Magazine - Year 1949 - Version 2
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रामायण में एक रहस्यमय गीता
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(श्रीमती रत्नेश कुमारी जी नीराँजना, मैनपुरी)
गीता की परिभाषा यह मानी जाती है “वह ज्ञान जो जीवन पथ के भ्रान्त पथिकों को सही रास्ता दिखलाने के लिए कहा गया हो” तदनुसार ऐसी अनेक गीताएँ श्रीमद्भागवत तथा श्री रामचरित मानस इत्यादि धार्मिक ग्रन्थों में भरी पड़ी हैं। जिनको बहुत से जिज्ञासुओं ने खोजा तथा अलग भी किया है।
आज कल के मानव का जीवन दिन-2 कार्य व्यस्त होता जा रहा है अस्तु वह चाहता है थोड़ा से थोड़ा समय देकर अधिक से अधिक लाभ उठाना। लघु कहानियाँ, भाव चित्र, एकाँकी नाटक उसकी इसी प्रवृत्ति का परिणाम हैं।
रामायण में एक अति संक्षिप्त गीता उपलब्ध होती है। भगवान राम ने वानरों को विदा करते हुए उपदेश दिया है-
अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम।
सदा सर्वगत सर्वहित, जानि कियहु अति प्रेम॥
इस दोहे के अर्थ पर विचार कीजिए। देखिए तो किस तरह गागर में सागर भरा हुआ है।
भगवान कहते हैं-
‘अब गृह जाहु’- अर्थात् गृह त्याग की कोई आवश्यकता नहीं। घर रहते हुए भी तपोवन के समान, गृहत्याग के समान ही सन्मार्ग में प्रगति हो सकती है। इसलिए गृहत्याग का विचार छोड़कर घर जाओ। ‘अब’ इस समय में, आधुनिक काल में, तो यही श्रेष्ठ मार्ग हैं। प्राचीन काल में चाहे गृह त्याग उपयुक्त भले ही रहा हो पर ‘अब’ तो गृह में ही तप करने की परिस्थिति है।
‘सखा सब’- सबको अपना सखा, मित्र, भाई, स्वजन समझते हुए, सबसे सुहृदयता पूर्ण व्यवहार करो।
‘भजहु माहि दृढ़ नेम’- ईश्वर को अस्थिर चित्त से, अनियमितता से, ढिलमिल, संदिग्ध चित्त से नहीं, वरन् दृढ़ विश्वास और सुनिश्चित नेम बना कर भजन करो। ऐसा श्रद्धा और विश्वासपूर्ण भजन की आशाजनक फल उत्पन्न करता है। “विश्वासः फलदायकः।”
‘सदा सर्वगत’- ईश्वर को सदा, प्रत्येक भली बुरी स्थिति में सब के अन्दर समाया हुआ समझ कर, प्रत्येक व्यक्ति के संबंध में उसके भावी सुधार एवं उन्नति की आशा रखनी चाहिए और घृणा द्वेष से बचना चाहिए।
‘सर्वहित’- ईश्वर सर्व हितकारी है। हानि, कष्ट, वियोग आदि बुरी परिस्थितियाँ भी वह मनुष्य के हित के लिए ही उत्पन्न करता है, इसलिए ईश्वर की इच्छा में अपनी इच्छा मिलाकर संतुष्ट रहना चाहिए।
‘जानि’- ईश्वर को जानना चाहिए, उसके संबंध में ज्ञान विज्ञान प्राप्त करना चाहिए। जिस से संशय भ्रम की गुंजाइश न रहे। तथा ‘प्रतीति होने पर प्रीति होने’ के सिद्धाँतानुसार ईश्वर में सुदृढ़ आस्था हो जाय।
‘कियहु अति प्रेम’- उपरोक्त तथ्यों का समावेश करते हुए ईश्वर की अन्यान्य भाव से, अत्यन्त प्रेम से, भक्ति करनी चाहिए। इस प्रकार की साधना से मनुष्य के परम कल्याण का भाग प्रशस्त होता है।
इस दोहे के 7 तथ्य हैं। श्रीमद्भागवत गीता में इन्हीं तथ्यों का प्रधान रूप से उपदेश किया गया है। संभव हुआ तो अगले किसी अंक में इन 7 तथ्यों का जोरदार समर्थन करने वाले गीता के प्रमाण भी उपस्थित करने का प्रयत्न करूंगी। मेरा विश्वास है कि उपरोक्त दोहे के आधार पर अपनी मनोभूमि का निर्माण करके कोई भी मनुष्य अपने जीवन को सफल बना सकता है।
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्
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वर्ष-10 संपादक-श्रीराम शर्मा आचार्य अंक-7
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