Magazine - Year 1951 - Version 2
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सहस्त्राँशु ब्रह्म यज्ञ का निमंत्रण
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जिन्हें अन्तः प्रेरणा मिले वे इसमें सम्मिलित हो सकते हैं।
अब ऐसे शुभ लक्षण स्पष्ट प्रकट होते जा रहे हैं जिससे यह प्रतीत होता कि वर्तमान काल की चरम सीमा पर पहुँची हुई अधार्मिकता में सुधार होगा और संसार वर्तमानकालीन विषम पीड़ाओं से छुटकारा पाकर नवयुग में प्रवेश करेगा। जैसे एक ग्रहदशा के अंतर्गत लघुग्रह दशाएं बदलती रहती हैं वैसे ही कलियुग के अन्दर भी सतयुगी अर्न्तदशाएं आती हैं। हमें दिखाई पड़ता है कि सूक्ष्म लोकों में कुछ दिव्य आयोजन इसी प्रकार के हो रहे हैं।
उसी दैवी प्रेरणा का एक चिन्ह यह है कि इस वर्ष सात्विकता की प्रत्यक्ष प्रतीक, परम कल्याणकारिणी, महा महिमामयी, गायत्री उपासना का आयोजन सर्वत्र उल्लास पूर्वक हुआ। लोग इस सनातन श्रेय मार्ग को जिन स्थानों पर पूर्णतया भूल चूकें थे वहाँ अप्रत्याशित रूप से ऐसे आयोजन हुए, जिसने साधना, तपश्चर्या और सात्विकता की एक लहर प्रवाहित कर दी। गत आश्विन मास की नवरात्रियों में हमने एक साधारण अपील की थी कि” इस पुराण पर्व पर 24 हजार के लघु अनुष्ठान तपश्चर्या पूर्वक किये जाये।” वर्तमान काल की स्थिति को देखते हुए हमारा अनुमान था कि-’बहुत थोड़े लोग इस ओर ध्यान देंगे जो लोग साधना करेंगे उनके उत्साह को बढ़ाने और अन्यों को प्रेरणा देने के लिए उन साधकों के नाम अखण्ड-ज्योति में छापेंगे।’ परन्तु जो सूचनाएं प्राप्त हुई हैं उनसे प्रकट है कि इस वर्ष नवरात्रि में जिन सज्जनों ने गायत्री के तप किये हैं उनकी संख्या इतनी अधिक है कि पूरी अखंड ज्योति में चार मास तक केवल नाम ही छापे जावें तो भी वह नाम पूरे नहीं हो सकते। इसलिए उन सब लोगों को हार्दिक अभिनन्दन करके ही सन्तोष कर लिया है। जिन सज्जनों के अन्य अनेकों साथी साधक प्रस्तुत किये उनके लिए हमारा विशेष रूप से अभिवादन है।
इस वर्ष एक बहुत ही उत्साह प्रद बात यह हुई कि अनेक स्थानों पर सैंकड़ों वर्षों से चली आ रही दुर्गा पूजा की पशु बलि, पूर्णतया सदा के लिए बन्द कर दी गई और अब वहाँ माता के तमोगुणी रूप का त्याग कर सतोगुणी गायत्री रूप प्रतिष्ठित कर दिया गया। आशा है कि यह प्रवाह जोरों से बहेगा और माता को रौद्र वेश की अपेक्षा परम वात्सल्य मय सतोगुणी रूप में पूजा जायगा। बंगाल प्रान्त जो काली पूजा का प्रधान केन्द्र है। आशाजनक रूप से गायत्री की सात्विकता का अंचल पकड़ता दृष्टिगोचर हुआ है। यह प्रगति जारी रही तो भारत की पुण्य भूमि में पुनः जगद्गुरु कहलाने वाले तपस्वी ऋषि, विश्व की शान्ति रक्षा करने वाले चक्रवर्ती महापुरुष एवं रत्नगर्भा शस्य श्यामला भूमि का वैभव बढ़ाने वाले सुसम्पन्न नागरिक सर्वत्र दिखाई देंगे।
प्रायः लोगों को यह शिकायत रहती है कि वे दीर्घकाल से विभिन्न साधना करते आते हैं पर उन्हें कुछ चिन्ह दिखाई नहीं देता। परन्तु यह एक आश्चर्य ही है कि गायत्री की विधिपूर्वक व्यवस्थित साधना करने वाले साधकों में कोई विरले ही ऐसे होंगे जो यह अनुभव करते हों कि कोई दिव्य शक्ति उनके साथ नहीं चल रही है एवं कोई दिव्य ज्योति उनके भीतर नहीं जल रही है। गत जुलाई मास के गायत्री अंक में कुछ ऐसे अनुभव अखण्ड ज्योति में छपे थे। इन नवरात्रियों में तो ऐसे चमत्कारी अनुभव अत्यन्त विशाल परिणाम में हुए हैं। उनमें से जो छापने योग्य समझे जायेंगे सन् 52 की जुलाई के गायत्री अंक में छपेंगे। अधिकाँश साधकों ने माता की समीपता एवं प्रसन्नता के प्रत्यक्ष अनुभव किये हैं।
हम अब तक के जीवन में निरन्तर गायत्री उपासना में प्रवृत्त रहे हैं। गायत्री शोध के लिए शास्त्राध्ययन, इस विद्या के सिद्ध पुरुषों की खोज, निज की तपश्चर्या, अन्य व्यक्तियों को इस मार्ग की प्रेरणा देना, आदि कार्यक्रमों में हमारे जीवन का अधिकाँश भाग व्यतीत हुआ है। अनेक ऐसे आशाजनक परिणाम हमने देखे हैं जिनका उल्लेख करना यहाँ अनावश्यक है। पर इस वर्ष नवरात्रि में हमें स्वयं ऐसा प्रकाश मिला जो अब तक के अनुभवों से ऊँचा है। सदा से हम नवरात्रियों में साधारण उपवास करते थे इस वर्ष हमारा पूर्ण निराहार, केवल जल के आधार पर उपवास हुआ। जहाँ गतवर्षों में सदा शारीरिक निर्बलता आती थी वहाँ इस वर्ष वैसा अनुभव तनिक भी नहीं हुआ। इसके अतिरिक्त माता की समीपता का जैसा स्पष्ट अनुभव इस बार हुआ वैसा पहले कभी भी न हुआ था।
हमारा चौबीस-चौबीस लक्ष के चौबीस महापुरश्चरणों का निर्धारित लक्ष पूरा हो गया। अब इसके पश्चात् आगे क्या करना, यह प्रश्न विचाराधीन था। उसका हल माता ने स्वयं ही कर दिया है। आदेश मिला है कि-”सवालक्ष द्विजों को गायत्री विद्या का समुचित ज्ञान करा देने की साधना की जाए।” मूर्तिवत् होकर विजयादशमी को अपनी नवरात्रि उपासना की पूर्णाहुति करते हुए यह संकल्प कर दिया गया। परन्तु अब मन में नाना प्रकार के संकल्प विकल्प उठ रहे हैं। आज के युग में लोगों की मनोवृत्ति जैसी हो रही है। उसमें एक स्थान पर दस पाँच आदमी भी धार्मिक विचारों के मिलने कठिन हैं। फिर सवा लाख तो इतनी बड़ी संख्या है कि मस्तक चकरा जाता है। इस युग के भोग और स्वार्थ परायण मनुष्यों में से हमारे जैसा दुर्बल योग्यता का व्यक्ति किस प्रकार सवालक्ष जैसी विशाल संख्या में माता का सन्देश पहुँचा सकेगा, यह कार्य बड़ा दुस्तर मालूम होता है। परन्तु दूसरे ही क्षण नव आशा का संचार होता है। महाशक्ति अपना काम स्वयं कर रही है। हमें तो केवल मात्र निर्मित बनना है। जिस प्रेरणा से आज अगणित व्यक्ति,परम कल्याणमयी सात्विकता की प्रतीक माता की शरण में आ रहे हैं, उसी प्रेरणा से यह महाकार्य भी पूर्ण होगा। प्राचीन काल में महाप्रभु अंगिरा के आदेशानुसार नारद जी ने अधार्मिकता का परिमार्जन करने के लिए 24 करोड़ भगवद् भक्त बनाने का व्रत लिया था। नारद ने अपनी शक्ति से नहीं, दिव्य शक्ति की सहायता से उसे पूरा किया। हमें यह सवालक्ष गायत्री ज्ञाता बनाने की प्रेरणा देने वाला प्रेरक शक्ति ही प्रधान साधन बनेगी। हमारे जैसे तुच्छ व्यक्ति तो अपनी अयोग्यता और कार्य की महानता इन दोनों की तुलना करने मात्र से काँप जाता है।
हमारे अनेक प्रेमी, साथी, स्वजन, सहयोगी श्रद्धालु और गुरु जन हैं। वे समय समय पर पूछते रहते हैं “-हमें किसी बात की आवश्यकता हो तो लिखें।” हम सदा ही उनकी सद्भावना के लिए धन्यवाद देते रहे हैं क्योंकि हमें व्यक्तिगत रूप से कभी किसी बात की आवश्यकता नहीं होती। इस बार सवालक्ष सत्पुरुषों को गायत्री का समुचित ज्ञान देने का जो संकल्प किया गया है वह ऐसा है कि अनेक मनुष्यों के सहयोग के बिना पूरा नहीं हो सकता, इस अवसर पर हम अपने सभी सहयोगियों को थोड़ा थोड़ा हाथ बटाने का निमंत्रण देते हैं। माता जिनके अन्तः करण में प्रेरणा दें, जो व्यक्तिगत रूप से हमारा भार हलका करना चाहें, जिन्हें इस पुण्य प्रचार से अपना तथा संसार का कल्याण दीखता हो, उनसे हमारा विशेष रूप से अनुरोध है कि आलस्य त्याग कर वे थोड़ा सा प्रयत्न इस दशा में अवश्य करें।
इस संकल्प में हमारे बोझ के नीचे अपना कंधा लगाने वालों को चाहिए कि वे किसी दिन अवकाश के समय अपने परिचित उन सज्जनों के नाम नोट करें जो धार्मिक प्रवृति के हों। फिर अपनी गायत्री पुस्तकों को एक एक करके उन्हें पढ़ाना आरम्भ कर दें। जिसने पूरी पुस्तकें पढ़ ली हों उसे “समुचित गायत्री ज्ञान प्राप्त” कहा जा सकता है। जिन्हें अपना गायत्री साहित्य पढ़ाया जाए उन्हें इसके लिये भी उत्साहित करना चाहिए कि वे भी इसी प्रकार अपनी पुस्तकें मँगाकर अन्यों को आपकी ही भाँति यह ब्रह्मदान दें। यह श्रृंखला टूटने न पावे, थोड़े बहुत भी नये गायत्री प्रचारक पैदा होते रहे, तो बहुत भारी काम पूरा हो सकता है। जिसके पास पूरा गायत्री सैट नहीं वे छोटे सैट से भी काम चला सकते हैं।
ऐसे दस पाँच समुचित ज्ञान प्राप्त स्त्री पुरुष बना देना हर एक प्रयत्नशील व्यक्ति के लिए कुछ अधिक कठिन नहीं है। जिस व्यक्ति को पढ़ाया गया हो उसका पूरा पता और जो जो पुस्तकें पढ़ाई गई हों उनके नाम, हमें अवश्य सूचित कर देने चाहिए ताकि यह जाना जा सके कितनी प्रगति हो रही है और उस सूचना की सच्चाई की परीक्षा भी हो सके।
इस सहयोग योजना में-अनावश्यक संकोच, शर्म और झिझक को छोड़ कर दूसरों से गायत्री विद्या चर्चा करने का साहस बटोरने की सबसे प्रथम आवश्यकता है। पुस्तकें देने जाने और वापिस लाने का झंझट भी है। सुरक्षा के लिए पुस्तकों की जिल्द बनाने में, कुछ पुस्तकें फटने टूटने या गुम होने में तथा जो पुस्तकें नहीं हैं उन्हें मँगाने में थोड़ा खर्च भी है। परन्तु किसी भी मनस्वी व्यक्ति के लिए यह तीनों ही कार्य ऐसे नहीं है जिसे वह न कर सके। धर्म कर्म में कुछ न कुछ त्याग एवं कष्ट सहन करना ही पड़ता है, इस महान आध्यात्मिक ब्रह्म यज्ञ की सवालक्ष आहुतियाँ की दिव्य योजना को पूर्ण करने वाले होताओं को कुछ भी झंझट न उठाना पड़े यह हो भी नहीं सकता। स्मरण रहे यह आयोजन अत्यंत गंभीर सत्परिणाम उपस्थित करने वाली है। इस सहस्रांशु ब्रह्मयज्ञ में युग परिवर्तन के बीज छिपे हुए हैं। जैसे नव प्रभात की पुण्य संध्या में ब्राह्मी साधना आवश्यक होती है, उसी प्रकार नाना विधि पाप तपों से त्रास देने वाली इस घन घोर अन्धकारमयी निशा का परिवर्तन करके, शान्तिदायक सतोगुणी ऊषा के स्वागत में यह यज्ञ किया जा रहा है। इसमें सम्मिलित होना, सहयोग देना, हर एक जागृत आत्मा का पवित्र कर्तव्य है।
प्रण पूरा न हो सकने पर हमें जो आन्तरिक कष्ट होगा और उसके लिए जो प्रायश्चित हमें करना पड़ेगा उसकी कल्पना सचमुच कष्टकारक है। उससे बचने के लिए भी हम सब थोड़ा-थोड़ा प्रयत्न करें तो सुखद परिणाम के निकट बहुत जल्दी पहुँच सकते हैं।
इस महान् यज्ञ में साझीदार बनने के लिए हम उन सब आत्माओं को आमंत्रित करते हैं जिनके अन्दर दैवी प्रकाश काम कर रहा हो। इस साझेदारी का पुण्य फल कितना आनन्ददायक होगा इसका प्रत्यक्ष अनुभव हमारे सहयोगी समय आने पर ही कर सकेंगे। यह निश्चित है कि यह सहयोग किसी का भी निष्फल न जायेगा।