Magazine - Year 1950 - Version 2
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Language: HINDI
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दैवी सम्पत्ति का संचय कीजिए
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धीमहि सर्वविधं हृदये शुचि
शक्तिचयं वयमित्युपदिष्ट्वा
जो मनुजोलभते सुख शान्ति
मनेन विनेति वदन्ति हि वेदोः॥
अर्थ -हम सब लोग हृदय में सब प्रकार की पवित्र शक्तियों को धारण करें। वेद कहते है कि इसके बिना मनुष्य सुख शान्ति को प्राप्त नहीं होता।
यह सुनिश्चित तथ्य है कि शक्ति के बदले में सुख मिलता है। जिस प्रकार पैसे के बदले में खरीदे जाने वाले सभी पदार्थ प्राप्त हो जाते है। उसी प्रकार शक्ति के बदले में विविध प्रकार के आनन्द प्राप्त किये जा सकते है। जिसका शरीर शक्तिशाली है, इन्द्रियाँ सक्षम है वह ही विविध प्रकार के इन्द्रिय भोगों को भोग सकता है उसको जिसका शरीर रोगी निर्बल एवं अशक्तिशाली है उसको उत्तम से उत्तम इन्द्रियभोग भी बुरे लगते हैं। रूपवती नवयौवना तरुणी का उद्दीप्त प्रेम कोई उसी प्रकार की शक्तियों वाला नवयुवक ही प्राप्त कर सकता है। गत यौवन वृद्धों के लिए उसे आकर्षित कर सकना कठिन है। शिक्षा, स्वास्थ्य, धन संगठन, शिल्प, अनुभव, चतुरता, पुरुषार्थ, आदि शक्तियों का भंडार जिसके पास जितनी अधिक मात्रा में है वह उतना ही अधिक सम्पत्ति, वैभव, समृद्धि एवं ऐश्वर्य की सुख-सामग्री प्राप्त कर सकता है। जिसके पास इन शक्तियों की जितनी कमी है वह उतनी ही मात्रा में अभाव ग्रस्त एवं कठिनाइयों का जीवन व्यतीत करेगा।
शरीर के सुख देने वाले ऐश्वर्य शरीर से संबन्ध रखने वाली शक्तियों से संबंध रखते हैं। जिसने अपने में जितनी अधिक भौतिक योग्यताएं एकत्रित कर ली हैं। वह उतना ही अधिक सांसारिक सुख भोग सकेगा। इतना होने पर भी उनसे आत्मिक सुख उपलब्ध नहीं किया जा सकता। आत्मिक सुख के लिए आत्मिक शक्तियों की आवश्यकता है। सद्गुण, सात्विक दृष्टिकोण, सत्स्वभाव, संयम, उदार एवं नम्र व्यवहार की दैवी सम्पत्तियाँ जिनके पास हैं, उनके मानसिक क्षेत्र में सर्वत्र सुख शान्ति का साम्राज्य रहेगा। यह सुख शान्ति ऐसी उत्कृष्ट होगी कि साँसारिक कठिनाइयाँ भी उसे विचलित न कर सकेंगी।
गीता के सोलहवें अध्याय में 26 दैवी सम्पदाएं बताई गई हैं। वे ये हैं (1)निर्भयता (2)अन्तःकरण की स्वच्छता (3) ज्ञान में निष्ठा (4)उदारता (5)इन्द्रिय निग्रह (6)परमार्थ कर्म (7)स्वाध्याय-आत्म चिंतन (8) सत्प्रयोजन के लिए कष्ट सहना (9) सादगी (10) अहिंसा (11) सत्य (12) अक्रोध (13) अभिमान का त्याग (14) अनुद्वेग (15) निन्दा चुगली आदि से दूर रहना (16)दयालु (17)निर्लोभता (18) सहृदयता (19)दुष्कर्मों के करने में लज्जा (20) छिछोरपन से बचना (21)तेजस्विता (22) क्षमा (23) धैर्य (24) सफाई (25) शत्रुता का भाव न रखना (26) अपने को दूसरे से श्रेष्ठ न समझना, यह आत्मिक गुण है। जिनकी आत्म बलवान है, उनमें इन गुणों का अधिकाधिक विकास देखा जायेगा। यह विकास जितना ही अधिक होगा उतनी ही आत्म संतोष की मात्रा में अधिक वृद्धि होगी।
बल का महत्व किसी से छिपा हुआ नहीं है। आज कल धन को लोग बल से अधिक महत्व देते हैं। फिर भी स्वास्थ्य बल, शिक्षा बल, संगठन बल आदि की महिमा से अपरिचित नहीं हैं। खेद इस बात का है कि इन सभी की अपेक्षा अत्यधिक आवश्यक एवं स्थायी आनन्द प्रदान करने वाले आत्म बल की ओर ध्यान नहीं दिया जाता। उपनिषद् का वचन है कि ‘वह परमात्मा निर्बलों को प्राप्त नहीं होता।’ यह अनुभव सिद्ध बात है कि निर्बलों को सर्वत्र दुखी दरिद्र और अभाव ग्रस्त रहना पड़ता है उन्हें न इस लोक में सुख है न पर लोक में न साँसारिक सुविधा मिलती है। न मानसिक शाँति। इसलिए उभय पक्षीय-बाह्य और आन्तरिक-गुणों की, योग्यताओं की शक्तियों की मात्रा को अधिकाधिक बढ़ाना उचित है।
गायत्री के ‘धीमहि’ शब्द का सन्देश यह है कि हम अपने अन्दर सद्गुणों को धारण करें। अपने स्वभाव को नम्र, मधुर, शिष्ट, खरा, निर्भीक, दयालु, पुरुषार्थी, निरालस्य, श्रमशील बनावें तथा व्यवहार में उदारता, सच्चाई, ईमानदारी, निष्कपटता, भलमनसाहत, न्याय परायणता, समानता तथा शालीनता का परिचय दें। उन सभी गुणों, विशेषताओं और योग्यताओं को अपनावें जिनके द्वारा स्वास्थ्य, कीर्ति, प्रतिष्ठा, धन, वैभव आदि की प्राप्ति होती है। यह साँसारिक सम्पत्तियाँ भी आवश्यक है क्योंकि इनसे जीवन की गतिविधि शान्ति और सुविधा पूर्वक चलती है दरिद्र व्यक्ति न संसार में सुखी रह सकता है। और न मानसिक शान्ति प्राप्त कर सकता है। परन्तु यह ध्यान रखना चाहिये कि केवल उदार परोपकारी योग्यताओं से ही केवल काम नहीं चल सकता है। ऐसी योग्यताएं तो पशु पक्षी भी प्राप्त कर लेते हैं। इनके अतिरिक्त वे सद्गुण भी संचय करने चाहियें जिनके कारण मनुष्य पूजा जाता है, महापुरुष बनता है। सबका प्रेमपात्र नेता बनता है। एवं सहज ही अपने अनेकों सहायक मित्र, शुभचिन्तक, श्रद्धालु, अनुयायी एवं प्रशंसक बना लेता है। जिसके सद्गुणों की सुगंधि चारों ओर फैल रही है, उस पर विमुग्ध होकर अनेक पारखी भ्रमर घेरे रहते हैं।
ऐसे व्यक्तियों को जीवन की वास्तविक आवश्यकताओं के लिए कभी अभाव ग्रस्त नहीं रहना पड़ता जिसके अधिक सहयोगी है, जिस पर अधिक लोग विश्वास करते है। उसके जीवन का मार्ग सुगम होता है। भले ही वह अपनी त्याग वृत्ति के कारण धन कुबेर न बन पावे, य अमीरी ऐश आराम न भोग पावे पर इतना निश्चित है कि उसे दरिद्रता का दुख कभी न भोगना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त सद्गुणों की सात्विकता के कारण आत्म बल की वृद्धि, धर्म संचय, दिव्य तत्त्वों की प्रचुरता के कारण अन्तःकरण में जो अगाध शान्ति रहती है उससे आत्मकल्याण का, परमानन्द का, जीवन मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता जाता है और अन्त में यही गुरु एक श्रेष्ठ आध्यात्मिक साधना की भाँति जीव ईश्वर का सम्मिलन कराने में समर्थ हो जाते हैं।
छब्बीस देवी सम्पदाएँ गीता में बताई गई है। इनको संक्षेप में कहना चाहें तो (1) अनुत्तेजना (2)स्वच्छता (3) विचार सफलता (4) सहिष्णुता (5)संयम (6) शक्ति संचय (7) उदारता (8) कर्तव्य परायणता। इन आठ गुणों को अपने स्वभाव और अभ्यास में लाना यह एक उच्च कोटि का धन उपार्जन है।
धन उतना ही आवश्यक है जितने से शारीरिक, मानसिक और पारिवारिक उत्तर दायित्व सुविधा पूर्वक पूरे होते रहें। इस मर्यादा से अधिक मात्रा में धन उपार्जन करने एवं जोड़ने की तृष्णा सुखदायक नहीं वरन् अनेकों कलह क्लेश व पापों को उपस्थित करने वाली होती है, अनावश्यक धन के संचय को पाप माना गया है और परिग्रह (अनावश्यक धन जोड़ने) को प्रधान पाँच पापों में से एक गिना गया है। जोड़ने योग्य जमा करने योग्य, कभी संतुष्ट न होने योग्य सम्पत्ति तो सद्गुणों की दैवी सम्पत्ति ही है। शिक्षा, शिल्प संगीत, रसायन, कला आदि की योग्यताएँ एक सोना भरी तिजोरी से अधिक मूल्यवान है। जो धन से विमुख होकर योग्यताएं कमाता है, शक्तियाँ उपार्जित करता है, वह घाटे का नहीं नफे का व्यापार कर रहा है। जिसने गुणों की शक्तियों की उपेक्षा करके धन कमाने का ही कार्यक्रम अपनाया हुआ है वह आत्मिक दृष्टि से मूर्ख ही ठहराया जायेगा।
धन से योग्यताओं का मूल्य अधिक है और योग्यताओं से स्वभावों का महत्व विशेष है। किसी व्यक्ति के धन और साँसारिक विशेषताएं न होने पर भी यदि उसने उच्च दृष्टिकोण सद्विचार अच्छे विवेक, सात्विक वृत्ति और मधुर व्यवहार अपने स्वभाव में परिपूर्ण कर लिया है तो अवश्य समझिए कि वह किसी भी बड़े से बड़े धन कुबेर और गुणवान से कम सम्पत्तिशाली नहीं हैं। अपनी उच्च आन्तरिक स्थिति के कारण वह अल्प साधनों में भी इतना आनंदित रहेगा जिसकी कल्पना भी असंस्कृत मस्तिष्क वाले नहीं समझ सकते। जिसकी पाचन शक्ति प्रबल है। वह मोटी रोटी में भी ऐसा आनंद अनुभव करेगा जो उदर रोगी को षट्रस व्यंजनों में भी नसीब नहीं हो सकता। मनोभूमि की शुद्धता को प्रबल पाचन शक्ति ही समझना चाहिए जिनके होने पर गरीबी में भी स्वर्गीय जीवन का रस लिया जा सकता है।
गायत्री के ‘धीमहि’ शब्द का सन्देश है कि वस्तुएं मत जोड़ो, गुणों को धारण करो। कचरे की गठरी मत बाँधो, सोने का टुकड़ा रख लो। जीवन में सर्वोपरि आनन्द देने की कुँजी सात्विक वृत्तियाँ ही है। उनका महत्व समझो, उन्हें ढूँढ़ो, उनका संचय करो और उनको अधिकाधिक मात्रा में अपने अन्तःकरण में धारण करते जाओ। जिसके पास दैवी सम्पत्तियाँ है। वास्तव में वही सच्चा धनी है।