Magazine - Year 1945 - Version 2
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विचारशक्ति द्वारा समृद्धि प्राप्ति
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(डॉ. रामचरण महेन्द्र एम. ए. डी. लिट्)
यों तो संसार में अनेक निंद्य वस्तुएं मनुष्य का पतन करती हैं किन्तु शायद दुनिया की सबसे निकृष्ट वस्तु है विचार दारिद्रय। विचार दारिद्रय ने आज अनेक व्यक्तियों को दारिद्रय की कठोर शृंखलाओं में जकड़ रक्खा है, उनमें कुत्सित संकीर्णता, सीमा बंधन तथा संकुचितता की क्षुद्र वृत्तियाँ उत्पन्न कर दी हैं, मानव जीवन में एक विषम अंधकार फैला दिया है। विचार दारिद्रय ने मानव-समाज का बड़ा अपकार किया है और मनुष्यों की आत्मा को संकुचित, पराधीन एवं दीन-हीन बनाया है।
विचार की दरिद्रता- यह एक निश्चित, अकाट्य, निर्विवाद सत्य है कि विचार की दरिद्रता के कारण मनुष्य दरिद्री बनता है। अपने अन्तःकरण की न्यूनता, गरीबी, असमर्थता की वृद्धि करता है। दरिद्रता की दास-वृत्ति बहुत कुछ मनुष्यों के विचारों के परिणाम स्वरूप है। हर्ष का विषय है कि धीरे-धीरे मनुष्यों को विचार की अद्भुत शक्ति का ज्ञान होता जा रहा है और इस तथ्य पर पूर्ण विश्वास हो गया है कि मनुष्य को संकुचित, पराधीन, पंगु एवं निकृष्ट बनाने वाले उसके विचार ही हैं।
अनेक व्यक्ति इस बात का रोना रोया करते हैं कि “हाय, हमारे पास अमुक वस्तु नहीं है। हम स्वादिष्ट भोजन नहीं कर पाते। उत्तम वस्त्र नहीं पहन पाते। हम वैसा उत्कृष्ट एवं शान−शौकत का जीवन व्यतीत नहीं कर पाते जैसा समाज में अन्य उच्च श्रेणी के व्यक्ति कर रहें हैं।”
ऐसी भयपूर्ण एवं थोथी विचारधारा के कारण अनेक व्यक्ति वायुमंडल से दरिद्रता की लहरें (Waves) अपनी और आकर्षित करते रहते हैं। लूला, लंगड़ा, नेत्र-विहीन, बधिर व्यक्ति यदि दरिद्र रह जाय तो वह इतना तिरस्कार का पात्र नहीं जितना वह भाग्यहीन पुरुष जो अपने मिथ्या विचारों द्वारा संसार की दरिद्रता को खींचा करता है। जो अपने हृदय पटल पर सभी स्थानों में दरिद्रता ही दरिद्रता के डरावने चित्र अंकित कर लेता है। उसकी मुख मुद्रा पर दरिद्रता की कलुषित परछांई सदैव बनी रहती है। मैं जिस दरिद्रता का निर्देश कर रहा हूँ वह मनुष्य की स्वयं उत्पन्न की हुई संकीर्णता है।
दरिद्रता के कीटाणु क्योंकर फैलते हैं?
दरिद्रता के अंकुर सर्वप्रथम मनुष्य के अन्तःकरण में उत्पन्न होते हैं और तत्पश्चात् इधर-उधर विस्तीर्ण होते हैं। पहले मनुष्य के विचार दरिद्री बनने प्रारम्भ होते हैं। वह दरिद्रता के विचारों में रमण करना प्रारंभ करता है। अपने को भाग्यहीन, गिरा हुआ, दीन-हीन मानकर दरिद्रता और भय के विचार जीवन प्रदेश में दृढ़ता से जमा देता है और उसके प्रभाव से एक ऐसा चुम्बक बन जाता है, जो गरीबी, लाचारी, क्षुद्रता को अधिकाधिक परिमाण में अपनी ओर आकर्षित करके लाता है। वह दरिद्र व्यक्तियों की गिरी हुई दशा की ओर आकर्षित होता है, उनके दुखड़े जैसी टूटी-फूटी विचार प्रणाली (System of thinking), उन्हीं जैसी दीन-हीन परिस्थिति (Conditions), उन्हीं जैसी लाचारी तथा असमर्थता की कुप्रवृत्ति से सान्निध्य कर लेता है।
अंधकार, पतन, भिखमंगे, निकृष्ट विचार उसमें हीनत्व की दुर्भावना उत्पन्न कर देते हैं, जिसका भूत सदैव उनके पीछे पड़ा रहता है। अन्तर की दरिद्रता फिर बाह्याँगों पर प्रकट होने लगती है। मुख पर क्षुद्रता, असमर्थता, संकीर्णता के कुत्सित चिह्न प्रकट होने लगते हैं। फिर तो उसकी वस्त्र, भूषा, रहन-सहन, वार्तालाप सब ही में दरिद्रता के कीटाणु प्रवेश करने लगते हैं। जो उसके निश्चय, संकल्प, श्रद्धा, तथा इच्छा की महान शक्तियों एवं सामर्थ्यों का क्षय कर डालते हैं।
विचार-दारिद्रय से ग्रस्त व्यक्ति की विचार प्रणाली- विचार दारिद्रय से ग्रसित व्यक्ति यही सोचा करता है कि मेरे भाग्य में विधाता ने दारिद्रय ही लिखा है। मैं दरिद्र हूँ तथा सदैव दरिद्र रहूँगा। मेरे लिए संसार के सुख, ऐश्वर्य, समृद्धि नहीं है। मैंने पूर्व जन्म में न जाने कौन ऐसे पाप किए हैं, जिनके दंड स्वरूप भगवान ने मुझे टूटा छप्पर दिया है। मैं दूसरों की अधीनता, कृपा, इगित पर ही निर्भर रह सकता हूँ।
इस प्रकार के संकीर्ण विचारों के कारण मनुष्य की शक्तियाँ पंगु होती हैं। उसे निकट भविष्य में अपनी दुर्गति होती हुई दृष्टिगोचर होती है। अन्तःकरण में कभी शान्त न होने वाला अन्तर्द्वन्द्व प्रारम्भ हो जाता है। विचार दारिद्रय बढ़ जानें पर मनुष्य भिखारी बन जाता है। वह अपनी शक्तियों के प्रति शंकित हो उठता है, उसका आत्म विश्वास उठ जाता है और वह असमर्थ बन जाता है।
हमारी गुरुतम त्रुटि- जगत पिता परमात्मा ने सृष्टि में संकीर्णता, सीमाबंधन या दरिद्रता का स्थान नहीं रक्खा है। ये कुत्सित वस्तुएं संसार में नहीं प्रत्युत हमारे अन्तर में घास-फूस की तरह उग आई हैं। अन्तःकरण में उत्पन्न होकर इन्होंने हमारे आत्मबल तथा गुप्त सामर्थ्य का भक्षण कर लिया है। यही कारण है कि अनेक व्यक्तियों में शरीर का परिवर्तन तो स्पष्ट दीखता है, किन्तु मन बुद्धि, अन्तःकरण एवं समृद्धि का विकास किंचित मात्र भी नहीं दिखाई देता।
इस जगत में दुख देने वाली एक ही सत्ता है और वह मनुष्य का कर्म है। विचार और कर्म में कोई भेदभाव नहीं हैं। विचार बीज हैं और कर्म उसी बीज से उत्पन्न वृक्ष। सुख-दुख उसी के कड़वे मीठे फल हैं। परम शोक का विषय है कि समृद्धि के भंडार इस जगत में रहते हुए भी हम अपनी आत्मा को संकुचित कर डालते हैं, उसमें दुर्दैव के निरुत्साही विचार भर लेते हैं भयपूर्ण दरिद्रता व गरीबी के टूटे-फूटे विचारों में लिप्त रहते हैं। जितना ही अधिक हम दरिद्र संस्कारों से चिपटते हैं, उतने ही अधिक दुःखी बनते हैं। यह वशता ही हमें समृद्धि के भव्य मार्ग पर अग्रसर नहीं होने देती।
समृद्धिशाली जीवन प्राप्त करने के उपाय-
मन में जिस भावना या विचार का प्रबल संचार होता है, मस्तिष्क में उसी प्रकार के जीवाणुओं की रचना होती है आप चाहें कैसी भी निर्धन अवस्था में हो, मस्तिष्क में यह विचार मत आने दो कि दरिद्रता तुम्हें परास्त कर सकती है।
यदि हम अपने जीवन के आदर्शों को नीचे न आने दें, मन के आन्तरिक प्रदेश में गरीबी के विचार- प्रवेश न होने दें, “बुद्धि मंद है, भाग्य फिर गया, गरीबी ही लिखी है।” ऐसे विचारों को मस्तिष्क में संग्रह न होने दें तो निश्चय ही हमारा जीवन परिपूर्ण एवं ऐश्वर्यशाली बन जायगा।
सम्पत्ति के विचार सम्पत्ति को खींच कर हमारे पास लाते हैं, लक्ष्मी का ध्यान अर्थात् लक्ष्मी का विचार लक्ष्मी को आकर्षित करता है। अतएव यदि आप धन की आकाँक्षा करते हैं तो आपको उन शक्तियों को आकर्षित करना पड़ेगा। जिनसे धनोपार्जन में आपकी सहायता हो। दूरदर्शिता, अग्र-सोच की शक्ति, सुबुद्धि, दृढ़ता, निश्चित ध्येय पर ही व्यापार अवलम्बित है। आपके विचार समान विचारों और उसी प्रकार की वस्तुओं को आकर्षित करते हैं। यदि आप दरिद्रता के विचारों को अपने अन्तःकरण में रखेंगे तो दरिद्रता आपकी और ओर आकर्षित होकर आयेगी। इसके विपरीत यदि आप अपने मन में संकल्प करें कि आप धनवान होते जा रहे हैं तो यह विचार आपकी शक्तियों को धन खींचने में सहायता प्रदान करेगा। अतः धन चाहते हो तो उसके ऊपर चित्त को एकाग्र करो।
विचारों का स्वभाव- विचारों का स्वभाव है कि उनका अतिथि-सत्कार करो तो वे पुष्ट होते हैं, बढ़ते हैं, विकसित होकर नवजीवन निर्माण करते हैं। यदि उन्हें दुत्कार दो या उनकी बेइज्जती कर दो और उचित परवाह न करो, तो वे चले जाते हैं और मृत्यु को प्राप्त होते हैं। ऐसे विचारों की कब्रें मन में पड़ी रहती हैं। अतः तुम जिन विचारों को अपना मित्र समझो, जिनसे अच्छी आदत बनती हो, उत्तम स्वभाव का निर्माण होता हो, उन्हीं का बार-बार चिंतन करो, अतिथि-सत्कार करो। इन भव्य विचारों का तुम्हारे जीवन की प्रत्येक घटना पर बड़ा प्रभाव पड़ेगा। मनुष्य का जीवन घटनाओं का समूह है और ये घटनाएं हमारे विचारों के परिणाम हैं। तुम्हारे अन्दर जो विचार शक्ति है, तुम चाहो तो उसके उचित उपयोग से देवता बन सकते हो और यदि चाहो तो पशु भी बन सकते हो। चाहो तो निर्धन हो सकते हो, चाहो तो धनवान हो सकते हो।
विचारों का स्वभाव- विचारों का स्वभाव है कि उनका अतिथि-सत्कार करो तो वे पुष्ट होते हैं, बढ़ते हैं, विकसित होकर नवजीवन निर्माण करते हैं। यदि उन्हें दुत्कार दो या उनकी बेइज्जती कर दो और उचित परवाह न करो, तो वे चले जाते हैं और मृत्यु को प्राप्त होते हैं। ऐसे विचारों की कब्रें मन में पड़ी रहती हैं। अतः तुम जिन विचारों को अपना मित्र समझो, जिनसे अच्छी आदत बनती हो, उत्तम स्वभाव का निर्माण होता हो, उन्हीं का बार-बार चिंतन करो, अतिथि-सत्कार करो। इन भव्य विचारों का तुम्हारे जीवन की प्रत्येक घटना पर बड़ा प्रभाव पड़ेगा। मनुष्य का जीवन घटनाओं का समूह है और ये घटनाएं हमारे विचारों के परिणाम हैं। तुम्हारे अन्दर जो विचार शक्ति है, तुम चाहो तो उसके उचित उपयोग से देवता बन सकते हो और यदि चाहो तो पशु भी बन सकते हो। चाहो तो निर्धन हो सकते हो, चाहो तो धनवान हो सकते हो।
किसी भी पुरुष को ब्राह्मण पर प्रहार नहीं करना चाहिये। यदि कोई उस पर प्रहार कर दे, तो ब्राह्मण को उससे द्वेष नहीं करना चाहिये। शर्म ऐसे पुरुष के लिए जो ब्राह्मण पर प्रहार करता है, उससे अधिक शर्म उस ब्राह्मण के लिए, जो प्रहार करने वाले से द्वेष करता है।