Magazine - Year 1947 - Version 2
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Language: HINDI
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कल्पना की अनन्त शक्ति!
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(श्री. ठा. महिपालसिंह जी, निमदीपुर राज्य)
संसार में व्यवहारित अनेक शब्द ऐसे हैं जो गंभीर एवं महत्वपूर्ण प्रभाव रखने वाले हैं, परन्तु जनसाधारण में उनका व्यवहार अस्वाभाविक दशा में किया जाता है। उन अनेक शब्दों में से एक “कल्पना” शब्द भी है जिसको लोग किसी शोकाकुल परिवार को सम्वेदना सूचक प्रस्ताव के साथ मिलाकर कहते हैं कि संसार केवल कल्पना मात्र है-उनका ध्येय उस समय विश्व की निःसारता दिखलाकर साँत्वना दे पाना ही होता है-परन्तु ज्ञान दृष्टि से देखने वाले जानते हैं कि वस्तुतः कि कल्पना ही जगत है आत्मिक जगत की विशुद्ध कल्पनायें शारीरिक संसार की रचना करती हैं। जो बात आत्मिक क्षेत्र में बहुत पहिले बन चुकी होती हैं वह उसके बहुत पीछे शारीरिक क्षेत्र में आती हैं और कभी कभी उसकी पूर्ति के लिये एक से अधिक बार शारीरिक क्षेत्र में आना पड़ता है-जैसे किसी विचारशील महापुरुष के सद्विचार जब एकत्र होने लगते हैं तो वह मानसिक केन्द्र से निकलकर वाणी में उसके बाद लेखनी द्वारा निबंधित होकर पुस्तक रूप में व्यावहारिक जगत में वितरित होते हैं। एवं कभी कभी ऐसा भी हो जाता है कि वह सर्वसाधारण के सामने इतना लेट पहुँचते हैं कि उनका प्रेषक व्यावहारिक संसार से निकल चुका होता है।
कल्पना के दो रूप होते हैं, एक क्षणिक दूसरा स्थायी। सत्य और तत्व के आधार पर उठने वाली कल्पना जो अमर और अजेय होती है सदा एक रूप में चलती रहती है एवं स्वार्थ वाली निर्मूल कल्पनायें पानी के बुलबुलों की भाँति उठा और बुझा करती हैं जैसे सुषुप्तादशा में कोई स्वप्न देखते हुये अपने कल्पित जगत की रचना कर लेता है और उसकी उत्पत्ति तथा समाप्ति स्वप्न के साथ ही हो जाती है परन्तु दोनों प्रकार की कल्पना का प्रभाव स्थूल शरीर पर पड़ता ही-जिसकी अनेक अटकलें लगाई जाती हैं अथवा ऐसा भी अनुभव में आया है कि स्वप्न सत्य होते हुये भी देखे गये हैं। कारण यह होता है कि जब संयोग वशात् निश्चित कल्पना बंध जाती है तो वह स्वयं सत्य का ही रूप होती है।
आँतरिक शक्ति दृढ़ सत्य पूरित न्याय की स्विच दबाने से अपना दिव्य प्रकाश प्रकट कर देती है, जिसको देखकर व्यावहारिक संसार चकित हो जाता है-अनुभव हीन मनुष्य स्वार्थ प्रेरणा से जब उपरोक्त प्रकाश प्राप्त करने में विफल होता है तो वह अपनी त्रुटियों को न देखकर सिद्धाँत को ही भ्रम बतलाने लगता है- कारण यह होता है कि कनेक्शन तो कटा हुआ रहता है फिर स्विच दबाने से प्रकाश कैसे हो सकता है? सर्वप्रथम आन्तरिक शक्ति का अनन्त शक्ति से कनेक्शन मिलाने का अभ्यास करना चाहिये। निश्चित होकर बैठ जाइये स्वार्थ द्वेषादि दूषित मानसिक विकारों को दूर करने का प्रयत्न कीजिये। जब मानसिक उद्वेग शाँत होकर शिथिल हो जाय तो दृढ़ सत्य की कल्पना कीजिये कि यह आँतरिक शक्ति अनन्त शक्ति से मिलकर अब न्याय पूरित कार्यों को शारीरिक क्षेत्र से अलग रहकर करवा सकती है। सत्य न्याय की जो कल्पना उस समय उठेगी वह पूर्ण होकर ही रहेगी। कनेक्शन मिल जाने पर प्रकाश का होना निश्चित ही है- शाँतिमयी शुद्ध उपासना से जब कुवासनायें हट होती हैं तो भी कनेक्शन मिल जाता है जब कोई मनुष्य एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना चाहता है तो शारीरिक यात्रा आरम्भ होने से पहले मानसिक यात्रा का आवागमन समाप्त हो चुका होता है-एवं जैसे एक गणितज्ञ अनेक अंकों को यथा स्थान रखकर मिनटों में सत्य उत्तर दे सकता है वैसे ही सत साधक अपने कनेक्शन के आधार पर विश्व विभ्रम को दूर रखकर न्याय कर्म करवा लेने में समर्थ हो सकता है। कनेक्शन प्राप्त कल्पना-शक्ति सत्य का इंजेक्शन लगाकर अपने प्रभाव से समस्त अभाव दूर कर सकती है-एवं मन आनन्द में अपनी पवित्र कल्पना से सारे काम निकालने लगता है- उसे कठिनाई का रूप दिखाई ही नहीं पड़ता है-साधक अपनी सत्य प्रेरणा करके छुट्टी पा जाता है। बाधकों के प्रति प्रतिहिंसक भावना उठाने की उसे जरूरत ही नहीं पड़ती है क्योंकि वह काम तो स्वयं उसके ऊपर न होकर उसे अनन्त शक्ति पर होता है जो अपने अभिनय पात्र मूर्तियों में से किसी से भी ले सकता है अथवा नई रचना कर सकता हैं। जब ऋषियों को राक्षसों ने सताया तो उन्होंने अपनी आन्तरिक शक्ति को खटखटाया जिससे श्रीरामचन्द्रजी के रूप में दुष्टों के निधन का कार्य सम्पादित हुआ-न्याय पूरित कल्पना करने वाला केवल निश्चित परिणाम को जानता है-कार्य प्रणाली से उसको कोई काम नहीं, व्यावहारिक जगत की सभी बातें आन्तरिक क्षेत्र में निपटाई जा सकती है आँतरिक जगत इतना विशाल है कि शारीरिक क्षेत्र उसके सामने नहीं के बराबर है। शक्ति साधक साधुओं की कथा संसार बराबर कहता आता है परन्तु अब उदर पोषक लोगों ने उस अध्ययनशाला को भी निष्कलंक नहीं रहने दिया है। मारण, मोहन, उच्चाटन, वंशवृद्धि तथा अन्य धनोपार्जन के अनेक साधनों की वह एक एजेन्सी सी बन गई है। यह बात भुला दी गई है कि अनन्त शक्ति सत्य साधक की शुद्ध कल्पना से न्याय रक्षा अथवा उचित सत्व वितरण करने का काम स्वयं करती है-एवं उचित मार्ग में पड़ने वाली अनुचित बाधाओं को न्याय की धार से निपटाने का भार भी उसी पर है। वह अपनी प्रगति के अनुसार सब कुछ करने में समर्थ है।
न्याय रहित स्वार्थ की भावना से की जाने वाली कल्पना मनोवृत्ति को दूषित बनाकर दुष्ट नीति वालों को अपने आप दंडित कर देती है। जैसे किसी ने चाहा कि दूसरे का अनिष्ट होकर उसको सुख साधन प्राप्त हो जाय, परन्तु वह दूसरा उसका अनिष्ट नहीं चाहता इससे द्वंद्व युद्ध तो होता नहीं प्रत्युत हानिकर भावना जो पहले के हृदय में बैठ चुकी है उसी की हानि करती है। और भी स्पष्ट शब्दों में यह बतलाया जा सकता है कि यदि विष को किसी के मुख में डाला जाय परन्तु नाम दूसरे का लिया जाय तो जिसका नाम लिया जायगा वह न मरैगा-मरैगा वहीं जिसके गले से नीचे विष उतारा गया है। प्रारंभिक दशा में शुद्ध काल्पनिक को चाहिये कि वह अपनी आँतरिक शक्ति को अनन्त शक्ति का अंश मानकर कनेक्शन स्थापित कर अभाव से मानसिक भावना को दूर कर ले-शान्त होकर आनन्द का अनुभव प्राप्त करे। कुछ समय तक वह अपने कार्यक्रम लिख लिया करें। न्यायोचित अधिकार उसको स्वयं मिलने लगेंगे-शंका बढ़ाने वाली मान भड़कीली बाधायें स्वर्णमयी लंका के समान सामने जलती हुई दिखाई पड़ने लगेंगी। जब मानसिक क्षेत्र का काम बढ़ने लगेगा तो शारीरिक गतिविधि की भावना क्रमशः घटने लगेगी-कुछ समय इस तरह बीतने पर शक्ति उपासना सिद्धि होकर अमर आनन्द की वृद्धि करेगी। और यह बात सुगमता से समझ में आ जायगी कि अनन्त शक्ति की वह कल्पना जो एक से अनेक रूप रखकर विश्व रचना का कारण बनी हुई है प्राणिमात्र में विराजमान है, उसके न्यायोचित वितरण में कोई त्रुटि नहीं है अपनी भूल ही असफलता का कारण है।
आत्मिक आधार पर दृढ़ सत्य वाली कल्पनायें तत्काल पूरी होती देखी गई हैं-एवं ऐसी घटनाओं से इतिहास भरा पड़ा है। आज भी वैसे ही बातें हो रही हैं। जिनको शंका हो स्वयं अभ्यास करके कल्पना की अनंत शक्ति का चमत्कार प्रत्यक्ष करके देख लें।