश की ओर चलता है। जीवन को बहिर्मुखी बना कर इन्द्रिय भोगों की सामग्री जुटाने तथा नीच वृत्तियों की तृप्ति करने में न लग कर उद्देश्यमय, सिद्धाँत सम्मत, कर्त्तव्य धर्म से परिपूर्ण, अन्तर्मुखी बनने की श्रेष्ठता ग्रहण करता है। वह पाप भावनाओं को अपवित्र विचार और कार्यों को, अपने पास नहीं फटकने देता। संसार को कुछ देते रहना, दूसरों की सेवा करते रहना, परोपकार में रख लेना, उसका स्वभाव बन जाता है। देव लोग दिया करते हैं-साधारण वस्तुएं नहीं-दिव्य वस्तुएँ सद्ज्ञान, सदुपदेश, सन्मार्ग का प्रसार जो अपनी कथनी और करनी दोनों के द्वारा करता है वह देव है ऐसा देवत्व भी भूः तत्व के धारण करने वालों में होता है।
हमें तुच्छ, मायाबद्ध, कुटिल, खल, कामी, नश्वर आदि विशेषणों वाले ‘जीव भाव’ से ऊंचा उठा कर सत् चित्, आनन्दमयी ब्राह्मी-स्थिति में जागृत होना चाहिये। हम साधारण से साँसारिक हानि लाभों से अपने आपको दुखी न बनावें, भौतिक पदार्थों का स्वभाव ही बिगड़ना, बदलना और परिवर्तन होना है, इस स्वभाव को कायम रखना सृष्टि संचालन के लिए अनिवार्य है। यदि वस्तुएँ ज्यों की त्यों एक ही अवस्था में बनी रहें तो आगे का निर्माण कार्य रुक जायगा। यदि धन जहाँ का तहाँ रुक जाय तो सारे व्यापार बन्द हो जायं, यदि मृत्यु बन्ध हो जाय तो नये प्राणी भी उत्पन्न न होंगे, यदि खेत में वर्तमान पौधे ही खड़े रहें तो आगे की फसल कैसे उत्पन्न की जा सकेगी? सृष्टिकर्ता ने सृष्टि संचालन के लिए परिवर्तन का नियम बनाया है। इस नियम के अनुसार हमारी किसी वस्तु या स्थिति में अरुचिकर परिवर्तन होता हो तो उस सीधी सी बात के लिए दुखी न होना चाहिये वरन् अपनी स्वाभाविक सच्चिदानन्द स्थिति के कारण सदा प्रफुल्ल, प्रसन्न, आनन्दित रहना चाहिये। ‘भुवः’ और स्वः शब्दों का हमारे लिए यही उपदेश है।
सवितुः-सूर्य के समान तेजस्वी, प्रकाशवान्, हम बनें। अन्धकार चाहे जितना ही बड़ा क्यों न हो चाहे वह दिग्दिगन्त में सुदूर देशों तक फैला हुआ हो, असंख्य प्राणी उस अन्धकार में होश-हवाश छोड़ कर मूर्छित पड़े हुए हों, परन्तु फिर भी उसकी परवाह न करके उसे नष्ट करने का ही प्रयत्न करना चाहिये। सविता-सूर्य-अकेला ही अन्धकार से लड़ता है कोई दूसरा साथी उसके साथ उसके कार्य में सहयोग देने नहीं आता तो भी वह अकेलेपन की परवाह न करके अपना काम जारी रखता है। पाप, अन्याय, अत्याचार, अविचार, अन्धविश्वास, हानिकारक-रीति-रिवाज, यह सब अन्धकार के रूप हैं, हमें तेजस्वी सविता बन कर इनका निवारण करने का प्रयत्न करते रहना चाहिये। अन्धकार का विस्तार अधिक देखकर डरने, पीछे हटने या कायरता मन में लाने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। निर्भीकता धारण करके तेजस्वी सूर्य के समान यथा शक्ति इनका विरोध ही करते रहना चाहिये। अविचार या अन्याय की बड़ी से बड़ी शक्ति हो तो भी उसके विपक्ष में सत्य का प्रकाश करना चाहिये। हमें अपने मन के भीतरी कोनों में, अन्धकार में, छिपे हुए काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद मत्सर आदि शत्रुओं को अपने आत्मिक प्रकाश द्वारा ढूँढ़ निकालना चाहिये और अपनी दृढ़ तेजस्विता के साथ उन्हें मन के पवित्र प्राँगण में से निकाल कर बाहर कर देना चाहिये। हमारा सांसारिक जीवन निर्भीक, स्पष्ट, खरा, एवं तेजस्वी होना चाहिये। हमारे विचार और कार्यों से दूसरों को प्रकाश मिले, अपने बौद्धिक प्रकाश द्वारा उपयोगी तथ्यों को ही चुनें ‘सवितुः’ शब्द का हमारे लिए यही संकेत है।
वरेण्यं-श्रेष्ठ। हम श्रेष्ठ बनें। पैसे की सर्वभक्षी हविस ने आदमी को शैतान बना दिया है। जिह्वा के चटोरेपन के ऊपर करीब आधी जिन्दगी बलिदान कर दी जाती हैं। भोग-विलासों की तृष्णा में पतंगे की तरह लोग जले जा रहे हैं। भोग सामग्री जुटाना यही एक कार्यक्रम लोगों के सामने है, पाशविक वृत्तियों को तृप्त करने तक की ही अभिलाषाएँ मनोभूमि में उठती हैं। यह बहिर्मुखी प्रवृत्तियाँ अभद्र हैं, अश्रेयष्कर हैं, श्रेष्ठता से रहित हैं। गायत्री कहती है कि हम वरेण्य प्राण का धारण करें, अपने अन्दर श्रेष्ठता, महानता, विकसित करें। आत्मा परमात्मा का अंश है, इसका अवतार संसार में होता है। जीवन धारण करने का अभिप्राय प्रभु की पवित्र सृष्टि में उसकी आज्ञाओं और इच्छाओं का सन्तुलन ठीक रखना और दूसरों से रखवाना है। जीवन कायम रखने के लिए भौतिक पदार्थों की इतनी कम मात्रा में आवश्यकता है कि बिना किसी प्रकार का पाप किये बड़ी आसानी के साथ, सुविधापूर्वक, पूरी ईमानदारी के साथ उन्हें कमाया जा सकता है। यह कहना गलत है की पेट के लिए पाप करते हैं। पेट की मर्यादा इतनी छोटी है कि वह बिना पाप के आसानी से भर सकता है-पाप तो तृष्णा के लिए किया जाता है। अनन्त तृष्णाओं के लिये अनन्त पाप करते जाना अश्रेष्ठ है। हमें श्रेष्ठ बनना चाहिये। संयमित, अपरिग्रही, संतोषी रह कर जीवन को उच्च उद्देश्यमय, सिद्धाँत सम्मत, कर्त्तव्य धर्म से परिपूर्ण बनाना चाहिये। आध्यात्मिक सत्सम्पत्तियाँ एकत्रित करने के लिए वैसा ही उद्योग करते रहना चाहिये जैसा कि माया बन्धन में बँधे हुए जीव, माया के लिये खून पसीना एक करते हैं। यही श्रेष्ठता है- हमें ऐसा ही ‘वरेण्य’ होना चाहिए। (अपूर्ण)