Magazine - Year 1954 - Version 2
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Language: HINDI
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बुझी न ज्योति शृंखला (Kavita)
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बुझे असंख्य दीप पर बुझी न ज्योति शृंखला!
अनेक कण उठे, मिले कि शृंग तुँग हो गया,
कि एक-एक बिन्दु में असीम सिंधु खो गया।
इसी तरह अनेक क्षण बँधे कि जिन्दगी बनी,
मगर बँधे न क्षण रहे, खुली न मृत्यु मेखला!
अनेक बार प्राण यह जला, न पर मिटी जलन!
न राह की कभी चुकी, न कभी मिटी थकन!
गरल पिया पियास में, पियास और भी बढ़ी,
मनुष्य यह इसी तरह तृषार्त तृप्ति में पला!
खिले, झरे, प्रसून पर मिटी न वह परम्परा,
अमर्त्य ही रही सदा मरण भरी वसुन्धरा!
न जन्म मृत्यु से बँधा, न मृत्यु जन्म से बँधी,
घिरे तिमिर जलद बहुत, मगर बँधी न चंचला!
न आदि का पता यहाँ, न अन्त का विभाग है,
अनन्त सृष्टि में भरा अनादि एक राग है!
यहाँ न फूल फूल है, यहाँ न धूल धूल है,
अजर यहाँ विनाश, तो अमर यहाँ सृजन-कला!