Magazine - Year 1949 - Version 2
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Language: HINDI
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स्वास्थ्य स्वाभाविक है।
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प्रकृति का साहचर्य -
प्रकृति के विशाल प्रांगण में नाना जीव जन्तु, जलचर, थलचर और नभचर हैं। प्रत्येक का शरीर जटिलताओं से परिपूर्ण है। उनमें अपनी-अपनी विशेषताएं और योग्यताएं हैं, जिनके बल पर वे पुष्पित एवं फलित होते हैं, यौवन और बुढ़ापा पाते हैं, जीवन का पूर्ण सुख प्राप्त करते हैं।
पृथ्वी पर रहने वाले पशुओं का अध्ययन कीजिये। गाय, भैंस, बकरी, भेड़, घोड़ा, कुत्ता, बिल्ली, ऊँट इत्यादि जानवर अधिकतर प्रकृति के साहचर्य में रहते हैं, उनका भोजन सरल और स्वाभाविक रहता है, खानपान तथा विहार में संयम रहता है। घास या पेड़ पौधों की हरी ताजी पत्तियाँ फल इत्यादि उनकी क्षुधा निवारण करते हैं, सरिताओं और तालाबों के जल में वे अपनी तृष्णा निवारण करते हैं, ऋतुकाल में बिहार करते हैं। प्रकृति स्वयं उन्हें काल और ऋतु के अनुसार कुछ गुप्त आदेश दिया करती है, उनकी स्वयं वृत्तियाँ (Instinets) स्वयं उन्हें आरोग्य की ओर अग्रसर करती रहती हैं। उन्हें ठीक मार्ग पर रखने वाली प्रकृति माता ही है। यदि कभी किसी कारण से वे अस्वस्थ हो भी जाये, तो प्रकृति स्वयं अपने आप उनका उपचार भी करने लगती है। कभी पेट के विश्राम द्वारा, कभी ब्रह्मचर्य द्वारा, किसी न किसी प्रकार जीव−जंतु स्वयं ही स्वास्थ्य की ओर जाया करते हैं।
पक्षियों को देखिये। संसार में असंख्य पक्षी हैं। हम उन्हें इधर-उधर पेड़ पौधे पर उड़ते, फुदकते, चहकते, आनन्द मंगल करते देखते हैं, उनका मधुर गुंजन हमारे हृदयसरोवर को तरंगित कर देता है। उनका रंग, भाव भंगी, शरीर की बनावट हमारे मन को मोह लेती है। कौन इन्हें इतना सुन्दर, फुर्तीला, सुरीला रखता है? कौन इनके स्वास्थ्य की खैर खबर रखता है? कौन इन्हें आरोग्य के सम्बन्ध में पाठ पढ़ाता है? और जब ये बीमार पड़ते हैं तो कौन इनकी दवादारु करता है? हमने पक्षियों को बीमारी से अकाल में मरते नहीं देखा। अधिकाँश को अन्य पक्षी या मनुष्य मार कर खाते हैं। वे स्वयं अपनी मूर्खता से बीमारी बुला कर बहुत कम मरते हैं। उनमें पूर्ण स्वस्थ रहने और आरोग्य का मधुर आनन्द लाभ करने की सामर्थ्य है। प्रकृति उनके शरीर की रक्षा करती है स्वयं शरीर के अन्दर एकत्रित हो जाने वाले विषों को निकालने का प्रयत्न करती हैं, शरीर के संवर्धन का पूरा विधान रखती है। वहीं उनका डॉक्टर, हकीम या वैद्य है।
प्रकृति की प्रचुरता- प्रकृति में प्रचुरता है, हर प्रकार की प्रचुरता है। आनन्द, स्वास्थ्य, आरोग्य की इतनी अधिकता है कि हम उसकी सीमा बन्धन नहीं कर सकते। स्वास्थ्य की उस अधिकता के कारण ही प्रकृति के अनेक पशु−पक्षी, जीव जन्तु जीवन का आनंद लेते हैं, जल, वायु, प्रकाश, भोजन से जीवन तत्व खींचकर वे दीर्घ जीवन के सुख लूटते हैं।
प्रकृति के कण-कण में पत्तियाँ, फलों, पौधों जल की प्रत्येक बूँद में अरोग्य भरा हुआ है। वायु के प्रत्येक अंश को, जिसे हम अन्दर खींचते हैं, जल के प्रत्येक घूँट में, जिसे हम पीते हैं, फल और तरकारियों के कण-कण में स्वास्थ्य और बल हमारे लिए संचित है। प्रकृति के पास जीवन को सर्वांग रूप से स्वस्थ रखने के लिए सभी उपकरण हैं।
प्रकृति में वैचित्र्य हैं। अपने-अपने स्वभाव, रुचि काल, अवस्था, परिस्थिति के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति, जीव, जन्तु, पक्षी प्रकृति से जीवन शक्ति खींचता है। उसके द्वारा जैसा भी शरीर उसे मिला है, उसे स्वस्थ और सुन्दर बनाता है, आदमी समस्त शक्तियों को कार्यशील रखता है। प्रकृति के भंडार में सभी कुछ है, शहद जैसा मधुर पदार्थ क्या कभी मनुष्य बना सकता था? दुग्ध जैसा अमृत सदृश्य पदार्थ क्या किसी रासायनिक लैबोरेटरी में तैयार किया जा सकता था? मेवे, फल, तरकारियाँ, गन्ने, प्रकृति जीव को अपनी-अपनी रुचि के अनुसार उचित मात्रा में ये भोजन के पदार्थ उपलब्ध हो जाते हैं। सर्प अपना विष एकत्रित करता है, मधुमक्खी शहद जुटाती है, नींबू खटाई के तत्व पृथ्वी से खींचता है तो करेला कड़ुवाहट एकत्रित करता है। प्रकृति में नवरस का विधान है। इन नवरसों में जो जिसे रुचे वह उसी से अपना स्वास्थ्य स्थिर रखता है।
प्रकृति में किसी भी लक्ष्य की पूर्ति के लिए सभी साधन विद्यमान हैं। आपको बाह्य उपचारों की आवश्यकता नहीं। आप जैसा भी काम करना चाहें, उसके लिए सभी उपकरण एकत्रित कर सकते हैं। भाँति भाँति की जड़ी बूटियाँ, पौष्टिक पदार्थ, अमृतोपम दिव्य पदार्थ हमारे लिए संचित हैं। मिट्टी से लेकर धूप, जल, वायु, सूर्य किरण इत्यादि तक को यह शक्ति दी गई है कि वे हमारे शरीर को सबल और स्वस्थ बना सके।
प्राकृतिक सौंदर्य- प्रकृति में वास्तविक सुन्दरता है। आजकल के फैशन के भार से युक्त पुरुष या स्त्री को लोग सुन्दर समझते हैं उसकी प्रशंसा करते नहीं थकते। यह भ्रम-मात्र है। वास्तविक सौंदर्य तो पूर्ण रूप से विकसित, परिपुष्ट और स्वस्थ शरीर में है। प्रत्येक पुट्ठे (Muscle) और माँसपेशी में स्वाभाविक सौंदर्य है। जिस युवक या युवती के शरीर में लाल लाल रक्त प्रवाहित होता है, जिसके शरीर में स्वाभाविक लालिमा वर्तमान है, जिसका डीलडौल संतुलित है, न कोई अंग पतला है न कोई मोटा, न बादी चर्बी युक्त, न पेट ही बढ़ा हुआ है, नेत्र सुन्दर और चमकदार हैं, त्वचा कोमल और लाल है, फेफड़े परिश्रम सहन कर लेते हैं और गहरी नींद और आराम देते हैं, भूख खुलकर लगती है, स्वस्थ जल से (सोड़ा लेमन, शराब, चाय, शरबत से नहीं) जिसकी प्यास शान्त हो जाती है, चूर्ण चटनी पर जिसकी जिह्वा नहीं लपलपाती, जिसके स्वभाव में न चिड़चिड़ापन है, न क्रोध उतावलापन, उदासी या निरुत्साह-ऐसे स्वस्थ मनुष्य को ही पूर्ण सुन्दर कहना युक्ति संगत है।
श्री विट्ठलदास मोदी के शब्दों में “मोर के नीले हरे पंख, सिंह की अयाल, बारहसिंगे के उलझे हुए लम्बे सींग, साँड के चौड़े कंधे, मुर्गे की कलगी, साँप का चौड़ा फन, बिलाव की लम्बी मूँछ को सुन्दर मानने से कौन इन्कार कर सकता है? पशु-पक्षियों में सारी सुन्दरता नर वर्ग को मिली है। प्रकृति ने जहाँ नर वर्ग को सुन्दरता प्रदान की, वहाँ शक्ति भी दी। वस्तुतः पुरुष का सौंदर्य उसकी शक्ति में निहित है। उसका सौंदर्य उसकी शक्ति द्वारा प्रस्फुरित होता है।”
पुरुष हो या स्त्री-यदि वह पूर्ण स्वस्थ और सुन्दर बना रहना चाहता है, या कुरूप से सुरूप होना चाहता है तो उसे प्रकृति का आश्रय ग्रहण करना होगा। प्रकृति के नियमों का पालन करना होगा। व्यायाम और प्राकृतिक भोजन के द्वारा शरीर की प्रत्येक माँसपेशी को संतुलित रूप में विकसित करना होगा, शक्ति का अर्जन करना होगा-तभी हम सुन्दर बन सकेंगे। प्रकृति में ही वास्तविक सुन्दरता विद्यमान है।
चेहरे पर लाल रंग, पाउडर, क्रीम पोतने से क्या लाभ? वह तो पानी से धुल जायगा। यदि शरीर में माँस, स्वस्थ रक्त, स्वास्थ्य और आरोग्य नहीं तो उसे रेशमी कपड़ों या आभूषणों से अलंकृत करने से क्या लाभ सौंदर्य प्राप्त हो सकेगा? वास्तविक सौंदर्य, जो चिरस्थायी है, जिसमें ईश्वरत्व प्रकट होता है, वह प्राकृतिक सौंदर्य ही है।
प्रकृति हमारी छोटी मोटी भूलों को दुरुस्त करती है-
हमारे शरीर की रचना ही कुछ ऐसी बनाई गई है कि अवाँछनीय विजातीय द्रव्यों, संचित विषों, गंदी वस्तुओं या विषैले पदार्थों को भिन्न-भिन्न द्वारों से निकाल कर बाहर करती रहती है। हमारी छोटी-मोटी भूलों जैसे खान-पान का असंयम, अत्यधिक थकान, चलते फिरते, उठते बैठते जीवन शक्तियों की न्यूनता-इत्यादि को प्रकृति स्वयं दुरुस्त करती है और प्रायः प्रकृति के इस उपयोगी कार्य का हमें पता भी नहीं चलता। सृष्टि के सभी जीव जन्तु इन्हीं प्राकृतिक क्रियाओं से स्वस्थ रहते हैं। प्रकृति ने प्रत्येक शरीर में ऐसे-ऐसे गुप्त द्वार रखे हैं जिनके द्वारा विषैले पदार्थ स्वयं निकलते रहते हैं और हमारी आकृति में यथोचित सुन्दरता को अक्षुण्ण रखते हैं। यदि प्रकृति इस महान कार्य को अपने आप स्वाभाविक गति से सम्पन्न न करती, तो हमारे शरीर बेढंगे हो जाते, अंगों में भद्दापन और विषमता उत्पन्न हो जाती, हम लोग रोज ही अपचन, कब्ज, स्थूलता, सूजन, फोड़े, फुँसी, गठिया, प्रमाद, सिरदर्द व अन्य ऐसे ही छोटे-मोटे रोगों के शिकार रहा करते। भाग्यवश ऐसा नहीं है। हमारे शरीर के अन्दर व्याप्त प्रकृति इन पदार्थों से निरन्तर संघर्ष करती रहती है, अनावश्यक पदार्थों को शरीर में ठहरने नहीं देती और हमारे साधारण शारीरिक विकारों को दुरुस्त करती है।
प्राकृतिक रूप से स्वस्थ मनुष्य की पहचान-
प्रकृति ने मनुष्य को विश्व का सबसे सुन्दर शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक शक्तियों से सम्पन्न, स्वस्थ, सशक्त, सुडौल, दीर्घजीवी प्राणी बनाया है। आरोग्य और उत्तम स्वास्थ्य का मार्ग उसने बड़ा सरल और सीधा रखा है। मनुष्य तो क्या अल्पबुद्धि वाले पशु-पक्षी भी उसे भली-भाँति समझ सकते हैं। प्राकृतिक जीवन की आधार शिला क्या है, इसके लिए कुछ आवश्यक बातें यहाँ दी जाती हैं-
(1) डीलडौल- स्वस्थ मनुष्य का आकार संतुलित होना चाहिए। कद काफी ऊँचा हो, न शरीर पतला दुबला अस्थिपिंजरवत् हो, न भारी भरकम माँस से लटकता हुआ पोपला हो, प्रत्युत संतुलित रूप से प्रत्येक अंग विकसित हो। शरीर की मशीन का प्रत्येक कलपुर्जा ठीक काम करता हो, प्रशस्त उन्नत ललाट, चमकदार नेत्र, माथे व गालों पर स्वाभाविक रक्त की लालिमा हो, शिकस्त का नाम तक न हो। पाँव, जाँघ मजबूत हों, शरीर का भार वहन कर सकने वाली हों। शरीर श्रम व मौसम के परिवर्तनों को सम्हाल सके, रोग से लड़ सके, आमाशय अपना कार्य उचित रीति से करता रहे।
(2) आन्तरिक अवस्था- पाचन क्रिया अपना कार्य सही करे, शुद्ध लाल खून निर्मित हो, शरीर से मल-विसर्जन कार्य अपनी स्वाभाविक गति से होता रहे। जो भोजन खाया जाय, वह शरीर को परिपुष्ट एवं स्वस्थ रखे, अपच या दस्त से निकल न जाय। कभी अपच, कभी कब्ज, दस्त, पेट दर्द इत्यादि न हो, खाया हुआ भोजन चार-पाँच घंटे में पच जाय। खाना खाते समय रुचि एवं स्वाद स्वास्थ्य के सूचक हैं। भोजन के उपरान्त आलस्य या नींद नहीं आनी चाहिए। चटपटी चीजों पर मन न चले, साधारण भोजन में ही मजा आये।
(3) हृदय तथा फेफड़े- शरीर के दो महत्वपूर्ण अंग हृदय तथा फेफड़े हैं। स्वस्थ मनुष्य में ये दोनों ही बड़े मजबूत होने अनिवार्य हैं। तेज भागने में आप हाँफ न जायं, नासिका में से श्वास न लेने लगें यह स्वस्थ फेफड़ों की पहचान है। सुषुप्तावस्था में मुँह से श्वास लेने की आदत कमजोर फेफड़ों की निशानी है। स्वस्थ फेफड़े बाहर से स्वच्छ वायु अन्दर लेकर रक्त की सफाई में सहायता करते हैं और अशुद्ध वायु को बाहर निकाल देते हैं। हृदय दूषित रक्त की सफाई निरंतर किया करता है। स्वस्थ फेफड़े और मजबूत हृदय मनुष्य को परिश्रमी और स्वस्थ बनाते हैं। युवकों में हृदय की गति प्रति मिनट 72 होनी चाहिए।
(4) मल विसर्जन कार्य- शरीर में जो कूड़ा करकट या गंदगी एकत्रित होती रहती है, उसे निकालने के लिए प्रकृति ने कई द्वार बना रखे हैं। मलमार्ग, मूत्रमार्ग, यकृत, त्वचा, फेफड़े के अतिरिक्त हमारे नेत्र और कान भी स्वास्थ्य के शत्रु, शरीर के अंग प्रत्यंगों में उत्पन्न हुए विकार स्वाभाविक गति से स्वयं बाहर न निकलते रहें, तब तक हम अपनी मल-विसर्जन इन्द्रियों को स्वस्थ नहीं कह सकते।
यदि मल-विसर्जन कार्य में किसी भी प्रकार पीड़ा होती है, तो आप स्वस्थ नहीं हैं। यदि मल या मूत्र के साथ रक्त आता है, तो उसके दो कारण हो सकते हैं (1) या तो शरीर के उस भाग में कुछ चोट, घाव या सूजन आ गई है, अथवा (2) आन्तरिक रूप से कुछ विकार हो गया है। मलमूत्र करने के पश्चात् एक प्रकार से शान्ति होनी चाहिए। यदि रक्त या पीव आवे, मल मार्ग से कीड़े आवें तो आन्तरिक विकारों के सूचक हैं। मूत्र विसर्जन में यदि गर्मी या जलन हो, रक्त या पीव आवे पेशाब गाढ़ा, लसदार हो या वीर्य आवे, तो शरीर को रोगी समझना चाहिए।
(5) मानसिक स्थिति- स्वस्थ मनुष्य मधुर, तृप्त और उत्साही होता है। चिंताएँ उसे नहीं सताती, चिड़चिड़ापन, क्रोध उतावलापन, उदासी निरुत्साह, ये सब शरीर में संचित नाना प्रकार के विकारों के द्योतक हैं। अशाँत चित्त, अशुद्ध विचारों से मुक्त मन, अतृप्त काम वासना से भरा हुआ अन्तःकरण मानसिक विक्षुब्धता के प्रतीक हैं।
अहंकार एक प्रकार की मानसिक बीमारी है, चित्त की व्यग्रता, अतृप्त वासनाएं, विघ्न−बाधाओं से मिथ्या डर, कुत्सित कल्पनाएँ कायरता आदि सब गिरे हुए स्वास्थ्य की निशानी हैं। इसके विपरीत निर्बल शरीर में भवबाधा, भूतप्रेत के भय, विकार, काम वासनाएँ, क्रोध, ईर्ष्या, मोह, इत्यादि भरे पड़े रहते हैं।
स्वास्थ्य से पवित्र विचार आते हैं, मन प्रसन्न और शुभ कल्पनाओं, मधुर विचारों से परिपूर्ण रहता है। काम में जी लगता है, आलस्य या उदासी नहीं सताती। हृदय मुस्कराते हुए पुष्पों को देख कर उत्फुल्ल होता है, चमचमाते हुए तारक-वृन्द को देखकर चमचमाता है। हम प्राकृतिक दृश्यों को देखकर मोहित हो जाते हैं। प्रकृति का सन्देश हमें हर फूल, पत्ती और पुष्प सुनाता है।
स्वास्थ्य स्वाभाविक है-
यदि आप प्रकृति के नियमों का अतिक्रमण न करें, प्रकृति के परिवार के अन्य सदस्यों की भाँति सचाई और ईमानदारी से उनका पालन करते रहें, तो स्वाभाविक रूप से आप अपनी आयु का आनन्द ले सकेंगे। प्रकृति ने आपको बहुत उच्चकोटि का जीव बनाया है। प्रसन्नता का स्रोत आपके हृदय में प्रवाहित होना चाहिए। आनन्द से आपका निकट सम्बन्ध होना अनिवार्य है। यदि आप प्रकृति के निकट रह सके, तो निश्चय जानिये आपका स्वागत सदैव शान्त और गंभीर रहेगा, आपका हृदय आन्तरिक आह्लाद से भरा रहेगा और आप जीवन का स्वर्गीय आनन्द लूट सकेंगे।
स्वामी शिवानन्द जी के शब्दों में, “प्रकृति का स्वभाव अत्यन्त कठोर और दयालु है। वह अत्यन्त न्याय प्रिय है, न्याय में वह क्षमा नहीं करना जानती। सदाचारियों के लिए प्रकृति परम प्यारी माता है। और दुराचारियों के लिए वह पूरी राक्षसी है। वह स्वयं राक्षसी कदापि नहीं है। वह परम दयालु जगन्माता है। केवल दुराचारियों को (जो प्रकृति के नियम तोड़कर अस्वाभाविक जीवन व्यतीत करते हैं) वह राक्षसी प्रतीत होती है। दण्ड में भी प्रकृति हमें सुधारने का काम करती है। ठोकर खाने पर ही मनुष्य सावधान होता है।”
प्रकृति तत्व से हमारी अनभिज्ञता के दुष्परिणाम-
आज दवाई का इतना प्रचार हमारे अप्राकृतिक जीवन का द्योतक है। पहले तो हम प्रकृति के नियमों को तोड़ते हैं। जब प्रकृति हमें रोग रूप में सजा देती है तो हम तरह-तरह की दवाइयाँ खाते हैं। इस प्रकार क्या युवक और क्या युवतियाँ रसातल के मार्ग में जा रही हैं। गुप्त रोगों, मूत्र रोगों तथा अन्य निन्दनीय रोगों की संख्या दिन प्रतिदिन वृद्धि पर है। हमारा भोजन अप्राकृतिक हो चला है, हमारी रहाइश अस्वाभाविक हो चली है। हम दिन में सोते और रात में सिनेमा, होटलों, नाचघरों में मजेदरियाँ करते फिरते हैं। अप्राकृतिक रोशनी में पढ़ते लिखते हैं और असमय ही नेत्र रोगों से पीड़ित हो जाते हैं। अतिगर्म चाय, और अति शीतल बर्फदार शर्बत या सोडालेमन पीकर हम दन्त रोगों के शिकार बनते हैं। आज के नब्बे प्रतिशत फैशन परस्त नवयुवक नेत्र और दन्त रोगों से पीड़ित हैं। अस्वाभाविक मैथुन, वीर्यपात, और व्यभिचारी के चक्कर में फँसे हुए नवयुवकों की संख्या का पता हमें गुप्तरोगों के बढ़ते हुए विज्ञापनों और चिकित्सकों से लगता है। कलकत्ता शहर की गली गली में स्वप्नदोष या धातुक्षय का इलाज होता है।
अप्राकृतिक रीतियों से कच्ची आयु में वीर्यपात का दुष्परिणाम बड़ा भयंकर होता है, शरीर जर्जर होता है। युवक भी वृद्ध सा दिखता है। भले ही हम कितनी ही चालाकी से पाप करें किन्तु प्रकृति बड़ा सतर्कता से सब कुछ देखती है। उसके दरबार में माफी नहीं है। क्या बड़ा क्या छोटा सभी को वह समान रूप में दण्ड देती है। उसकी आंखों को आप धोखा नहीं दे सकते हैं। प्रत्येक नीच कर्म के लिए सजा का विधान है। शिवानन्दजी ने कहा है- “प्रकृति माता अपने हाथ में डंडा लिए तुम्हारे मर्म स्थानों पर कठोर डंडा प्रहार करने के लिए तैयार रहती है। ज्यों-ज्यों तुम वीर्य नाश करोगे। त्यों-त्यों वह तुम्हें मारते-मारते बेदम व अधमरा कर देगी। तब भी यदि तुम न चेतोगे या सुधरोगे, तब अन्त में तुम्हारा इन्तजार करती हुई मृत्यु की ओर तुम्हें, सड़े फल की तरह फेंक देगी, तुम्हें उठाकर नर्क कुण्ड में डाल देगी। भाइयो! लौटो प्रकृति की शरण में आओ। वह परम दयालु है। तुम्हारा अवश्य सुधार करेगी।”
प्रकृति और दीर्घजीवन -
विश्वास रखिये प्रकृति के नियम पालन करने से रोगी से रोगी व्यक्ति पुनः स्वास्थ्य और आरोग्य प्राप्त कर सकता है, दुबले पतले जर्जरित शरीर पुनः हृदय पुष्ट और सशक्त बन सकते हैं। जो कार्य पौष्टिक दवाइयाँ भी नहीं कर सकती वह प्रकृति के नियमानुसार रहने से अनायास ही प्राप्त हो सकता है। वेदों में निर्देश किया गया है-
“कुर्वन्नेवेह कर्र्माणि जिजीविषेच्छतंसमाः।
(यजु. 40।2)
अर्थात् काम करते हुए सौ वर्ष तक जीवित रहने की इच्छा करनी चाहिए।”
‘पश्येम शरदः शतं।’
जीवेम शरदः शतं॥
शृणुयाम शरदः शतं।
प्रब्रवाम शरदः शत्ं।
अदीनः स्याम शरदः शतं॥
भूयश्च शरदः शतात (यजु. 36।24)
हम सौ वर्ष तक देखें, सौ वर्ष तक जीयें, सौ वर्ष तक सुनें, सौ वर्ष तक बोलें, सौ वर्ष तक समृद्धिशाली रहें।
उपरोक्त कथन में हमारे पूर्व पुरुषों ने यह माना है कि यदि हम सचाई से प्राकृतिक नियमों का पालन करें और उनके अनुसार प्राकृतिक जीवन व्यतीत करें, तो हमें अपनी पूरी आयु (अर्थात् सौ वर्ष) तक जीने के अधिकारी हैं, और यदि पुरुषार्थ करें तो हमें इससे भी अधिक जीना चाहिये।
यदि प्राकृतिक जीवन अपनाया जाय तो सौ वर्ष तक जीवित रहना कोई बड़ी बात नहीं। हमारे पूर्व पुरुष ऋषि मुनि इत्यादि प्रकृति के पुण्य प्रताप से बड़ी बड़ी उम्र वाले हुए हैं। ग्रीसदेश के इतिहास में उल्लेख है- “भारत में एक सौ चालीस वर्ष की आयु तक कई व्यक्ति जीते हैं, सौ वर्ष से ऊपर के मनुष्य को एक निराला नाम देने में आता है।” यह लेख आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व का है।
प्रकृति के प्रताप से दीर्घ जीव प्राप्त करने वालों के शुभ नाम और आयु देखिये- यूरोप में थामसपार 152 वर्ष, हेनरी जेन्किन्स 169 वर्ष, मेरी विलिंग 112 वर्ष, काउन्ट डेस्माउ 140 वर्ष, कैथराइन एडन 101 वर्ष, अब्राहम 175 वर्ष, इजाक 180 वर्ष, शेखसादी 102 वर्ष, कवि अवारी 114 वर्ष महाराष्ट्र में, निजाम उल्मुल्क 105 वर्ष, मल्लाहारी घनगर 115 वर्ष, पंडित प्रमाकर शास्त्री 109 वर्ष, रामसेठ भुरकीसुनार 105 वर्ष, हरद्वार रामलाल 105 वर्ष।
यदि स्वाभाविक रीतियों से हम जीते चले, प्रकृति के नियमों का पालन करते चलें, तो आयु क्षीण न होगी। दीर्घायु प्राप्त करने के लिए प्राकृतिक नियमों का पालन अत्यन्त आवश्यक है।