Magazine - Year 1949 - Version 2
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Language: HINDI
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क्या चेचक का टीका लगवाया जाय?
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(महात्मा गाँधी)
शीतला के रोग से हम बड़े डरते हैं। उसके विषय में सैकड़ों भ्रमपूर्ण बातें फैल रही हैं। भारत में तो शीतला एक मुख्य देवी ही मान ली गई है और उसको असंख्य मनुष्य माता मानते हैं। अन्य रोगों के समान रुधिर दोष से ही शीतला होती है। मेदे की गरमी से खून बिगड़ता है शरीर अपने अन्दर भरे हुए विष को शीतला द्वारा बाहर निकालता है शीतला के रोगी को छूने से न डरना चाहिए। हाँ सावधानी की आवश्यकता है। यह भी एकदम से नहीं कह सकते कि छूत नहीं लगती। जिनके शरीर उसकी छूत ग्रहण करने योग्य हैं वे यदि शीतला के रोगी को छुवेंगे तो उन पर प्रभाव अवश्य पड़ेगा। यही कारण है कि जहाँ शीतला का रोग फैला है वहाँ अनेक मनुष्य एक ही समय में इसके चंगुल में पड़ जाते हैं। इस प्रकार इसे छूत का रोग मानकर टीका लगाया जाता है और मनुष्यों को समझाने या बहकाने का प्रयत्न किया जाता है कि टीका लगवाने से निर्दोष शीतला निकलती है और उससे इस रोग का होना बन्द हो जाता है। गाय के थन में से शीतला के टीका देने की पीप निकलती है। वही हमारे शरीर में पहुँचाई जाती है। इससे यह लाभ बताया जाता है कि शीतला नहीं निकलती। पहले यह बात कही जाती थी कि एक बार के टीका लगने से शीतला नहीं निकलती। परन्तु जब यह ज्ञात हुआ कि टीका लगने पर भी बहुत समय तक इससे छुटकारा नहीं तो फिर यह कहा जाने लगा कि अमुक समय के पश्चात फिर टीका लगवाना चाहिए। आजकल यह रिवाज हो गया है कि जहाँ-जहाँ बीमारी प्रारम्भ हो तब वहाँ के सब मनुष्यों को चाहे वह टीका लगवा चुके हों या न लगवाया हो टीका अवश्य लगवाना चाहिए। उस प्रकार अनेक ऐसे मनुष्य देखने में आए हैं जिन्होंने पाँच छः या और अधिक बार टीका लगवाया है।
टीका लगवाना बड़ी जंगली प्रथा है वर्तमान काल में फैले हुए भ्रमों में से एक विशेष भ्रम है। जंगली समझे जाने वाले मनुष्यों में भी ऐसे भ्रम नहीं पाये जाते। इस भ्रम के मानने वाले को इतने ही से सन्तोष नहीं होता कि जिसकी इच्छा हो वही टीका लगवाए वे लोग इसके लगवाने को मजबूर करते हैं। जो लोग टीका लगवाने से इन्कार करते हैं उन पर कानूनी दृष्टि से मुकदमा चलाया जाता है और उन्हें कड़ा दण्ड दिया जाता है। टीके की खोज 1998 ई. में हुई है। इससे विदित होता है कि यह कोई प्राचीन भ्रम नहीं है। इतने थोड़े काल में लाखों मनुष्य इस भ्रम में फंस चुके हैं। जिन्हें टीका लगा दिया जाता है उन्हें शीलता से बचा हुआ समझा जाता है। परन्तु इसके मानने को एक भी सबल कारण नहीं है। यह नहीं कहा जा सकता कि टीका न लगवाने से बड़ी शीतला निकलेगी ही। इसके विपरीत टीका न लगवाने वालों में शीतला न निकलने के अनेक उदाहरण पाए जाते हैं। जिन्होंने टीका नहीं लगवाया उनमें शीतला निकलने के उदाहरण से यह बात नहीं कही जा सकती कि यदि ये लोग टीका लगवाते तो शीतला से मुक्त ही रहते।
टीका लगवाना बड़ा गन्दा इलाज है। इसमें केवल गाय की लस ही हमारे शरीर में नहीं पहुँचाई जाती किन्तु मनुष्य लस को देखकर कै कर देते हैं। जिनके हाथ में लस लग जाती है वे साबुन से साफ करते हैं। यदि हमें कोई लस चखने को कहे तो सुनकर ही हमारा जी मचलाने लगेगा और यदि हमसे कोई हँसी में भी कहे तो हम उससे लड़ने लगेंगे। इतना होने पर भी किसी ने ही विचारा होगा कि हम टीका लगवा कर लस अर्थात् सड़ा रुधिर खाते हैं। इस बात को प्रायः सभी जानते होंगे कि अनेक रोगों में औषधियों की प्रवाही खुराक चर्म द्वारा शरीर में पहुँचाई जाती है। मुख द्वारा ली गई वस्तु तुरन्त रुधिर में नहीं मिल जाती, परन्तु जो वस्तु चर्म द्वारा शरीर में पहुँचाई जाती है शीघ्र रुधिर में मिल जाती है। तनिक सी वस्तु का भी शीघ्र प्रभाव पड़ता है। इससे ज्ञात होता है कि चर्म द्वारा भीतर पहुँचाई हुई दवा या खुराक खाने के समान ही है। इस प्रकार हम शीतला से बचने के लिए पीप खाते हैं। कहावत है कि कायर मृत्यु से पूर्व ही मर जाता है, इसके अनुसार शीतला से मर जाने या कुरूप हो जाने के भय से टीका लगवाकर हम पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।
इस प्रकार लस शरीर में डलवा कर हम धर्म का विचार भी छोड़ देते हैं। माँस खाने वालों को भी रुधिर की मनाई है। और जीवित प्राणियों का रुधिर तथा माँस तो खाया ही नहीं जाता। लस जीवित प्राणी का रुधिर है और वह भी सड़ा हुआ है। यही सड़ा हुआ रुधिर हमें चर्म द्वारा खिलाया जाता है। जो मनुष्य आस्तिक हैं वह हजारों बार शीतला निकलना या देखते-देखते मृत्यु के मुख में जाना भी पसन्द करेगा, किन्तु रुधिर खाना पसन्द न करेगा।
टीके से जो दोष होते हैं उनके सम्बन्धों में इंग्लैण्ड के अनेक विचारवान् मनुष्यों ने विचार किया है। टीके के विरोध में वहाँ एक बड़ी सभा स्थापित हुई है। उसके सभासद टीका नहीं लगवाते। वे टीके के कानून का खुल्लमखुल्ला विरोध करते हैं। इसी कारण अनेक मनुष्य जेल भेजे जा चुके हैं। वे दूसरों को भी टीका न लगवाने के लिए कहते हैं। इस विषय पर अनेक पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं तथा खूब विवाद हुआ है। टीके के विरोधी अपने समर्थन में निम्न बातें उपस्थित करते हैं-
1- गाय या बछिया के थन से पीप निकालने के काम में लाखों जीवित पशुओं पर बड़ी कठोरता का व्यवहार होता है। इस प्रकार की कठोरता मनुष्य को शोभा नहीं देती, अतः मनुष्य मात्र का कर्त्तव्य है कि टीके से कुछ लाभ भी हो तो वह उसे न लगवाये।
2- उससे लाभ कुछ नहीं होता, उल्टी हानियाँ होती हैं। मनुष्य के शरीर में अन्य रोग उत्पन्न हो जाते हैं। टीका लगाने के हिमायती भी स्वीकार करते हैं कि इसके प्रचार के पश्चात् अन्य-2 रोग फैले हैं।
3- जिन-2 मनुष्यों के रुधिर से मुख्य लस तैयार की जाती है उन-2 मनुष्यों के अन्य-2 रोगों की छूत का उनमें लग जाना सम्भव है।
4- इस बात का भी विश्वास नहीं दिलाया जा सकता कि टीका लगाने से शीतला निकलती ही नहीं। टीके को प्रचलित करने वाले डॉ. जैनर का पहले यह कथन था कि एक हाथ में एक ही बार टीका लगवाने से मनुष्य सदैव के लिए छुटकारा पा जाता है, किन्तु जब एक हाथ से लाभ होता दिखाई न पड़ा तो दोनों हाथों में और फिर दोनों हाथों में कई बार टीका लगाने की प्रथा निकली। इस पर भी जब शीतला निकलने लगी तो कहा जाने लगा कि टीका लगाने के सात वर्ष पश्चात् शीतला से बचे रहने का विश्वास नहीं दिलाया जा सकता। अब तो सात के बदले तीन वर्ष ही कहे जाते हैं। उस प्रकार स्वयं डॉक्टर भी कोई निश्चित बात नहीं कह सकते। वास्तव में यह मानना कि टीका लगवाने से शीतला नहीं निकलेगी निरा भ्रम है। इसे कोई सिद्ध नहीं कर सकता कि टीका लगवाने से जिन्हें शीतला नहीं निकलती यदि वे टीका न लगवाते तो उन्हें अवश्य ही शीतला निकलती।
5- अन्तिम कारण लस लगवानी निरी गन्दी प्रथा है और गन्दगी द्वारा गन्दगी नष्ट होना समझना मूर्खता है।
इसी प्रकार की अन्य-2 युक्तियों से इस सभा ने अंग्रेज जनता पर बड़ा अच्छा प्रभाव डाला है। इंग्लैण्ड में एक शहर है जिसकी जनसंख्या का एक बड़ा भाग टीका नहीं लगवाता और उस शहर के मनुष्यों में यह रोग बहुत कम दृष्टि में पड़ता है। इस सभा के परिश्रमी जनों ने खोज करके सिद्ध कर दिया है कि डॉक्टर स्वार्थवश टीके के भ्रम को फैलाते हैं। उन्हें टीका लगाने के कार्य से प्रतिवर्ष हजारों पौंड की आय होती है। इसी कारण वे जान बूझकर टीके के दोषों को नहीं देखते। परन्तु कुछ ऐसे डॉक्टर भी हैं जो टीका लगवाने को बुरा बताते हैं और उनमें से अनेक इसके घोर विरोधी बन बैठे हैं।
पाठक यह पूछ सकते हैं कि जब ऐसी बात है तब हमें टीका न लगवाना चाहिए? मैं बेधड़क उत्तर दूँगा कि-नहीं।