Magazine - Year 1955 - Version 2
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Language: HINDI
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उद्योगी ही सफल होते हैं।
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(श्री लक्ष्मी प्रसाद मिस्त्री ‘रमा’ हटा)
“कर्म प्रधान विश्व करि राखा।”
जो जस करिय सो तस फल चाखा”।
कर्म क्षेत्र में आकर हमारा पहला कर्त्तव्य यही ठीक करना है कि क्या कर्त्तव्य है और क्या अकर्त्तव्य है। कर्त्तव्य का निश्चय बहुत जगहों पर सहज है, बहुत जगहों पर सहज नहीं है और कहीं कहीं पर तो बहुत कठिन है। अगर हर एक आदमी को हर एक बात में अपने कार्य की कर्त्तव्यता का निश्चय करना होता तो जीवन−निर्वाह अथवा संसार यात्रा बहुत ही जटिल और दुरूह हो जाती।
विद्वानों ने कर्त्तव्य−अकर्त्तव्य के बारे में खूब सोच−विचार कर धर्म शास्त्र और नीति शास्त्र लिखकर सर्व साधारण के लिये राह बहुत साफ और सहज कर दी हैं, उन शास्त्रों की बातों को स्मरण में रखने से और उन पर महापुरुषों के दिखाये हुए मार्गों पर चलने से प्रायः लोग अपने कर्त्तव्य का पालन करने में समर्थ हो सकते हैं, कर्म−क्षेत्र इतना विशाल और विचित्र है कि वहाँ केवल पथ−प्रदर्शक के बताने पर ही निर्भर रहने से पथिक का काम नहीं चलता, अतएव पथिक में खुद भी अपनी राह पहचान लेने की क्षमता का रहना आवश्यक है। प्रयोजन के अनुसार किसी बात के अनुकूल प्रतिकूल युक्ति और तर्क विचार कर अपने निज के सिद्धान्त पर पहुँचने के योग्य बनना हमारा कर्त्तव्य है।
किसी भी कार्य की सिद्धि के लिये पाँच साधन होते हैं और वे पाँचों ही जब उस कर्म के अनुकूल होते हैं तभी वह कार्य सिद्ध होता है, उनमें से कोई भी एक साधन जितना ही त्रुटिपूर्ण होगा उस काम की सिद्धि उतनी ही अधूरी रहेगी। शरीर निरोग और बलवान हो, एवं काम करने का स्थान अनुकूल हो, उस काम के लिये अन्तः करण में प्रेरणा हो, बुद्धि में उसके विषय में यथार्थ निर्णय करने की योग्यता हो, मन विक्षिप्त न हो, इन्द्रियों में कोई दोष न हो, उस कर्म के उपयुक्त हों, कर्म करने की चेष्टा में उचित हों तथा क्रियायें सब ठीक हों तथा सूक्ष्म दैवी−शक्ति यों अनुकूल हों अर्थात् सब के साथ अपनी एकता का भाव हो तभी कर्मों में सफलता प्राप्त होती है, इन साधनों में कोई त्रुटि बनी रहे तो कार्य में सफलता नहीं मिलती। मनुष्य दृढ़ता पूर्वक अच्छे काम करने से ही अपना कल्याण कर सकता है और वे ही लोग सब से अधिक सफलता प्राप्त करते हैं। जो दृढ़ बने रहते हैं और सच्चे हृदय से काम करने में लगे रहते हैं, दुर्बल चित्त मनुष्य बाध्य होकर इन सारे अनंत और असीम व्यापारों के द्वारा पीड़ित होकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं और दुर्बलता के कारण अपना कर्त्तव्य स्थिर नहीं कर पाते−भगवान श्री कृष्ण ने इस कर्त्तव्य−कर्म के अनुष्ठान पर बहुत ही अधिक जोर दिया है और उन्होंने इसे अपना सबसे अधिक निश्चित तथा निर्दोष सिद्धाँत बतलाया है। अर्जुन को इस बात की चेतावनी दी है, किसी नियत कर्म का संन्यास के नाम पर त्याग नहीं किया जा सकता, तृष्णा−लोभ या काया क्लेश के बहाने कर्त्तव्य से विमुख होना मोक्षार्थी के लिये अनुचित तथा निंदनीय है। जो अनासक्ति , निःस्वार्थभाव एवं कर्त्तव्य बुद्धि से अपने कर्त्तव्य का अनुष्ठान करता है वह आदर्श मनुष्य है, ‘कर्म’ ब्रह्म−स्वरूप सूर्य से उत्पन्न हुआ है, क्योंकि उन्होंने ही जगत की सृष्टि करके आदान−प्रदान रूप कर्म की सृष्टि की है, ब्रह्म नित्य रूप से, कर्म सूत्र में अव्यवस्थित रहता है। इसीलिये ऐ मनुष्य तुझे उचित है कि तू न भूतकाल के लिये पश्चाताप कर और न भविष्य पर ही अधिक विश्वास रख, केवल वर्तमान का सदुपयोग अपना लक्ष्य बना।
आलस्य करने से आवश्यक वस्तुयें प्राप्त नहीं होतीं, जिससे मनुष्य को बहुत दुःख होता है, परन्तु कर्त्तव्य कर्म करने से आनन्द ही आनन्द मिलता है। उद्योगी को किसी बात की कमी नहीं रहती क्योंकि उन्नति और विजय उसी के पीछे−पीछे चलते हैं, जो कभी खाली नहीं बैठता और आलस्य को शत्रु समझता है वही धनवान है, वही अधिकार−सम्पन्न है, वही आदरणीय है। उद्योगी मनुष्य प्रातःकाल उठता है और अधिक रात गये सोता है, वह अपने मन और शरीर को मनन और व्यायाम द्वारा सशक्त बनाए रहता है, परन्तु आलसी मनुष्य संसार की कौन बतावें, स्वयं अपने ही लिये भार−स्वरूप बन जाता है। उसका समय काटे नहीं कटता, वह दर−दर भटकता फिरता है, उसे सूझता ही नहीं कि मुझे क्या करना चाहिये।
प्रसिद्ध विद्वान ‘वालटेर’ का मत है कि प्रतिभाशाली मनुष्यों और साधारण मनुष्यों में बहुत ही थोड़ा अन्तर होता है। “वैकेरिया’ कहा करता था कि सभी मनुष्य वक्त और ‘कवि’ हो सकते हैं। ‘रेनोल्डस’ का कथन है कि प्रत्येक मनुष्य मूर्तिकार और चित्रकार हो सकता है, प्रसिद्ध दार्शनिक ‘लीक’ ‘हेलवीटिअस’ और ‘डिडीरोट’ का मत है कि सब मनुष्यों में प्रतिभाशाली बनने की एक−सी शक्ति मौजूद है, और यदि कुछ मनुष्य अपनी मानसिक शक्ति यों को काम में लाकर किसी कार्य को कर सकते हैं तो कोई कारण नहीं कि और लोग भी वैसा ही सुयोग ओर साधन पाकर उस कार्य को न कर सकें, यद्यपि यह सच है कि परिश्रम से अद्भुत कार्य हुए हैं, और बड़े प्रतिभाशाली मनुष्यों ने अटूट परिश्रम किया है, तो भी यह स्पष्ट है कि मौलिक मानसिक शक्ति और उत्तम भावों के बिना चाहे वह कितना ही परिश्रम कितने ही उचित रीति से क्यों न किया जाय, उससे तुलसीदास, बराहमिहर वाग्भट्ट अथवा तानसेन का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता, संसार के महापुरुषों ने बहुधा यह कहा है कि हमने प्रतिभा से नहीं, किन्तु निरंतर परिश्रम करने से सफलता प्राप्त की है। मेहनत करने की जरूरत को व्यक्ति यों की उन्नति और जातियों की सभ्यता की असली जड़ समझना चाहिए। यदि किसी मनुष्य की जरूरतें बिना हाथ पैर हिलाए ही पूरी हो जाया करें और उसको किसी बात की प्रतीक्षा−आकाँक्षा अथवा उद्योग करने की जरूरत न रहे तो उस मनुष्य के लिए इससे बढ़कर दूसरा पाप क्या हो सकता?
जब तक मनुष्य जीवित रहता है प्रकृति और मनुष्यों की शक्ति यों से उसका संघर्ष जारी रहता है जब तक वह उस संघर्ष में विजयी होता रहता है, तब तक वह जीवित रहता है परन्तु जिस समय वह उस संघर्ष में खड़ा होने योग्य नहीं रहता या हार जाता है तब वह मर जाता है। यह बतलाने की आवश्यकता नहीं कि उसमें जीत किसकी होती है, इसका आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि जो अधिक बलवान और कर्तव्यशील है वह विजयी होगा और जो निर्बल तथा कर्तव्यहीन है वह हार जायगा। संग्राम भूमि में उतरे हुए सब लड़ाकों में से अंत में वही मैदान का मालिक रहेगा जो सब में बलवान और योग्यतम होगा। जब कोई संक्रामक बीमारी फैलती है तब भी यही देखने में आता है। जिनके शरीर में रोग का सामना करने की शक्ति है वे रोग से बचे रहते हैं या उसके आक्रमण से बच निकलते हैं परन्तु निर्बल और शक्ति हीन मनुष्य रोग के शिकार हुए बिना नहीं रहते शारीरिक रोगों की तरह आर्थिक रोगों के शिकार भी वे ही लोग होते हैं जो कमजोर और कर्तव्यहीन हैं।
लोग समझते हैं कि बड़े आदमी बड़ी बड़ी बातों पर ही ध्यान देते हैं, परन्तु असली बात यह है कि वे अत्यन्त साधारण और प्रतिदिन के व्यवहार में आने वाली चीजों की भी छान बीन किया करते हैं। उनमें बड़ापन यही है कि वे बुद्धिमानी के साथ हर बात का समझ लेते हैं। इसलिए हर काम करने से पहले यह निश्चय करना चाहिये कि वह काम उचित है या नहीं। यदि वह करने योग्य हो तो उसमें दृढ़ता के साथ लग जावे। फिर कैसा ही संकट आवे परन्तु अपने निश्चित ध्येय को कभी न छोड़े।
एक अंग्रेज विद्वान ने लिखा है, कि धनवान उसे ही कहना चाहिये जो उद्योगी है। उद्योगी मनुष्य प्रत्येक पल का अपना समझता है। समय प्रकृति का खजाना है, इस खजाने का कर्मशील ही अधिकार में रखते हैं, काल के हाथ में काँच की रेत से भरी हुई शीशी है, उद्योगी वीर उसमें के एक−एक क्षण का गगन का चमकता हुआ ‘तारा’ या अमूल्य ‘हीरा’ समझकर लगातार परिश्रम पूर्वक उसका संग्रह करता रहता है—