Magazine - Year 1951 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रयाण वेला में (kavita)
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‘बेटा?’ ‘क्यों माँ, कहाँ जा रहें?’ ‘निज कर्त्तव्य निभाना है।’ ‘क्या कर्त्तव्य?’ ‘पराये हित में अपना प्राण गँवाना है॥’
‘कौन बुलाता है?’ ‘जननी! दुःखियों की आह बुलाती है।
उन प्यासों की प्यास और भूखों की भूख बुलाती है॥’
‘कौन लाभ जाने से?’ ‘मैया! जग बन्धन कट जाते हैं।
तप से जो पाते हैं मुनिवर, सेवा से हम पाते हैं॥
दीनों के दर्शन में मुझको नारायण दर्शाता है।
उनकी ध्वनि मिलने के हित मुझको पुण्य बुलाता है॥
‘पथ में दुःख मिलेंगे लाखों कैसे उन्हें हटायेगा?’
‘चिन्ता नहीं लगन होगी हो शूल फूल बन जायेगा॥’
‘कब आयेगा लौट?’ ‘मात! जब अत्याचार नहीं होंगे-
दीनों पर जब बलवानों के चरण प्रहार नहीं होंगे॥
भूखों को जब अन्न मिलेगा प्यासों को शीतल पानी।
जग के ठुकराये दुःखियों को मधुर प्रेम-सानी वानी॥
शीत-काल में पड़े ठिठुरते नग्न वस्त्र जब पायेंगे।
निर्धन ग्रीष्म लू में जब थम बिन्दु नहीं ढरकायेंगे॥
जब अनाथ बच्चों को सब जग अपना कह अपना लेगा।
माता-पिता के रूप दुःखी वह प्राण मात्र को पा लेगा॥
सब प्राणी आनन्द लहें, जब कहीं मिलेगा क्लेश नहीं।
सकल विश्व सुख करेगा, होगा दुःख का लेश नहीं॥
तभी मात! मैं धन्य बनूँगा नर जीवन फल पाऊँगा।
जगत् सुखी कर तेरी गोदी में आकर मोद बढ़ाऊँगा॥’
*समाप्त*
(ले॰ श्री मदनगोपाल जी सिंहल)