Magazine - Year 1949 - Version 2
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Language: HINDI
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मित्र के कर्त्तव्य
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(श्री पं. तुलसीराम शर्मा वृन्दावन)
पापान्निवारयति योजयतेहिताय।
गुह्यं च गुह्यति गुणान् प्रकटीकरोति॥
आपद्गतं च न जहातिददातिकाले।
सन्मित्रलक्षण मिदंप्रवदंतसिन्तः॥
(गर्तहरिशतक)
मित्र को कुकर्म से हटावे, श्रेष्ठकर्म में लगावे, छिपाने योग्य बात को छिपाये मित्र के गुणों को जाहिर करे, विपत्ति में साथ न छोड़े, समय पर सहायता करे, संतों ने श्रेष्ठ मित्रों का लक्षण ऐसा ही कहा है।
ददाति प्रतिगृहणाति गुह्यमाख्याति पृच्छति।
भुंक्तोभोजयते चैवषड्विधंप्रीतिलक्षणम्॥
समय पर दे और ले, मन की कहे और सुने, भोजन करे और करावे, यह छः प्रकार के लक्षण प्रीति का है। रामायण में कहा है-
जेन मित्र दुख होहिं दुखारी।
तिनहिं विलोकत पातक भारी॥
निजदुख गिरिसमरजकरिजाना।
मित्र के दुखरज मेरु समाना॥
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा।
गुणप्रगटहिं अवगुणहिं दुरावा॥
देत लेत मन शंक न धरहीं।
बल अनुमान सदाहित करहीं॥
विपत्ति कालकर शतगुण नेहा।
श्रुति कह सन्त मित्रगुण एहा॥
जिसमें उपरोक्त लक्षण हैं वही सच्चा मित्र है।