Magazine - Year 1955 - Version 2
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संयम और सदाचार
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काका कालेलकर
अपने जीवन को शुद्ध और समृद्ध बनाने की साधना जिन्होंने की है, वे अनुभव से कहते आये हैं कि ‘आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः’। इस सूत्र के दो अर्थ हो सकते हैं, क्योंकि सत्व के दो माने हैं—शरीर का संगठन और चारित्र्य। अगर आहार शुद्ध है, याने स्वच्छ है, ताजा है, परिपक्व है, सुपाच्य है, प्रमाणयुक्त है और उसके घटक परम्परानुकूल हैं तो उसके सेवन से शरीर के रक्त, मज्जा, शुक्र आदि सब घटक शुद्ध होते हैं। वात, पित्त, कफ आदि की साम्यावस्था रहती है और सप्तधातु परिपुष्ट होकर शरीर सुदृढ़, कार्यक्षम तथा सब तरह के आघात सहन करने के योग्य बनता है और इस आरोग्य का मन पर भी अच्छा असर होता है। ‘आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः’ का दूसरा और व्यापक अर्थ यह है कि आहार अगर प्रामाणिक है, हिंसाशून्य है, द्रोहशून्य है और यज्ञ, दान, तपका फर्ज अदा करने के बाद प्राप्त किया गया है तो उससे चारित्र्य शुद्धि को पूरी पूरी मदद मिलती है। चारित्र्य शुद्धि का आधार ही इस प्रकार की आहार शुद्धि पर है।
अगर यह बात सही है, आहार का चारित्र्य पर इतना असर है तो विहार का याने लैंगिक शुद्धि का चारित्र्य पर कितना हो सकता है, इसका अनुमान करना कठिन नहीं होना चाहिए।
काम विकार क्या है—
जिसे हम काम-विकार कहते हैं अथवा लैंगिक आकर्षण कहते हैं, वह केवल शारीरिक भावना नहीं है। मनुष्य के सारे के सारे पहलू उसमें उत्तेजित हो जाते हैं, और अपना अपना काम करते हैं। इसलिए जिसमें शरीर मन-हृदय की भावनाएँ और आत्मिक निष्ठा-सब का सहयोग अपरिहार्य है, ऐसी प्रवृत्ति का विचार एकाँगी दृष्टि से नहीं होना चाहिये। जीवन के सार्वभौम और सर्वोत्तम मूल्य से ही उसका विचार करना चाहिए। इस आचरण में शारीरिक प्रेरणा के वश होकर बाकी के सब तत्वों का अपमान किया जाता है, वह आचरण समाज द्रोह तो करता ही है लेकिन उससे भी अधिक अपने व्यक्तित्व का मथन द्रोह करता है।
लोग जिसे वैवाहिक प्रेम कहते हैं, उसके तीन पहलू हैं। एक भोग से सम्बन्ध रखता है, दूसरा प्रजा तन्तु से और तीसरा भावना की उत्कटता से। पहला प्रधानतया शारीरिक है, दूसरा मुख्यतः सामाजिक और व्यापक अर्थ में आध्यात्मिक। यह तीसरा तत्व सब से महत्व का सार्वभौम है और उसी का असर जब पहले दोनों के ऊपर पूरा पूरा पड़ता है, तभी वे दोनों उत्कट, तृप्तिदायक और पवित्र बनते हैं।
इन तीन तत्वों में से पहला तत्व बिल्कुल पार्थिव होने से उसकी स्वाभाविक मर्यादाएँ भी होती हैं, भोग से शरीर क्षीण होता है। अति सेवन से भोग शक्ति भी क्षीण होती है और भोग भी नीरस हो जाते हैं। भोग से संयम का प्रमाण जितना अधिक होगा उतनी ही अधिक उसकी उत्कटता होगी। भोग में संयम का तत्व आने से ही उससे आध्यात्मिकता आ सकती हैं। संयमपूर्ण भोग में ही निष्ठा और परस्पर आकर टिक सकते हैं और संयम और निष्ठा के बिना वैवाहिक जीवन का सामाजिक पहलू कृतार्थ हो ही नहीं सकता। केवल लाभ हानि की दृष्टि से देखा जाय तो वैवाहिक जीवन का परमोत्कर्ष संयम और अन्योन्यनिष्ठा में ही है। भोग-तत्व पार्थिव हैं और इसलिए परमित हैं। भावना तत्व हार्दिक और आत्मिक होने से उसके विकास की कोई मर्यादा ही नहीं है।
आजकल के लोग जब कभी लैंगिक नीति के स्वच्छन्द का पुरस्कार करते हैं, तब वे केवल भाग-प्रधान पार्थिव अंश को ही ध्यान में लेते हैं। जीवन की इतनी क्षुद्र कल्पना वे ले बैठे हैं कि थोड़े ही दिनों में उन्हें अनुभव हो जाता है कि ऐसी स्वतन्त्रता में किसी किस्म की सिद्धि नहीं है और न सच्ची तृप्ति। ऐसे लोगों ने अगर उच्च आदर्श ही छोड़ दिया तो फिर उनमें तारक असंतोष भी नहीं बच पाता। विवाह-सम्बन्ध में केवल भोग के सम्बन्ध का विचार करने वाले लोगों ने भी अपना अनुभव जाहिर किया है—
एतत्कामफल लोके यत् द्वयोः एकचित्तता।
अन्य चित्तकृते कामे शवयो इव संगमः॥
यह एकचित्तता यानी हृदय की एकता अथवा स्नेह ग्रन्थि अन्योन्य निष्ठा और अपत्य निष्ठा के बिना टिक ही नहीं सकती। बढ़ने की बात दूर ही रही।
सामाजिक जीवन की बुनियाद—
संयम और निष्ठा ही सामाजिक जीवन की सच्ची बुनियाद है। संयम से जो शक्ति पैदा होती है, वही चारित्र्य का आधार है। जो आदमी कहता है—मैं संयम नहीं कर सकता, यह चारित्र्य की छोटी-मोटी एक भी परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो सकेगा। इसलिये संयम ही चारित्र्य का मुख्य आधार है।
चारित्र्य का दूसरा आधार है निष्ठा। व्यक्ति के जीवन की कृतार्थता तभी हो सकती है, जब वह स्वतंत्रता-पूर्वक समष्टि में विलीन हो जाता है। व्यक्ति स्वातंत्र्य को सम्हालते हुए अगर समाज-परायणता सिद्ध करनी हो तो वह अन्योन्य निष्ठा के बिना हो नहीं सकती और अखिल समाज के प्रति एक-सी अनन्य निष्ठा तभी सिद्ध होती है, जब आदमी ब्रह्मचर्य का पालन करता है, अथवा कम-से-कम वैवाहिक जीवन में परस्पर दृढ़ निष्ठा से प्रारम्भ करता है। अन्योन्य निष्ठा जब आदर्श कोटि तक पहुँचती है तब वहीं से सच्ची समाज-सेवा शुरू होती है।
संयम और निष्ठा—
इस सब विवेचन का सार यह निकला कि व्यक्ति गत विकास के लिए, कौटुम्बिक समाधान के लिए, सामाजिक कल्याण के लिए और आध्यात्मिक प्रगति के लिए संयम और निष्ठा अत्यन्त आवश्यक हैं और इसलिए सामाजिक जीवन में लैंगिक सदाचार का इतना महत्व है।
अब इस सदाचार का आत्यान्तिक स्वरूप क्या है, कौन-सा तात्विक है और कौन-सा साँकेतिक यह विचार समय-समय पर करना पड़ता है। उसमें चन्द बातों में परिवर्तन भी आवश्यक है, लेकिन इतना समझ ही लेना चाहिये कि लैंगिक सदाचार के बिना समाज-सेवा निष्ठा के साथ हो नहीं सकती। जिनका विकास एकाँगी हुआ है अथवा जिनके जीवन में विकृति आ गयी है, उनसे भी कुछ न कुछ सेवा ली जा सकती है, लेकिन वे समाज के विश्वासपात्र सदस्य नहीं बन सकते। समाज निर्भयता से उसकी सेवा नहीं ले सकता और ऐसे आदमी का विकास अशक्यप्राय होता है। उसकी प्रतिष्ठा नाममात्र की रहती है।
विषय गम्भीर है। उसके पहलू भी असंख्य हैं और इनका शुद्ध विचार करने की पात्रता आ सके अपूर्ण समाज में पूरी पूरी है भी नहीं, तो भी इस विषय को हम छोड़ भी नहीं सकते। लोग-पोती से काम नहीं चलता। केवल रूढ़ि को सम्हाल कर हम समाज को सुरक्षित नहीं रख सकते और अनेक रूढ़ियों को तुलनात्मक अध्ययन किये बिना और उसका सार्वभौम समन्वय किये बिना हम सामाजिक प्रगति भी नहीं कर सकते। इसलिए समय-समय पर मनुष्य-जाति को इस सवाल की चर्चा करनी ही पड़ती है।