
हृदय! यह संताप कैसा? (kavita)
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हृदय! यह संताप कैसा? स्नेह-धोग-धवल-शाश्वत यहाँ, फिर अभिताप कैसा?
स्वयं सत-चित् रूप है, आनन्द का वरदान है तू,
प्रकृति-पति का दान तू सर्वोच्च-अतः महान् है तू,
उस कलामय की कला, उत्कृष्ट कृति, अभिमान है तू,
सृष्टि की रामस्थली में शोक क्या, पर ताप कैसा?
यहाँ असित प्रताड़ना, तो सुधा सम विश्वास भी है,
जगत है निश्वास-पूरित, किन्तु निर्मल ह्स भी है,
ठीक, व्यापक-रुदन है यदि, मृदुल-तम परिहास भी है,
आसित् को तू देख ही मत-व्यर्थ, कुसित प्रलाप कैसा?
यहाँ है घनश्याम अम्बर के नयन को धन्य करते,
जलद नभ के शस्य-श्यामल भूमि को सम्पन्न करते,
गिरि, गुहा, निर्भर सुसीत्विक भाव को उत्पन्न करते,
शान्ति, सुख का क्षेत्र है यह, यहाँ हिम का तार कैसा?
क्षरी-सिन्धु समान शशि की पूर्णिमा है, ज्योत्सना है,
श्वेत मुक्ता युक्त झिलमिल वसन अम्बर में तना है,
प्रकृति सुषमा बाँटती है-मनुज फिर भी उन्मना है,
दुःख-सुख के नापने की यहाँ भ्रामक माप कैसा?
शील, मन्द, सुगन्ध युक्त सर्वत्र मलियानिल पवन है,
विविध-वर्ण-विचित्र-शोभित, भ्रमर का धन, प्रति सुमन है,
तर-लताओं से भरा उद्यान, उपवन, गहन वन है,
जगत-जननी मातृ-भू है, पुराण भू में पाप कैसा?
बाल-रवि की स्वास्थ्य-वर्षा, देन-जागृति, नवल जीवन,
सुधा-सदृश-पराग-तितली के करो से सौम्य वितरन,
विहंग-गण का मधुर कलकल, पिक-मयूर, संगीत-नृत्यन,
विश्व आत्म स्वरूप तब, तब क्षोम कैसा, दाप कैसा,
यहाँ शिशु-किलकारियों से द्रवित हैं वात्सल्य जग में,
तुम्हें, नँद-नन्दन मिलेंगे प्रति प्रहर, प्रत्येक पग में,
मौत यशोमती का हृदय तुम पा सकोगे डगर, मग में,
चिर-अमर तू, यहाँ दुखद वियोग का कटु श्राप कैसा? हृदय! यह संताप कैसा?
*समाप्त*
(श्री डा. लक्ष्मी नारायण टण्डन, एम. ए. ‘प्रेमी’)