Magazine - Year 1955 - Version 2
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Language: HINDI
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अपने विचारों पर नियन्त्रण रखिए।
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(श्री लालजीराम जी शुक्ल)
मनुष्य के विचार ही मनुष्य को सुखी और दुःखी बनाते हैं। जिस मनुष्य के विचार उसके नियन्त्रण में हैं, वह सुखी है और जिसके विचार उसके नियन्त्रण में नहीं रहते, वह सदा दुःखी रहता है। दुःखी मनुष्य अपने दुःख का कारण अपने आप को न मानकर किसी बाह्य पदार्थ को मान लेता है। इस प्रकार की क्रिया को आधुनिक मनोविज्ञान में ‘आरोपण की क्रिया’ कहते हैं। इस प्रकार कुछ लोग अपने मित्रों को, शत्रुओं को और कुछ भाग्य को ही। वे अपनी ओर नहीं देखते। आत्म-निरीक्षण करने वाला व्यक्ति शीघ्र ही इस निष्कर्ष पर आ जाता है कि हमारे विचार ही हमारे शत्रु मित्र, सम्बन्धी अथवा भाग्य हैं। जिस मनुष्य के विचार उसके अनुकूल हैं, वह सभी प्रकार के लोगों, परिस्थितियों और भाग्य की अपने अनुकूल पाता है। इसके विपरीत जिस व्यक्ति के विचार प्रतिकूल होते हैं, वह चारों ओर शत्रु ही शत्रु देखता है। विचारों के दूषित होने से वातावरण दूषित हो जाता है और मित्र भी शत्रु बन जाते हैं तथा सफलता भी विफलता में परिणत हो जाती हैं।
विचारें को अनुकूल बनाना ही पुरुषार्थ है। विचार अभ्यास से अनुकूल अथवा प्रतिकूल होते हैं। जो मनुष्य जिस प्रकार के विचारों का अभ्यासी हो जाता है उसके मन में उसी प्रकार के विचार बार-बार आते हैं। साँसारिक विषयों का चिन्तन करने वाले व्यक्ति के मन में साँसारिक विचार आते हैं। उसे इसी प्रकार के विचारों में रस मिलता है। यदि कही ज्ञानचर्चा होती है तो वह उसे रस-हीन समझता है। साँसारिक लोगों को ज्ञान-चर्चा के समय जल्दी से नींद आ जाती हैं। ज्ञान-चर्चा मनुष्य की इच्छाओं के ऊपर नियंत्रण करती है। वह उनकी तृप्ति नहीं करती। अतः इस प्रकार की ज्ञान-चर्चा में आनन्द की अनुभूति करना उसके लिये एक अस्वाभाविक-सी बात होती है।
विचारों पर नियंत्रण धीरे-धीरे आता है। प्रत्येक आवेशात्मक विचार मन को निर्बल बनाता है, निर्बल मन बुरे विचारों के नियंत्रण में असमर्थ रहता है। जब मनुष्य का मन निर्बल हो जाता है तब किसी भी प्रकार के दुःखदायी विचार मन में उठ जाने पर, सब प्रकार के प्रयत्न करने पर भी वे मन से नहीं निकलते कितने ही लोग अपने विचारों से ही परेशान रहते हैं। वे अपने अभद्र विचार मन से निकालना चाहते हैं, पर जैसे-जैसे अभद्र विचार को मन से निकालने की चेष्टा की जाती है, वह और भी प्रबल हो जाता है। ऐसी अवस्था में कभी-कभी मनुष्य को निर्बलता आ जाती है।
इस प्रकार की स्थिति मानसिक निर्बलता का परिणाम होती है। यह मानसिक निर्बलता बार बार आवेशात्मक विचारों को मन में आने देने से उत्पन्न होती है। सब समय विचारों का नियंत्रण करने की चेष्टा से मनुष्य की इच्छा-शक्ति इतनी बलवती हो जाती है कि कोई भी बुरा विचार इच्छा-शक्ति के बिना मन में देर तक नहीं ठहर पाता। जो मनुष्य आवेशात्मक विचार पर जितना ही अधिक नियंत्रण रखता है वह अपनी इच्छा-शक्ति को उतनी ही बलवती बना लेता है। एडवर्ड कारपैन्टर का कथन है—“किसी भी विचार को पहले ही क्षण मार डालो तो फिर उससे जो तुम करना चाहते हो कर सकते हो।” जिस मनुष्य को आवेशों को रोकने की आदत पड़ जाती है उसे किसी प्रकार के बुरे विचार नहीं सताते।
मनुष्य का अभ्यास प्रायः पाशविक प्रवृत्तियों में रमण करने का हो गया है। जिस समय हम कोई समाजोपयोगी काम नहीं करते, पाशविक प्रवृत्तियों की संतुष्टि में लग जाते हैं, तब प्रवृत्तियों के उत्तेजित होने पर अनेक प्रकार के प्रबल बुरे विचार मन में आने लगते हैं। इसलिए सदैव किसी-न-किसी भलाई के काम में अपने को लगाये रखना बुरे विचारों पर नियंत्रण के लिये परम आवश्यक है। जब भी मन स्वच्छन्द या निकम्मा होता है वह स्वभावतः या तो किसी समय काम्य वस्तु की प्राप्ति की योजना बनाने लगता है अथवा वह किसी व्यक्ति के प्रति ईर्ष्या और प्रतिकार की बातें सोचने लगता है।
अवाँछनीय विचारों के नियंत्रण का बहुत सुन्दर उपाय बुद्ध भगवान ने बताया है। यह उपाय ‘उदान’ नामक बौद्ध ग्रंथ में पाया जाता है। यह उपाय यौगिक और मनोवैज्ञानिक है। अतः इस प्रसंग में उल्लेखनीय है।
बुद्ध भगवान एक बार अपने एक शिष्य के साथ ठहरे हुए थे। उस शिष्य के मन में इधर-उधर भ्रमण करने का विचार उठा। उसने भगवान बुद्ध से आज्ञा माँगी। बुद्ध भगवान ने पहले तो आज्ञा न दी, पर उसके बार-बार आग्रह करने पर दे दी। उसने आस-पास जाकर अनेक स्थान देखे। उन स्थानों में उसे एक बड़ा सुन्दर बगीचा दिखाई दिया। उस बगीचे को देख कर उसके मन में आया कि यहाँ बैठकर योगाभ्यास करूं। सो उसने बुद्ध भगवान से उसकी आज्ञा माँगी। विशेष आग्रह देखकर बुद्ध भगवान ने अनुमति दे दी। अब वह शिष्य उक्त स्थान पर योगाभ्यास करने लगा। पर ज्यों ही उसने कार्य आरम्भ किया, उसके मन में अनेक वितर्क उठने लगे।
अन्त में वह भिक्षु भगवान बुद्ध के पास आया और उसने कहा, “महाराज, मैंने ज्यों ही योगाभ्यास प्रारम्भ किया, मेरे मन में काम-वितर्क, व्यापाय-वितर्क और विहिंसा-वितर्क आने लगे। मैं इन वितर्कों को रोक नहीं सका। कृपा कर मुझे इनसे छूटने का उपाय बताइये। भगवान ने कहा कि जिस मनुष्य का मन वैराग्य में दृढ़ नहीं हो चुका है उसे अकेले रहना उचित नहीं है। उसे सदा संघ में रहना चाहिए। संघ में रहने से मनुष्य के विचार विकृत नहीं हो पाते। फिर प्रत्येक साधक निम्नलिखित चार धर्मों का सदा पालन करते रहना चाहिए—(1) अशुभ भावना का अभ्यास, (2) मैत्री भावना का अभ्यास, (3) ‘अनापान-सति’ का अभ्यास, (4) संसार की अनित्यता के विचार का अभ्यास।
मनुष्य का मन सदा राग और द्वेष के बीच घड़ी के पेंडुलम की भाँति इधर-से-उधर डोलता है। इसी कारण मनुष्य को साम्यावस्था प्राप्त नहीं होती। मन के सदा अस्थिर रहने से वह कोई भी काम लगन से नहीं कर पाता। राग मनुष्य के मन में ऐसे अनेक संस्कार पैदा कर देता है जिनसे मानसिक ग्रन्थियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। रागात्मक मनोवृत्ति की पूरक द्वेषात्मक मनोवृत्ति है। जब एक व्यक्ति के प्रति राग होता है तब उसके विरोधी से प्रति हमारे मन में द्वेष-भावना उत्पन्न हो जाती है। जो हमारे स्वार्थ के साधक होते हैं उनके प्रति हमारा प्रेम हो जाता है और जो हमारे स्वार्थ में बाधक होते हैं उनके प्रति द्वेष-भावना होती है।
राग की विनाशक अशुभ-भावना है और द्वेष की विनाशक मैत्री-भावना। प्रत्येक पुरुष को सुन्दर स्त्री के प्रति अनुराग होता है। यह अनुराग उसके अचेतन मन में बैठा रहता है। जब वह बाहरी मन से साधु भी बन जाता है तब भी वह अनुराग उसके मन से नहीं जाता है। सुन्दर रूपवती स्त्री के प्रति सभी पुरुषों की शुभ भावना होती है। पर रूप के दुर्गुण कामातुर पुरुष को दिखाई नहीं देते एवं रूप का बार-बार चिंतन करने से काम भावना और भी प्रबल हो जाती है। इस रागात्मक मनोवृत्ति के विनाश के लिये रूप के दुर्गुणों पर विचार करना आवश्यक है। शरीर की गंदगी पर विचार करने से उसके प्रति अनुराग चला जाता है। मुर्दे की कल्पना करके उस पर चिन्तन करने से शरीर के प्रति अनुराग नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार धन, मान आदि के दुर्गुणों पर नित्य विचार करने से इनके प्रति अनुराग नष्ट हो जाता है। यही अशुभ भावना है।
यहाँ यह बताना आवश्यक है कि राग और द्वेष किसी बात के सोचने मात्र से नष्ट नहीं हो जाते। इसके लिये प्रतिदिन निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता होती है। प्रतिदिन का निरन्तर अभ्यास आत्म-निर्देश का रूप धारण कर लेता है। जब तक हमारा कोई विचार चेतन मन के नीचे अचेतन मन को प्रभावित नहीं करता वह हमारे चरित्र का सुधार नहीं करता। विचार-मात्र से इच्छा-शक्ति दृढ़ नहीं होती, इच्छाशक्ति अभ्यास से दृढ़ होती है। कितने ही पंडित अनेक प्रकार का ज्ञान-उपदेश दूसरों को करते हैं, पर वे स्वयं अपने मन को नियंत्रण में नहीं रख पाते। वे स्वयं उन वासनाओं से मुक्त नहीं होते, जिनसे वे दूसरों को मुक्त करने की चेष्टा करते हैं। मनुष्य में सामर्थ्य बुद्धि नहीं, वरन् अभ्यास लाता है। अभ्यास से मनुष्य का स्वभाव ही परिवर्तित हो जाता है।
मैत्री-भावना क्रोध की विनाशक है। जिस प्रकार ‘अशुभ भावना’ से काम-वासना का निराकरण होता है इसी प्रकार मैत्री-भावना से क्रोध का निराकरण होता है। जिस व्यक्ति में अपने क्रोध को रोकने की जितनी अधिक योग्यता होती है, उसका मन उतना ही अधिक शान्त होता है और सामर्थ्य उतनी ही अधिक होती है। जो व्यक्ति सबके प्रति मैत्री भावना का अभ्यास करता है, वह दूसरों, से निर्भीक रहता है। उसकी मानसिक शक्ति व्यर्थ के विचारों में खर्च नहीं होती। अमैत्री-भावना का अभ्यास करने वाला व्यक्ति सदा भय के वातावरण में रहता है। वह सदा अनेक प्रकार के शत्रुओं की कल्पना किया करता है। और उनसे बचने के लिये अनेक प्रकार की योजनाएँ बनाता रहता है। इस प्रकार उसकी अधिकाँश मानसिक शक्ति कल्पित शत्रुओं से लड़ने में नष्ट हो जाती है फिर वह निर्बल-मन हो जाता है। यदि ऐसी अवस्था में उसके मन में कोई अशुभ विचार आ जाये तो वह उस विचार को अपने मन से नहीं निकाल सकता। अमैत्री भावना और कायरता एक दूसरे के पूरक हैं। मैत्री-भावना शान्ति और पौरुष की वर्द्धक है।
संसार की अनित्यता का अभ्यास अहंकार का विनाशक है। जिस व्यक्ति का अहंकार जितना अधिक होता है। उसके दुःख भी उतने ही अधिक होते हैं। अहंकार की वृद्धि होता है। वह जिस बात को सच मान बैठता है उसके प्रतिकूल किसी की कुछ भी सुनने को तैयार नहीं रहता और जो उसका विरोध करता है वह उसका घोर शत्रु हो जाता है।
अहंकार का आधार संसार के अनित्य पदार्थों से अपना एकत्व स्थापित करना है। कोई व्यक्ति अपने आप को धन में, कोई पद में, कोई मान और कीर्ति में खोये हुए है। इनकी अनित्यता पर विचार करने के मनुष्य अपने आपको समझने की चेष्टा करता है। वह फिर अपने शत्रुओं की संख्या घटा देता है। जिस व्यक्ति का अहंकार जितना अधिक होता है, उसके शत्रु भी उतने ही अधिक होते हैं। अपने अहंकार के कारण ही वह इन शत्रुओं को पैदा करता है और फिर वह इन शत्रुओं के विनाश की इच्छा करता रहता है। आगे चल कर ये विचार उसके आत्म-विनाश के विचारों के रूप धारण कर लेते हैं।
मनोविज्ञान का यह अटल सिद्धान्त है कि दूसरे के विनाश के विचार ही आत्म-विनाश के विचारों में परिणत हो जाते हैं। परघात और आत्मघात की भावनाएँ एक दूसरे की पूरक हैं। जब हमारे चेतन मन में एक प्रकार की भावनाएं प्रबल होती है तब हमारे अचेतन मन में दूसरे प्रकार की भावनाएं प्रबल हो जाती हैं। इस प्रकार दूसरों का विनाश करने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति अपना ही विनाश कर डालता है।