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Magazine - Year 1951 - Version 2

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स्त्री शिक्षा का उद्देश्य क्या हो?

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(श्री विनायक राव बागडे बम्बई)

इस बात से तो इन्कार नहीं किया जा सकता कि पुराने जमाने में भी हिन्दू औरतें ऊँचे दर्जे की शिक्षा पाती और बड़ी-बड़ी जिम्मेदारी का काम करती थी। ब्रह्मवादिनी, गार्गी, उभय भारती, लोपामुद्रा, सुनाभा, अनुसूया और ऐसी बहुत सी देवियों के नाम हम ले सकते हैं-यहाँ तक कि इनमें से कुछ ने वेद के मंत्रों के अर्थ किये थे और वे “मन्त्रदृष्टा” कहलाती थी।

परन्तु हम इस बात पर विचार करना चाहते हैं कि आज कल की ऊँचे दर्जे तक पढ़ी-लिखी बहिनों से हमारे जीवन में क्या लाभ हुआ है।

विद्या और शिक्षा जिन्दगी की सबसे बड़ी चीज है, इससे आत्मा ऊपर उठती है, ज्ञान बढ़ता है, सन्देह दूर होता है। पढ़-लिख कर इन्सान दुनिया के हर जीव से बहुत ऊंचा उठ जाता है। इसलिये इन्सान होने के नाते बहिनें-बेटियों को ज्यादा से ज्यादा पढ़ने-लिखने की सुविधा देना बहुत ही जरूरी और इन्साफ की बात है। हाँ, इस मामले में हमें यह जरूर देख लेना है कि बहिनें और बेटियाँ जो कालेजों में ऊंचे दर्जे तक पढ़ कर मर्दों की तरह आजाद होकर पेशेवर बनना चाहती हैं, उसका हमारे समाज के संगठन पर क्या असर पड़ता है। मेरा ख्याल है कि इनसे हमारे समाज के संगठन पर धीरे-धीरे एक भारी मुसीबत पास आ रही है।

शिक्षा में दो बातों का होना बहुत जरूरी है। एक तो यह कि वह हमारे जीवन की साथ हो, हमारा जीवन जिस वातावरण में हो, देश और काल को देखते जैसी परिस्थिति हमारे सामने हो, हमारी शिक्षा बिल्कुल उसी के माफिक हो, दूसरी बात यह है कि पढ़-लिख कर हम अपनी जिंदगी को अपने लिये बाँझ न बना लें। लेकिन हम देखते हैं कि हमारी स्कूली और कालेजों की ऊँचे दर्जे की पढ़ी-लिखी बहिनों की हालत ऐसी ही है। चूँकि कालेजों की इस पढ़ाई में भाषा और विचार दोनों विदेशी है, इसलिये इन पढ़ी-लिखी बहिनों के विचार और उनकी जानकारी अपनी जाति और देश से दूर होते चले जा रहे हैं। साथ ही इस शिक्षा ने उनके जीवन को बहुत बोझीला बना दिया है।

यह बात तो साफ जाहिर है कि हमारी अनपढ़ बहिनों की बनिस्वत, चाहे वह कितने ही ऊँचे दर्जे के घराने की क्यों न हों, इन पढ़ी-लिखी बहनों की जरूरतें बहुत ज्यादा होती है। उनके रहन-सहन खर्चीले और जरूरतें बढ़ी हुई होती है। उनकी हालत द्विविधा में भरी हुई और जिन्दगी असन्तुष्ट होती है।

शिक्षा का सबसे बड़ा गुण तो यह होना चाहिये कि वह हमारी आत्मा में मिल जाय और हमारा जीवन उसमें डूब जाय, लेकिन हमारी इन बहिनों के ऊपर शिक्षा एक ऐसा बोझ बन गयी है कि उसे जिन्दगी भर ढोना उनके लिये सबसे बड़ी मुसीबत बन गयी है।

इन बातों ने हमारी बहिनों के सामने बहुत भारी मुश्किलें रख दी हैं। उनमें पहली मुश्किल तो यह है कि हिन्दुस्तान में भारतीय दृष्टिकोण से जिन्दगी भर कुँआरा रहना एक बहुत ही असाधारण बात है। यूरोप में तो लड़कियां आमतौर पर कुँआरी रहती है-बहुत सी तमाम जिन्दगी और बहुत-सी बहुत बड़ी उम्र तक। कुँआरी रहते भी अगर उनका जीवन बिलकुल पाक-साफ न रहे तो यहाँ की सोसायटी में यह बात बहुत ज्यादा बुरी नहीं समझी जाती, न ऐसी लड़कियों से कोई घृणा ही करता है। लेकिन यहाँ की हालत ऐसी नहीं है। जो माँ-बाप अपनी लड़कियों के ऊंची से ऊंची शिक्षा देना और स्वतंत्र रखना भी पसन्द करते हैं, वे भी पुरानी परिपाटी के प्रभाव से यह जरूर चाहते हैं कि उनकी लड़कियों का चाल चलन पवित्र और मर्यादा में रहे, और अन्त में वे एक इज्जतदार गृहस्थिन बनें। लेकिन कालेजों में पढ़ने वाली लड़कियाँ 20-25 साल तक तो कुँआरी ही रह जाती हैं और इस उम्र में कुँआरी रहना-साथ ही सोसायटी जितना उन्हें मौका दे सकती है उतना ही आजाद रहना-उन्हें इस मुश्किल में डाल देता है कि फिर ब्याह के बाद वे उतनी विश्वसनीय बहुएँ नहीं रहती, जितना की एक हिन्दुस्तानी बहु को रहना जरूरी है।

अब रही यह बात कि शादी पर भी ऐसी बहिनें नौकरी कर सकती हैं-वे अगर ज्यादा कमा सकती हैं तो क्यों घर के नौकरों जैसे काम करें, वे खूब रुपया कमायें, मर्द कमायें और दोनों मिल कर मजे की जिन्दगी काटें। अपनी आमदनी के बहुत थोड़े हिस्से से वे कई नौकर-चाकर रख कर अपने रहन-सहन को आरामदेह बना सकते हैं। इस किस्म की जिंदगी कुछ लोग बना रहे हैं। पर अनुभव ने बताया है कि वे सुखी नहीं हैं। नागरिकता की सबसे बड़ी चीज गृहस्थी है। अगर गृहस्थी ठीक नहीं है तो नागरिकता नहीं कायम रह सकती। क्या हम ऐसी बहिनों को नहीं जानते जो ऊँचे दर्जे की लीडर, विदुषी हैं, पर उनकी गृहस्थी बरबाद हो चुकी है, उनके पतियों से उनके बन्धन ढीले हो चुके हैं। मैं कहूँगा कि अगर यह ऊंची शिक्षा हमारी बहिनों के मस्तक में बस कर हमारी गृहस्थी के संगठन को बिगाड़ती है तो उसे दूर से ही नमस्कार है।

पुराने जमाने में भी बहिनें ऊँचे दर्जे की विदुषी होती थी, पर वे विद्या को बाजार में नहीं बेचती थी। उनकी विद्या उनके ज्ञान और सन्तोष के लिए थी। स्त्रियाँ त्याग की मूर्ति हैं। जो मूर्ख हैं वे छोटा त्याग करती हैं, उनके पास त्याग करने को सिर्फ देह है और वे जिन्दगी भर तप और सेवा की मूर्ति बन कर अपनी गृहस्थी में अपनी देह दान करती हैं, परन्तु ऊंचे दर्जे की विदुषी देवियों का त्याग और तप से सदियों की मरी हुई कौमें जी उठती हैं, दुनिया उनके चरणों की पूजा करती हैं। ऊंचे दर्जे की पढ़ी-लिखी बहिनें अगर रोजगार धंधे की झूँठी स्वतंत्रता का लोभ त्याग कर आदर्श पत्नी, माता और संबन्धिनी बन जाय तो हजारों गृहस्थियों में स्वर्ग के फूल खिल उठें। पढ़े-लिखें लोग अब दासी स्त्री नहीं चाहते, वे एक मित्र साथी चाहतें हैं, इसलिये ये विदुषी बहिनें अपनी विद्या और स्त्री-जीवन को सार्थक करें, तप, त्याग और प्रेम की देवियाँ बनें तो हजारों वकील, प्रोफेसर, जज, बैरिस्टर डॉक्टर, अफसर जो थकेमादे दफ्तरों से आकर घर के बाहरी हिस्से में चाय-पानी पी क्लबों, थियेटरों, नाचघरों एवं सिनेमाओं में दिल बहलाने वाले फिजूलखर्ची करते हैं, घर में अपनी प्यारी पत्नी और बच्चों में दिल बहलावें, फिर उनसे ज्यादा प्यारी और खुशनुमा चीज दुनिया में दूसरी कौन हैं?

शिक्षा की प्रत्येक मनुष्य को आवश्यकता है। पुरुषों की भाँति स्त्रियों को भी सुशिक्षित होना चाहिए। पर जिस शिक्षा पर इतना धन समय और श्रम लगाया जाता है वह ऐसी होनी चाहिए जिससे जीवन का उत्कर्ष हो और सुख शान्ति की वृद्धि हो। आज शिक्षा के साथ-साथ, जिस विलासिता एवं भौतिकता से भरे हुए पश्चिमी दूषित दृष्टिकोण को अपनाया जा रहा है उससे हमारे लड़के और लड़कियाँ दोनों ही एक उलझी हुई पेचीदगी में फँसते जा रहे हैं। निरुद्देश्य शिक्षा से भला और किस परिणाम की आशा की जा सकती है?

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