Magazine - Year 1946 - August 1946
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Language: HINDI
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क्या धर्म हमारे पतन का कारण है?
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(पं. शिवनारायण जी गौड़ एम. ए. नीमच)
धर्म हमारी दुर्गति का कारण है। धर्म ने हमारा सत्यानाश किया है। धर्म हमारी गुलामी का कारण है। धर्म ने हमारे देश पर शत्रुओं आक्रमणकारियों को निमन्त्रित किया। धर्म ने हमारे नौजवानों को बुज़दिल बना दिया। धर्म ने हमें गड्ढ़े में गिरा दिया संक्षेप में, हमारे वर्तमान पतन का धर्म ही तो कारण है। यह शब्दावली प्रतिदिन हमारे सुनने में आया करती है।
आइए, इस प्रश्न पर विचार करें कि क्या ये आक्षेप सत्य हैं? इन आक्षेपों की विवेचना से पूर्व हमें यह जानना होगा कि धर्म कहते किसे हैं? शास्त्रकारों ने धर्म की परिभाषा बतायी है कि-
‘यतोऽभ्युदयनिःश्रेयस-सिमृद्धिः स धर्मः’ धर्म की कैसी सर्वांगपूर्ण और जंचती परिभाषा है। धर्म कोई बाह्य-क्रिया नहीं वह तो ऐसी वस्तु है जिससे अभ्युदय (लौकिक व सामजिक) निःश्रेय कल्याण या मोक्ष- (पारलौकिक) और समृद्धि (व्यक्तिगत व समष्टि रूप में भी) हो। धर्म की और भी कई परिभाषाएं हैं पर अधिकतर क्रिया-प्रधान या आचरण-प्रधान होने से किसी अंश तक एकदेशीय हो जाती है और इसीलिए उन पर विचार करना उपयुक्त नहीं।
यदि धर्म का यही रूप है तो न जाने क्यों हमारे साथियों को उससे चिढ़ है या यों कहना चाहिये कि वे उसे उन्नति के मार्ग में रोड़ा अटकाने वाला समझते हैं? उपर्युक्त परिभाषा का प्रथम पद ही अभ्युदय की माँग करता है। जिससे अभ्युदय न हो वह तो धर्म कभी नहीं हो सकता। इतना ही नहीं समृद्धि भी उसके साथ लगी हुई है। वह तो नितान्त लौकिक वस्तु है, फिर धर्म से हमारा अनिष्ट कैसे हो सकता है? यदि यह आपत्ति हो कि यह तो एक आचार्य द्वारा दी गई परिभाषा है तो भी कोई हानि नहीं। आचारात्मक ढंग से उसकी परिभाषा कीजिये (वेद स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः, अथवा, धृतिः क्षमा आदि दशलक्षणात्मक धर्म, चोदनाऽर्थों लक्षणो धर्मः या जैनियों के ‘वत्थु सुभावो धम्मः,’ जिससे कान्ट का ष्ठह्वठ्ठद्दद्गठ्ठ श्वद्बष्द्ध : ञ्जद्धद्बठ्ठद्द द्बठ्ठ ढ्ढह्लह्यद्गद्यद्ध मेल खाता है, पर कहीं भी उसकी वास्तविकता में कोई दोष दृष्टिगोचर नहीं होता।
फिर यह दोष आ कहाँ से जाता है जिसकी आये दिन टीका टिप्पणी होती और जो कभी-कभी हमारी आँखों के सामने भी आ जाता है। इसका उत्तर होगा रूढ़ियां बाह्याचार से। जिन बातों को हमने अभ्युदय के लिये समयानुसार चुना था उन्हें हमने ऐसा पकड़ा कि दिन हो या रात, चैत्र हो या सावन, ईसा छठी सदी हो या बीसवीं, एक ही रूप में पकड़ लिया सो पकड़ लिया फिर छोड़ने का, छोड़ने का तो क्या उसमें थोड़ा सा भी परिवर्तन करने का हमने साहस न रक्खा। रही सही कमी हमारे बाह्याचारों ने पूरी कर दी। किसी मार्ग पर दूरी बताने वाले खम्भों और गांवों का नाम-निर्देश करने वाले प्रतीकों को ही हमने वास्तविक उद्देश्य मान लिया।
जिस नाम की आवश्यकता गुण-स्मरण और तदुपरान्त आचरण के लिये थी उसे केवल गिनना ही मुख्य मान लिया गया। जिस मूर्ति का महत्व अनन्त की ओर इंगित करने में था उसी को ज्ञान प्राप्ति के उपरान्त छोड़ना भी अपराध समझ लिया गया। जिस वर्ण-व्यवस्था को समाज की भलाई के लिए निर्धारित किया था उसे छूत-अछूत के झमेले में डाल दिया, जिस आश्रम-प्रणाली को अवस्थानुसार निश्चित किया था उसे ‘ब्रह्मचर्यात् वा प्रव्रजेत्’ का रूप दे दिया, जिन धार्मिक पर्वों और उत्सवों का सामाजिक व शारीरिक महत्व था उन्हें खाने-पीने के लिए ही समझ लिया, जो धर्म पुस्तकें ज्ञान का प्रसार करने को थी, उन्हें दृष्टि की सीमा दिया, जिन पूर्वजों के अध्यात्म, अद्वैत, कर्म और पुनर्जन्म गूढ़ मनोयोग के परिणाम थे उन्हें मानसिक व्यायाम समझकर केवल माया-माया चिल्लाकर स्वयं ही उसके जाल में फँस गये।
पेट के कारण हमने क्या-क्या नहीं किया? अपने स्वार्थ के लिए हमने कौन से स्वाँग नहीं भरे? धर्म की आड़ में हमने कौन से अनाचार व अत्याचार नहीं किये? पर इसके लिए धर्म जिम्मेदार क्यों? लाठी से कोई यह नहीं पूछता कि उसने चोट क्यों की। आग से यह प्रश्न नहीं किया जाता कि उसने अमूल्य निधि को राख में क्यों बदल दी। पानी से कोई यह नहीं कहता कि वह निरीह व्यक्तियों को क्यों बहा ले जाता है यदि धर्म का दुरुपयोग हमने किया है तो अपराधी हम हैं, धर्म नहीं। यदि धर्म का विकृत रूप हमने किया है तो दोषी हम है, न कि धर्म। यदि धर्म के नाम पर अवनति लाने में हमने सहयोग दिया है तो दण्डाई हम हैं, धर्म कदापि नहीं।
अब प्रश्न केवल यह रह जाता है कि क्या वास्तव में धर्म भारत की उन्नति में बाधक सिद्ध हुआ है? इस प्रश्न का उत्तर देने से पूर्व हमें यह देख लेना पड़ेगा कि उन्नति शब्द से यहाँ क्या तात्पर्य है। इस बात को तो हम बहुत पहले से सुनते आये हैं कि ‘सर्व परवशे दुःखं, सर्व आत्म वशे सुखं’ या पराधीन सपनेहु सुख नाहीं। पर स्वतन्त्रता की सच्ची चेतना हमें इसी सदी के प्रारम्भ में हुई हैं। अब हमें भास होने लगा है कि हमारी अवनति का वास्तविक कारण परतंत्रता है। यूरोप की जागृति के साथ भारत ने भी आँखें मलीं और दूर चकाचौंध के बीच वह भी मार्ग टटोलने लगा। आज हमारी सबसे बड़ी साध स्वतन्त्रता है और इसी का अभाव हमें धर्म के कारण उद्भूत प्रतीत होता है।
पर क्या इस स्वतन्त्रता में हमारे धर्म ने रोड़े अटकाये हैं? एक उत्तर होगा हाँ, दूसरा होगा नहीं। हाँ, इसलिए कि हमारी राजभक्ति हमारे धर्म के अनुसार राजा को ईश्वर का अंश करार देकर उसके विरुद्ध कुछ भी कहने को मना करती है। नहीं, इसलिए कि यह हमने वर्तमान रूप देखा है। क्रान्ति भारत में पहले भी हुई है। बेन को गद्दी से उतारने वाले भी इसी धर्म के अनुयायी थे और साम्राज्य और वैराज्य के छोरों का सन्तुलन करने वाले भी वही थे। राजा को प्रजा द्वारा अधिकार-प्राप्ति की घोषणा करने वाले भी हमारे वही धर्म-ग्रन्थ हैं और दशरथ द्वारा मंत्रि गणों और प्रजावर्ग से अनुमति प्रमाणित करने वाले इतिहास-अन्य भी इसी धर्म के अंग हैं। गणराज्य व संघ शासन कभी इसी धर्म प्राण भूमि पर थे और विदेशियों के आक्रमण की रोक भी उन्हीं धर्मानुयायियों ने की थी। सिकन्दर उलटे मुँह लौटा, शक-हूणों का अस्तित्व संसार से मिट गया, इसी आर्य-जाति के कारण। जिस आर्य जाति ने राजपूताने के वीरों को जन्म दिया, जिन्होंने विदेशियों को नाकों चने चबवा दिये, वह भी इसी धर्म की अनुगामिनी थी। जिस धर्म के अनुयायी श्रद्धानन्द-से शहीद, विवेकानन्द से त्यागी, राम-कृष्ण से परमहंस, तिलक जैसे धर्मप्राण और गाँधी जैसे राजनीतिज्ञ हो वह धर्म उन्नति के मार्ग में बाधक कैसे कहा जाय। विश्व-बन्धुत्व की कल्पना जिस आत्मैक्य के सिद्धान्त द्वारा मिली, भ्रातृभाव का विचार जिस बौद्ध धर्म द्वारा संसार के सामने आया, निष्काम-कर्म का सिद्धान्त, जिस पर सिजविक जैसा आचार शास्त्रज्ञ इस सदी में पहुँचा है जिसकी प्रस्थान त्रयी के एक गीता-रत्न की झलक है, अहिंसा का नूतन रुपान्तरिक सिद्धान्त जिस धर्म का प्रतिफलन है, सत्य जिस धर्म की आत्मा है, जो आत्मा में परमात्मा देखने वाला व्यष्टि को समष्टि में मिला देने का उपदेश देने वाला, और ‘त्यजेदेकं कलस्यार्थे, ग्रामार्थे स्वकूलं त्यजेत्। ग्राम जनपदस्यार्थे’ के आदर्श को सामने रखने वाला है। धर्म हमारी उन्नति में बाधा किस प्रकार डाल सकता है।
यह ठीक है कि हमारे अध्यात्म ने हमें प्रत्यक्ष पर धकेल दिया है वर्तमान को छोड़कर हमारा ध्यान भविष्य की ओर अधिक रहता है। इस लोक की अपेक्षा परलोक की हमें अधिक चिन्ता है। शरीर की अपेक्षा हम आत्मा का अधिक विचार करते हैं वास्तविकता को छोड़कर हम धर्म के धुँधले लोक में विचरते हैं। पर, उसी धर्म अनुशीलन के उपरान्त कर्मयोग में रत लोगों का उदाहरण वर्तमान में भी हमारे सामने उपस्थित है। लोकमान्य-सा निष्काम कर्म का ज्वलंत उदाहरण कम-ही मिलेगा। पर, उन्होंने जो स्वदेश को सेवा की, वह क्या किसी विदेशी देशभक्त से कम महत्वपूर्ण है? जिस अहिंसा के सामने आज पाश्चात्य नतमस्तक है, वह भी एक धर्मप्राण व्यक्ति इसी धर्म का एक रत्न है। अद्वैत और अध्यात्मक जिन विवेकानन्द को देश प्रेम से विरक्त न कर सके, वही तो हमारा धर्म है। उसके कारण हमारी उन्नति में बाधा कैसी?