Magazine - Year 1951 - Version 2
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Language: HINDI
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ज्ञान और विज्ञान का अन्तर
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विज्ञान का अर्थ है-विशेष ज्ञान, खास जानकारी। साधारणतया शरीर और मस्तिष्क की सहायता से हम जो जानकारी प्राप्त करते हैं वह प्रायः अधूरी होती है क्योंकि स्थूल एवं भौतिक पदार्थों का परिचय मात्र ही उनके द्वारा पाया जाना सम्भव है। हम देखते हैं कि अनेक शिक्षण संस्थाएँ अपना काम जोरों से कर रही हैं, लाखों छात्र उनमें भाषा, गणित, भूगोल, इतिहास, रसायन, चिकित्सा, शिल्प, संगीत, शासन आदि की शिक्षा पा रहे हैं। इस शिक्षा में पूर्णता प्राप्त करके वे धन और पद भी प्राप्त करते हैं, इतने पर भी उन्हें उस जानकारी से वंचित रहना पड़ता है जो आत्मा को शान्ति दे सकती है, जीवन में चतुर्मुखी प्रसन्नता एवं सन्तोष की हिलोरे उत्पन्न करती है। वह शिक्षा जिससे अन्तर की बेचैनी, उद्विग्नता एवं तृष्णा का समाधान होकर स्वच्छ मनोभूमि की प्राप्ति होती है-विज्ञान, कहलाती है।
यों आज कल ‘विज्ञान’ शब्द का अर्थ पदार्थ विद्या, भौतिक विज्ञान या साइन्स किया जाता है पर आध्यात्म शास्त्र में इसका तात्विक अर्थ है-दृष्टिकोण, लक्ष्य, ध्येय, नीति, जीवन दशा।
यह दृष्टिकोण ही शरीर तथा मन को प्रेरणा प्रदान करता है। विचार और कार्यों की कुँजी दृष्टिकोण है। हमारे अन्तस्तल को जो बात सुहाती है, जिसे हम रुचिकर, हितकर, उपयोगी एवं आवश्यक समझते हैं, उधर ही विचारधारा और कार्यशक्ति मुड़ जाती है और कार्य होने लगता है।
कई व्यक्ति ऐसा कहते पाये जाते हैं- “क्या करें मन नहीं मानता, हम तो ऐसा करना चाहते हैं पर हो ऐसा जाता है।” ऐसी शिकायत के पीछे उनकी आन्तरिक और बाह्य स्थिति का भेद प्रकट होता है। यदि हमारे अन्तःकरण ने भौतिक दृष्टिकोण अपना रखा है तो हमारे आध्यात्मिक कार्य भी भौतिक लाभ को ध्यान में रखकर होंगे। आध्यात्मिकता की लीपा-पोती बार-बार फिसल जाएगी और भौतिक प्रधानता हर बार ऊपर आ जायगी। इसके विपरीत यदि हमारा आन्तरिक लक्ष्य आत्मिक है तो साधारण संसारी कामकाजों में भी आत्मिक महानता प्रकट होती रहेगी।
आन्तरिक विश्वासों से प्रतिकूल न मन जा सकता है न बुद्धि, न शरीर। हिन्दू का विश्वास है कि गौ माँस अभक्ष है वह भूखा मर जायगा पर माँसाहारी होते हुए भी उसे खाकर जीवित रहना पसन्द न करेगा। कोई कामान्ध व्यक्ति भी अपनी सगी बहिन बेटी पर कुदृष्टि न डालेगा साधारण माँस और गौ माँस में, दूसरों की बहिन बेटी और अपनी बहिन बेटी में प्रत्यक्षतः कोई खास अन्तर नहीं है फिर भी कोई भीतरी बात ऐसी है जो एक को प्राप्त करने के लिए आतुर करती है परन्तु दूसरी के लिए कल्पना भी नहीं होती। यह आन्तरिक विश्वास ही है जो मन बुद्धि या शरीर को प्रेरणा देता या प्रतिबन्ध रखता है।
जब ऐसा प्रश्न उठे कि हम ऐसा नहीं चाहते पर मन ऐसा कर बैठता है। तब समझना चाहिए कि इनके मन में दो प्रकार के कार्यक्रम सामने आते है कि इसे करें या उसे करें। दोनों में से वे उसे चुन लेते हैं जो उनके आन्तरिक लक्ष्य के अनुकूल है। दो में से एक बात वही छोड़नी पड़ेगी जो आन्तरिक दृष्टि के प्रतिकूल होगी। दो में से एक बात जो छूट गई वह अच्छी थी, वही कर ली जाती तो अच्छा था ऐसा पीछे ख्याल आता है और उसके लिए जब पश्चाताप होता है तो जब यह शब्द मुँह से निकल जाते हैं-”क्या करें मन नहीं मानता।” इन शब्दों में उसकी बेबसी तो है पर इसके लिए अपने को निर्दोष नहीं कह सकता। जब तक उसकी आंतरिक दृष्टि एक तरह की है तब तक दूसरी तरह के सब कार्य और आयोजन प्रायः अधूरे, थोड़े, भद्दे और निष्फल रहेगा जो दृष्टि भीतर की है, जिस बात में वस्तुतः लाभ और आनन्द समझा जाता है कार्य वही होगा, उसी में मन लगेगा और उसी को बुद्धि स्वीकार करेगी, चित्त में वही बात सुहावनी और सरल प्रतीत होगी।
मन एक प्रकार का विचारवान वकील है जो अपने मुवक्किल की इच्छा के अनुसार अपनी सारी चतुरता और विचार शक्ति को लगाकर नाना-प्रकार के तर्क, प्रमाण, उदाहरण ढूँढ़ता है किसी सेठ का नौकर इंजीनियर अपने मालिक की आज्ञानुसार बड़ी-बड़ी योजनाएँ तैयार कर देता है। सरकारी नौकर, जज अपनी मालिक सरकार के बनायें कानूनों के आधार पर फैसले करता है। इसी प्रकार मन की कल्पना, प्राणशक्ति, शारीरिक योग्यता द्वारा उसी दिशा में अभियान होता है।
जीवन दृष्टि का नाम ही ‘विज्ञान’ है। मैं क्या हूँ, मेरा लाभ किस में है, मुझे आनन्द देने वाली वस्तु क्या है? मेरा लक्ष्य क्या है? मुझे क्या सोचना चाहिए? क्या करना चाहिए? कैसे गुणों और स्वभाव को अपनाना चाहिए, दूसरों के प्रति मेरा व्यवहार क्या होना चाहिए आदि प्रश्नों का उत्तर अन्तरात्मा के गुप्त प्रदेश में जिस प्रकार मिलता हो उसी के अनुसार यह जाना जा सकता है कि हमारे विज्ञानमय कोश की स्थिति क्या है? कितने ही मनुष्य बहुश्रुत और बहु पठित होते हैं, उनने गणित, भूगोल, इतिहास की भाँति अध्यात्मिक बात भी बहुत पढ़ी और सुनी होती है। तदनंतर वे कई बार दूसरों को प्रभावित करने के लिए लम्बी-चौड़ी आध्यात्मिक बात भी करते हैं। पर इस बकवास से यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि इस व्यक्ति की वास्तविक मनोभूमि क्या है? कई जटाजूट रखाये साधु-चोर, व्यभिचारी और ठग पाये जाते हैं, कई पर उपदेश कुशल प्रवचनकारों का व्यक्तिगत जीवन बड़ा निकृष्ट पाया जाता है, इसके विपरीत कई साधारण काम काजी और अल्प शिक्षित मनुष्यों का आन्तरिक दृष्टिकोण बड़ा ही उच्चकोटि का होता है इसलिए बाह्याडंबर से नहीं वस्तुतः आन्तरिक दृष्टिकोण से ही किसी के ज्ञान-विज्ञान की वास्तविक स्थिति जानी जा सकती है।
दृष्टियाँ दो होती है-एक सत् दूसरी असत्। सत् दृष्टि वह है जो भावनाओं में सुख दुःख को समझती है और अपने अन्दर तथा दूसरों से सद्भाव बढ़ाने में सुख सन्तोष देखती है। असत् दृष्टि वह है जो वस्तुओं, धन, सौंदर्य, वैभव, भोग, ऐश्वर्य में आनन्द खोजती है। जिस व्यक्ति की जो दृष्टि होगी वह उसी आधार पर इच्छा, कल्पना, योजना एवं क्रिया करेगा। तदनुसार अभीष्ट वस्तुएँ उसकी योग्यता और कार्य क्षमता के आधार पर प्राप्त होती चलेगी। दो दिशाओं में जाने वाली रेल की पटरियाँ जहाँ मिलती है वहाँ जरा सा मोड़ और जरा सा अन्तर होता है पर इस थोड़े से अन्तर के कारण ही एक रेल कलकत्ता जा पहुँचती है तो दूसरी बम्बई। दोनों के कार्य परिणाम में सैकड़ों मील का अन्तर पड़ जाता है। दृष्टिकोण का सत् या असत् होने का थोड़ा सा अन्तर एक व्यक्ति को महापुरुष बना देता है और दूसरे को घृणित पापी के रूप में ले पहुँचता है। उच्चकोटि की सतभावना के कारण एक दुर्बल काया, हीन प्रतिभा और अल्प विद्या मनुष्य महात्मा गाँधी बन जाता है। दूसरी ओर अपनी प्रतिभा विद्या एवं समर्थ से दूसरों को हैरत में डाल देने वाले व्यक्ति रूस के धर्म गुरु रासपुटिन की भाँति नारकीय नर पिशाच बन जाते हैं। अन्तः लक्ष्य का थोड़ा सा हेर-फेर शरीर प्राण और मन की इच्छाओं एवं चेष्टाओं में आश्चर्यजनक परिवर्तन कर सकता है।
एक व्यक्ति टके-टके को धर्म बेचता है। प्याज के छिलके पर मुसलमान हो जाने की कहावत चरितार्थ करता है। दूसरी ओर हकीकत राय और बन्दा वैरागी जैसे ऐसे भी लोग होते है जो अपनी मान्यता को स्थिर करने के लिए प्राणों को न्यौछावर कर देते हैं। मनुष्य की नैतिकता, सदाशयता, उदारता, कर्त्तव्य परायणता, इस बात पर निर्भर है कि उसका अन्तरात्मा श्रेय को, धर्म को, सत को प्रधानता दे। जिनका ध्येय, लक्ष्य उद्देश्य सत है जो आत्मा की प्रसन्नता एवं संतुष्टि में सफलता देखते है वे ऋतम्भरा प्रज्ञा वाले व्यक्ति कभी भी ऐसी शिकायत करते सुने नहीं जाते कि क्या करें हमारा मन नहीं मानता, ऐसा चाहते हैं और ऐसा हो जाता है।
ज्ञान की आज चारों ओर चर्चा है, स्कूल कालेज द्रुतगति से खुल रहे हैं, और उनमें छात्रों की संख्या आँधी तूफान की भाँति बढ़ रही है। यह अच्छी बात है, शिक्षा का, साक्षरता का, अधिक से अधिक प्रचार होना ही चाहिए। पर साथ ही यह भी न भूलना चाहिए कि विज्ञान इस शिक्षा से भी अधिक आवश्यक है। ‘विज्ञान’ शब्द से हमारा मतलब उस साइंस से नहीं जो सत्यानाशी अणुबम और उदबम बनाकर नृशंस प्रलय का आयोजन कर रहा है, हमारा तात्पर्य उस साइंस से है जो आन्तरिक दृष्टिकोण में परिवर्तन करती है संयम, सदाचार, संतोष, पुरुषार्थ और परमार्थ की ओर प्रेरित करती है जिससे मनुष्य, मनुष्य में स्नेह, सौहार्द, भाईचारा, ईमानदारी, आदि ऐसे सद्भाव बढ़ते हैं।