Magazine - Year 1947 - Version 2
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दुःख छूटने का उपाय
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[श्री धर्मपालसिंह एस. बी. ए. हरदुआगंज]
महाभारत युद्ध की समाप्ति के पश्चात जब श्री कृष्णचन्द्र द्वारिका के लिए विदा होने लगे, उनको जाते देख महारानी कुन्ती उनका रथ रोककर खड़ी हो गई! अब आप यहाँ से न जाइये। भगवान ने उत्तर दिया-देवी अब यहाँ पर पूर्णरूप से शान्ति स्थापित हो गई हैं, राज्य सम्पत्ति आप को प्राप्त हो गई है अब इसको सुख पूर्वक भोगिये। कुन्ती बोली, भगवन्! इस राज्य के बदले मुझे वही वन और विपत्ति चाहियें जिनमें सदैव तुम्हारा दर्शन होता था। इस राज्य सम्पत्ति के आगमन पर ही तो आज आप का वियोग हो रहा है।
तात्पर्य यह है कि साँसारिक सुख सम्पत्ति के मद में मदान्ध होकर प्राणी ईश्वर को भूल जाता है। अतएव धन्य हैं वे विवेकशील व्यक्ति जो आए हुए दुःख का प्रसन्नता से स्वागत करते हैं। जिनको कभी दुःख झेलने का अवसर नहीं मिला, अथवा जो दुःखों से भयभीत हो सदा डरते रहते हैं, वे संसार में बड़े मंदभागी पुरुष हैं। परन्तु यह विषयान्ध संसार उन पुण्यात्मा लोगों को जिन पर दुःख विपत्ति आते हैं उल्टा मन्द भागी कहा करते हैं। परन्तु इस सत्य को न भूलना चाहिये कि दुख रूप भट्टी में तप कर ही स्वर्णमय जीवन खरे, चमकते हुए आदर्श जीवन बनते हैं, यथा सत्य हरिश्चंद्र, भगवान राम कृष्ण, महाराणा प्रताप, शिवाजी भक्तिमति मीराबाई गुरुगोविन्दसिंह महात्मा ईसा आदि अनेक महापुरुष प्रसन्नता से दुःखों का स्वार्थ करके ही सदैव के लिए अमर हो गये हैं। कहाँ तक कहा जाय जीवन के अन्तिम लक्ष साक्षात्कार, भगवत् दर्शन की यह दुःख ही प्रथम झाँकी है, स्वार्थ रहित अकारण कृपालु, मंगलमय देव की यह दुःख ही अहेतु की कृपा है जिस के आते ही बरबश मन की सब चंचल वृत्ति एकाग्र होकर उनसे रक्षार्थ उन चरणों में लग जाती है उस समय से ही जीव का कल्याण होने लगता है।
दुख की निवृत्ति कैसे हो? यह जानने से पूर्व हमें दुःख का स्वरूप जानना अति आवश्यक है। एक मात्र सुख और आनन्द के केन्द्र श्री परमात्म देव को भूलकर अज्ञान और उसकी ही सन्तान मोह, तृष्णा और विषयासक्ति आदि मन के रोगों में उलझना दुःख का कारण है। रामायण में कहा है- “मोह सकल व्याधिन कर मूला-।” शरीर, धन, स्त्री, पुरुष, परिवार कीर्ति इनकी ममता में पड़कर मनुष्य विविध प्रकार कामनाएं किया करते हैं। शान्त चित्त में जब किसी वस्तु की प्राप्ति की तृष्णा जागती है तब शान्त चित्त में एक प्रकार की हलचल पैदा हो जाती है। और जब तक इच्छित वस्तु की प्राप्ति का कोई समुचित साधन दिखाई नहीं दे जाता तब तक यह हलचल हिलोर बढ़ती ही रहती है। बस यह शान्त चित्त की हलचल ही अशान्ति और निरन्तरता दुःख का स्वरूप है। ज्यों ही कार्य सिद्धि से तृष्णा दूर हुई तो पुनः चित्त अपनी शान्तावस्था में आ जाता है और सुख अनुभव होने लगता है। पर कुछ काल पश्चात ही दूसरी तृष्णा के जागने पर फिर वहीं हलचल, अशान्ति और दुःख आ विराजता है। यही इस अनित्य, अस्थिर साँसारिक सुख दुख का स्वरूप है।
यदि इच्छाओं का सर्वथा अभाव हो जाय और मन में साँसारिक विषयों की दाह नहीं रहे तो नित्य सुख के दर्शन सम्भव हो सकते हैं। परन्तु जब तक यह शरीर है तब तक इसको रखने के लिए इसके सुख के साधन स्त्री, पुत्र, परिवार, धन कीर्ति आदि का होना भी एक अनिवार्य वस्तु है। यह हो सकता है कोई कम से कम इनको उपयोग में लावे।
इसलिए इन सब वस्तुओं को विविध प्रकार से उन्नत और समृद्ध देखने की आकाँक्षा और प्रयत्न करना भी श्री भगवान के इस संसार रूपी नाट्यशाला की लीला को निरन्तर रखने के लिए अर्थात् लोक संग्रह के लिए, उत्तमोत्तम योग्य पात्रों का तैयार करना भी प्रत्येक साँसारिक का परम कर्त्तव्य है। इसलिए कामनाएं भी अनिवार्य हैं। पर इन कामनाओं में होकर जाते हुए इन कामनाओं से पार जाने के उपाय शास्त्रों और महात्माओं द्वारा भिन्न प्रकार से कहे हैं। रामायण में महात्मा तुलसीदासजी अपनी एक एक चौपाई में इस रहस्य को इस प्रकार कहते हैं। “धर्म ते वरति योगते ज्ञाना। ज्ञान मोक्ष प्रद वेद बखाना”॥ मनुष्य को चाहिये कि वह प्रथम वेद शास्त्र प्रतिपादित वर्णाश्रम धर्म के अनुकूल आचरण करे यथा :- नित्य भगवान का भजन, यज्ञ, दान, तप, स्वाध्याय सत्संग, विद्वान् महात्माओं की सेवा, न्याय पूर्वक जीवन का उपार्जन, सत्य भाषण, उच्च विचार, परहित कार्य, मृदुल स्वभाव, दया आदि शुभ गुणों और सत्कार्यों को जीवन में नित्य क्रियात्मक रूप में यथा साध्य उतारें, उसके ऐसे निरन्तर आचरण से श्री परमात्मदेव प्रसन्न होंगे और उन की कृपा द्वारा अंतःकरण शुद्ध होगा, ज्यों-2 अंतःकरण शुद्ध होगा उसमें प्रभु की भक्ति भागीरथी का उदय होगा, विषयों से स्वाभाविक घृणा उत्पन्न होगी फिर कामनाएं कहाँ? यथा-
रमा विलास राम अनुरागी।
तजत वमन इव नर बड़भागी॥